प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। पृष्ठभूमि यह है कि मैं पिछले एक वर्ष और दस महीनों से रोज़ सुबह ध्यान करता हूँ, और मैं यूट्यूब पर आध्यात्मिक प्रवचन इत्यादि भी सुनता हूँ, और मैं कुछ आध्यात्मिक विधियों का भी पालन करता हूँ।
स्थिति यह है कि सब करने के बाद भी मैंने पाया कि भक्ति मार्ग ही सर्वोत्तम है, क्योंकि वह मन में प्रेम, अनुग्रह इत्यादि को जगा देता है। पर आवश्यकता यह है कि भक्ति-योग में साधक को निरहंकार होना चाहिए, उसे यह स्वीकार होना चाहिए कि वह भगवान के सामने बहुत छोटा है।
समस्या यह है कि मन के तल पर ज्ञान बैठा है, वहाँ श्वास पर ध्यान केंद्रित करना, ध्यान की तमाम विधियाँ, अहम् को मिटाने के लिए किया गया तमाम श्रम, शास्त्रों इत्यादि से पाया गया सब ज्ञान, यह सब मेरे अहंकार को और बढ़ा रहे हैं, तो मैं क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत: जैसे पूछा है न कि ‘मैं क्या करूँ?' उसका संबंध इस वाक्य से है कि 'मैंने पाया कि भक्ति-योग सर्वोत्तम है, क्योंकि उससे मन में प्रेम और अनुग्रह आता है।'
कारण है न तुम्हारे पास भक्ति-योग को सर्वोत्तम कहने का। चूँकि तुम्हारे पास भक्ति योग को सर्वोत्तम मानने का कारण है, इसीलिए वह जमकर बैठा ही रहेगा भीतर जो कुछ भी मानता है, या अस्वीकार करता है। अहम् मानें कौन? जिसे कुछ अच्छा लगता है कुछ बुरा लगता है, जिसे कुछ पसंद है कुछ नापसंद है, उसी का नाम अहम है न?
अब तुम कह रहे हो, ‘मुझे भक्ति-योग पसंद आया क्योंकि'—कुछ तुमने कारण बताएँ। भक्ति-योग पसंद आया माने किसने पसंद किया भक्ति-योग को? एक ही है जो पसंद और नापसंद करता है, कौन?
प्र: ईगो (अहंकार)।
आचार्य: तो जब तक तुम्हारे पास कारण होंगे भक्ति के, तब तक अहम् तुम्हें पकड़ कर बैठा ही रहेगा। भक्त के पास भक्ति के कोई कारण नहीं होते, भक्त अकारण प्रेम में गिरफ़्तार हो जाता है। तुमने तो दो-तीन वजहें निकाली, तुमने कहा, ‘ये, यह और यह प्राप्त होता है भक्ति-योग से, इसीलिए मैं भक्ति मार्ग में प्रवेश करना चाहता हूँ।'
तो तुम तो अभी नया-नया प्रवेश कर रहे हो, तुमने जो वजहें भी सोची हैं, वह वजहें भी अभी मात्र मानसिक हैं, उनका तुम्हें अनुभव अभी हो नहीं गया। अनुभव हुआ भी है तो बहुत गहरा नही, क्योंकि अभी तो तुम आगंतुक ही हो, अभी तो तुमने शुरुआत ही करी है न? नयी-नयी प्रविष्टि है।
नयी प्रविष्टि है इस विचार के साथ कि आगे चलूँगा तो कुछ मिल जाएगा। नयी प्रविष्टि है इस विचार, इस उम्मीद के साथ कि आगे चलूँगा तो यह सब मिल जाएगा। सब काम किसके हैं? यह कौन करता है कि कोई कर्म करो यह सोचकर कि भविष्य में उससे क्या मिलेगा, यह कौन करता है?
प्र: अहम्।
आचार्य: अहम् ही करता है न? भक्ति अहम् का चुनाव नहीं हो सकती। भक्ति अगर सच्ची है तो वह अहम् की विवशता होगी। ठीक वैसे जैसे प्रेम चुनाव नहीं हो सकता, प्रेम अगर सच्चा है तो वह तुम्हारी विवशता होगी। वह प्रेम जिसको तुम हाँ बोल सको, और ना बोल सको, है ही झूठा। प्रेम अगर सच्चा है, तो हाँ और ना बोलने के हक़ को तुम बहुत पीछे छोड़ आते हो। अधिकार ही नहीं बचता अपने पास कि अब हाँ बोलें कि ना बोलें; एक अनिवार्यता, एक मजबूरी, ऐसी है भक्ति। भक्ति का ही दूसरा नाम प्रेम है।
तुमने तो किसी व्यापारी की तरह भक्ति की भी वजहें निकाल दीं कि भक्ति करूँगा तो साल में क़रीब साढ़े तेरह प्रतिशत का मुनाफ़ा हो सकता है। भक्ति तो तब है जब दिख रहा हो कि नुक़सान-ही-नुक़सान है, पर झेलना पड़ेगा, अब तो फँस गए।
जब तक फैसला कर-करके भक्ति की बात करोगे, तब तक फैसला करने के बावजूद भक्ति पर आगे नहीं बढ़ पाओगे। तुम्हारा फैसला व्यर्थ जाएगा! भले ही तुम भक्ति के पक्ष में फैसला करो, पर वह फैसला कार्यान्वित नहीं हो पाएगा। तुम बाकी सब कुछ आज़मा लो, जब पाओगे कि हर जगह निराशा ही मिली है, तो सिर झुक जाएगा — यही भक्ति है।
प्र: दिन के एक-दो घंटे ऐसे होते हैं जब सिर झुका रहता है, फिर उठ जाता है। पहले एक-दो मिनट तक झुका रहता था अब थोड़ा टाइम बढ़ा है। मैंने देखा है, सुबह जब मैं मेडिटेशन (ध्यान) करके उठता हूँ, उसके एक-दो घंटे तक बहुत कामनेस (शांति)—वो फीलिंग (अनुभूति) बनी रहती है। इवेन व्हेन आई एम वर्किंग देन अल्सो फीलिंग दैट, आई मीन दैट द प्रेजेंस ऑफ गॉड, आई मीन (यहाँ तक कि जब मैं काम कर रहा हूँ, तब भी महसूस कर रहा हूँ कि, मेरा मतलब है कि भगवान की उपस्थिति) वह बताई नहीं जा सकती, पर वह रहती है।
लेकिन दिन जैसे-जैसे आगे बीतता है, वह फीलिंग गायब हो जाती है। फीलिंग नहीं कह सकते; फीलिंग अब कहना ही पड़ेगा, शब्दों में तो फीलिंग ही कह सकते हैं कि वह फिलिंग ऑफ ग्रेटिट्यूट, फिलिंग ऑफ दैट आई एम नॉट हु इज़ डूइंग, इज द गॉड् विदिन मि हू इज़ डूइंग एंड द गॉड आउटसाइड आल्सो (कृतज्ञता का भाव, यह भाव कि मैं नहीं हूँ जो कर रहा है, मेरे भीतर का भगवान है जो कर रहा है और बाहर भी भगवान है)।
आचार्य: जो बातें हैं, जब तक रहेंगी, तब तक भक्ति संभव नहीं है। भक्ति कोई फीलिंग नहीं होती, भक्ति कोई सिद्धांत नहीं होता। तुमने अभी जिसका उल्लेख किया वह सिद्धांत है, कि 'मैं नहीं कर रहा हूँ, मेरे भीतर का परमात्मा कर रहा है इत्यादि, इत्यादि।' यह सब कोरे सिद्धांत हैं, भक्ति का इनसे कोई संबंध नहीं।
जब तक तुम्हें सिद्धांत याद हैं, और जब तक तुम इनको भक्ति का नाम दे रहे हो, तब तक भक्ति नहीं होने वाली। भक्त कहता ही नहीं कि परमात्मा मेरे भीतर बैठा है, भक्त तो यह जानता है कि उसने अपनी ऐसी हालत कर ली है कि परमात्मा बहुत दूर हो गया उससे। भक्त तो वियोग में तड़पता है।
तुम अपने ही कर्मों को यह ठप्पा लगा दोगे कि यह मैंने नहीं, मेरे भीतर के परमात्मा ने करे, तो तुम्हें उन कर्मों से कभी विरक्ति क्यों होगी? दुनिया में जितने लोग हैं सब यही बोलना शुरू कर दें कि 'मैं नहीं कर रहा हूँ, मेरे भीतर का परमात्मा कर रहा है।' तो जो कोई, जो कुछ कर रहा है, वह करता ही जाएगा, और ठसक और अकड़ के साथ करेगा। कहेगा, ‘मैंने थोड़ी ही करा, यह तो परमात्मा ने करा।'
भक्त तो कहता है, ‘मैं जो भी कर रहा हूँ, सब गड़बड़ ही है, उल्टा-पुल्टा, नाथ तू ही संभाल! हमसे तो कुछ नहीं होगा। हम तो जो करेंगे वही ख़राब होगा। और तू क्यों इतनी दूर जा के बैठ गया, क्यों हमें अनाथ बेसहारा छोड़ दिया।'
और यह बात कोई फीलिंग नहीं होती, यह बात आँसुओं की तरह बहती है। यह एक सीधा-सीधा बोध होता है — क्या बना बैठा हूँ, क्या कर रहा हूँ!