भक्ति, गुरु और तीर्थ || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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भक्ति, गुरु और तीर्थ || आचार्य प्रशांत (2016)

आचार्य प्रशांत: ‘भक्ति’ शब्द के मूल में ही विभाजन है। वहाँ पर दो का होना पक्का है। एक 'मैं' और मेरे द्वारा रचा गया पूरा संसार, और दूसरे 'तुम'। जो पहला है इसके केंद्र पर 'मैं' बैठा हूँ, और इसका पूरा संसार मेरा है। संसार में जो भी कुछ मैं पाता हूँ, करता हूँ, जहाँ भी जाता हूँ, वो सब मुझे केंद्र में रखकर के होता है।

और ऐसा है भी। आप अपनी दुनिया को देखें, तो आप कहीं जा रहे हैं ये आपका निर्णय है। आप कहीं दूर जा रहे हों, लेकिन जा तो आप ही रहे हैं। आप किसी दूसरे से मिल रहे होंगे, लेकिन मिलने वाले आप ही हैं। उससे मिलने से आपका केंद्र नहीं मिट गया, न परिवर्तित हो गया।

हाँ, कुछ पढ़ रहे होंगे, पढ़ने वाले आप ही हैं। पढ़ करके आपने अपना ही ज्ञान वर्धन कर लिया। भक्ति का अर्थ है इस संसार को देख लेना और समझ जाना कि ये जो दुनिया है जिसके केंद्र पर मैं बैठा हुआ हूँ, इसमें मुझे चैन मिल नहीं रहा है और चैन चूँकि मिल रहा नहीं है, इससे ये सिद्ध हो जाता है कि चैन जैसा कुछ है ज़रूर। न होता तो उसका अभाव मुझे इतना अखरता क्यों? किसी की कमी अगर इतना सताती हो तो इतना तो पक्का है कि कुछ होगा ज़रूर। जो न हो, उसकी कमी हो ही नहीं सकती।

वो कौन है? वो क्या है? कह नहीं सकते, क्योंकि अगर होता तो दुनिया में मिल जाता, मेरी दुनिया में। मैं उसे खोज निकालता। मेरी ही दुनिया है, चला जाता, खोज निकालता। तो मैं तो जो कुछ कर सकता था मैंने कर लिया अपनी पूरी दुनिया में, वो कहीं मिला नहीं। मुझसे उठते हुए सारे प्रयत्न विफल ही गए।

तब एक दूसरा है जिसके होने को एक आंतरिक प्रमाणिकता मिल जाती है। उस दूसरे को यार कहते हैं, ख़ुदा कहते हैं, गुरु कहते हैं, मुर्शीद कहते हैं, तू कहते हैं, प्रेमी कहते हैं। वो जो दूसरा है, वो उस सबका प्रतीक है जो मेरी दुनिया में नहीं हो सकता। ये भक्ति का आधार है। मैं और मेरी दुनिया अधूरे हैं, कुछ है ख़ास जो इसमें कभी मिलता नहीं, और ये आवश्यक नहीं कि वो न मिले। वो मिलेगा ज़रूर, वो तेरे पास मिलेगा।

तू है जहाँ वो सबकुछ है, जिसका मुझे अभाव है। तो इस तरह से भक्ति में 'मैं' और 'तू' आते हैं। भक्त को आप कभी ‘मैं-मैं’ कहता न पाएँगे कि जो है वो मुझमें ही है। वो हमेशा 'तू' की भाषा बोलेगा। 'मैं' को लेकर के तो बड़ा विनीत हो जाता है। वो कहता है 'मैं' से सम्बंधित तो सब देख लिया, पर कुछ ख़ास पाया नहीं। इधर तो जो था सब तलाश लिया और कुछ ख़ास पाया नहीं। इसका मतलब ये नहीं कि पाऊँगा नहीं; पाऊँगा, अब तुझमें पाऊँगा।

तो अब 'मैं' से हटकर इस 'तू' पर आते हैं। ये 'तू' क्या हुआ? पहली बात तो ये 'तू' काल्पनिक नहीं है, क्योंकि कल्पनाएँ तो सारी 'मैं' की होती हैं। कल्पनाओं में मिलता होता तो ‘मैं' ने कम-से-कम कल्पनाओं में ही पा लिया होता। कल्पना भी तो किसी की होती है न। ये 'तू' कुछ ऐसा है, ये शांति कुछ ऐसी है, जो कल्पना में भी सिद्ध नहीं होती; कल्पनातीत है।

दूसरी बात, ये 'तू' 'मैं' की दुनिया का तो नहीं है पर फिर भी 'मैं' के बहुत करीब है। 'मैं' के संसार का नहीं है, फिर भी संसार से ज़्यादा पास है 'मैं' के। 'मैं' ने इतना बड़ा संसार रच लिया है अपने चारों ओर, घिरा हुआ है उससे, लेकिन ये संसार वास्तव में उसका होता तो 'मैं' कलपता क्यों?

तो ये जो 'तू' है ये बड़ा करीबी है 'मैं' का। करीबी है, लेकिन 'मैं' ही नहीं है! करीबी है लेकिन 'मैं' ही नहीं है, एक ज़रा-सी दूरी है, तो इसीलिए उसको नाम दिया – यार। यार कौन? जो बहुत करीब है तुम्हारे, लेकिन फिर भी ज़रा-सी दूरी है। बड़ा शुभेच्छु है तुम्हारा, जितना चाहो उतना पास आ जाएगा, लेकिन फिर भी ज़रा सी दूरी है, इसीलिए नाम दिया गुरु का।

बिलकुल करीब है तुम्हारे, बिलकुल तुम्हारे जैसा है, लेकिन फिर भी ज़रा-सा अलग है। तो उसको 'मैं' नहीं कह सकते, कहना तो 'तू' ही पड़ेगा। बड़ी आत्मीयता से बोलेंगे, बड़े अपनेपन से बोलेंगे, लेकिन फिर भी कभी ये नहीं कह पाएँगे कि तुम बिलकुल हम हो।

ये भी नहीं कह पाएँगे कि 'तुम' बिलकुल हमारे जैसे हो, और ये भी नहीं कह पाएँगे कि 'तुम' हमसे बिलकुल जुदा हो। कुछ और ही हो! 'तुम' न बिलकुल 'हम' हो और न ही 'तुम' हमसे बिलकुल विलग हो। 'तुम' हमारे जैसे होते हुए भी हमसे ज़रा भिन्न हो, तुम बहुत करीब होते हुए भी हमसे ज़रा दूर हो। इसीलिए 'यार' कहा।

गुरु को भी इसीलिए सेतु कहा गया है। एक तरफ तो वो बिलकुल हमारे जैसा होता है, उसके साथ हम पूरे तरीके से आईडेंटिफाई (पहचान) कर सकते हैं। आप अपनेआप को पूरा-पूरा उसमें पाएँगे। आपके पास जो कुछ भी है वो उसके पास भी है। शरीर वहाँ भी पाएँगे आप, मन वहाँ भी पाएँगे, तो उसके साथ नाता बनाना सरल है।

लेकिन सेतु के दूसरे छोर पर वो ज़रा अलग है आपसे। एक तरफ तो वो पूरी तरह आपके जैसा है, दूसरी तरफ उसमें कुछ ऐसा भी है जो बिलकुल पूरी तरह पराया है, अंजाना है जिसको आप बिलकुल नहीं जानते।

जैसे एक पुल होता है, एक तरफ तो इधर है जहाँ आप खड़े हैं, आसानी से आप उस तक पहुँच सकते हैं, उसका उपयोग कर सकते हैं। उपयोग उसका इसीलिए कर सकते हैं, क्योंकि उसका एक सिरा आपके निकट है। दूसरी तरफ किसी और देश का है वो।

शुरुआत आप उसी सिरे से करते हैं जिसे आप जानते हैं। वो आपके साथ हँस सकता है, आपका उसके साथ सम्बन्ध बन जाएगा, आपके साथ खेल सकता है। आप जिन भी सांसारिक, शारीरिक, मानसिक प्रक्रियाओं में उद्यत होते हैं, वो आपका साथ दे देगा। और जब आप उतरेंगे उन सब प्रक्रियाओं में उसके साथ, तो आप पाएँगे कि धीरे-धीरे वो आपको कहीं और लिए जा रहा है।

खेलना शुरू किया था आपके साथ, ऐसा लगा था साधारण खेल है; बातचीत शुरू की थी आपके साथ, ऐसा लगा था साधारण बातचीत है। वो साधारण बातचीत शनै-शनै शब्दों के पार चली जा रही है। ये क्या हुआ? जब चढ़े थे पुल पर तो ऐसा लगा था सब जानते ही हैं, पर पुल का दूसरा सिरा तो कोहरे में ढका हुआ है, न जाने कहाँ को खुलेगा? उधर को ले जाता है! इसलिए कहा गया है – यार। इसीलिए कहा गया – गुरु।

ये भक्ति का मूल तत्त्व है। ये भक्ति का प्रथम सिद्धांत है। जितने अवगुण हैं वो मुझमें हैं, 'मैं' में, और वो सबकुछ जो जीवन को मूल्यवान बनाता है, रसपूर्ण बनाता है, वो कहाँ है? 'तुझमें'। तो भक्ति का जो ध्येय है, वो है 'मैं' का 'तू' में मिल जाना, एक हो जाना, फ़ना हो जाना।

अंततः बस 'तू-ही-तू' बचता है; 'मैं' नहीं। भक्ति का ध्येय ही यही है कि 'मैं' इतना करीब आ जाए 'तू' के कि खो जाए उसी में। भक्त इतना करीब आ जाए भगवान के कि मिट जाए; भगवान-ही-भगवान बचे।

अब इस रोशनी में देखिए की क्या कह रहे हैं बुल्ले शाह। संसार में जितने भी तीर्थ रचें, मैंने रचे। उन तीर्थों तक जाने का निर्णय भी मैंने किया। तो कह रहे हैं बुल्लेशाह, ‘फायदा क्या होगा?'

मैं देखता हूँ कब मेरी सुविधा है, मैं तीर्थ चला जाता हूँ। मैं चुनता हूँ कौनसा मुझे प्रिय है, मैं उस देवता के सामने नमन कर देता हूँ। समय मेरा, स्थान मेरा, सुविधा मेरी, तो कायम भी तो 'मैं' ही रहा। 'मैं' का कायम होना ही तो कष्ट था, तो क्या फायदा होगा इस दुनिया में कहीं भी जाने से भले ही वो कोई तीर्थ स्थल ही क्यों न हो? जा तो 'मैं' ही रहा हूँ न।

ऐसे में वो किसी ऐसे का सानिध्य चाहते हैं जो हो ही न इस दुनिया का। जिसमें कुछ ऐसा हो जिस पर 'मैं' दावा ही न कर सके। बाकी तो आप दुनिया में जहाँ भी जाएँगे, आप उस पर दावा ठोक ही लेंगे। हज करके आएँगे, आप कहेंगे, ‘मैं 'हाजी' हुआ।’ अहंकार बचा ही रह जाएगा।

बुल्ले शाह कह रहे हैं, ‘कुछ ऐसा, कोई ऐसा चाहिए जो मेरी पकड़ में आए ही न, जिसमें कुछ ऐसा हो जिस पर मैं कभी दावा न कर पाऊँ, जिस पर कभी मेरी प्रभुता, मेरा बल न चले।' इसलिए वो याद करते हैं अपने यार को, अपने मुर्शीद को, अपने जीवित गुरु को, क्योंकि जीवित गुरु पर आपका बस नहीं चलता। गुरु की लिखी हुई किताब पर भी चल जाएगा, गुरु की स्मृति में खड़े किए मंदिर पर भी आपका बस चल जाएगा, पर गुरु पर नहीं चलेगा।

‘मैं' तो चतुर चालक होता है। 'मैं' तो दुनिया को अपने अनुसार रचाता है, घुमाता है। इनायत शाह के सामने बुल्ले शाह ये न कर पाएँगे। तो वो 'मैं' के प्रभाव क्षेत्र से बाहर के हुए। जब सामने है गुरु तब आप केंद्र में नहीं रह जाते संसार के; अब वो केंद्र में हैं। 'मैं' का तिलिस्म, 'मैं' का क़ैदखाना, मायाजाल टूटता है; अचानक टूटता है, क्योंकि अब ऐसा सामने आ गया है जिसमें गुरुता है, जो कहीं पर आपसे बढ़कर है, किसी और आयाम में है।

आपके खेल, आपकी चतुराइयाँ वहाँ चल ही नहीं पा रहीं। वो सब जान ले रहा है, पढ़ ले रहा है। कुछ ऐसा है उसमें जो आपके लिए अनजाना है और उसके लिए आप बिलकुल जाने-पहचाने हो। आप मन हो, मन चलता है ढर्रों पर। आप जो भी कुछ कहते हो, करते हो, गुरु उसको तुरंत पहचान जाता है, ताड़ जाता है।

वो आत्मा है, आत्मा अज्ञेय। उसके तरीके से उसका चाल-चलन आपको समझ ही नहीं आता, अबूझ पहेली की तरह लगता है। अब 'मैं' राजा कैसे रह जाएगा? तीर्थ में 'मैं' राजा रह सकता है, गुरु के सामने 'मैं' राजा नहीं रह सकता। तो इस कारण बुल्ले शाह कहते हैं कि क्यों जाऊँ वहाँ पर, वहाँ जाना तो व्यर्थ ही सिद्ध होगा।

बड़ी नेक नियति से स्थापना होती है तीर्थों की, लेकिन इंसान ऐसा मायावी है कि तीर्थों को भी अपने अनुरूप इस्तेमाल कर लेता है। भारत में इसीलिए परंपरा रही है कि सीखा वास्तव में गुरु से ही जा सकता है। बिलकुल ही आवश्यक नहीं है कि गुरु शरीरी ही हो, इंसान के ही भेष में हो, लेकिन परंपरा यही रही है।

कि जितना तुम शरीर से अपनेआप को सम्बद्ध पाते हो, तो उसी अनुसार जाओ और किसी शरीरी गुरु को ही खोजो। हाँ, तुम ऐसे हो गए हो जिसका शरीर भाव अब क्षीण हो गया हो, तब तुम्हे आवश्यकता नहीं किसी शरीरी गुरु की। पर जबतक तुम में है शरीर भाव, तबतक तो किसी ऐसे को ही पाना जो स्वयं शरीरी हो, ये इस परंपरा का आधार रहा है। बुल्ले शाह उसी परंपरा के वाहक हैं, वही बातें कह रहे हैं।

बातें साफ हुई हैं या जितने भी सवाल उठ रहे थे उसमें से अभी कुछ शेष हैं?

प्रश्नकर्ता: सर, तीर्थ बनाने का क्या उद्देश्य है?

आचार्य: तीर्थ बनाने का उद्देश्य यही था – पूरी दुनिया में जब घूमते हो तब अलग-अलग तरह के प्रभाव पड़ते हैं, मन को दसों-दिशाओं में खींचते हैं, तीर्थ पर जाओ तो कुछ ऐसा माहौल मिले जो तुम्हारी रोज़मर्रा की दुनिया का नहीं है। तीर्थ की वास्तव में परिभाषा ही यही है – जो कुछ भी तुम्हारे रोज़मर्रा के ढर्रों से बाहर का हो, उसे तीर्थ जानना। पर क्या करो तुम अगर तीर्थ भी ढर्रों में शुमार हो जाए? अगर तीर्थ पर जाना भी फैशन बन जाए!

तो इरादा क्या था वो बात पीछे छूट जाती है। तीर्थ की स्थापना के पीछे इरादा क्या था, वो बात फिर गौण हो जाती है। फिर तो हक़ीक़त ये रह जाती है कि तीर्थ भी तुम्हारे लिए वही हो गया है जो बाज़ार। अब तीर्थ में जाने से फायदा क्या होगा? कुछ नहीं।

प्र: कुछ किलोमीटर की ट्रैकिंग (दुर्गम ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी तथा घाटी मार्गों से पैदल यात्रा करना) करके ऊपर जाते हैं, पर जो छवि बनी हुई है वो भी तो 'मैं' ही हूँ, मूर्ति या कुछ?

आचार्य: हाँ, हाँ!

प्र२: सर, वचन का क्या सन्दर्भ है? जो वचन याद दिला रहे हैं कि आपने मुझे सृष्टि की रचना के समय वचन दिया था।

आचार्य: नहीं, बुल्ले शाह वो सब नहीं कह रहे हैं। वो तो अनुवाद में कह दिया गया है। वो सिर्फ इतना कह रहे हैं कि अपना वादा याद रखो!

प्र२: ‘याद करूँ उस कार्य नु’।

आचार्य: अपना वादा याद रखो!

प्र२: कार्य मतलब?

आचार्य: करार, वादा, एग्रीमेंट (समझौता)।

प्र२: एग्रीमेंट बुल्लेशाह ने नहीं लिखा है, इंटरप्रिटेशन (व्याख्या) में लिखा हुआ है।

आचार्य: इंटरप्रिटेशन में बहुत कुछ हो जाता है। तुमने कोई वादा किया तो ज़रूर है, वरना मैं तुम्हारा इंतज़ार क्यों करता? हमें नहीं पता तुमने क्या वादा किया था? ‘हमें ये पता है हम इंतज़ार कर रहे हैं। हमारा इंतज़ार साबित करता है कि तुमने कुछ वादा किया है।'

समझ रहे हो बात को?

खेल ज़रा उल्टा चलता है यहाँ। 'हम नहीं कह रहें कि हमें अच्छे से याद है कि क्या वादा था और क्यों हुआ था। हमें तो ये पता है कि कशिश इधर है। तुमने वादा न किया होता तो हमें तुम पर इतना भरोसा क्यों होता? हमें इतना भरोसा है, साबित हुआ तुमने वादा किया था। अब चलो, निभाओ!' भक्त का तर्क ऐसे चलता है।

बोलिए!

ये समझना ज़रूरी है कि ये जो 'तुम' या 'तू' है, ये पूरे तरीके से 'मैं' के संसार से बाहर की बात है। 'मैं' के संसार में जो कुछ है, वो समय, स्थान का पाबंद है, वो सोचा जा सकता है, उसकी बात की जा सकती है, उसकी कल्पना की जा सकती है। बाहर जो भी कुछ है, उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।

अरूप, निराकार, अचिंत्य – बिलकुल बाहर का है। लेकिन भक्त फिर भी उसकी मूर्ति बनाता है, उसका नाम भी लेता है, कई बार तो उसमें गुण भी स्थापित कर देता है –तुम ऐसे हो, तुम वैसे हो। कभी बोल देगा कि बड़े निष्ठुर हो, फिर बोल देगा, ‘बड़े प्यारे हो।' कभी कहेगा, ‘बड़े मीठे हो’। कभी कहेगा, ‘कसाई हो क्या?' भक्त तो अपने भगवान में सारे गुण बैठा देता है, ये भली भाँति जानते हुए भी कि गुण-अवगुण तो भक्त के संसार में है, उधर नहीं है।

वो इसलिए करता है क्योंकि उसने अब अपनेआप को पूरे तरीके से जान ही लिया है कि छोटा है, क्षुद्र है। और जो अपनेआप को छोटा, अशक्त जान लेता है, उसे अशक्त होने के कारण ही बड़ी रियायतें मिल जाती हैं।

छोटे बच्चे को देखा है न, पूरी छूट होती है, वो किसी को भी घूँसा मार दे। आप छोटे बच्चे को उठाते हो, वो आपके मुँह पर थप्पड़ मार सकता है; तो भक्त और भगवान का यही नाता है। वो उलाहना दे सकता है भगवान को। ज्ञानी कभी ब्रह्म को उलाहना नहीं देगा। भक्त भगवान को उलाहना दे सकता है। उलाहना ही नहीं दे सकता, वो सज़ा भी दे सकता है; ‘इतनी तुमने तकलीफ दी है अब लौट के मत आना, अब मुँह मत दिखाना।'

वो इसीलिए कर सकता है क्योंकि उसने पूरे तरीके से अपनेआप को सौंप दिया है भगवान को। ये करने पर बहुत हक़ मिल जाते हैं। अब वो अपने अनुरूप अपने भगवान को सजा सकता है, सँवार सकता है, नाम दे सकता है, आकार दे सकता है, कहानियाँ गढ़ सकता है, गीत गा सकता है, जो चाहे कर सकता है। ये जानते हुए भी कि ये सब काल्पनिक है, इसमें कुछ रखा नहीं है, पर वो कर सकता है, करता है।

समर्पण का यही जादू है, जो झुक गया वो जीत गया, वो भगवान से भी जीत गया। फिर वो ये भी कहता है, ‘कि हम यहीं बैठे रहेंगे, तुम आओ!' 'पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर'।

हमें अभी ज़रा आलस आ रहा है, तुम आ सकते हो क्या गाड़ी लेकर? होता है प्रेम में, ऐसा ही तो होता है। अब वो गाड़ी लेकर चले जा रहे हैं पीछे-पीछे ‘देखो मान जाओ, बैठ जाओ न’। पर ये कब होता है? 'कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर'।

सिर्फ़ तभी होता है। मन ऐसा साफ़ हो जाए, फिर भगवान भी भक्त के द्वार आते हैं। मन की निर्मलता भक्त की इसी में है कि वो जान ले कि उसका संसार मलिन है, यही निर्मलता है भक्त की। समझिए! निर्मलता इसी में निहित है कि आप स्वीकार कर लें कि मेरा तो जो कुछ है वो मलिन ही है। जिस क्षण आपने मान लिया ये साफ़-साफ, आप निर्मल हुए।

और जबतक आपको दम्भ रहा कि ‘नहीं, देखिए काफ़ी कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन बाकी कुछ ठीक भी है, और जो ठीक नहीं है उसे हम ठीक कर लेंगे। नहीं तो हमारे पास कुछ विशेषज्ञ हैं, वो ठीक कर देंगे। बिल्लू है, बिल्लू ठीक कर सकता है आकर।'

जबतक अभी आपको अपने ऊपर भरोसा है कि आप या आपके द्वारा चुने गए विशेषज्ञ आकर के आपको थोड़ी राहत दे सकते हैं, तब तक वो भगवान कहता है, 'तुम्ही कर लो, तुम्ही कर लो, अभी तो तुमसे हो जाएगा, कर लो!' जब आप और आपका बिल्लू कतई हार जाएँ, तब होती है जीत।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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