भय से ही चलते रहोगे, या कभी प्रेम भी उठेगा? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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भय से ही चलते रहोगे, या कभी प्रेम भी उठेगा? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। सात महीने पहले ही अध्यात्म से परिचय हुआ। उसके पहले जीवन में कुछ भी नहीं था। अध्यात्म के जीवन में आने का कारण है कि उसके छः महीने पूर्व तक मौत की चिंता से ग्रस्त रहता था, पैनिक अटैक्स आ जाते थे। तो फिर बहुत इलाज हुए, फिर उसके बाद में अध्यात्म से परिचय हुआ।

तो तब से लेकर अब तक वो पैनिक अटैक्स तो बंद हो गए, लेकिन जो भय है वो अभी बना हुआ है थोड़ा। और अभी तो वो भय ही ड्राइविंग फोर्स बना हुआ है अध्यात्म के सफर का।

तो मेरा ये प्रश्न था कि आप ही से मैं ये सीखा कि जो भी दुख आता है जीवन में, वो गिफ्ट होता है गाॅड की तरफ़ से। तो ये जो दुख मिला है, इसका मुक्ति के मार्ग पर कैसे उपयोग हो? और आगे चलकर क्या प्रेम और भक्ति जागृत होगी अंदर? अभी तो सिर्फ़ वो भय ही है जो मुझे चला रहा है अध्यात्म के मार्ग पर। लेकिन वो जो चाहत है अंदर से कि भक्ति भी जागे और प्रेम भी जागे, तो क्या ये आगे चलकर होगा? अभी एक महीना हो गया कि अवलोकन भी चालू है विचारों का, भावनाओं का, कर्मों का। तो क्या ये करते-करते आगे चलकर प्रेम और भक्ति भी जाग सकती है?

आचार्य प्रशांत: प्रेम, भक्ति क्यों चाहिए?

प्र: मुक्ति के लिए, अंहकार से।

आचार्य: मुक्ति क्यों चाहिए?

प्र: भय से छुटकारा तो मिल ही जाएगा।

आचार्य: भय से छुटकारा क्यों चाहिए?

प्र: भय के साथ जीना थोड़ा कठिन होता है। लेकिन दूसरी चीज़ ये भी ध्यान में है कि जहाँ से मैं जॉब के लिए जाता हूँ तो मेरी ट्रेन एक शमशान से होकर जाती है। तो वहाँ पर जलती हुई जो चिताएँ रहती हैं, वो मैं ज़रूर देखता हूँ। वो इसलिए देखता हूँ कि वो भय वैसे ही बना रहे ताकि मैं आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता रहूँ।

आचार्य: भय किस बात का है?

प्र: भय डेथ एंग्जाइटी का ही है। जैसे बने रहने का भाव। मरना नहीं चाहता।

आचार्य: तो भय तुम्हें तब आता है न, जब तुम ज़िंदा हो?

प्र: हाँ, जी।

आचार्य: तो जब तुम ज़िंदा हो, उस वक़्त वो भय क्या तकलीफ़ दे देता है? अभी मरे नहीं, मरने का ख़्याल है, पर मरे तो नहीं हो। अभी ज़िंदा हो, मृत्यु का विचार आता है, डर जाते हो। वो जो मृत्यु का विचार आता है, वो क्या कर देता है तुम्हारे साथ?

प्र: अंदर से बहुत कभी-कभी डर की भावना आती है।

आचार्य: हाँ, वो भावना जो आती है, वो भावना तुम्हें दुख क्यों देती है? तो तुम्हें विचार आया कि तुम मर गए, यही आता है विचार?

प्र: हाँ, यही कि जीवन से नियंत्रण छूट जाएगा।

आचार्य: तो जीवन में अभी आनंद है?

प्र: नहीं।

आचार्य: तो दुख है अभी जीवन में?

प्र: जी

आचार्य: तो दुख से नियंत्रण छूट जाएगा तो उसमें ये मातम क्या मना रहे हो? और अगर आनंद है अभी जीवन में, तो ये कैसा आनंद है जिसमें तुम्हें बीच-बीच में दुख का विचार आ जाता है, मृत्यु का विचार आ जाता है? जीवन में अभी दुख ही है न, तो अगर मर गए तो क्या होगा?

प्र: दुख ख़त्म हो जाएँगे।

आचार्य: तो ताली बजाओ (श्रोतागण हँसते हैं)।

प्र: लेकिन अभी तो ज़िंदा हैं।

आचार्य: तुम्हारी समस्या ये थोड़े ही है कि तुम ज़िंदा हो। तुम्हारी समस्या तो कुछ और है न! तुम तो ये कह रहे हो कि 'ये ख़्याल आता है कि नियंत्रण छूट जाएगा।' मैं पूछ रहा हूँ, ‘किस चीज़ से नियंत्रण?’ जो तुम्हारे पास होता है, उसी पर तो तुम्हारा बस और नियंत्रण होता है न, उसी पर कंट्रोल की बात करते हो। अभी तुम्हारे पास है क्या?

प्र: भय है।

आचार्य: तो समस्या क्या है अगर भय छूट जाएगा तो?

प्र: समस्या तो, लेकिन भय तो आता है।

आचार्य: नहीं, वो जो आता है, मैं उससे थोड़ा बातचीत करना चाहता हूँ। रात में चोर घूमते हैं, उनको देखकर के एक भिखारी बड़ा परेशान था ‘कहीं लूट न लें ये मुझे!’ तुम्हारे पास है क्या जो लूटेगा, किस चीज़ पर तुम्हारा वश है? तुमने अभी पाया क्या है? मौत से तो ऐसे घबरा रहे हो जैसे वो पता नहीं कौन-सी संपदा छीन ले जाएगी! तुम्हारे पास है क्या बेटा? कुछ अर्जित किया है?

ये तो बड़ी अजीब बात है, जिन्होंने कुछ कमा लिया होता है जीवन में, अक़्सर देखा गया है कि वो मरने से कम, कम और कम घबराते हैं। जबकि उन्होंने कमा लिया, जन्म सार्थक कर लिया। और जिन्होंने जितना कम कमाया होता है, वो उतना घबराते हैं कि 'अरे, लुट जाएँगे!'

हाथी को ख़ून चढ़ना था, चींटी बदहवास होकर भागी। ‘कोई मुझसे न माँग ले!' तेरे पास है क्या, जो तू देगी!

मौत तो आनी है न! कह रहे हो, रोज़ चिताएँ जलती देखते हो। तो मौत समस्या नहीं है। जो मर गया उसको कभी देखा है समस्या में? कभी देखा है कि एंबुलेंस शमशान की ओर जा रही है, कि एक मुर्दा बड़ी चिंता में है, उसे दिल का दौरा पड़ा है अभी? ऐसा होता है क्या कि कभी कोई मुर्दा किसी साइकैट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) के पास गया हो? ऐसा तो नहीं होता।

समस्या मुर्दों को तो नहीं है, समस्या अभी जीवन में है न! इस जीवन को ठीक कर लो। मौत की क्या बात कर रहे हो, वो तो एक अनिवार्य तथ्य है।

अभी यहाँ बैठे हो, एक दिन बैठे-बैठे ढलक जाओगे। दीया जल रहा है, कितनी देर जलेगा? प्रश्न ये है ही नहीं कि बुझने के बाद इसका क्या होगा, प्रश्न ये भी नहीं है कि ये बुझेगा या नहीं बुझेगा? ये सब तय बातें हैं। प्रश्न ये है कि जब तक जल रहा है तब तक कैसा जल रहा है? क्योंकि ये सारी समस्याएँ किसको हैं? उनको जो जीवित हैं। तो हमें बात किसकी करनी है, मृत्यु की या जीवन की?

श्रोतागण: जीवन की।

आचार्य: बोलो, किसकी बात करनी है?

प्र: जीवन की।

आचार्य: तो ये कहो न, कि जीवन खाली-खाली है, सूना है। ये क्यों कहते हो कि 'मेरी समस्या मौत है'? साफ़ कहो कि ‘मेरी समस्या मेरी ज़िंदगी है।’ मौत नहीं समस्या है। ये जो जीवन है, जिसमें कुछ कमाया नहीं। जो पाने लायक़ था, पाया नहीं, वो समस्या है।

मौत की इतनी बात जानते हो क्यों कर रहे हो, ताकि असली समस्या की उपेक्षा कर सको। असली समस्या सामने खड़ी है, हम बात करते हैं दूर की। ये हमारी ही साज़िश है, अपने ही ख़िलाफ़। ताकि जो सामने की चीज़ है उसकी बात न करनी पड़े, उसके विषय में कोई कर्म न करना पड़े।

हम मेहनत से बचना चाहते हैं, हम हिम्मत से बचना चाहते हैं। तो हम कह देते हैं, 'हम तो अपने अगले अट्ठारहवें जन्म को लेकर परेशान हैं। मुझे लग रहा है कि मैं अपने अट्ठारहवें जन्म में चूहा बनने वाला हूँ। और चूहा मुझे पसंद नहीं है, इस वजह से मैं परेशान हूँ।’ तुम सही में अट्ठारहवें जन्म को लेकर परेशान हो, या वाकई तुम्हारी परेशानी वो दिनचर्या है, जिसमें तुम जी रहे हो, सुबह से शाम तक जो करते हो, बोलो?

किसी की कोई और परेशानी नहीं होती। थोड़ा ज़मीन पर आकर देखिए, सोचिए। सबकी परेशानी होती है—कहाँ रह रहे हो, किससे मिल रहे हो, किसकी बातें सुननी पड़ रही हैं, किसका मन पर दबाव बना हुआ है, किस माध्यम से आजीविका चलाते हो, किसकी रोटी खाते हो, कहाँ समय बिताते हो? इसके अलावा कोई समस्या नहीं होती।

दुनिया का आपको जो सबसे समस्याग्रस्त मनुष्य मिले, उससे भी आप बात कर लीजिएगा, उसकी समस्या की गहराई में जाइएगा, समस्या आप यही पाएँगे। तुम्हारी दिनचर्या के अलावा तुम्हारी और कोई वास्तविक समस्या होती ही नहीं है। ये जो बड़ी-बड़ी हम काल्पनिक समस्याएँ खड़ी करते हैं, वो इसलिए हैं ताकि वास्तविक समस्याओं की बात न करनी पड़े।

सुबह उठते ही किसका चेहरा दिख रहा है, किसकी आवाज़ सुनाई पड़ रही हैं, दोस्त-यार कैसे हैं, रिश्ते कैसे हैं, मोबाइल फ़ोन में क्या-क्या चीजें भर रखी हैं — ये समस्या है। दिमाग़ में विचार किसका घूम रहा है, वो समस्या है।

ये सब थोड़े ही समस्या है, ये-वो।

प्र: जी, तो अगर मैं आत्म-अवलोकन करता रहूँ, तो क्या ऐसी संभावना है कि प्रेम और भक्ति जग जाए अंदर? और सही तरीक़े से, और कार्य हो इसमें।

आचार्य: जिसके प्रति प्रेम होता है, जिसकी भक्ति की तुम बात कर रहे हो, आमतौर पर हम उससे इतनी दूर आ गए होते हैं कि हमें उसके प्रति आकर्षण भी अनुभव नहीं हो पाएगा। तुममें प्रेम और भक्ति जगे, इसके लिए भी ये ज़रूरी है कि तुम पहले किसी के नज़दीक जाओ जो उसके नज़दीक हो।

ऐसे समझ लो, सब जवान लड़के प्रेम के लिए तो तैयार ही रहते हैं। प्रेम के लिए तो बिलकुल तैयार रहते हैं। मैं उनकी उम्र के प्रेम की बात कर रहा हूँ। सब तैयार बैठे हैं अट्ठारह-बीस साल वाले कि बस प्रेम अब हो ही जाए, हो ही जाए, हो ही जाए। पूरे तरह तैयार हैं। पर जिसको तुम प्रेम कहते हो वो उठता कब है? वो उठता तो तभी है न, जब कोई दिख जाती है! निकटता ज़रूरी है, नहीं तो प्रेम की तुम्हारी उम्मीद, उम्मीद ही रह जाएगी।

कोई तुम्हें ऐसा चाहिए, जिसको देखो तो तुम्हारे तार झनझनाने लग जाएँ, बैठे-बिठाए प्रेम और भक्ति नहीं जगेगा। आत्म-अवलोकन करोगे तो अवलोकन कर किसका रहे हो? अपना ही। अब अपना अवलोकन करने से परमात्मा से प्रेम कैसे जग जाएगा? दिन-रात तुम अपनी शक़्ल देख रहे हो आईने में, दिन-रात अपनी शक़्ल देखने से उर्वशी अप्सरा से प्रेम कैसे हो जाएगा तुमको, बताओ ज़रा? या ऐसा होगा कि साधना ही यही है कि अपनेआप को आधा घंटा देखते हैं, और प्रेम किससे हो गया अपनेआप को देखते-देखते? उर्वशी अप्सरा से। ऐसा हो सकता है क्या?

अपनेआप को तो चलो देखना ज़रूरी है, अच्छी बात है। उसको देखना भी तो ज़रूरी है न, जिसके प्रति प्रेम, जिसके प्रति भक्ति की बात कर रहे हो। जीवन में अगर कुछ ऐसा नहीं है जिसकी ओर देखकर 'उसको' (ऊपर की ओर इंगित करते हुए) देख सको, तो आत्म अवलोकन छटपटाहट बन जाएगा। अपनेआप को देखोगे और भीतर विद्रोह उठ आएगा — ‘मैं कैसा हूँ, मैं कैसा हूँ, मैं ऐसा क्यों हूँ, ऐसा क्यों हूँ!’

तुम्हारी गाड़ी ऐसी हो जाएगी जैसे तीन हज़ार आरपीएम पर न्यूट्रल में खड़ी है। आत्म-अवलोकन हो रहा है बहुत तेज़ी से। तैयारी पूरी है, इंजन घूम रहा है तीन हज़ार आरपीएम पर और गीयर लगा हुआ है न्यूट्रल, बस इतना ही हो रहा है कि गाड़ी गरम हो रही है, जा कहीं नहीं रही! ये आत्म-अवलोकन वालों का होता है। ये बड़े लोग होते हैं, इनसे पूछो कि क्या कर रहे हो? ‘ध्यान कर रहे हैं।’ करो।

अगर ये गर्म नहीं हो रहे तो इसका मतलब ये ध्यान भी नहीं कर रहे। ये ध्यान कर रहे हैं इसका एक ही प्रमाण होगा, ये बिलकुल गरम हो जाएँगे, उबलने लगेंगे। सिर्फ़ ख़ुद को देखने से नहीं होता, ख़ुद को देखना आवश्यक है, पर पर्याप्त नहीं। ख़ुद को देखना, अपने जीवन को देखना आवश्यक है, पर पर्याप्त नहीं। किसी ऐसे को भी देखना होगा जो तुम्हारे जैसा नहीं है।

ख़ुद को देखो, ये आत्म-अवलोकन है; किसी ऐसे को देखो जो बिलकुल तुम जैसा नहीं है, ये प्रेम और भक्ति है। बहुत दूर का होना चाहिए।

अब कैसे देखोगे उसको? कोई कहता है, ‘हम जंगल, पहाड़ चले जाते हैं तो दिख जाता है’। कोई कहता है कि ‘इतने ग्रंथ हैं, हम ग्रंथों को पढ़ते हैं तो दिख जाता है’। किसी को किसी की संगत में दिख जाता है। पर ये पक्का है कि अपने ही चेहरे में किसी को नहीं दिखता, न दिख सकता है।

अपने से पार का भी कुछ देखो, जितना समय स्वयं को देखने में दो, उतना ही समय अपने से बिलकुल किसी दूर वाले को देखने वाले को देखने में दो। अपनी भी बात करो, उसकी भी बात करो। धीरे-धीरे तुम्हारी बात मिटती जाएगी, उसकी बात छाती जाएगी।

प्र: जी सर। फरवरी से आपको सुन रहा हूँ। तो खाते-नहाते आपको सुनते रहता हूँ, हर समय आपको सुनता हूँ। सोते वक़्त, उठते वक़्त, कहीं जाते वक़्त, आते वक़्त, कभी मीटिंग में। और पिछले एक महीने से तो गुरुदेव भी आते हैं सपने में।

आचार्य: प्रेम का एक सिद्धांत बताए देता हूँ—'बढ़ेगा नहीं तो मिटेगा'। एक तल नहीं रह सकता, ठहरा नहीं रह सकता। या तो बढ़ेगा, या मिटेगा। जैसे, कोई व्यक्ति दौड़ते हुए चढ़ाई चढ़ रहा हो पहाड़ की। जब तक वो दौड़ता हुआ चढ़ रहा है, चढ़ता जाएगा। वो कहे कि ‘मैं थम जाऊँगा,' वो थम नहीं सकता। थमेगा तो नीचे आएगा। खड़ी चढ़ाई है बिलकुल, इस पर या तो तुम दौड़ते हुए चढ़ जाओगे, और अगर कहो कि ‘नहीं, मैं बीच में कहीं पर रुक जाऊँ’। तो नहीं, रुक नहीं सकते।

तो प्रेम, समझ लो कि एक बार अगर आरंभ ले ले, तो उसके बाद उसे निरंतर बढ़ना ही होगा। जो प्रेम ठहर गया, अटक गया, एक बिंदु पर आकर के जम गया, एक सीमा पर झुक गया, वो उतना भी नहीं बचेगा जितना पहले था। वो नष्ट ही हो जाएगा।

कभी ये न कहना कि ‘देखो, हम तुमसे आज भी उतना ही प्यार करते हैं, जितना पाँच साल पहले करते थे।’ फिर करते ही नहीं। अगर पाँच वर्ष प्रेम रहा है, तो प्रेम तो आकर्षण है, तुम्हें तो और निकट आना चाहिए था। अगर पाँच साल में तुम और निकट नहीं आए तो इसका मतलब प्रेम है ही नहीं। प्रेम का मतलब होता है—खिंचाव, दो का एक हो जाना, योग, मिल जाना।

प्रेम है यदि, तो आज भी उतनी ही दूरियाँ कैसे हैं जितनी पाँच साल पहले थीं? वो इसलिए है क्योंकि हम ज़रा हिसाबी-किताबी लोग हैं, शालीन लोग हैं। हम सीमाओं पर, मर्यादाओं पर यक़ीन करते हैं। हम कहते हैं, ‘निकट भी जाना है तो बस इतना ही निकट जाना है, एक हद नहीं पार करनी है।’ प्रेम का अर्थ है—एक के बाद एक सब हदें, सरहदें पार करते जाना। याद रहेगा ये? बढ़ेगा नहीं तो? मिटेगा।

अब अगर आप ये कह रहे हो कि मैं वीडियो देखता जाता हूँ, देखता जाता हूँ, देखता जाता हूँ, तो तुम एक सीमा पर आकर रुक गए। तुमने प्रगति की कुछ देर तक। क्या प्रगति की? कि पहले वीडियो नहीं देखते थे, अब वीडियो देखने लगे। पर वो वीडियो असफल हो गया, अगर वो तुम्हें वीडियो से आगे नहीं ले जा पाया।

वीडियो का प्रयोजन ये थोड़े ही है कि एक वीडियो देखो, फिर अगला देखो, फिर अगला देखो। प्लेलिस्ट बना ली, उसको देखो। पहले एक वीडियो देखते थे, अब छह वीडियो देखो। न! वीडियो का प्रयोजन ये कि एक दिन वीडियो लाँघ जाओ, और निकट जाओ। जो वीडियो ही देखता जा रहा है, उसकी सज़ा ये होगी कि कुछ समय बाद वो पाएगा कि वीडियो भी नहीं देख पा रहा है।

कितनी वीडियो देखोगे! किस ग्रंथ, किस गुरु ने कह दिया कि तुम्हारा जन्म वीडियो देखने के लिए हुआ है (श्रोतागण हँसते हैं)! लोग आते हैं, कहते हैं, ’मैंने आपकी डेढ़ हज़ार वीडियो देखे हैं।' मैं कहता हूँ, 'अच्छा, थोड़ी देर बाद बात करते हैं।’ कोई डेढ़ हज़ार वीडियो देख कैसे गया!

बात तो तब है जब पाँच वीडियो देखो और कहो कि ‘बात समझ में आ गयी, अब आगे बढ़ रहे हैं। वीडियो बहुत हो गया, अब वीडियोकार के पास जा रहे हैं। वीडियो बहुत हो गया, अब उसके पास जा रहे हैं जिसका वीडियो है।' अन्यथा वीडियो तो एक बहाना बन गया न, मुझ ही से दूर रहने का। मेरा ही वीडियो देख रहे हो, मुझ ही से दूर हो। और क्या कह रहे हो, ‘नहीं, हमारा काम तो वीडियो से ही चल जाता है।’

फिर कह रहा हूँ, 'प्रेम या तो बढ़ेगा, नहीं तो मिटेगा। दूरी या तो घटेगी, नहीं तो बढ़ेगी।' ये नहीं हो सकता कि दूरी यथावत रह जाए। ये नहीं हो सकता कि तुम दस मीटर दूर हो तो दस ही मीटर दूर रह जाओगे। या तो दूरी दस से नौ, आठ, सात—कम होती जाएगी। नहीं तो फिर दस से बीस, चालीस, सौ—बढ़ती जाएगी। दस पर रुक नहीं सकते।

अब प्रेम, भक्ति कुछ समझ में आ रहा है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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