Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
भावनाएं, विचार, और स्त्री मन
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
17 min
734 reads

प्रश्नकर्ता: मैं एक घरेलू महिला हूॅं और दिनभर काम करते वक़्त दिमाग में विचार घूमते रहते हैं, इन पर काबू कैसे करें?

आचार्य प्रशांत: कभी भी ये ना कहिएगा कि मेरे विचार मेरे विचार है। बंदर को याद रखियेगा। आपके विचार आपके विचार नहीं है। आपको जो चाहो वो सुचवाया जा सकता है तुरंत। सारे विचार वातावरण के कारण पैदा हो जाते हैं, आप सोचते हैं मेरा है। आपका है ही नहीं और आप उसके पीछे-पीछे चल देते हैं। विचार आया, "चलो, चाट खाएं", चल दिए। ये समझ में ही नहीं आया कि चाट खाने का विचार ही इसलिए आया क्योंकि चाट की खुशबू नथुनों में पड़ी।

चाट वाला भी होशियार होता है। वो आवाज करता है टन-टन-टन, सुना है? और अपने तवे पर घी डालेगा, और उसमें से गंध उठेगी, आपकी नाक में पड़ेगी, और आपको विचार आ जाएगा कि चाट खाना है। आप कहते हो, "ये तो मेरा विचार है"। आपका विचार थोड़े ही है। वो विचार किसका है वास्तव में? वो चाट वाले का है। चाट वाला होशियार है, आप बुद्धू बन गए। और कोई आपको रोके कि चाट नहीं खानी, तो आपको बहुत क्रोध आ जाएगा। आप कहोगे, "मेरा विचार था, और तुम मेरे विचार में बाधा बन रहे हो"। आप समझे ही नहीं कि आपका विचार आपका है ही नहीं। दुनिया आपकी मालिक बन गई है, आप गुलाम हैं।

सारे विचार ऐसे ही होते हैं। सारी भावनाएं ऐसी ही होती हैं। अभी आपने विचारों पर प्रयोग किया था, अब भावनाओं पर प्रयोग करना चाहेंगे? जिन घटनाओं को आप अपने जीवन की सुंदर घटनाएं बोलते हैं, ज़रा 15-20 सेकंड उनका स्मरण करिए। जो आपके जीवन की सबसे तथाकथित खुशनुमा घटनाएं हैं या कि जो सबसे ज़्यादा गौरवशाली घटनाएं हैं, उनका स्मरण करिये।

मन कैसा हो गया? प्रसन्न हो गया। आप भली-भांति जानते हो कि आप खुद चेष्ठा करके किसी सुखदाई घटना को याद कर रहे हो लेकिन अपनी ही चेष्ठा से मन की भावना आहाहा हो गई। अब आपके जीवन में जो सबसे दुख के क्षण रहे हो, उनको याद कर लीजिए।

थम जाइए। एक 2 मिनट आगे बढ़े, तो रोने लगेंगे। फिल्मों में जब रोने के दृश्य होते हैं, तो बहुत सारे अभिनेता-अभिनेत्री ग्लिसरीन का इस्तेमाल नहीं करते। वो खुद ही याद करने लग जाते हैं कि उन्होंने कौन-कौन से दुख झेले हैं अतीत में, उनको आंसू आ जाते हैं। आप जानबूझकर अपने आपको आंसू दिला सकते हो, ऐसी होती हैं भावनाएं।

भावनाएं भी आपकी अपनी नहीं हैं। उनका भी निर्धारण बाहर से हो जाता है। आप यहां बैठे हो, अभी कोई गमगीन गाना बजने लग जाए, कोई बड़ी बात नहीं होगी कि एक-दो लोग रो पड़े। कोई भी गाना सुनाकर आपकी भावनाएं उत्तेजित कर देगा, आपकी भावनाओं को नियंत्रित कर लेगा। पर हम कहते हैं, "मेरी भावनाएं हैं।" आपके विचारों को कोई चोट पहुंचाए, आप फिर भी बर्दाश्त कर लो, आपकी भावनाओं पर चोट पहुंचा दें, तो आपका जानी दुश्मन है वो। आप कहते हो, "इसने मेरी भावनाएं आहत करी है, इसको तो बिल्कुल नहीं छोडूंगा"। आपकी है भावनाएं? सब उधार की भावनाएं हैं, सब बाहर के विचार।

प्र: हम प्रार्थना करने से डरते क्यों हैं?

आचार्य जी:

चुप खड़े हो जाया करिए, जितनी ज़्यादा देर तक चुप खड़े हो सके। उससे ज्यादा सच्ची प्रार्थना और नहीं है। अपने मौन में लंबाई और गहराई दोनों लाइए। गहरा मौन हो और जितनी देर तक मौन खड़े रह सके।

कोई देव प्रतिमा मिल जाए, अच्छी बात है, उसके सामने मौन हो जाएं। कुछ नहीं मिल रहा, तो आकाश है। आकाश को परमात्मा जानिए, मौन हो जाइए। जितनी देर तक मौन हो जाएं, जहां भी मौन हो जाएं—भीड़-भाड़ में मौन हो जाएं, दफ्तर में मौन हो जाएं, दुकान में मौन हो जाएं— प्रार्थना वही है। और मौन होने के अवसर तो दिन में बहुत आते हैं। चूकिए ही मत, मानिए कि ये वरदान मिल गया। चार मिनट खाली मिले हैं, आंख बंद। आंख बंद नहीं भी कर सकते हैं—मान लीजिए ड्राइविंग कर रहे हैं—तो भी ड्राइविंग करते वक्त चुप, मौन। ये प्रार्थना हो गई।

प्र: आचार्य जी, यदि हम सामान्य जीवन में सहजतापूर्वक स्वयं के अनुसार उचित कर्म कर रहे हैं, तो क्या यही उचित जीवनशैली है?

आचार्य जी: आप चैन में हो तो सब सही है, और आप चैन में नहीं है तो अच्छे से अच्छा काम भी गलत है। जिस जीवन में आपको चैन हो, वो जीवन गलत हो ही नहीं सकता। अन्यथा जीवन देखने में कितना भी ठीक लगे, अगर बेचैनी दे रहा है, तो सही कैसे हैं?

प्र: बेचैनी का कारण खोजना चाहिए?

आचार्य जी: बेचैनी का कारण ढूंढिए और जीवन के जो हिस्से सुकून से भरे हुए हैं, उनको बढ़ाइए। ये तो आपका भी अनुभव होगा कि बेचैनी सदा एक-सी नहीं रहती, घटती-बढ़ती है। जहां पर आप पाएं कि न्यूनतम बेचैनी है, उस दिशा में आगे बढ़ें। और जहां-जहां आप पाएं कि बेचैनी अधिकतम है, उन चीज़ों को जीवन से त्यागें। यही सही त्याग है।

त्याग की यही सही परिभाषा है: जो बैचैन करता हो, छोड़ो।

प्र: 'मैं' शब्द को जीवन से कैसे हटाएं?

आचार्य जी: सुंदर शब्द है, क्यों हटाना है? उसे पूरा होने दीजिए। उसको हटाना क्यों है? पूरा होने दीजिए ना। अभी कहती है "ये मेरा बच्चा", वैसे ही कहिए, "वो मेरा बच्चा"। अधूरा है मैं, उसको पूरा होने दीजिए। हटा तो पाएंगी नहीं। जब तक शरीर है तब तक हटा नहीं पाएंगी। हटाने की कोशिश व्यर्थ जाए, उससे अच्छा है कि उसे आप पुष्पित होने दें, पूर्णता दें। जैसे इस बच्चे को कहती हैं, "ये मेरा है", वैसे ही बहुत बच्चे हैं। मातृत्व को सीमित क्यों कर रखा है? (सभी ओर इशारा करते हुए) मेरा, मेरा, मेरा—बढ़िया बात है ना।

प्र: पर इंसान हमेशा मेरा-मेरा ही करता रहता है ना।

आचार्य जी: आदमी कभी नहीं कहता है, "ये भी मेरा, वो भी मेरा"; आदमी कहता है, "ये मेरा, वो पराया"। गौर कर लीजिएगा, कोई मिला है ऐसा जो पूरे ज़माने को कहे, "ये मेरा"? आप तो ये कहते हो कि "ये मेरा और वो पराया"। परायेपन को हटाइए, 'मैं' को नहीं—'मैं' तो रहेगा। विशुद्ध रूप से मैं माने आत्मा, कैसे हटा देंगी उसको? आत्म का अर्थ ही होता है 'मैं', उसको हटा कैसे देंगे?

प्र: आचार्य जी, खड़े होकर प्रार्थना करने में शरीर दर्द होता है, तो क्या बैठकर प्रार्थना करने में कुछ अनुचित है?

आचार्य जी: आप बैठ के कर लो। शरीर की तो देखिए अपनी विधा होती है, अपनी चाल होती है। आप बूढ़ी हो जाएंगी, घुटने खराब हो जाएंगे, फिर आप कहें कि मुझे तो खड़े होकर ही करनी है तो थोड़े ही हो पाएंगी। आप बैठ के कर लो, कोई बात नहीं। वो बहुत बड़ा है। उसे कोई तकलीफ नहीं होती अगर उसके सामने कोई बैठ जाए कि खड़ा हो जाए कि कुछ हो जाए। परमात्मा थोड़े ही अहंकारी है कि उसको बुरा लग जाए कि "अरे, खड़े होकर नहीं करी, बैठकर प्रार्थना कर ली"। तुम बैठ कर कर लो।

प्र: पर शरीर साथ नहीं देता है!

आचार्य जी: तो शरीर नहीं खड़ा रहता ना, आप शरीर को गिरने दीजिए। शरीर बैठ गया, ठीक है, बैठ जाए।

अब आप कहीं जाए, और मंदिरों में घंटे लगे होते हैं, आप कहे, "घंटा बजाना है"। घंटा इतना ऊंचा लगा। आपका कद नहीं इतना, तो इसमें कोई ग्लानि की बात थोड़े ही है। शरीर का कद नहीं है ना, कोई बात नहीं। किसी से कह दीजिए कि तुम मेरे लिए घंटा बजा दो, वो बजा देगा। शरीर नहीं है वैसा, तो नहीं है। किसी का शरीर लंबा होता है, आपका नहीं है। बात ख़त्म।

प्र: आचार्य जी भावनाएं कहां से आती है और कैसे इतनी हावी हो जाती हैं? मन ऐसा क्यों है?

आचार्य जी: कोई फायदा नहीं है ये पूछ कर कि क्यों है। पहले ही सत्र में हमने बात करी थी कि माया अनादि है पर उसका अंत है। वो कहां से आई है, ये पूछोगे तो पूछते रह जाओगे। बस उसका अंत कर दो। तुमको कोई वायरस लग जाता है, तो तुम ये पता करते हो क्या कि कहां-कहां से चलकर आया है ये? या सीधे दवाई लेकर बस उसको खत्म कर देते हो? बोलो। या पता करोगे कि किधर से आया, पहले इसको लगा, फिर उसको उससे लगा, उसको उससे लगा। क्या करना है ये पता करके? बस ये देख लो कि ये जब उठती है, तो मेरे साथ क्या कर जाती है। बस ये देख लो कि इनका उद्भव कैसे हो जाता है। वो पूरी प्रक्रिया समझ लो, ये बहुत है।

भावनाओं से खबरदार रहना। खासतौर पर स्त्रियों के लिए बड़े से बड़ा झंझट होती है भावनाएं। बात-बात पर आंसू निकल पड़े, भावनाओं पर कोई समझ ही नहीं, कोई बस ही नहीं। फिर इसीलिए स्त्रियां गुलाम हो जाती है। आपकी भावनाएं बहका कर कोई भी आपको नियंत्रित कर लेता है, गाय बना देता है।

प्र: मुझे भी ऐसा ही लगता है।

आचार्य जी: तो वो तो है ही, आप दुनिया को देखिए ना। बेचारी स्त्रियां किसी क्षेत्र में अग्रणी नहीं हो पाई। राजनीति में देखिए, नहीं दिखाई देंगी; कला में देखिए, कम दिखाई देंगी; विज्ञान में देखिए, कम दिखाई देंगी। वो घरों में बस दिखाई देती हैं, और इसमें बहुत बड़ा योगदान भावनाओं का है। वो भावुक ही पड़ी रह जाती हैं, और कुछ नहीं कर पाती जिंदगी में। अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।

इन दो चीज़ों के अलावा स्त्रियों के पास कुछ होता ही नहीं: दूध और आंसू।

प्र: आंसुओं से बाहर कैसे निकला जाए और स्वयं को मज़बूत कैसे किया जाए?

आचार्य जी: ये देखिए तो कि आप उन्हीं के साथ अटकी हुई हैं। अटकी इसलिए हुई हैं क्योंकि उन भावनाओं को ही अपना बल मानती हैं। भावनाओं को बल ना माने, तो भावनाओं को पोषण क्यों दें? महत्व भी देते हैं, दर्शाते भी हैं, उन्हीं का उपयोग करके अपना काम भी बनाते हैं।

प्र: और वास्तव में भावना के माध्यम से खुद को प्रताड़ित भी करते हैं।

आचार्य जी: बिल्कुल। काम कितने बनते हैं भावना दिखा दिखा कर! मैं रूठ गई, मैं गुस्से में हूं, या मैं दुख में हूं, काम बन जाता है।

प्र: आज सुबह ही आपका एक वीडियो देखा जिसमें आपने पूरी स्पष्टता से समझाया है कि किस तरह पुरुष, स्त्री को वस्तु मात्र समझते रहे हैं।

आचार्य जी: औरतों से मुझे जितनी शिकायत है, उतना ही उनको लेकर दुख भी है। उनको देखता हूं, बहुत दुख लगता है, और शिकायत इस बात की है कि वो अपने दुख का कारण स्वयं है। औरतों की जो खराब हालत है, उसका कारण वो खुद है। भावना को वो अपना हथियार समझती हैं, देह को वो अपनी पूंजी समझती हैं। देह सजाएंगी, संवारेंगी, भावनाओं पर चलेंगी, और सोचती है कि हमने ये बड़ा तीर मार दिया।

इन्हीं दो चीजों के कारण—देह, माने 'तन' और भावना, माने 'मन'—वो इतिहास में लगातार पीछे रही है, गुलाम रही हैं। जबकि स्त्री को प्रकृतिगत कुछ विशेषताएं मिली हुई हैं जो पुरुषों के पास नहीं होती। धैर्य स्त्री में ज्यादा है, महत्वाकांक्षा स्त्री में कम होती है। ये बड़े गुण हैं। अगर स्त्री संयत रहे, तो खुलकर उड़ सकती है, आसमान छू सकती है। पर वो इन्हीं दो की बंधक बन कर रह जाती है: तन की और मन की। "आंचल में है दूध" मने तन और "आंखों में है पानी" मने मन, भावनाएं। बस इन्हीं दो की बंधक है वो। यही दो काम करने हैं उसको: दूध और पानी, दूध और पानी। उसी को मैंने उस लेख में लिखा है कि औरत दो ही जगह पाई जाती है: बेडरूम और रसोई। बेडरूम मने दूध और रसोई मने पानी। और इसी को वो अपना फिर बड़ा बल समझती है।

वास्तव में स्त्री में जो एक विशेष गुण होता है, वो उसे पुरुषों से बहुत आगे ले जाए। वो गुण उसमें होता है समर्पण का। औरत, पुरुष की अपेक्षा थोड़ी भोली होती है। एक बार वो समर्पित हो गई किसी चीज के प्रति, तो समर्पित रहती हैं। ये बड़ी बात है। इस गुण के कारण वो किसी भी काम में बहुत आगे जा सकती हैं क्योंकि निष्ठा से करती है काम, मैंने देखा है। जितनी निष्ठा से एक लड़की काम करती हो, उतनी निष्ठा से लड़के को करना मुश्किल पड़ता है। लेकिन फिर वही—आंचल का दूध और आंखों का पानी—आड़े आ जाते हैं और फिर सब खत्म, बर्बाद।

प्र: यही होता है ना कि हम चाहते हुए भी सांसारिक उलझनों से निकल नहीं पाते।

आचार्य जी: सब निकल जाएंगी। लेकिन बीच-बीच में आपको भावनाओं से फायदा मिल जाता है ना, तो आप बहक जाती हैं। आपको लगता है भावना तो बढ़िया चीज़ है, अभी फायदा मिला तो। रोए, तो नया हार मिल गया। अब काहे को रोना बंद हो? तन दिखाया, तन सजाया, तो बड़ा सम्मान मिल गया। जमाने ने कहा, "वाह-वाह, क्या सुंदर है"। पति पीछे-पीछे आ गया जैसे ही मैंने ज़रा तन को आकर्षक बनाया। तो फिर बिल्कुल बहक जाता है मन स्त्री का।

प्र: पर मुझे लगता है कि मैं औरों से इस मामले में आगे हूं।

आचार्य जी: अब आदत बन गई ना, पुरानी आदत है। आदत को बनने ही नहीं देना चाहिए। छोटी बच्चियों में सजावट की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। मांओं को मैं देखता हूं, छोटी बच्चियों को ही परियां बना रही होती हैं। वो इतनी-सी बच्ची है, उसको परी बना कर घुमाएंगी। और वो छोटी बच्ची टीवी पर भी यही देख रही है कि परी, परी। अब वो अभी से सजने संवरने लग गई, वो कहां बचेगी? मैं देख रहा हूं 6-6 साल की लड़कियां लिपस्टिक लगाकर घूम रही हैं। बर्बाद!

और पुरुष का स्वार्थ रहा है कि औरत को शरीर ही बना रहने दो, तो वो तारीफ भी खूब करेगा। औरत अगर सरल, साधारण, संयमित रहे देह से, तो पुरुष उसकी कोई तारीफ नहीं करता, और यहीं एक सजी-संवरी, छैल-छबीली निकल जाए, तो जितने पुरुष होंगे सब तालियां बजाएंगे, वाह-वाह करेंगे"। उस औरत को लगता है हमारी तो बड़ी इज्जत बढ़ गई, हमारा तो बड़ा मान, बड़ा मूल्य बढ़ गया। वो पागल है, वो जानती भी नहीं कि उसका शोषण किया जा रहा है।

प्र: (सभा में मौजूद पत्नी की और इशारा करते हुए) तैयार होते समय ये पोशाक के चुनने तक पर मेरी राय चाहती हैं और हल्का जवाब देने पर नाराज़ हो जाती हैं। प्र*(पत्नी): * अटेंशन नहीं है।

आचार्य जी: ये हंसने की बात नहीं है, ये बहुत खतरनाक बात है। आपको अपनी बनावट पर अटेंशन चाहिए? हां, डांट दीजिए उनको कि क्यों पोल खोल रहे हो।

प्र: पर वास्तव में हममें से अधिकांश महिलाएं सजती ही इसी असुरक्षा की भावना से है कि कहीं हमारे पति का हमारे प्रति आकर्षण कम ना हो जाए।

आचार्य जी: अरे तो भाई, आपके पास देह के अलावा और कोई गुण नहीं है क्या? ये आप समझ रहे हो आप क्या कर रहे हो? आप कह रहे हो, "मेरे पास और तो कोई गुण है नहीं कि पति मुझे देखें—और तो ना मुझे कोई कला आती, ना ज्ञान है, ना मैं किसी काबिल हूं—तो मेरे पास एक ही पूंजी है, क्या? शरीर। तो मैं शरीर के ही बल पर फिर पति को आकर्षित करती हूं। ये कितनी ज़लील बात है ना। हज़ार तरीके हो सकते हैं अपना मूल्य बढ़ाने के। अरे, कोई कला सीख लीजिए, किसी नई चीज का निर्माण करिए, स्थापना करिए, अपने व्यक्तित्व में ऐसी रोशनी लाइए कि दुनिया को आपकी ओर देखना पड़े। उसकी जगह आप कह रहे हैं कि मुझे तो दुनिया में अपना स्थान बनाने का एक ही तरीका आता है, क्या? शरीर।

और ये करके आप और कुछ नहीं करते, पतियों में भी कामवासना का संचार करते हो। फिर पति पशु बनकर झपट्टा मारे, तो कहते हो, "ये देखो दरिंदा, जब देखो तब एक ही बात सुझती है इसको।" और उसको बहका कौन रहा है? उसको उत्तेजित कौन कर रहा है? ये सब पतिजन सहमत है। सत्संग में पहली बार जान आई है। कह रहे हैं इतनी देर में गुरुजी ने असली बात बोली। (सब हंसते है)

हम नहीं जानते शिकारी कौन है और शिकार कौन है। शिकार करने की चेष्टा मत करिए, शिकार हो जाएंगी। आप स्थूल रूप से शिकार हो जाती हैं क्योंकि सूक्ष्म रूप से शिकार करने की आप की भी मंशा होती है। इस बात को स्वीकारिए। हां, स्त्री सूक्ष्म रूप से शिकार करती है, तो किसी को दिखाई नहीं देता। पुरुष स्थूल रूप से शिकार कर लेता है, तो पता चल जाता है। जिसे शिकार ना बनना हो, वो शिकारी भी ना बने। ये खेल ऐसा है जिसमें शिकारी का ही शिकार हो जाता है।

प्र: फिर तो टीवी इत्यादि पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन भी बंद होना चाहिए।

आचार्य जी: उसमें बहुत कुछ अच्छा भी है, मैं भी हूं वहां पर। आइए, मिलिए। आप क्यों जाती हैं सब अंड-बंड पेज और प्रोफाइल देखने?

प्र: पर टेलीविजन ऑन करने पर उसमें अपने आप ही कुछ ना कुछ चालू हो जाता है।

आचार्य जी: अरे, अपने आप कैसे चालू हो जाता है?

प्र: वास्तव में दुनिया में जो अच्छाई है, हमें उसको लेकर अधिक खोजी होना होगा।

आचार्य जी: तभी तो मैं स्वीकार नहीं करता जब कोई कहता है कि पूरा संसार ही बुरा है। मैं कहता हूं तुम बुरे हो इसीलिए बुराई खोज लेते हो। इंटरनेट पर बहुत कुछ है जो बहुत सुंदर है, पवित्र है। तुम उसकी ओर क्यों नहीं जाते?

प्र: आचार्य जी, गुस्सा क्यों आता है और नियंत्रण कैसे करें?

आचार्य जी: क्यों नियंत्रित करना है? अपने ऊपर करिए गुस्सा कि मैं ऐसी क्यों हूं। बात फिर ये नहीं है कि गुस्सा क्यों आता है, बात ये है कि गुस्से किसको आता है। सात्विक मन को गुस्सा आएगा अगर उससे सत्य छिन रहा हो। ऐसा गुस्सा आना चाहिए। तामसिक मन को गुस्सा आएगा अगर उससे उसकी बेहोशी छिन रही हो। ये गुस्सा नाजायज़ है। तो कौन सा गुस्सा है आपका? सही गुस्सा करिए। कोई दिक्कत नहीं है गुस्से में।

प्र: पर सामने वाला तो ये बात नहीं समझ पाएगा।

आचार्य जी: अरे, सामने वाले की बात ही नहीं है ना। आप सारी बात तो सामने वाले की करती हैं, अपनी बात कब करेंगी?

प्र: पर मैं सबके बीच ही रहती हूं।

आचार्य जी: अभी सब के बीच में आप हैं कि मैं हूं? सबके बीच में कौन है? मैं हूं, और मैं सामने वाले की बात ही नहीं कर रहा। आप बीच में भी नहीं हैं, आप परिधि पर हैं, और आप बात करे जा रही हैं सामने वाले की, सामने वाले की।

बीच में सब रहते हैं। मैं भी बीच में रहता हूं। बीच में रहने से ये निर्धारित नहीं हो जाता कि दृष्टि लगातार बहिर्मुखी की रहेगी। मन की कमजोरी के कारण दृष्टि बहिर्मुखी हो जाती है, बीच में रहने से नहीं बहिर्मुखी हो जाती।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles