आचार्य प्रशांत: ज्ञान योग यही बताता है आपको कि ज्ञान कितना व्यर्थ है। और क्या करेगा ज्ञान योग! भक्ति योग क्या है? भक्ति योग शुरू होता है विभाजन से। भजना माने बाँटना। और अंत कहाँ होता है उसका?
प्रश्नकर्ता: मिलने में।
आचार्य: मिल जाने में, एक हो जाने में। ज्ञान योग शुरू होता है ज्ञान से क्योंकि ज्ञान में तो आप आसीत हैं ही। ज्ञान पर विश्वास है आपका इसीलिए ज्ञान योग शुरुआत करेगा ज्ञान से। भक्ति शुरुआत करती है विभाजन से क्योंकि विभाजन पर बड़ा यकीन है आपका। पर ज्ञान योग का सारा उद्देश्य ही आपको ज्ञान से मुक्त कर देना है। ज्ञान योग ये थोड़े ही है कि और ज्ञान दे दिया। शास्त्र आपसे जो बातें कहते हैं, वो बड़ी विलक्षण बातें हैं। वो बातें ऐसी हैं जो दूसरी बातों को काट देती हैं। और दूसरी बातों को काट कर वो स्वयं भी ...
प्र: कट जाती हैं।
आचार्य: कट जाती हैं। कि सुनो इस बात को, इस बात को सुन कर के बाक़ी सब कुछ भूल जाओगे और जब बाक़ी सब कुछ भूल गए तो इस बात को भी भूल जाओगे — ये ज्ञान योग है। ज्ञान योग ये नहीं है कि ज्ञान का संचय। ज्ञान योग ये नहीं है कि महाज्ञानी बन गए हैं। ज्ञान योग है ज्ञान से?
प्र: मुक्ति।
आचार्य: मुक्ति। और भक्ति है विभाजन से?
प्र: मुक्ति।
आचार्य: मुक्ति। भक्त यदि भक्त ही रह गया तो भक्ति असफल हो गई। भक्त को भगवान बन जाना होता है। भक्त को अपने भीतर की भगवत्ता से एक हो जाना होता है। ये भक्ति की निष्पत्ति है। ठीक उसी तरीक़े से ज्ञानी को ज्ञान के पार चले जाना होता है, ये ज्ञान योग का आख़िरी पड़ाव है।
जहाँ जानने की ज़रूरत हो वहाँ पर ख़ूब ज्ञान इकट्ठा कर लीजिए। इन्साइक्लोपीडिया (विश्वकोश) है, कि गूगल है, दुनिया में बहुत कुछ है जिसके लिए सूचनाओं की ज़रूरत पड़ती है। जहाँ सूचनाओं का महत्त्व है, वहाँ सूचनाओं पर निर्भर रहें, इकट्ठा भी करें। पर जीवन में जो कुछ भी आत्यन्तिक है, असली है, केन्द्रीय है; जो कुछ भी जीवन को रसपूर्ण बनाता है, वो जानकारी और ज्ञान से नहीं चलता, वहाँ जीना होता है। वहाँ जीना ही जानना है। और जी नहीं पाऍंगे आप, अगर आप बहुत जानकार हैं। सुन नहीं पाऍंगे आप, अगर आपको पहले से ही पता है। जानने में, प्रेम में डूब ही नहीं पाऍंगे आप, अगर आप अपनेआप से ही भरे हुए हैं। थोड़ा-सा अपनेआप को मौक़ा दीजिए, छूट दीजिए, कहिए, 'कुछ कमी है क्या मुझमें?' भीतर से कोई बड़ा कौतूहल उठता हो, कहिए, 'नहीं भी जाना तो क्या हो जाएगा! क्या होगा, बिना जाने भी तो मस्ती है न!' हमने ये धारणा पोषित की है अपने भीतर कि जाने बिना कुछ?
प्र: कमी रह गई।
आचार्य: कमी रह गई। फ़ोन है आपका, बार-बार हाथ जाता हो उसकी ओर, बार-बार मन जाता हो उसकी ओर, थोड़ा अपनेआप से पूछिए — 'नहीं भी जाना तो क्या हो जाएगा? क्या हो जाएगा?'
कुछ लोग हो सकते हैं यहाँ पर जो अख़बारों की लत लेकर के आए हों। सुबह-सुबह खुलती ही नहीं अगर हाथ में अखबार नहीं है तो! मैं आपसे कह रहा हूँ, दो दिन हो सकता है न खुले, तीसरे दिन बिना अख़बार के भी होगा! ज्ञान योग यही सिखा रहा है आपको। ज्ञान योग की पूरी बात ही यही है — कितना रोक लोगे? बिना ज्ञान के भी होगा।