आचार्य प्रशांत: भारत इतना मूरख कभी नहीं था। कंचन-कामिनी, दोनों का यथार्थ भारत ने इतना समझा, इतना समझा कि जैसे यहाँ की मिट्टी को ही अकल आ गयी हो। यहाँ का जैसे कोई बिल्कुल आम, औसत आदमी भी, गाँव का एक किसान भी, इतनी बुद्धिमानी रखता था कि कंचन-कामिनी पर नहीं मरना है। हालाँकि इनका जो आकर्षण होता है वो बड़ा प्राकृतिक होता है, बड़ा ज़बरदस्त होता है, लेकिन फिर भी कम-से-कम सैद्धांतिक रूप से तो उसको पता था कि ये चीज़ें ठहरने वाली नहीं होतीं। यही वजह थी कि भारत ने शारीरिक सौंदर्य को कोई बहुत बड़ी बात नहीं माना। हालाँकि यहाँ श्रृंगार के काव्य भी रहे हैं, श्रृंगार के शास्त्र भी रहे हैं, विविध तरीकों से सौंदर्य का चित्रण भी किया गया है, लेकिन फिर भी शारीरिक रूप से कोई इंद्रियों को कितना आकर्षक लग रहा है, इस चीज़ को भारत ने कभी बहुत महत्व दिया नहीं। मैं आज से सौ दो-सौ साल पहले तक की बात कर रहा था।
बाबरनामा कहता है कि जब बाबर हिंदुस्तान में कुछ महीनों के लिए रहा, तो कहा करे कि, "यहाँ के लोग अति साधारण हैं; ना लंबे हैं, ना तगड़े हैं, ना सुंदर हैं। बहुत साधारण लोग हैं।" आम नागरिकों की बात कर रहा था, तो बोले कि, "मुझे काबुल बहुत याद आता है; काबुल के फल, काबुल के ख़रबूज-तरबूज़। हिंदुस्तान का तो चना भी काबुली चने से कुछ छोटा है।" ये एक आम भारतीय की शारीरिक रूप रेखा थी।
आँखों को चौंधिया देने वाला रूप, आकर्षण, लावण्य, भारत ने कभी बहुत कीमत का माना ही नहीं। स्त्री में इस बात की कभी बहुत प्रशंसा नहीं की गयी कि उसके पास दमदमाता, दहकता रूप है। और आज भी अगर आप थोड़ा देहात की तरफ जाएँगे, जहाँ पाश्चात्य हवा ज़रा कम बहती हो, तो आप पाएँगे कि अगर कोई लड़की बहुत ज़्यादा रूप-श्रृंगार करके घूम रही हो तो उसके घर वाले ही इस बात को पसंद और प्रोत्साहित नहीं करते। कहते हैं, “ये कोई बात है? ये शील का और अच्छे चरित्र का लक्षण नहीं है कि तुम इतना सजती-संवरती हो”।
ये बात सिर्फ संस्कृति और प्रथा की नहीं है, इसके पीछे सिद्धांत था एक गहरा, बल्कि बोध था गहरा। बोध ये था कि इस शरीर को इतना चमकाने से पाओगे क्या? और ज़्यादा देह केंद्रित हो जाओगे, बॉडी आईडेंटिफाइड। और फिर कह रहा हूँ, ऐसा नहीं कि प्राकृतिक रूप से भारतीय सुंदर थे नहीं या हो नहीं सकते थे। प्राकृतिक रूप से सुंदरता भारत को भी बहुत बख़्शी गई है, पर वो सुंदरता सहज और नैसर्गिक है, कृत्रिम नहीं, थोपी हुई या चमकाई हुई नहीं है। सरलता पर ज़ोर था, सहजता पर ज़ोर था, सादगी पर। जो जितना सादा रहता था, उसको उतनी प्रशंसा और मूल्य मिलता था।
इसी तरीके से धन की बात: भारत विश्व अर्थव्यवस्था में बड़ा अग्रणी देश रहा। सत्रहवीं, बल्कि अट्ठारहवीं शताब्दी तक भी ऐसा नहीं है कि भारत में पैसों की कमी थी, लेकिन धन के प्रदर्शन को कभी अच्छा नहीं माना गया। जैसे यहाँ की मिट्टी ही जानती थी कि सब धन मिट्टी ही हो जाना है। कोई अगर अपना पैसा दिखाकर रुआब झाड़े या सम्मान पाना चाहे तो उसको बहुत सफलता नहीं मिलती थी। अपवाद रहे होंगे, मैं प्रचलित संस्कृति की, आम संस्कृति की बात कर रहा हूँ। ज़्यादा कीमत दी जाती थी गुणों को, ज्ञान को, गहराई को, बोधवत्ता को।
फिर ये सब बदला। एक दिन में नहीं, वो बदलाव भी एक लंबी प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ। वो प्रक्रिया आप समझिए। संस्कृति बहुत श्रेष्ठ थी भारत की और बोध बहुत गहरा था भारत का, लेकिन कई सौ सालों तक युद्धों में पराजय झेलनी पड़ी। और ऐसा नहीं कि निरन्तर पराजय ही झेलनी पड़ रही थी; आक्रांताओं का पुरज़ोर विरोध भी किया भारत ने, बहुत युद्ध जीते भी, बहुत लंबे समय तक आक्रमणकारियों को बाहर खदेड़ कर भी रखा, पर कोई चूक हुई होगी या काल का कुछ ऐसा संयोग बना होगा कि युद्धों में बार-बार पराजय झेलनी पड़ी। एक बार, दो बार होता है तो आदमी को अपने ऊपर शंका नहीं होती। आपको ज़िन्दगी में अगर एक-दो बार हार झेलनी पड़े, तकलीफ़ झेलनी पड़े तो आप झेल लेते हो, पर अगर बार-बार आपको हार झेलनी पड़े, तो पक्के-से-पक्के आदमी को भी अपने ऊपर शक होने लग जाता है।
बहुत दिनों से हार झेल ही रहे थे, और फिर जब अंग्रेज़ों के आगे हार मिली, तो वो हार बहुत बुरी और गहरी थी; पूरे हिंदुस्तान पर ही कब्ज़ा कर लिया अंग्रेज़ों ने। इस हार ने भारत के आत्मबल की कमर तोड़ कर रख दी और आत्मबल का स्थान आत्मसंशय ने ले लिया। आत्मसंशय समझते हो? अपने ही ऊपर संदेह। इतने सालों से हारते आ रहे थे कि ये जो आख़िरी हार थी, जो अंग्रेज़ों के हाथों मिली, इस हार ने अधिकांश भारतीयों को ये निष्कर्ष करने पर मजबूर कर दिया कि ये जो विदेशी हैं ये हमसे शस्त्र बल, सैन्य बल और बाहुबल में ही नहीं श्रेष्ठ हैं, बल्कि इनकी संस्कृति भी हमसे श्रेष्ठ है। बात समझ रहे हो?
भारत के मन में हीनभावना घर कर गयी। भारत ने कहा, “हम इतना हार रहे हैं, कोई वजह तो होगी। निश्चित रूप से जो हमें हरा रहे हैं वो हमसे सिर्फ़ सैन्य रूप से बेहतर नहीं हैं, उनकी संस्कृति भी हमसे बेहतर है”। तो फिर भारत में अपनी ही संस्कृति के प्रति एक संशय का भाव जगा। भारतीय अपनी ही संस्कृति से हटकर उनकी संस्कृति अपनाने लग गए जो विजेता लोग थे। उन्होंने कहा कि, “भई, जो जीत रहे हैं उनमें कोई तो बात होगी न कि वो जीत रहे हैं, तो मुझे ज़रा उनकी संस्कृति अपनाने दो”। और उनकी संस्कृति में वैराग्य, विवेक, संयम, त्याग जैसे महत्वपूर्ण शब्द नहीं थे। जो विजेता लोग थे उनकी संस्कृति में विवेक, संयम, त्याग, और वैराग्य, ये शब्द नहीं थे।
अब शारीरिक रूप, यौवन और सौंदर्य का महत्व बढ़ गया। अब धन के अर्जन और प्रदर्शन—दोनों का महत्व बढ़ गया। और एक-एक चीज़ जिसके साथ भारतीयता जुड़ी हुई थी, उसका महत्व कम हो गया। जैसे भारतीयों ने कहा, “इस भारतीयता ने ही तो हमको इतना परास्त करवाया न, तो हम इस भारतीयता को ही त्याग देंगे”।" तो भारतीयों ने अपनी संस्कृति, भाषा, धर्म, इन सब से धीरे-धीरे कन्नी काटनी शुरू कर दी। और सुनो, रही-सही कसर पूरी की उस शिक्षा ने जो पिछले सौ सालों से भारतीयों को दी जा रही है। वो शिक्षा प्रत्यक्ष-परोक्ष हर तरीके से न सिर्फ़ आपको आपके धर्म और अध्यात्म से दूर रखती है, आपकी संस्कृति के प्रति उदासीन रखती है, बल्कि वो आपको तरीक़े-तरीक़े से जताती है कि जो कुछ भी श्रेष्ठ है, सुंदर है, वो अधिकांशतः भारत के बाहर कहीं विदेश में हैं। नतीजा ये हुआ है कि पहले तो भारतीयों में भारत के प्रति सिर्फ़ शंका का भाव था या उदासीनता थी, अब भारतीयों में भारतीयता के प्रति अपमान और अवमानना भर गयी है। हर वो चीज़ जिसका संबंध भारत के इतिहास से है, आज की युवा पीढ़ी उसे अनादर की दृष्टि से देखती है। क्यों? क्योंकि दिमाग में कहीं ये तुक बैठा दिया गया है, दिमाग में कहीं एक जोड़ बैठा दिया गया है। क्या? “भारत माने वो जो पिछड़ा है, परास्त है, जिसकी प्रगति नहीं होने वाली”। तो वो कहते हैं, “हमें तो प्रगति करनी है, हमें तो परास्त नहीं रहना, और भारतीयता का मतलब अगर यही है कि तुम पीटे जाओगे, तुम परास्त होओगे, तो हमें भैया भारतीयता चाहिए ही नहीं”। तो जो जवान पीढ़ी है आज की उसने भारतीय भाषा को त्याग दिया, उसने भारतीय पहनावे को त्याग दिया, भारतीय चाल-चलन को त्याग दिया, भारतीय ग्रंथों को त्याग दिया। जो कुछ भी भारतीय है और त्यागा जा सकता है, वो सब कुछ त्यागा जा रहा है। और जो जितना ज़्यादा भारतीयता को त्याग सकता है, उसको उतना ही ज़्यादा ही स्मार्ट माना जाता है।
तुम मुझे बताओ, ‘स्मार्ट’ की और परिभाषा क्या है? ‘कूल’ की और परिभाषा क्या है? जो जितना ज़्यादा अनइंडियन है, जो जितना ज़्यादा अभारतीय है, वो उतना स्मार्ट है। मुझे बताओ, खाल गोरी करने का और बाल सफ़ेद और नीले-पीले करने का औचित्य क्या है? ये मत कह देना, “ये तो ऐसे ही हमें बस अच्छा लगता है”। नहीं, यूँ ही नहीं अच्छा लगता। अगर तुम्हें यूँ ही कुछ भी अच्छा लगता तो तुम अपनी खाल कभी काली करके क्यों नहीं घूमते? कोई दिखा है आज तक जो अपना चेहरा काला करके घूम रहा हो? जब चेहरा काला होता है तब तो कहते हो, "कहाँ से मुँह काला करके आ गए?" ये गोरी खाल का इतना आकर्षण कहाँ से आ गया? तुम्हें समझ में नहीं आ रही बात? तुम अंग्रेज़ होना चाहते हो क्योंकि अंग्रेज़ो ने तुम्हें बहुत पीटा है। और तुम्हारे मन में ये बात घर कर गयी है कि “अगर मैं भारतीय हूँ तो मैं पिटूँगा, इसीलिए मुझे अंग्रेज़ होना है”।
बौद्धिक तल पर भी भारतीय जो बुद्धिजीवी हैं, वो पश्चिम के सामने ज़बरदस्त रूप से नतमस्तक हैं। पश्चिम से सिद्धान्त चलते हैं, पश्चिम से प्रयोग चलते हैं, और भारत उनका अंधा स्वीकार और अनुकरण कर लेता है। मुझे दिखा दो कोई बुद्धिजीवी जो कहे कि मैं भारतीय भाषा में ही बात करना चाहता हूँ। बुद्धिजीवी होने का तो अर्थ ही यही है कि जो कुछ भारतीय है तुम उसपर थूको, और जितना तुम ज़ोर से थूकोगे, उतने बड़े बुद्धिजीवी कहलाओगे!
ये और कुछ नहीं, ये बहुत गहरी हीनभावना है। और ये हीनभावना सिर्फ युद्ध के मैदान में बार-बार परास्त होने से और फिर सैकड़ों सालों तक गुलामी करने से आ गयी है। इतना मानना ठीक था कि सामने वाला हमसे सैन्य शक्ति में बेहतर निकला, या उसकी जो सामरिक नीति थी, वॉर-टेक्टिक्स, वॉर-स्ट्रेटिजीज़, वो हमसे बेहतर निकल गयीं। यहाँ तक मान लेते तो ठीक था, पर हमने तो बड़ी दूर की बात मान ली। हमने मान लिया कि वो बंदा ही हमसे बेहतर है। हमने मान लिया कि उसकी संस्कृति, कला, विज्ञान, भाषा, धर्म, सब हमसे बेहतर हैं। हमने मान लिया कि हम हर अर्थ में उनसे नीचे और गए-गुज़रे हैं।
ये आज के भारतीय युवा का मनोविज्ञान है। वो अपने आप को बहुत स्मार्ट और कूल समझता है जबकि है वो ज़बरदस्त रूप से हीनभावना से ग्रस्त और आक्रांत एक सिकुड़ा हुआ प्राणि; जिसको पता भी नहीं है कि वो कितना डरा हुआ है, भीतर से कितना दरिद्र है, गरीब है। उसको पता भी नहीं है कि वो कितना झुका हुआ है। उसको पता भी नहीं है कि वो किस कदर अंदरूनी गुलामी में जी रहा है। ये आज का भारतीय युवा है।
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