प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। सर अभी आपने एक प्रश्न में बताया कि एजुकेशन (शिक्षा) बहुत इंपॉर्टेंट (महत्वपूर्ण) है। सर अभी रिसेंटली (हाल ही में) असर (एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट) की रिपोर्ट पब्लिश (प्रकाशित) हुई है। तो उसके कुछ फैक्ट्स (तथ्य) मैं रखना चाहती हूँ।
सर, फैक्ट्स ये कहते हैं कि *ट्वेंटी-सिक्स परसेंट ऑफ़ द नाइंथ टू ट्वेल्थ क्लास स्टूडेंट्स कैन नॉट रीड क्लास सेकंड लेवल टेक्स्ट, थर्टी-सिक्स परसेंट ऑफ़ देम कुड नॉट डू सिंपल अरिथमेटिक्स लाइक सब्सट्रैक्शन एंड लॉन्ग डिवीज़न, सिक्स्टी-थ्री परसेंट कुड नॉट कैलकुलेट परसेंटेज प्रॉब्लम। फोर्टी-ऐट परसेंट ऑफ़ फीमेल एंड फोर्टी-टू परसेंट ऑफ़ मेल डू नॉट हैव रोल मॉडल्स फॉर देअर एस्पायर्ड कैरियर्स।
सर, इन नेटिव लैंग्वेज गर्ल्स आउट परफॉर्म दैन बॉयज़ बट इन इंग्लिश रीडिंग एंड मैथ्स, मेल आउट परफॉर्म्स गर्ल। फोर्टी-नाइन परसेंट ऑफ़ मेल्स आर एबल टू यूज़ गूगल मैप्स बट ऑनली ट्वेंटी-फाइव परसेंट ऑफ़ गर्ल्स एंड वूमेंस यूज़ इट फॉर देयर कन्वीनियंस।*
(नौवीं से बारहवीं कक्षा के छब्बीस प्रतिशत विद्यार्थी दूसरी कक्षा के स्तर की पाठ्य पुस्तक नहीं पढ़ सकते, उनमें से छत्तीस प्रतिशत सरल अंकगणित को हल नहीं कर सकते जैसे कि घटाना और भाग करना, तरेसठ प्रतिशत छात्र प्रतिशत से जुड़े प्रश्न हल नहीं कर सकते। अड़तालीस प्रतिशत महिलाओं और बयालीस प्रतिशत पुरुषों के पास अपने इच्छित करियर (आजीविका) के लिए कोई रोल मॉडल (प्रेरणास्रोत) नहीं है। मातृभाषा में लड़कियाँ लड़कों से बेहतर प्रदर्शन करती हैं, लेकिन अंग्रेज़ी पढ़ने और गणित में लड़के लड़कियों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं। उननचास प्रतिशत पुरुष गूगल मैप्स का उपयोग करने में सक्षम हैं, लेकिन केवल पच्चीस प्रतिशत लड़कियाँ और महिलाएँ ही अपनी सुविधा के लिए इसका उपयोग करती हैं।)
सर अगर एजुकेशन इतना इंपॉर्टेंट है, इतनी वैल्यू है तो रियलिटी में तो सबकुछ अपोज़िट दिख रहा है ग्राउंड पर और अभी भी हमारे जीडीपी में जो भी कंट्रीब्यूशन है एजुकेशन के लिए वो नेगलिजिबल है।
आचार्य प्रशांत: बजट में।
प्रश्नकर्ता: तो सर कैसे जो पॉपुलेशन है वो लायबिलिटी से एसेट बनेगा?
आचार्य प्रशांत: एजुकेट कराकर और कैसे!
प्रश्नकर्ता: सर, तो उसको तो कोई इंपोर्टेंस दे नहीं रहा न।
आचार्य प्रशांत: वो तो अब आपका लोकतंत्र, आपकी सरकार।
प्रश्नकर्ता: सर, आपने ये भी कहा कि चाइना हमारे साथ ही आज़ाद हुआ, तो चाइना तो इतना प्रोग्रेस कर गया। वहाँ पर स्किल-डेवलपमेंट पर भी बहुत फोकस किया जाता है लेकिन हमारे यहाँ ये सब, कुछ भी नहीं होता। तो हमारी डेमोक्रेसी में कमी है?
आचार्य प्रशांत: देखो, सबसे अच्छा रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट (निवेश पर प्रतिफल) मिलता है एजुकेशन से। आपके पास अगर पैसा है तो उसका जो सबसे अच्छा उपयोग हो सकता है वो यही है कि अपने बच्चों को उससे शिक्षा दे दें। लेकिन ये बात बताने वाला कोई चाहिए न? आम आदमी तक ये बात पहुँचे। जब उस तक ये बात नहीं पहुँचेगी तो वो फिर या तो उनको पढ़ने भेजता नहीं है या वो पढ़ने जाते भी हैं तो घर में कोई शिक्षा पर ज़ोर नहीं रहता। और चूँकि उसको ये बात नहीं पता है तो वो फिर ऐसी सरकारें पिछले सत्तर साल से लगातार चुनता हुआ आया है जो कि शिक्षा को बजट में बहुत कम एलोकेशन (आवंटन) देते हैं।
अब उतना कम एलोकेशन होता है तो न तो वहाँ पर जो स्कूल का इंफ्रास्ट्रक्चर (आधारभूत संरचना) है, वो किसी स्तर का होता है, न जो शिक्षक हैं, उनकी सर्विलेंस हो रही है कि वो क्या पढ़ा रहे हैं क्या नहीं पढ़ा रहे हैं। तो उनको भी अगर ले लो जिन्होंने ड्रॉप–आउट नहीं किया और आगे बढ़ गए प्राइमरी, सेकेंडरी, उनकी भी वही हालत है जो आपने बोला कि नौवीं-दसवीं के बच्चे हैं, वो दूसरी की किताब नहीं पढ़ सकते। ग्यारहवीं-बारहवीं वाले हैं, उन्हें जोड़ना-घटाना नहीं आता, ग्रेजुएशन वाले हैं, उनको परसेंटेज निकालना नहीं आता।
ये मूल्य व्यवस्था से हो रहा है समाज की और समाज को उसके मूल्य कोई भीतर से तो मिलेंगे नहीं; किसी आदर्श से मिलते हैं, उसके नायकों से मिलते हैं, रोल मॉडल्स से मिलते हैं। हमने जो आदर्श चुने हैं, वो शिक्षा की बात कहाँ करते हैं। सौ तरह की बातें होती हैं, अभी अब चुनाव आएगा इसमें सब नेता तमाम तरह के कसमें-वादे आपको बताएँगे। ठीक है। मेनिफेस्टोस (घोषणा पत्र) आएँगे आपके सामने कि हम क्या करके दिखाएँगे क्या नहीं। उसमें शिक्षा की बात कौन कर रहा होता है, पर्यावरण की बात कौन कर रहा है, क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की कौन बात कर रहा है!
आप उनसे पूछो कि आपके इलेक्शन मेनिफेस्टोस (चुनावी घोषणा पत्र) वगैरह में या आपकी टीवी डिबेट्स (टेलीविज़न वार्ता) में या आपकी जो रैलीज़ हैं, स्पीचेज़ (भाषण) हैं, इनमें हमें कहीं पर भी शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण मुद्दा क्यों नहीं दिखाई दे रहा। तो कहेंगे, ‘क्योंकि इस पर वोट नहीं मिलते, शिक्षा की बात करो तो वोट नहीं मिलते।’ बात ये है कि वोटर को भी ये बताना पड़ेगा न कि शिक्षा महत्वपूर्ण है। तो उसको पहले ये शिक्षित करना पड़ेगा कि शिक्षा महत्वपूर्ण है और वो दायित्व तो नेता का है। जब नेता जनता के आगे-आगे चलने को तैयार हो तो वो जनता को शिक्षित करता है। जब नेता जनता के पीछे-पीछे चलता है, तो कहता है, ‘जनता जिन मुद्दों पर वोट देगी, मैं तो उन्हीं मुद्दों की बात करूँगा बस।’
जनता के पीछे जब चलते हैं न नेता, तो वो कहते हैं, ‘जनता जिन मुद्दों पर वोट दे सकती है, मैं उन पर बात करूँगा और जनता जिन मुद्दों पर आंदोलित करी जा सकती है, भड़काई जा सकती है, मैं उन मुद्दों की बात करूँगा।’ लेकिन एक दूसरे किस्म का भी नेता होता है जो जनता के आगे चलता है। वो कहता है कि मैं सिखाऊँगा जनता को कि कौन-से मुद्दे आवश्यक हैं और किन मुद्दों पर वोट दिया जाना चाहिए।
जनता को शिक्षित करने वाला नेतृत्व नहीं मिला भारत को। सारा नेतृत्व वो मिला जो जनता के पीछे-पीछे चलता है। वो ये देखते हैं कि जनता कौन-से मुद्दों को पहले से ही महत्व देती है, उन्हीं मुद्दों की बात करो, उन्हीं मुद्दों को कह दो कि तुम ये चीज़ फ्री ले लो, ये ले लो, ऐसा कर लो। जो भी मुद्दे हैं जो जनता को लगता है कि महत्वपूर्ण हैं, उन्हीं मुद्दों पर वोट ले लो। पर जनता अगर इतनी होशियार ही होती कि जानती होती कि क्या महत्वपूर्ण है, तो भारत की आज ये दुर्दशा थोड़े ही होती। सबसे पहले तो नेता का कर्तव्य होता है लोगों को समझाना कि क्या महत्वपूर्ण है।
समझ में आ रही है बात?
डॉक्टर है, डॉक्टर क्या करेगा? मरीज़ से पूछकर के उसका इलाज करेगा क्या? हाँ, मरीज़ से बातचीत की जाती है, मरीज़ को समझा दिया जाता है, मरीज़ से सहयोग भी लिया जाता है। पर डॉक्टर मरीज़ के आगे-आगे चलता है न, वो मरीज़ को निर्देश देता है, ऐसे करो, वैसे करो। उसी तरह से नेता को भी जनता के आगे चलना चाहिए। पर हमारे नेता ऐसे हैं जैसे मरीज से पूछ-पूछकर मरीज़ का इलाज किया जा रहा हो। ‘अच्छा बताइए, आपको कौनसी दवाई का स्वाद अच्छा लगा? हाँ, लीजिए-लीजिए विद एक्स्ट्रा चीज़ (अतिरिक्त पनीर के साथ)!’
तो जनता को, उदाहरण के लिए अगर जातिवाद का स्वाद अच्छा लगा, तो नेता कहता है, ‘तुम्हें थोड़ा जातिवाद अच्छा लगता है, मैं तुम्हें बहुत सारा दूँगा।’ जनता को सांप्रदायिकता अच्छी लगती है, ‘तुम्हें थोड़ी सी अच्छी लगती है, मैं बहुत सारी दूँगा, जो तुम्हें अच्छा लगता है मैं तुम्हें वही दे दूँगा।’ ये नेता कहाँ है फिर?
नेतृत्व का तो अर्थ होता है आगे चलना। कोई और जगह हो तो जिस तरीके का व्यय हम शिक्षा पर करते हैं जीडीपी की तुलना में, इसी बात पर सरकारें बनें और गिरें। सबसे बड़ी बात यही हो कि कौन कह रहा है कि कितना खर्च करेगा शिक्षा पर, पर ये कोई मुद्दा ही नहीं है। समझ रहे हो बात को?
तो ये सूरत बदलेगी कैसे? ये ऐसे ही बदलेगी। नेता तो शायद आगे आकर ये काम करने से रहे, तो आम लोगों को ये काम करना पड़ेगा। इंसान को इंसान तो शिक्षा ही बनाती है। कौन-सा राष्ट्र कितनी उन्नति कर रहा है, ये उसके शैक्षणिक संस्थानों पर निर्भर करता है।
आपको एप्पल दिखाई देता है और गूगल दिखाई देता है और माइक्रोसॉफ्ट दिखाई देता है, उसके साथ में आप हार्वर्ड और वार्टन और एमआइटी को भूल जाते हैं क्या? और हावर्ड, वार्टन, एमआइटी के बिना गूगल, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट हो सकते हैं क्या? बोलिए। और ये आज की बात नहीं है कि आप कहें कि ये तो आइटी आपने बोल दिया, पीछे चले जाओगे तो चाहे मैन्युफैक्चरिंग (उत्पादन) हो, चाहे बैंकिंग हो, फाइनेंस हो। उनमें अगर अमेरिकन कंपनियाँ अग्रणी रही हैं तो हर अग्रणी अमेरिकन कंपनी के साथ आपको एक अग्रणी अमेरिकन यूनिवर्सिटी का नाम सुनने को मिलेगा।
आप एक कंपनी बोलोगे, मैं एक यूनिवर्सिटी बोलूँगा और वो साथ-साथ चलते हैं। वो यूनिवर्सिटी न हो तो वो कंपनी नहीं हो सकती। और बहुत सारी कंपनियाँ तो यूनिवर्सिटीज़ से ही निकलती हैं, उनके इनक्यूबेशन सेंटर से। और भारत जब यूनिवर्सिटीज़ का कोई स्तर ही नहीं रखेगा तो यहाँ तुम कहाँ से किसी भी तरह की प्रगति, तरक्की ले आ लोगे। और मैं आध्यात्मिक तरक्की की तो बात भी नहीं कर रहा अभी, मैं तो साधारण आर्थिक, सामाजिक, तरक्की की बात कर रहा हूँ। हमारी यूनिवर्सिटी देखी हैं न?
एक बार आप लोगों को, जो लोग नहीं गए हों, किसी विकसित देश की यात्रा ज़रूर करनी चाहिए और वहाँ किसी और जगह जाइएगा चाहे नहीं जाइएगा, यूनिवर्सिटी कैंपस ज़रूर जाइएगा और तब पता चलेगा कि हम इतना पिछड़ क्यों गए। ये जो इन्होंने आँकड़े बताए वो आँकड़े नहीं हैं, वो ऐसे हैं कि दिल का दौरा पड़ जाए।
सोचो दसवीं-बारहवीं का लड़का है और उसको (हाथों से, कुछ न आने का संकेत करते हुए)। और इसमें भी जो इन्होंने बताया वो दोहरा दीजिएगा या बाद में कभी जब होगा तो, उसमें भी लड़कों और लड़कियों में अंतर था। आज के समय में आपको गूगल मैप लगाना नहीं आता, आपकी ज़िंदगी ही कहाँ पहुँचेगी!
कोई भाषा नहीं आती है। आप कह रहे थे, लड़कियों को नेटिव भाषा, क्षेत्रीय ज़्यादा आती है, लड़के अंग्रेज़ी में थोड़ा (आगे हैं), किसी को कोई भाषा नहीं आती है।
अब इनकी हालत हो गई है कि ये साइन लैंग्वेज (सांकेतिक भाषा) में बात करने लगे हैं। अब ये शब्दों में नहीं, ध्वनियों में बात करते हैं। साउंड्स, नॉट वर्ड्स, ‘हें...’ और इसका अर्थ है पूरा जो आप नहीं समझ सकते, वो ही समझ सकते हैं। कुछ दिनों में ऑडियो डिक्शनरीज़ (ध्वनियों के शब्दकोष) होंगी, जिसमें शब्द नहीं होंगे, ध्वनियाँ होंगी और उनके भी अलग-अलग तरीके के यूसेज (उपयोग) लिखे होंगे कि ये जो ध्वनि है इसका निम्नलिखित आठ प्रकार से इस्तेमाल हो सकता है। ‘हें...’ का, स्थिति, संदर्भ पर निर्भर करते हुए, इसके ये आठ अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं।
हम पशु बनते जा रहे हैं। जानवर भी तो करते हैं न संवाद, कैसे करते हैं? यही करके ‘हें...’। इधर से कभी चले जाओ भैसों (के तबेले में), वहाँ भी इतनी जो आवाज़ें हो रही होती हैं, क्यों हो रही होती हैं? ऐसे ही थोड़े हो रही हैं, वो बात कर रहे हैं। (आचार्य जी के थोड़ी देर के मौन पर, सभी ज़ोर से हँस पड़ते हैं।)
आपकी पीढ़ी खतरे में है और आपसे बाद वाली और ज़्यादा। (सभी ज़ोर से हँस पड़ते हैं।) इन्हें सचमुच कुछ नहीं समझ में आता। मैं बार-बार बोला करता हूँ, ये किताब पढ़ो, वो किताब पढ़ो; इनसे एक पैराग्राफ़ नहीं पढ़ा जाता, किताब के अब्रिज्ड वर्जन्स (संक्षिप्त संस्करण) नहीं पढ़े जाते, क्या शिक्षा की हम बात कर रहे हैं! पढ़ना छोड़ो, ये वीडियो नहीं देख पाते, इन्हें रील्स चाहिए। इन्हें वीडियो दे दो आधे घंटे का, वो भी नहीं देख पाते, रील्स चाहिए।
एक पकड़ में आया, मैंने पूछा, ‘क्यों नहीं देखता, तुझे इतनी बार बोला।’ बोला, ‘क्योंकि आप हिंदी बोलते हो।’ मैंने कहा, ‘हिंदी तो तू भी बोल रहा है।’ बोला, ‘नहीं आप हिंदी बोलते हो।’ मैंने कहा, ‘इसका क्या मतलब है?’ मतलब समझ गए न! उसको हिंदी भी नहीं समझ में आती।
इसका क्या असर पड़ेगा जीवन के हर क्षेत्र में, वो आप सोच लीजिए। साइंस, टेक्नोलॉजी, मेडिसिन, ये सब भारत में किस दिशा जाएँगे, सोच लीजिए, लिटरेचर, आर्ट्स, कल्चर। जिस देश में ये (दिमाग) पूरा साफ़ होता जा रहा हो, उस देश में विज्ञान की, कलाओं की, जीवन के किसी भी क्षेत्र की क्या दशा होगी, सोच लीजिए।
जब किताबें ही नहीं पढ़ी जा सकतीं, तो कैसे डॉक्टर आने वाले हैं आने वाले दिनों में, आप वो भी सोच लीजिए और इंजीनियर कैसा आएगा, वैज्ञानिक कैसा आएगा, फ़िल्मों के गाने कैसे आएँगे। क्योंकि हिंदी तो हिंदी फ़िल्म वालों को भी समझ में नहीं आती तो सोचो, गीतों के बोल कैसे होंगे।
नेता शायद नहीं करेंगे। काश, हो सके कि नेता करें पर लगता नहीं कि नेता लोग करेंगे। हमें, आपको ही करना होगा, चाहे जितना समय लगे। एक दिन में हम इतना गिर नहीं गए, एक दिन में हम उठ भी नहीं पाएँगे, समय लगेगा। कमर कसकर मेहनत करनी पड़ेगी, कई दशकों की मेहनत लगेगी, तब जाकर भारत का वैल्यू सिस्टम (मूल्य व्यवस्था) बदलेगा। हमारी जो पूरी मूल्य व्यवस्था है न, हम शिक्षा को मूल्य देते ही नहीं। जैसे-जैसे भारतीय मन शिक्षा को महत्व देना शुरू करेगा, वैसे-वैसे हमारे शैक्षणिक संस्थान भी उच्च कोटि के होते जाएँगे।
ये जो हमारी सड़कों पर अराजकता है, ये यूँही है? ये जो हमने गंदगियों के ढेर लगा रखे होते हैं, अपने गली-मोहल्लों में, ये यूँही हैं? हर चीज़ का संबंध शिक्षा से ही तो है। ये जो विज्ञापनों में हमें बेवकूफ़ बनाया जा रहा है लगातार, ये यूँही है? हम शिक्षित नहीं हैं, इसलिए हमें बेवकूफ़ बनाया जा रहा है। बजट आता है उससे पहले इकोनॉमिक सर्वे आता है, कितने लोग पढ़ते हैं? और अगर पता ही नहीं है अर्थव्यवस्था की हालत, तो आपको कैसे पता कि आपके वित्त मंत्री ने बजट के नाम पर क्या कर डाला, वो कुछ भी कर देते हैं बजट में।
आम आदमी को इतना मतलब होता है बस, अगर नौकरी पेशा है कि भाई मेरा स्लैब ऊपर-नीचे हुआ कि नहीं टैक्स, बस। बेहोश, अंधी, स्लीप वाकिंग ‘आ...’ नींद में चल रहे हैं। और फिर हमें ताज्जुब होता है कि हम पिछड़े हुए हैं और अब तो ताज्जुब भी नहीं होता, अब हमने एक झूठ बोलना शुरू कर दिया है, ‘हम पिछड़े हुए हैं ही नहीं, हम सबसे आगे हैं।’ तो अब तो शिक्षा की ज़रूरत भी नहीं रही बहुत, जब पहले ही सबसे आगे हो।
आजकल खूब चल रहा है, “भारत विश्व गुरु है।” अरे! जब तुम गुरु हो ही तो तुम शिक्षा लेकर क्या करोगे। ये अगले स्तर का, नेक्स्ट लेवल फ्रॉड (अगले स्तर का धोखा) है कि हम तो पहले ही सबसे आगे हैं, तो अब आगे जाने की ज़रूरत क्या है। और अगर कोई अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट आ जाए जो बता दे, भारत में शिक्षा का स्तर क्या है या मानव अधिकार का स्तर क्या है, तो बोल दो, ‘ये रिपोर्ट तो विदेशी प्रोपेगेंडा है। ये तो सब गोरे लोग हमारी तरक्की से जलते हैं, इसलिए वो दिखाते हैं कि भारत में हालत खराब है। गोरे लोग, गरीब ये, भूख से मर रहे हैं, भारत की खुशहाली से जल रहे हैं ये। इसलिए अपनी सब रिपोर्टों में वो दिखाते रहते हैं कि भारत गिरता ही जा रहा है, गिरता ही जा रहा है। सच तो ये है कि भारत अपने स्वर्ण युग में है।’
अब काहे को किसी तरक्की की ज़रूरत भी बचे जब सब तरक्की हो ही चुकी है, तो अब करना क्या है। जब बीमारी है ही नहीं तो इलाज क्यों हो। ये एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट है, जिससे इन्होंने कोट (उद्धृत) करा है। ये कोई ऐसा नहीं है कि किसी छोटे-मोटे संस्थान ने यूँही डाल दी है। इसको पढ़िएगा और फिर अपने चारों ओर देखिएगा, तो पता चलेगा कि शिक्षा की कमी ने क्या कर रखा है भारत के साथ।