भावुकता का क्या करूँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

4 min
307 reads
भावुकता का क्या करूँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: सर मैं सॉफ्ट-हार्टेड हूँ। मैं बहुत जल्दी भावुक जो जाती हूँ। क्या करूँ?

वक्ता: यह ध्यान से समझना होगा कि जो भी भाव उठते हैं उनके पीछे एक विचार होता है। बिन विचार के भाव नही आ सकता। हम लोग भाव को बहुत ज़्यादा महत्व दे देते हैं। हम सोचते हैं कि उसमें कोई बड़ी बात है। कोई बहुत पूज्यनीय चीज़ है। कोई भावुक हो जाता है तो हमें लगता है कि कोई विशेष बात हो गयी। किसी के आँसू देख लेते हैं तो हम बेचैन हो जाते हैं। हमें लगता है आँसू सच्चाई का सबूत हैं। दो-तीन बातें हैं, इनको ध्यान से देखना और फिर उनको आपस में जोड़ना।

१. हर विचार बाहर से आता है।२. भाव विचार से उठता है।

अब इन दोनों को मिला दो तो क्या बनेगा?

सभी श्रोतागण: भाव, बाहर से आ रहा है।

वक्ता: भाव कैसा भी हो सकता है। गुस्से का, रोने का! तो अबसे जब भी भावुक हो जाओ, किसी भी बारे में, तो अपने आप को यह बोलना, ‘बाहरी है यह बात’। तुम्हारी अपनी नहीं है। किसी और की है। अपना-अपना मन होता है, अपना इतिहास होता है, अपनी-अपनी परवरिश होती है। एक आदमी और दूसरे आदमी का मन एक जैसा नहीं होता। लड़के और लड़की का मन एक जैसा नहीं होता। लेकिन एक बात हमेशा सच होती है कि मन पर प्रभाव बाहरी ही होते हैं। और भाव भी इसलिए बाहरी भी हो गया। अब से जब भी भावुक हो, तो अपने आप से बात करना। अपने आप से थोड़ी सी दूरी बनाना और बात करना। कहना, ‘तू फिर भावुक हो रहा है और भावुक होने का मतलब है कि कोई और तुझ पर नियंत्रण कर रहा है।’ इसका यह मतलब नहीं है कि इस से भाव तुरंत ख़त्म हो जाएगा। लेकिन उसका जो ज़ोर है ना, जो तुम पर कब्ज़ा कर लेता है, तुम्हारी सारी शक्ति ख़त्म कर देता है समझने की, उसका वह ज़ोर कम हो जाएगा।

अभी जो तुम्हें भाव रहता है उसमें बड़ा ज़ोर रहता है। तुम्हें गुस्सा आता है, तुम उस वक़्त पागल हो जाते हो। जब तुम दुखी होते हो तो इतने दुखी होते हो कि जैसे दुनिया ख़त्म हो गयी। वह इसलिए होता है क्योंकि तुमने यह भ्रम पाल लिया है कि भाव या विचार तुम्हारे अपने हैं। जैसे ही तुम कहोगे कि यह तो एक और बीमारी लग गयी बाहर की, एक वायरस लग गया, जो बाहर से लगता है, वैसे ही यह सब भी बाहर से होता है।

तो अब से जब भी भावुकता आये, तो उससे न लड़ना है और ना बुरा मानना है। उसको तो बस कहना है कि मन होता ही ऐसा है। गुस्सा उठे तो भी यही कहना है कि देखो बाहर से गुस्सा आ गया। और आँसू गिरे तो भी यही कहना है कि बाहर से आ गए। कोई घटना घटी और देखो कि तुम उसकी वजह से फिर भावुक हो गयी। आंसुओं का बुरा नहीं मानना है और उन्हें दबाना भी नहीं है। स्वाभाविक सी बात है। ठीक है? उसके साथ रहो, उसे स्वीकार करो। मन है तुम्हारा, यह ऐसा ही है। और जब वह हो, तो उसे होने दो। बुरा मत मानो। यह तो एक मशीन के जैसे बात है। एक मशीन है, उस पर एक बाहरी प्रभाव है, और मशीन ने अपनी एक हरकत शुरू कर दी है। आँखों को रोने दो। पर तुम यह जानती रहो कि मन भावुक होता है, और आँखें रोती हैं पर मैं इस बात को बस समझ रही हूँ।

थोड़ा मुश्किल लगेगा शुरू में पर इसमें कोई विशेष बात नहीं है। आँखों का काम है रोना, मन का काम है भावुक होना। आँखों का तो काम ही रोना है, उनमें ग्रंथियाँ हैं। तुम्हारे भी हैं, मेरी भी हैं। हम सबके हैं। यहाँ कोई भी ऐसा बैठा है जो कभी न रोया हो? कोई भी नही है ना ऐसा? तो रोना तो सबको है। कोई ऐसा बैठा है जिसको गुस्सा न आता हो? कोई ऐसा जिसको बेचैनी ना होती हो? मन की मशीन है ही ऐसी। तुम उसे यह सब करने दो। तुम उसके साथ बह मत जाओ। तुम थोड़ा सा दूर खड़े हो जाओ। तुम कहो, ‘देखो, फिर से भावुक हो गए’ , या तुम कहो, ‘देखो फिर से बेचैन हो गए, या फिर से गुस्सा आ गया’ ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories