प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्कार। मेरा नाम अश्विनी कुमार है और मैं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद में एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में कार्यरत हूं। आज का मेरा प्रश्न है सर कि हमारे देश में क्रांतियाँ क्यों नहीं हो पाती हैं? और जो कुछ लोग क्रांति करने के लिए उतरते भी हैं तो या तो उनको दबा दिया जाता है। कुचल दिया जाता है। जिन लोगों के लिए वह उतरते हैं वही उनके खिलाफ हो जाते हैं। और सर कई मामलों में जो क्रांतिकारी उतरे भी उनका मकसद कुछ और होता है। शायद वो अपना मकसद छोड़ देते हैं। तो ये क्या है सर, ऐसा क्यों होता है? हमारे और खासकर भारत में ऐसा हुआ है सर।
आचार्य प्रशांत: हमें उन जगहों को देखना पड़ेगा जहां क्रांतियां हुई। ठीक है? फ्रांस, अमेरिका, रूस, चीन। जिसको आप क्रांति कह रहे हैं जो सड़कों पर होती है वो सबसे पहले आदमी के भीतर होती है। भीतर होगी वो क्रांति तो सड़क पर होगी नहीं तो सड़क पर नहीं हो सकती। और भीतरी क्रांति क्या होती है? यूरोप के कई देशों में क्रांतियाँ हुई। पर उससे पहले वहां एक भीतरी क्रांति थी जो कहती थी हम मानेंगे नहीं। हम मानेंगे नहीं। मानेंगे नहीं।रिफॉर्मेशन रेनिसा, रिवॉल्यूशन। तो, पहली बात क्या थी? हम मानेंगे नहीं।" बाहर आपको आपका दमन होता है, वो दिखाई देता है। पर आपको ये नहीं दिखाई देता कि आपका पहला जो दमन है, वो भीतर हुआ है। और भीतरी दमन पता है क्या होता है? दमन माने सप्रेशन। भीतरी दमन होता है जब आपको कुछ मानने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। धर्म, परंपरा, संस्कृति द्वारा और जहां इन ताकतों का जितना ज़्यादा ज़ोर होगा, वहां उतना ज़्यादा भीतरी दमन होगा। जहां भीतरी दमन जितना ज़्यादा होगा, वहां बाहरी दमन को जनता उतनी आसानी से स्वीकार कर लेगी।
क्रांति तो तब हो ना जब मैं कहूँ कि मुझे मेरे ऊपर कोई चाहिए ही नहीं जो शोषण करता हो, राजकर्ता हो। हक चलाता हो। यही तो क्रांति है।
मुझे नहीं चाहिए। जब मैंने भीतर ही किसी को अपने ऊपर राज करने दिया है तो मैं बाहर क्या क्रांति करूंगा? भीतर ही मैंने राज करने दिया है। भीतर हम राज कैसे करने देते हैं? समझिएगा। ये जो भीतर है ना इसको चेतना बोलते हैं। कॉन्शियसनेस और इसका स्वभाव होता है जानना। क्या होता है स्वभाव?
प्रश्नकर्ता: जानना।
आचार्य प्रशांत: हम छोटे थे। तब से हमें जानने के लिए प्रेरित करा गया है या मानने के लिए?
प्रश्नकर्ता: मानने के लिए।
आचार्य प्रशांत: तो क्रांति की तो नन्ही सी कोपल को और कली को वहीं पर कुचल दिया गया। मानो ना, अब तुम क्या क्रांति करोगे? जब तुमने भीतर ही घुटने टेक दिए हैं तो तुम बाहर क्या विद्रोह करोगे? हमारा भारत में जो आंतरिक जीवन होता है आप देखिए ना कैसा होता है। हर बात तो आप मानते हो। और जहां कहीं क्रांतियाँ हुई हैं पूरे विश्व में वँहा उन्होंने सबसे पहले ये कहा है हमें मानने को जो तुम मजबूर कर रहे हो हम नहीं मानते। यूरोप ने विद्रोह करा सबसे पहले चर्च की सत्ता के विरुद्ध। जैसा धर्म चला आ रहा था लोकधर्म, उसके विरुद्ध भी विद्रोह करा तब जाकर के सड़कों पर खून बहा। और अगर भीतरी विद्रोह नहीं हुआ है और आप सड़क पर क्रांति करने गए हो तो क्रांति निष्फल जाएगी बल्कि वो क्रांति उल्टी पड़ जाएगी। हम भीतरी विद्रोह नहीं कर पा रहे क्योंकि भारत बहुत ज्यादा पारंपरिक देश रहा है। बहुत ज्यादा और मान्यताओं, धारणाओं, परंपराओं, प्रथाओं, रूढ़ियों, अंधविश्वासों इन सबके नीचे दबा हुआ है। देखो ना जो अंधविश्वासी है वो क्या क्रांति करेगा? उसने तो अपने भीतर ही अपना शोषक बैठा लिया है। वो बाहर वाले शोषक के खिलाफ क्या क्रांति करेगा?
अंधविश्वास का मतलब यह है कि इन्होंने मुझसे आकर के बोला फलानी बात मानो और मैंने मान लिया। ये मेरे ऊपर चढ़ गए। बोले फलानी बात मानो मैंने मान ली। तो यहीं पे तो मैंने घुटने टेकने की शुरुआत कर दी ना। जब यँहा घुटने टेक दिए तो अब बाहर लड़ाई क्या लड़ोगे? भारत के बारे में कहा जाता है भारत टू रिलीजियस टू रिवोल्ट। इतना ज्यादा धार्मिक देश है कि यँहा क्रांति कभी होने नहीं पाएगी। क्योंकि आपने बहुत बातें मान ली हैं। एक आदमी है उसकी जिंदगी बर्बाद है। पर फिर भी वो क्रांति में उठेगा नहीं। पूछो क्यों? क्योंकि उसने मान लिया है कि उसकी बर्बादी उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मों की वजह से है। क्रांति कैसे करेगा वो? उसने तो मान ली ना कोई बात। उसको बता दिया पंडित जी ने बैठा करके कि ये जो तू गरीब है और जो तुझे इतना सब सहना पड़ रहा है। तेरा शोषण हो रहा है। वो इसलिए हो रहा है क्योंकि तू पिछले जन्म में बहुत गंदा आदमी था। उसने मान लिया। वो क्रांति करेगा कभी? करेगा क्या?
महिलाएं हैं उनको मनुष्य तो माना ही नहीं गया। और 100 तरीके की बेवकूफियां और बदतमीज़ियां वो बर्दाश्त करती हैं दिनभर जिंदगी भर। और क्रांति तो छोड़ दो। जो व्यवस्था चली आ रही है पुरानी उसको बदलने की कोशिश करो तो महिलाएं ही सबसे पहले उठ के मुंह नोच लेती हैं। मुझसे पूछिए। हाँ, ये महिलाओं का दुश्मन है। क्यों? ये कह रहा है घर में मत बैठी रहो। इसे हमारे आराम से तकलीफ़ है। पागल हो गई हो। मैं तुम्हें बाहर की खुली हवा वँहा सांस लेने के लिए, उड़ने के लिए भेजना चाहता हूं। वो नारे लगा रही है। एक तो बोली वो नेशनल कमीशन ऑफ़ वुमेन में ले जाएंगे। बहुत लिबरेशन की बातें करते हैं। ये हमारा घर छुड़वाएगा। वो यँहा से पूरी तरह से परास्त हैं। वो बाहर क्या कुछ करके दिखाएगी?
पहले क्रांति मन में आती है। फिर समाज पर छाती है और हमारे मन की क्रांति को,जो हमने धर्म के विकृत संस्करण पकड़ रखे हैं। उस क्रांति को कुचल दिया है उसने।
भारत का धर्म मूलतः बोध का धर्म है। जानने का वैदिक धर्म कहते हैं ना अपना हम, हां तो वेदांत जानने का दर्शन है जानो जानो बोधो अहम्, मैं सिर्फ बोध प्राप्त नहीं करता मैं बोध ही हूँ ये है हमारा असली धर्म लेकिन कालचक्र में हमने इस धर्म को मानने का विश्वास का धर्म बना दिया आस्था। हम तो ऐसा मानते हैं जी, हमारी तरफ तो ऐसा विश्वास है जी, हम तो ऐसे ही करेंगे जी। अरे तुम क्या कर रहे हो? नव दुर्गा शुरू हो रही है। ये बकरी क्यों उठाए लेके जा रहे हो? जी काटते हैं जी। क्यों काटते हो जी? कौन खाता है बकरी को? निश्चित मानो ये सब पशु, पक्षी ये तो देवी के भी बच्चे बच्चियाँ हैं। देवी तो नहीं खाती। कौन खाता है जी? हम खाते हैं जी। तो तुम खाते हो तो। उसमें तुम देवी को क्यों बीच में ला रहे हो? बस जी ऐसे ही चलता आया है। जी जँहा ये चलता है ना जी, बस ऐसे ही चलता आया है जी, वहां क्रांति कैसे होगी? ऐसे ही चलता आया है जी और हमने मान लिया है जी, तो काहे की क्रांति जी जो चलता आया है चलने दो।
तू नीचे बैठ, तू उधर रह, तू ये नहीं कर सकता, तू वो नहीं कर सकता, तेरी जाति में ये समस्या है, तेरा ऐसा है तेरा वर्ण बेकार है। नहीं जी ये मैं कैसे मतलब क्यों अरे हमारी पुरानी किताबों में लिखा है, शास्त्रों में लिखा है और जिसको यह बात बोली उसने मान भी लिया। उसने मान लिया उसने नहीं कहा कि मैं जाकर के पढ़ना चाहता हूं, उपनिषद मुझे प्रस्थानत्रयी के पास जाने दो, मुझे थोड़ा वेदांत सूत्र देखने दो, मुझे सांख्य योग देखने दो, मैं जानना चाहता हूं कि जो हमारा षड् दर्शन है उसमें कँहा पर जाति का उल्लेख है और कँहा ये सब बातें हैं, न्याय वैशेषिक मुझे बताओ कँहा सांख्य योग, बताओ मुझे कँहा ये? उसने भी नहीं पूछा। जिसका शोषण हो रहा है। उसने भी नहीं पूछा कि तुम बोलते हो शास्त्रों में लिखा है जी। कहां लिखा है जी? कँहा लिखा है? कँहा लिखा है? हम तो दर्शन को मानेंगे। हम श्रुति को मानेंगे। दर्शन में दिखा दो कँहा लिखा है? और श्रुति में दिखा दो कँहा लिखा है, कहीं नहीं लिखा है। कुछ स्मृतियों में लिखा होगा। किसी ने सवाल नहीं पूछे। सबने बस माना और मानने का मतलब ही होता है कि भीतर घुटने टेक दिए।
जब भीतर घुटने टेक दिए तो बाहर ऐसे मुट्ठी नहीं तान पाओगे। बाहर की मुट्ठी तने उसके लिए पहले भीतर मुट्ठी तननी चाहिए।
और वो हम तनने नहीं देते। छोटा बच्चा होता है, अंकल जी को नमस्ते करो। अंकल जी एकदम दुनिया के सबसे बड़े छछूंदर। और तुमने उसका नमन करवा दिया छछूंदर के आगे। ताऊ जी के पाँव छुओ। और ताऊजी खतरनाक किस्म के काहिल, आलसी, गंवार जो जो उनको उपाधियाँ दी जा सकती हो। और वो इतना सा है, अभी वो आप पर आश्रित है आपने जबरदस्ती करके उससे ताऊजी के पैर छुआ दिए। उसकी रीड झुक गई ना, अब वो रीड सीधी कैसे करेगा? बोलो। तुमने अपने विशेषाधिकार का दुरुपयोग करा है। तुम मां-बाप हो। तुम्हारी चलती है उस पे। तुमने जबरदस्ती चलाई है। उसको कहा यँहा झुको ये मानो, वो मानो।
अच्छा मंदिर के सामने निकल रहे हैं भगवान जी को जय बोलो। तुमने उसको अर्थ बताया भगवतता का? तुमने कुछ पूछा? तुमने उसके मन में एक बात बैठा दी कि भगवान जी कुछ होते हैं। क्या होते हैं? क्यों होते हैं? कैसे पता? क्या जाने? किसने बताया? कोई सवाल नहीं, कोई जवाब नहीं। बस ऐसे करो। ऐसा करना होता है। ये दिन आ गया है। चलो इस दिन फलाने कुंए में जाकर बाल्टी पानी निकाल के ऐसे उधर को मुंह करके सरसों डाल के नहा लो। और वो बड़ा एक विस्तृत इलैबोरेट प्रपंच होता है। मैंने तो सिर्फ सरसों डाली। उसमें हींग, मेथी और वो इतना सा देख रहा है और सवाल वो कुछ नहीं पूछ सकता। थप्पड़ और मारोगे उसको सवाल पूछे तो। क्या-क्या चल रहा है? कुछ भी चल रहा है। सवाल नहीं पूछ सकते। क्योंकि सवाल का कोई जवाब किसी के पास है नहीं। अब क्रांति होगी जँहा सवाल तक नहीं पूछे जा सकते। वहां क्रांति होगी क्या?
क्रांति होती है कि आकाश की वर्जनाओं को काटेंगे। उसके लिए पहले भीतरी पंछी के पंख तो खुले होने चाहिए ना। तुम भीतर ही उसके पंख बांध देते हो। बाहर क्या क्रांति करेगा? भारत में होंगी भी नहीं क्रांतियाँ। एक तरीके से देखा जाए। बहुत विद्वान है जिन्होंने कहा है कि, शोषण की जितनी गहरी और जितनी लंबी परंपरा भारत में रही है उतनी तो विश्व में कहीं रही नहीं। और ये जादुई बात है चमत्कारिक कि भारत में कभी कोई क्रांति हुई नहीं। भारत में कभी कोई क्रांति हुई नहीं। क्यों नहीं हुई? हम धार्मिक लोग हैं ना। और धर्म क्या है? ये हम जानते नहीं। हमारे जो हमने धर्म की झूठी व्याख्याएँ कर दी हैं। उन झूठी व्याख्याओं ने सब क्रांतियों का गला घोंट दिया। अबॉर्ट कर दिया उनको। समझ में आ रही है बात?
अब लिख दिया गया कई किताब में राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है, तो अब राजा जो कुछ करेगा मानना पड़ेगा ना। राजा अत्याचार करे तो कोई बात नहीं, क्योंकि राजा कौन है? ईश्वर का प्रतिनिधि है। पति परमेश्वर होता है। अब पति ने चांटा भी मार दिया, लात भी मार दी तो परमेश्वर ने मारी है। प्रसाद समझ के ग्रहण कर ले। पूछ ही नहीं रहे हो। ये खैनीबाज, ये परमेश्वर का प्रतिनिधि है। आज भी हैं जो नाम लेकर के नहीं पुकारती। और कहने को तो बोलते हो कि अरे वो तो हम सम-वयस्क हैं, हमउम्र हैं, बराबरी का रिश्ता है। वो उसको तुम करके बात करेगा वो आप करके बात करेगी। और पढ़े लिखे घरों में होता है। यँहा क्रांतियाँ होंगी। वो किस दृष्टि से आप कहलाने लायक है बताओ। और किसी बाहर वाले को तो फिर भी ग़लतफहमी हो जाए कि वो इज्जतदार है। तुमने तो उसको पूरा देखा है। तुम अच्छे-अच्छे से उसकी रग-रग से माने सब रगों से वाक़िफ़ हो तुम्हें पता है वो कितना जलील आदमी है। तुम कैसे उसको आप आप बोलती हो? पर नहीं चलता है। अब क्रांति हो गई। ठीक लग रही है कुछ बात? ऐसा ही है ना?
प्रश्नकर्ता: जी सर।
आचार्य प्रशांत: बाहर-बाहर से लोगों को प्रेरणा देने से या भड़काने उकसाने से कुछ नहीं होने वाला।
प्रश्नकर्ता: सर, आपसे जुड़ने से पहले हमारा भी यही हाल था और अब कुछ टाइम से हम सुधर रहे हैं सर।
आचार्य प्रशांत: मैं तो कहता हूँ, लोगों को ना क्रांति के लिए मत प्रेरित करिए। लोगों को वँहा ले जाइए जँहा से उनकी मान्यताएँ सचमुच आ रही हैं। देखो कि जो बातें तुम मानते हो वो सचमुच आ कँहा से रही हैं। हमारा गीता समागम चल रहा है। तो उसमें बीच-बीच में हम गीता उनके सामने रख देते हैं और मनुस्मृति सामने रख देते हैं। कहते हैं तुमने गीता बहुत पढ़ी ली। 100 सत्र कर लिए गीता के, लो अब मनुस्मृति पढ़ो तब चीख पुकार मचती है। हाय! हाय! ये क्या दिखा दिया? अरे! तुम्हारे व्यवहार का रेशा-रेशा उसी किताब से आ रहा है। और तुमने वो किताब आज तक पढ़ी भी नहीं। तुम उस किताब को जी रहे हो। छोड़ो कि उस किताब की प्रशंसा करनी है कि निंदा करनी है कि क्या करना है। जान तो लो कि तुम्हारे व्यवहार का एक-एक हिस्सा एक-एक अंश कोशिका आ कँहा से रहे हैं? जान तो लो कम से कम तुम जानना भी नहीं चाहते।
तो ये छोड़िये कि लोगों को मुझे क्रांति का हौसला देना है। मैं कह रहा हूँ, उनको ले जाइए और दिखाइए कि ये जो तुम अभी भी करते हो ना अपने घरों में, समाज में, दफ्तरों में, राजनीति में, धर्म में हर जगह। देखो ये कँहा से आ रहा है। देखो, देखो, देखो कँहा से आ रहा है। तो शायद लोगों को थोड़ा बुरा लगे। तो शायद क्रांति की कुछ संभावना तैयार हो। आप हैरत में पड़ जाएँगे। जिस व्यवहार को आप, मान्यता को जिसको आप सामान्य साधारण मानते हो ना। आप सोचते हो ये तो नेचुरल है। ऐसा होता ही है। खासकर जो भारतीय स्त्री का स्टीरियोटाइप चलता है। भारतीय माँ ऐसी होती है। अरे! भारतीय माँ वैसी पैदा नहीं होती है। तुम उसे वैसा बना देते हो। उसके जींस में थोड़ी कुछ अलग है।
एक जगह कहीं पर था और ये एकेडमिक एक्सरसाइज चल रही थी। इंडियन मदर वर्सेस अमेरिकन मदर जैसे कि अटलांटिक पार करके जींस बदल जाते हैं। क्या दिखा रहे हो ये? साफ क्यों नहीं बताते हो? कि एक को दूसरी मानसिक खाद खुराक डाल दी गई है और दूसरे को कुछ और डाल दिया गया है। ये इंडियन मदर कहता नहीं भारतीय माँ तो ममता से भरी होती है। तुम्हें ममता शब्द का भी अर्थ ना पता हो। जिन बातों को आप कहते हो ये तो नॉर्मल ही हैं। वो नॉर्मल नहीं है। समझो वो बातें कँहा से आ रही हैं। वो तुम्हारे मन में कूट-कूट के चुपचाप धोखे से भरी गई हैं। या तो धोखे से या अज्ञान में भरी गई हैं। हमें बड़ा ये नॉर्मल लगता है। अब हस्बैंड वाइफ जा रहे होंगे। वाइफ थोड़ा एक कदम पीछे ही चल रही होगी। फिर तो नॉर्मल बात है। इसमें क्या है? इसमें तो कुछ असाधारण तो मुझे लग नहीं रहा। ये लिखा हुआ है। ये रिटेन में है, लिखित में है। पत्नी एक कदम पीछे चलेगी। इसलिए पीछे चल रहे हो और आपने वो किताब कभी पढ़ी भी नहीं जँहा ये लिखा है। लेकिन फिर भी आप उसी किताब को जी रहे हो।
और अपने जितने व्यवहार के हिस्से होते हैं सारे। आप क्या सोचते हो कि ये आपके साधारण एटिकेट का हिस्सा है कि बड़े बोल रहे हों तो आवाज नहीं करनी है, सुनना है। ना ना लिखा हुआ है अथॉरिटी के सामने सबमिशन दिखाओ। ये लिखा हुआ है। आप इसलिए नहीं बोलते हो तो एक तो फालतू की बात यह है कि अथॉरिटी के सामने झुक करके रहो। कहते हैं ना बच्चा बिगड़ गया उल्टा जवाब देता है। ये कहीं लिखा हुआ है कि ये नहीं करना है। इसलिए ये आपके मन में आ गई है बात। पर हमें हमारे मान्यता की जड़ भी नहीं पता। जब मान्यता की जड़ तक पहुंचोगे तो कहोगे यार नहीं चाहिए। अगर यहां से आ रहा है यह सब कुछ तो नहीं चाहिए। नहीं चाहिए। और फिर एक सम्मान भी पैदा हो पाएगा वास्तविक धर्म के प्रति। उसके बाद उपनिषदों को यँहा रख पाओगे। उसके बाद समझ पाओगे कि धर्म और संस्कृति बहुत अलग-अलग चीजें हैं। कि धर्म और लोकधर्म बहुत अलग-अलग चीजें हैं कि दर्शन और मान्यता बहुत अलग-अलग चीजें हैं। उसके बाद भगवत गीता का सही अर्थ समझोगे और कुछ सम्मान दे पाओगे। आध्यात्मिक भीतर अगर लौ लग गई तो सामाजिक क्रांति निश्चित है। वो होगी। फिर होगी।
प्रश्नकर्ता: जी,थैंक यू सर।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा नाम आशीष है सर। और मैं आपके व्यूज को मैंने एक्चुअली यूनिवर्सिटी ऑफ़ बरकले का आपका सेशन अटेंड किया था। जिसमें आपने डेमोक्रेसी की लिमिटेशंस पे चर्चा की थी। तो डेमोक्रेसी इंडिया में और पूरे वर्ल्ड में जो अभी प्रैक्टिस में है। उसका फ्यूचर क्या है? अगर ये ऐसे ही रहती है और आज उसका सिग्निफिकेंस कितना बचा है? क्योंकि हम देख रहे हैं कि डेमोक्रेटिकली इलेक्टेड पीपल जो हैं वो धीरे-धीरे चेयर को इस तरह से राउंड कर रहे हैं। वो हमेशा उस पे बने रहे। ट्रंप भी थर्ड टर्म की चर्चा कर रहे हैं। और सेकंड तरफ जो उनके वोटर्स हैं वो बहुत ट्रिवियल इश्यूज पे फाइट करके लगातार कोई भी बड़े क्वेश्चंस रेज नहीं कर रहे हैं। इस बीच में सर कुछ लोग जो अवेयर हैं जैसा आप कहते हैं कि ओनर्स अवेयर लोगों पे हैं। वो कहीं राइट वे नहीं फाइंड कर पा रहे हैं सिस्टम से वे आउट करने का।
हम हमेशा एक लिमिटेड नंबर में होते हैं और प्रॉब्लम ये हो जाती है कि जो क्लासिकल वे थे प्रोटेस्ट करना, रोड ब्लॉक करना, सड़कें जाम करना जो बड़ी-बड़ी क्रांतियों में काम किए तो आज वे जो है काम नहीं कर रहे हैं। हम देख रहे हैं सड़कें ब्लॉक भी होती हैं फिर भी स्टेट पे कोई फर्क नहीं पड़ता। प्रोटेस्ट बड़े-बड़े होते हैं। मैसो आंदोलन होते हैं। उन पे कोई फर्क नहीं पड़ता। और इतने दिनों तक सोनम वांगचुक जी का आंदोलन रहा या प्रोफेसर जे डी अग्रवाल का आंदोलन रहा। हसदेव बचाओ रहा। ये चीजें लाइमलाइट में नहीं आ पाती हैं। तो ऐसी चीजों में अपने स्टेट के अगेंस्ट जो अपने डिसए्रीमेंट है उनको रेज करने का करेक्ट वे क्या है? इस टाइप की डेमोक्रेसी में जो आज प्रैक्टिस हो रही है।
आचार्य प्रशांत: देखो अब दुनिया भर में दलों ने, पार्टियों ने, चतुर नेताओं ने ये कला सीख ली है कि डेमोक्रेसी को डेमोक्रेसी के माध्यम से ही खोखला कैसे करना है। ठीक है? तो कहीं पर भी कोई तख्तापलट होने नहीं जा रहा है। जो पहले बहुत होता था ना कु हो गया। वो कु नहीं होने जा रहा। तानाशाही के जमाने लद गए। वो नहीं होगी। अब बस ये करा जाएगा कि जो जनता ही है, मतदाता उसको ही इस तरीके से मैन्यूपुलेट कर दिया जाएगा मिसइफेशन के माध्यम से मीडिया के माध्यम से सबसे ज्यादा मीडिया के ही माध्यम से कि वो खुद ही अपने लिए किसी अथॉरिटेरियन को चुन लेगा। बात समझ रहे हो?
वो यह तक कर सकता है कि डेमोक्रेटिकली वोट दे दे कि उसे डेमोक्रेसी चाहिए ही नहीं। ये कितनी मजेदार बात है। उसने डेमोक्रेटिकली वोट दिया है कि मुझे डेमोक्रेसी चाहिए ही नहीं। प्योर रिसर्च ने करा कि दुनिया में कहां पर कितने लोग ऑथॉरिटेरियन रूल को स्वीकार करने के लिए तैयार है। सबसे ज्यादा लोग मालूम है कहां निकले? भारत में। मेरे ख्याल से भारत की सिर्फ 22% आबादी है। जिसने साफ ना कहा है कि किसी भी हालत में हमें किसी तरीके का कोई विशेषाधिकारी नहीं चाहिए। विशेषाधिकारी कि माने जिसके पास संविधान से आगे के ऊपर के अधिकार हों। नहीं चाहिए। बाकी 78% लोग भारत में थोड़ा कम थोड़ा ज्यादा किसी तरीके से अथॉरिटी को स्वीकार करने के लिए तैयार बैठे हुए हैं पहले से। तो डेमोक्रेसी को अगर आप एक पेड़ मानोगे ना तो उसको एक तरह की जमीन चाहिए होती है। और वो जमीन होती है सही चुनाव ले पाने वाली चेतना की।
क्योंकि डेमोक्रेसी तो इसी पर चलती है। कि आप सब लोग हो और आपको इतनी तमीज है कि वोट कहां डालना है और आपकी चेतना अगर ऐसी है ही नहीं कि आप जिंदगी में कोई भी सही चुनाव कर सको तो आप अपने प्रतिनिधि या नेता का ही सही चुनाव कैसे कर लोगे और नेताओं ने और दलों ने यह अब कमजोरी बखूबी पकड़ ली है। असल में अब क्या पकड़ ली? हिटलर भी तो चुनाव ही जीत के आया था। तो ये तब से नेताओं ने पकड़ी हुई है ये बात। तब से नेताओं ने ये बात सबको पता है कि डेमोक्रेसी से चुनाव जीत करके फिर डेमोक्रेसी को सबवर्ट करा जा सकता है और ऐसे करा जा सकता है कि जनता खुद कहे कि वाह! वाह! वाह! क्या काम किया है। इतना तो सुनते हो कि भारत को भी जो है एक ऑथॉरिटेरियन रिजीम की जरूरत है। कितने ही लोग हैं वो बहुत गंभीरता से बोलते हैं कि इंडिया सफर्स फ्रॉम टू मच डेमोक्रेसी। नो इंडिया सफर्स फ्रॉम टू मच इग्नोरेंस सर। डेमोक्रेसी समस्या नहीं है। डेमोक्रेसी को झूठ-मूठ की समस्या बना कि तुम सिर्फ तानाशाही को जस्टिफाई करना चाहते हो।
भारत की समस्या है। भारत का अंधेरा, भारत का अज्ञान, भारत की अशिक्षा। भारत का बहुत सारा कचरा जो अतीत से आ रहा है और उस कचरे को भी साफ नहीं किया गया ठीक से। ये है भारत की समस्या। और इस समस्या का नाम लेने की जगह, इस समस्या पर ध्यान देने की जगह आप झूठ-मूठ कह रहे हो कि भारत की समस्या लोकतंत्र है। ताकि जो सही समस्या है वो यथावत बनी रहे। सही समस्या की बात ना करनी पड़े। तो इसीलिए आपने यह लगभग ऐसी सी बात है कि बहुत ही ज्यादा बिल्कुल लाइलाज़ मरीज हो एकदम आखिरी अवस्था के। उनको बचाना लगभग असंभव है। और आप बोल दो कि ये जो ये जो डॉक्टर है ना यही बेकार है। भाई ये भी तो देखो कि तुम्हारा जो मरीज है वो कितनी खराब भारत में डॉक्टर के पास आया है। भारत में कुछ बहुत-बहुत गहरी बीमारियां हैं। वो बीमारियां हैं जिनके कारण यहां का जो जनमानस है वो सही नेताओं को नहीं चुन पाता है। उससे जाकर के उसकी जाति की बात कर दो। उसका वोट पलट जाता है। आप किसी को वोट देने जा रहे थे। पीछे से कोई आया बोला तू जातिद्रोही है क्या? मैं तेरी जाति का हूं। मुझे वोट नहीं दे। उसका वोट पलट जाएगा। ये गहरी बीमारी है। वायरस ने अटैक किया और सिस्टम वायरस के सामने ईल्ड कर गया घुटने टेक गया।
धर्म का तो कहना ही क्या हम गरीबी का और लालच का कहना ही क्या ये बीमारियां है और इन बीमारियों के साथ लोकतंत्र का चलना बड़ा मुश्किल है। पहले क्या होता था कि नोट बटते थे। नोट बटते थे, बूथ कैप्चर होते थे। इस तरीके से होता था। जो पॉपुलर मैंडेट होता था उसको इस तरह से स्कटल किया जाता था। नोट वोट बांट दी गरीबों में और अपना 500 क्या ₹100 में भी वो अपना वोट बेच देते थे। अब उसका नया तरीका है वेलफेयर स्कीम्स। कि मेनिफेस्टो में ही प्रॉमिस कर दो कि अगर हम आएंगे वैसे तो ₹500 देते घर में आके वो भी धीरे से नोट में ₹500 देते। अब हर महीने सबको ₹2000 देंगे। हो गया ठीक है। काम चल गया। भारत में वो जमीन नहीं है जो सवाल पूछना जानती हो। हमने अपना आत्मसम्मान बहुत गिरा दिया है। हम बहुत जल्दी बिक जाते हैं। बहुत जल्दी बिक जाते हैं।
कोई बोल रहा है कि ट्रेन में टिकट फ्री हो जाएगा। बस में फ्री हो जाएगा। यह हो जाएगा। कोई तो सीधे कैश ट्रांसफर की बात कर रहा है। बैंक में पैसा आ जाएगा। कितना जाएगा? ₹1000, ₹1500, ₹2000 इतना आ जाएगा। उतने के लिए हम बिक जाते हैं। अब जनतंत्र थोड़ी चलता है ऐसे। जनतंत्र के लिए एक खुद्दार जनता चाहिए। जो कहे कि क्या कर रहे हो? घूस दे रहे हो। यह तुम घूस देके ही तो वोट खरीद रहे हो। बस यह लीगल घूस है। और क्या है ये? क्या बहुत खुश हो के बता रहे हो कि इतने करोड़ लोगों को हमने राशन पर कर दिया है। सब्सिडाइज्ड हम उनको दाना पानी भी देते हैं, बिजली भी देते हैं, पानी भी देते हैं और खाद भी देते हैं। क्या बता रहे हो ये? तुम यही बता रहे हो ना कि हमारी कितनी दुर्दशा है, कितनी बेरोजगारी और कितनी गरीबी है। कि 80 करोड़, 100 करोड़ लोगों को इस तरीके से जीना पड़ रहा है।
वो आत्मसम्मान जो है ना वो और वो आत्मसम्मान वो शुरू ही होता है आत्म से। भारत ने अपना आत्म खो रखा है। और ये इतने ज्यादा दुख की बात इसलिए है भाई क्योंकि भारत ही है जिसने सबसे पहले आत्मा के सामने सर झुकाया था। विचार के सामने, दुनिया के सामने, तरह-तरह की खोजों के सामने। तो पश्चिम ने भी सर खूब झुकाया। भारत अकेला था, जिसने कहा था नहीं। मैं तो सबसे पहले अपने सामने सर झुकाऊँगा। अष्टावकर गीता मालूम है क्या बोलती है? “अहो अहम” मुझसे ज्यादा आश्चर्यजनक क्या हो सकता है? अहो आश्चर्य का भाव नमो महम और मुझे अगर झुकना है तो बस अपने ही सामने झुकूंगा। भारत है जिसने अपने आप को इतना सम्मान दिया। यह कहलाता है आत्मसम्मान। अहो अहम नमोवहम। अहंकार नहीं है। यह अहंकार बहुत छोटी चीज होती है। वो बोलता बस है। वो झुक कहीं भी जाता है। दो लात मारो अभी झुक जाएगा।
आत्मा दूसरी चीज होती है जो बिकने को तैयार नहीं होती। जो कहती है दुनिया की कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे छू सके। खरीदेगी क्या? वो आत्मा होती है। भारत आत्मा से बहुत दूर हो गया। हमारा सब कुछ बिकाऊ हो गया। हमारी निष्ठा बिकाऊ है। जाति का नाम ले लो, मान्यता का नाम ले लो, धर्म का नाम ले लो दिख जाते हैं। हम ज्ञान और सत्य के सामने नहीं झुकते। हम मान्यता और परंपरा के सामने बिक जाते हैं। आ रही है बात? तो भारत में जनतंत्र का आधार कमजोर है और तब तक कमजोर रहेगा जब भारत के जनजीवन में एक आध्यात्मिक जागृति नहीं आ जाती। डेमोक्रेसी में एक बहुत बड़ा एजंपशन है और इनवैलिड एजंपशन है। कि लोग स्वतंत्र हैं वोट देने के लिए। भाई हम बाहर से स्वतंत्र होंगे। भीतर से हम स्वतंत्र नहीं हैं। तो भारत एक जबरदस्त तरीके की फ्लॉड डेमोक्रेसी है। दुनिया में सब फ्लॉड डेमोक्रेसीज हैं। पर भारत तो बिल्कुल अग्रणी है फ्लॉड होने में। जब तक हम जानेंगे नहीं कि हम कौन हैं और सचमुच हमें चाहिए क्या और जो हमें चाहिए उससे प्रेम इतना होना चाहिए कि अब बिकेंगे नहीं। जिस चीज़ से प्यार होता है वह बेची नहीं जाती ना। हम भारतकि आत्मा से दूर आ गया इसीलिए भारत प्रेम से ही बहुत दूर आ गया है। हमारे यहां मोह माया ममता बहुत चलता है। प्रेम हम बिल्कुल नहीं जानते।
जो प्रेम जानेगा वो बिक नहीं सकता। जो प्रेम जानेगा वो किसी छोटी चीज पर रुक नहीं सकता। छोटे जगह पर, छोटे आदमी के सामने, छोटे लालच के सामने सामने भी नहीं झुक सकता।
लोकतंत्र बहुत बढ़िया चीज है। पर उसके लिए लोक जगा हुआ होना चाहिए। हमें जबरदस्त शिक्षा की जरूरत है। बाहरी शिक्षा भी और भीतरी शिक्षा भी। नहीं तो लोकतंत्र का ढांचा बरकरार रहेगा और भीतर-भीतर उसके बिल्कुल कुछ विपरीत चलता रहेगा। बाहर लोकतंत्र ही रहेगा। ऑफिशियली तुम यही कहलाओगे कि अभी भी डेमोक्रेसी हो पर भीतर भीतर कुछ और चलता रहेगा। भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में हर जगह यही होने जा रहा है। संविधान कोई नहीं बदलने वाला। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने कह रखा है कि जो बेसिक स्ट्रक्चर है उसको तो तुम अमेंड मॉडिफाई भी नहीं कर सकते। तो संविधान वैसे ही रहेगा पर उस संविधान का इंटरप्रिटेशन बदल दिया जाएगा। इंटरप्रिटेशन तो बदल सकते हो ना और शब्द ही तो लिखे हैं। हाँ तो उन शब्दों में कुछ और अर्थ कर दो। और कह दो हम संविधान का ही तो पालन कर रहे हैं। उन शब्द का अर्थ ही कुछ और कर दो। इक्वलिटी लिखा है। बोल दो इक्वलिटी का मतलब ये है कि ब्राह्मण-ब्राह्मण इक्वल है और बनिया-बनिया इक्वल है। और औरत-औरत इक्वल है। संविधान में इक्वलिटी ही तो लिखा है। हो गई इक्वलिटी। इक्वलिटी अमंग इक्वल्स। अरे जब आदमी औरत इक्वल** ही नहीं है तो उनमें आपस में थोड़ी इक्वलिटी होगी। औरत और औरत इक्वल है। और औरत में भी ब्राह्मण औरत और ब्राह्मण औरत इक्वल है तो संविधान को आपको नहीं तोड़ना मरोड़ना पड़ा और आपका काम भी हो गया। समझ में आ रही है बात?
भारत को वास्तविक धर्म चाहिए। भारत को उपनिषद चाहिए। भगवत गीता चाहिए। भारत को वेदांत चाहिए। भारत को हमें अपने षड दर्शनों के पास ले जाना पड़ेगा। उन्हें बताना पड़ेगा। भगवान बुद्ध भगवान महावीर हमसे क्या कहना चाहते थे? सिखाना पड़ेगा। क्या हो गया था हिंदू धर्म को? को कि सिख गुरुओं को एक नई धारा ही खोलनी पड़ी। हमें सीखना पड़ेगा। जो पूरा संत समुदाय था उसे क्यों जरूरत पड़ी हिंदू धर्म में सुधार लाने की? हमें जानना पड़ेगा। क्या गलतियां थी जिसके लिए इतने संतों ने इतना कहा और सिर्फ कहा ही नहीं है। कईयों ने तो प्राण भी दे दिए। क्यों उन्हें अपने इतने जान की बाजी प्राणों का उत्सर्ग जरूरत क्या पड़ी थी यह हमें जानना पड़ेगा। क्योंकि वही सब बुराइयां जो बुद्ध महावीर के जमाने में भी मौजूद थी हम गुरु नानक संत कबीर के जमाने में भी मौजूद थी राजा राममोहन रॉय और ज्योतिबा फुले के समय भी मौजूद थी वो सब बुराइयां आज भी मौजूद हैं और उन बुराइयों के साथ लोकतंत्र नहीं चल सकता उन बुराइयों को हमें पहचानना पड़ेगा, सफाई करनी पड़ेगी।
प्रश्नकर्ता: सर, जैसे ये बुराइयां तो प्रेजेंट हैं पर जैसे मैंने बोला कि हम जब भी निकलते हैं मतलब प्रोटेस्ट इसका तरीका क्या होगा? मतलब मुझे लगता है रोड ब्लॉक प्रोटेस्ट तो इसका कोई तरीका हो नहीं सकता। एक्चुअली मुझे मतलब मैं क्लासिकल तरीके पढ़ रहा था तो मुझे एक स्टेटमेंट मिला कि “जब सड़कें खाली होती हैं तो संसद आवारा हो जाती है।” पर आज सड़कें खाली हो या भरी हो संसद आवारा ही लगती है।
आचार्य प्रशांत: सड़कों पे काम नहीं चलेगा ना। वह तब होता था जब लोग सड़क की ओर देखते थे। आज लोग सारे समय आंखें तो सोशल मीडिया की ओर देख रहे होते हैं। तुम सड़क पे जा के बैठोगे तुम्हें देख कौन रहा है? हर काम के लिए ऑडियंस चाहिए होती है भाई ऑडियंस गांधी जी भी जो कर पाए इसलिए कर पाए क्योंकि उनके पास ऑडियंस थी। भगत सिंह की कुर्बानी को भी आज हम इसलिए जान पाते हैं क्योंकि तब अखबारों को आजादी थी। लंबा उनका साल भर लंबा केस खींचा था कि उस केस के छोटे से छोटे पहलू को जन-जन तक पहुंचाओ। ऑडियंस थी तुम वहां सड़क पर बैठे हो और वहां तुम्हें कोई थोड़ी देर में कह रहे हो पानी पिलाने वाला तो कोई आ जाए। उससे नहीं होगा।
और हर साल तो देश में चुनाव होते रहते हैं ना। इतना बड़ा देश है, इतने सारे राज्य हैं। अगर जनता वास्तव में ख़फ़ा हो तो अगला चुनाव बस तीन महीने दूर होता है। यहां हो रहा है। नहीं तो वहां हो रहा है। नहीं तो वहां हो रहा है। जनता खफा ही नहीं है। जनता कहीं ख़फ़ा नहीं है। ट्रंप का जो मैंडेट था अमेरिका में वो मैंडेट ऐसा है कि वो इविल है मैंडेट। जनता ख़फ़ा हुई है क्या? पिछली बार तो ट्रंप की जब जीत हुई थी तो कम से कम पॉपुलर वोट कम मिला था। इस बार तो अगर तुम एब्सोल्यूट नंबर ऑफ वोट्स भी करो तो वो ज्यादा जीत के आया है। जनता ख़फ़ा थोड़ी है। जनता तो खुश है। तो नेताओं की बुराई करनी बंद करनी पड़ेगी। पहले तो इस जनता को ठीक करना पड़ेगा। नेता तो बेचारा जनता का पिछलग्गू है। जनता जैसी है। नेता भी अपना उसी से काम चला रहा है स्वार्थ। यह जनता ही गड़बड़ है। और जब तक इस जनता को नहीं सुधारोगे बात बनेगी नहीं।
प्रश्नकर्ता: एक्चुअली इसी सिस्टम को फॉलो करते हुए जब मैं आप बोलते हैं कि चेतना का कोई स्वभाव नहीं होता। और जब समाज अपनी चेतना पे जिएगा तो परम स्वतंत्र होगा। तो प्लेटो जैसे दार्शनिक भी इस बात को जानते थे कि चेतना का कोई स्वभाव नहीं होता। फिर भी जब बात शासन व्यवस्था की आई तो उन्होंने एक नोबल लाई का कांसेप्ट दिया कि प्लेटो नोबल लाई और एक नोबल लाई के बेस पर समाज को संगठित किया जाए। तो क्या प्लेटो यही कहना चाहते थे कि जनता कभी उस लेवल पर पहुंच नहीं सकती। तो जब बुराई से ही चलना है तो एक नोबल लाई बना दिया जाए। सो दैट सोसाइटी जो है ऑर्गेनाइज्ड वे में चले।
आचार्य प्रशांत: देखो जो प्लेटो की पूरी व्यवस्था थी दी हुई वो बहुत हैरार्कीकल थी ठीक है और ऑथॉरिटेरियन भी थी हम वो डेमोक्रेटिक नहीं थी प्लेटो तो कह रहे हैं कि जो चुनो चुनो चुनो सबसे प्रतिभाशाली कौन है उनमें भी छानते जाओ छानते जाओ छानते जाओ 40 साल तक छानो और 40वें 45वें साल में जो सबसे अग्रणी हो उसको राजा ही बना दो सीधे ठीक है ये डेमोक्रेटिक व्यवस्था नहीं है तो वहां ये चल सकता था लेकिन दुनिया में आज तक जितनी भी व्यवस्थाएं सोची गई हैं पॉलिटिकल उनमें सबसे अच्छी अपनी तमाम खामियों के बावजूद सबसे अच्छी तो व्यवस्था लोकतंत्र ही है। बस अब लोकतंत्र में जो सबसे बड़ी खामी है वो ये है कि लोकतंत्र बेचारा आश्रित होता है लोक पर। जैसे लोक होंगे वैसा लोकतंत्र हो जाता है। तो लोकतंत्र सुधारना है तो ये जो लोक बैठे हैं इनको सुधार दो। बस और कोई तरीका नहीं है।
प्रश्नकर्ता: वेरी वेरी थैंक यू।
प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। ये एक फॉलो अप क्वेश्चन ये है इसी से रिलेटेड थोड़ा। मैं नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी सोनीपत का छात्र हूं फर्स्ट ईयर का। तो ज्यादातर जो वहां पे डिस्कशंस होते हैं लॉ से रिलेटेड जो अब तक मैंने मतलब फर्स्ट ईयर में देखे हैं वो सर फ्रीडम के मतलब राइट टू प्राइवेसी और इस चीज के ऊपर ज्यादा होते हैं फ्रीडम के ऊपर कि फ्रीडम चाहिए, फ्रीडम होनी चाहिए। हर चीज की फ्रीडम होनी चाहिए। और हम जो अध्यात्म में देखते हैं वो वहां पे वो फ्रीडम की अलग बात करता है। दैट फ्रीडम इज़ फॉर द फ्री। अब मैं इन दोनों में मैं जानना चाहता हूं कि एप्रोच कैसे होनी चाहिए कि हम क्योंकि कॉन्स्टिट्यूशन ना लॉज़ ना आर्टिकल कोई भी इस तरीके की फ्रीडम की बात नहीं करता जो अध्यात्म में दी गई है। तो इसे आप इस इसे इस तरफ जाने की अप्रोच क्या होनी चाहिए और दोनों में मतलब क्या समानताएं हैं इन दोनों फ्रीडम्स में और क्या डिफरेंसेस हैं सर?
आचार्य प्रशांत: देखो समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए व्यक्ति को जो स्वतंत्रता मिलनी चाहिए हम तो कानून व्यवस्था न्याय प्रणालियां संविधान बस उसकी ही तो बात करेंगे ना तो वो अपनी जगह बिल्कुल ठीक की बात कर रहे हैं। राइट टू प्राइवेसी, राइट टू लाइफ, राइट टू इक्वलिटी, राइट टू फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन, कल्चरल एजुकेशनल राइट्स। हमारी फंडामेंटल राइट्स हैं तुम जानते ही हो। फिर अनुच्छेद 21 है उसमें राइट टू लाइफ है। उसके ना जाने कितने अलग-अलग तरीके के इंटरप्रिटेशन हो गए हैं। उसमें राइट टू रेपुटेशन भी आ गया। तो वो सब चाहिए ताकि समाज ठीक से चलता रहे। हां, समाज को यह हक ना मिल जाए कि वो व्यक्ति के ऊपर चढ़ के बैठ गया है। ना समाज को वो हक मिले ना सत्ता को। तो जब आप कहते हो फंडामेंटल राइट हैं। तो दोज़ आर द फंडामेंटल राइट्स ऑफ द इंडिविजुअल अगेंस्ट द स्टेट एंड इट्स इंस्टीटशंस। ठीक है? कि तुम्हारा दमन जो है वो कोई और ना कर ले उसके लिए संविधान तुमको ये सब मौलिक अधिकार देता है।
लेकिन तुम अपना दमन अगर खुद ही करना चाहो तो संविधान कुछ नहीं बोलता। कोई और अगर तुम्हारी फ्रीडम ऑफ स्पीच छीनेगा तो तुम बिल्कुल जाकर के इसे एक लीगल रेमेडी मांग सकते हो कोर्ट के पास जाकर के कि देखो फलाना है और वो मुझे बोलने नहीं दे रहा लेकिन कोई अगर तुमको भीतर से भ्रष्ट करके तुम्हारे विचार ही गंदे कर दे तो इस चीज की कोई लीगल रेमेडी नहीं है। व्यक्ति के भीतर क्या हो रहा है? संविधान इस पर बहुत नहीं बोलता क्योंकि उसका जो उद्देश्य है संविधान से मेरा अर्थ है कोई भी विधान ठीक है कोई भी विधि प्रणाली वो इसका बोलते नहीं क्योंकि उनका उद्देश्य ये है कि समाज ठीक से चले इंसान और इंसान का रिश्ता ठीक रहे और इंसान और राज्य का रिश्ता ठीक रहे इंसान का अपने साथ क्या रिश्ता होगा इसके लिए तुमको लॉ नहीं स्पिरिचुअलिटी पढ़नी पड़ेगी कि मेरा मेरे साथ क्या रिश्ता होना चाहिए कोई और तुम्हारा शोषण ना करे इसके लिए संविधान है। तुम खुद अपना शोषण ना करो इसके लिए वेदांत है। और खतरनाक बात ये होती है कि कोई और हमारा शोषण बाद में करता है। सबसे ज्यादा शोषण हम खुद ही अपना करते हैं। हम तो इसलिए मैं बोला करता हूं कि अच्छा संविधान भी आध्यात्मिक मूल्यों से ही पैदा हो सकता है। पहले ये जरूरी है कि हम अपने साथ अच्छे हों। फिर हम अपने पड़ोसी के साथ भी अच्छे हो जाएंगे।
प्रश्नकर्ता: थैंक यू सर। थैंक यू।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। मेरा नाम गौरव है। आई एम अ रिसर्च स्कॉलर हियर। सो मेरा क्वेश्चन है कि आजकल थोड़ा सा सोशल मीडिया पे ट्रेंड हो गया कि बहुत लोग इवन हाईली एजुकेटेड पीपल आल्सो दे टॉक अबाउट द एंशिएंट गुरुकुल सिस्टम। एंशिएंट गुरुकुल सिस्टम्स अबाउट इंडिया मेंस इन इंडिया। सो उस टाइम में अगेन हम वो लोग बोलते हैं कि दिस वाज़ सुपरियर देन दिस करंट एजुकेशन सिस्टम। बिकॉज़ वहां पे एजुकेशन के जो एरथमैटिक या साइंटिफिक जो एजुकेशन था उसके साथ-साथ लाइक वैल्यू एजुकेशन भी सिखाते थे लाइफ स्किल्स। बट हम ये भी देखते हैं कि वहां पे सभी लोगों को अलाउ नहीं था उस एजुकेशन लेने के लिए। -सर्टेन मींस सर्टेन सेगमेंट्स ऑफ द सोसाइटी ओनली अलाउड एंड इवन वुमेन आल्सो वुमेन आर आल्सो नॉट अलाउड देयर। सो व्हाट इज योर थॉट अबाउट दिस एंड*
आचार्य प्रशांत: नहीं यह यहां तक बात ठीक है कि भई लाइफ एजुकेशन सिखाई जानी चाहिए। तो जो करंट एजुकेशन सिस्टम चल रहा है। आप इसमें लाइफ एजुकेशन का भी डिपार्टमेंट बना दो ना। ठीक है? बात खत्म।
प्रश्नकर्ता: बट ये लोग चाहते हैं कि नहीं वही सिस्टम फिर से आ जाए।
आचार्य प्रशांत: तो ये लोग फिर लाइफ एजुकेशन नहीं चाहते ना। जो लोग बोल रहे हैं गुरुकुल वापस चाहिए। वो बोल रहे हैं गुरुकुल इसलिए वापस चाहिए ताकि उसमें हम अध्यात्म और जीवन शिक्षा सिखा सकें। पर कहीं ना कहीं उनका मंसूबा हमें पूछना पड़ेगा। यह तो नहीं है कि गुरुकुल इसलिए वापस चाहिए ताकि समाज का एक बड़ा तबका शिक्षा से दूर रखा जा सके। महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जा सके। बाकी अगर वो कहते हैं कि गुरुकुल इसलिए अच्छा था क्योंकि उसमें हम को अध्यात्म की भी शिक्षा दी जाती थी तो मैं उनके विचार से सहमत हूँ। अध्यात्म की वो शिक्षा हम आईआईटी में भी दे सकते हैं। अपने स्कूलों में भी दे सकते हैं। जीवन शिक्षा बिल्कुल दी जानी चाहिए। वो बिल्कुल ठीक है। उसमें कोई समस्या नहीं है। उस विचार से हम सहमत हैं।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा नाम नीरू है। मैं दिल्ली से हूँ। मैं आपसे पूछना चाहती हूँ कि आप इतने सुलझे हुए हैं पॉलिटिक्स में भी और सारी चीजों में अगर मैं आपको एक अच्छे पॉलिटिशियन के रूप में देखना चाहूं तो क्या आप इस लाइन में आना पसंद करेंगे?
आचार्य प्रशांत: आदमी भीतर से अच्छा हो जाए तो बाहर सब अच्छा हो जाता है ना। पॉलिटिक्स भी अच्छी हो जाएगी। हाँ, गीता का उपदेश दिया गया है। इसीलिए तो ताकि जो पूरी हस्तिनापुर की पॉलिटिक्स है वो गलत हाथों में ना चली जाए।
प्रश्नकर्ता: लेकिन अगर कृष्ण सबको मिले ये भी तो जरूरी है। सिर्फ अर्जुन को ही ना मिले ना।
आचार्य प्रशांत: कृष्ण का काम है गीता पढ़ाना। वो पढ़ा रहा हूँ। उससे पॉलिटिक्स ठीक हो गई थी। बशर्ते कृष्ण की बात को अर्जुन। पॉलिटिक्स ठीक होगी।
प्रश्नकर्ता: लेकिन दुर्योधन जैसे यदि सत्ता में है।
आचार्य प्रशांत: कृष्ण ने नहीं हाथ उठाया था आपको ही करना है।
प्रश्नकर्ता: नहीं ये तो ये तो नहीं कहा जा सकता अगर परेशानी आई थी तो कृष्ण ने पहिया उठाकर भीष्म के ऊपर वार करने की कोशिश भी की थी।
आचार्य प्रशांत: जिस दिन आएगी परेशानी उस दिन मुझे भी पाइएगा कि ट्रक का पहिया उठाकर ।
प्रश्नकर्ता: बहुत अच्छा लेकिन मैं चाहूंगी कि आप भी ऐसी जगह पर हो जहां पर आप संविधान को एक सही रूप में दे पाएं पूरी जनमानस को जैसे भारत का गौरव बढ़े।
आचार्य प्रशांत: मैं कैसे बताऊं कि मैं वो कर ही रहा हूं, आप ध्यान तो दीजिए।
प्रश्नकर्ता: लेकिन कुछ पॉलिटिशियन आपको वहां तक नहीं पहुंचने दे रहे हैं ना।
आचार्य प्रशांत: देख लेंगे ऐसी क्या बात है गीता पढ़ाना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है।
प्रश्नकर्ता: जी।
आचार्य प्रशांत: अगर ये हो गया तो बाकी सब बच्चों के खिलौने हैं।