भक्ति, भगवान, और बुद्धि की सरलता || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

26 min
111 reads
भक्ति, भगवान, और बुद्धि की सरलता || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न भक्ति को लेकर है। हमने बचपन से यही सीखा है कि भक्ति ज्ञान की माता है। भक्ति का अर्थ सगुण भक्ति, लेकिन आपने हमें समझाया है कि जानने से प्रेम भक्ति है। तो असल में भक्ति का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: तो आपने बता तो दिया।

प्र: जी।

आचार्य: जानने से प्रेम भक्ति है। बस वो ही। कितनी सुंदर आपने परिभाषा दे दी! यही भक्ति है और कुछ नहीं। लंबे-चौड़े किसी वर्णन की तलाश में मत रहिए। कोई बात अगर बहुत लंबी-चौड़ी हो रही है तो ज़्यादा सम्भावना है कि उलझी हुई है, जटिल है। और सत्य जटिल नहीं होता। सत्य सरल, सहज होता है, एकदम सीधी बात। तो वहाँ यह नहीं होता कि बड़े लंबे-चौड़े सिद्धांत और जटिलताएँ मिलेंगी। सत्य में तो चीज़ें क्या हो जाती हैं? सरल हो जाती हैं, सिम्प्लिफाय हो जाती हैं। तो भक्ति क्या है? मन का चैन के प्रति खिंचाव ही प्रेम है। उसी को आप भक्ति भी बोल सकते हो।

जब मन यह जान ले कि पूर्ण नहीं है, बँटा हुआ है—वही जो भज धातु है, उसी से भक्ति शब्द भी आया है। मन यह जान ले कि बँटा हुआ है, जैसे हाथ काट दिया हो किसी ने आपका, जैसे आपकी हस्ती ही काट दी हो दो में, और उस कारण आपको चैन न मिल रहा हो। और आप कह रहे हों, इस तरह से आधा-अधूरा होना ठीक नहीं है, पूर्णता चाहिए; तो भक्ति है।

पूर्णता की प्यास, जिसमें भक्त कहता है, ‘मैं छोटा हूँ, पर छोटा रहना नहीं' — यह भक्ति है। तो भक्ति करना माने क्या? स्वीकार करना कि मैं छोटा हूँ और संकल्प करना कि छोटा रहूँगा नहीं, बस यही भक्ति है। भक्ति क्या है?

प्र: सरलता।

आचार्य: (हाथ से नहीं का संकेत करते हुए)।

प्र: यह अपनाना कि मैं…

आचार्य: स्वीकार। स्वीकार, अपनाना नहीं। अपनाने से लगता है बाहरी चीज़ को ला रहे हो। स्वीकार करना कि छोटा बन बैठा हूँ और संकल्प करना कि छोटा रहना नहीं है। भक्त के सामने जो भगवान होता है, जिसको आप जब सगुण रूप दे देते हो, तो वहाँ बहुत तरह की कलाकारी कर देते हो।

वो भगवान वास्तव में कौन है? भक्त को, अगर वो बँटा हुआ है तो जिसकी तलाश है, उसके लिए सही नाम क्या है? ‘मैं बँटा हुआ हूँ और मुझे किसी की तलाश है', जिसकी तलाश है, उसके लिए सही नाम फिर क्या होगा? मैं अपूर्ण हूँ, मुझे किसी की तलाश है, उसके लिए सही नाम क्या होगा? पूर्ण।

इतना सरल है न, पूर्ण। तो भक्त माने अपूर्ण, भगवान माने पूर्ण। तो जिसको आप भगवान कहते हैं, उसके लिए उचित नाम वास्तव में आत्मा ही है। क्योंकि आत्मा ही तो पूर्ण होती है न। भक्त माने? अपूर्ण। और भक्ति माने?

प्र: भक्ति माने स्वीकारना कि अपूर्ण हूँ और पूर्णता की ओर बढ़ना।

आचार्य: अच्छा, और इसको सरल करिए। कुछ हो तो लिख लीजिए। भक्त माने अपूर्ण, भक्ति माने अपूर्ण रहूँगा नहीं और भगवान माने पूर्ण।

भक्त माने अपूर्ण, भक्ति माने अपूर्ण रहूँगा नहीं, संकल्प। और भगवान माने पूर्ण।

अब भक्ति ज्ञान की माता क्यों है? क्योंकि संकल्प भर कर लेने से पूर्णता तो नहीं मिल जाएगी न। पूर्णता की तो एक ही विधि होती है, उसका क्या नाम है?

प्र: आत्मज्ञान या प्रेम।

आचार्य: तो भक्ति आयी नहीं माने यह संकल्प हुआ नहीं कि पूर्णता चाहिए, तो विधि तो फिर एक ही है — आत्मज्ञान। तो भक्ति वो संकल्प है जो आपको आत्मज्ञान की ओर लेकर आता है।

प्र: जैसे आचार्य जी, मीरा बाई के कुछ पदों में ऐसा लगता है कि उत्साह है, कुछ में लगता है बहुत एक दुख है। तो क्या वो पूर्णता के निकट आने पर है?

आचार्य: देखो, जो कुछ भी बात कही जा रही है, किसके द्वारा कही जा रही है? किसके द्वारा कही जा रही है?

प्र: अहम्, मेरे द्वारा।

आचार्य: नहीं! भक्ति में जो भी कुछ बोलेगा—भक्ति वाली जो बात है उस पर रहिए—भक्ति में जो भी कुछ बोलेगा, वो कौन बोलेगा?

प्र: भक्त।

आचार्य: अपूर्ण। अब अपूर्ण दो अलग-अलग चीज़ो के बारे में बोलेगा। तो इसीलिए बहुत अलग-अलग तरह की बातें करेगा। एक तो कभी वो बहुत ज़ोर से रोएगा। किस बात पर?

प्र: कि अपूर्ण हूँ।

आचार्य: और कभी वो बिलकुल गद-गद हो जाएगा। किस बात पर?

प्र: कि पूर्णता के निकट आ रहा हूँ।

आचार्य: बस, इसीलिए जितने भी संत कवि हैं या कवित्रियाँ हैं, उनमें आप यह दो तरह की बातें पाएँगे कि कभी आँसू-ही-आँसू हैं और कभी उत्साह है, उमंग है, गद-गद कंठ है। कभी वियोग का गहरा दुख है और कभी योग की प्रबल आस है। और कभी यह दोनों साथ हैं। और जब ये दोनों साथ होते हैं तो एकदम सतरंगी इंद्रधनुषी रंग बिखर जाते हैं। न जाने कितने तरीके की फिर बातें होती हैं।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। वास्तव में यह मेरा पहला प्रश्न है। मैं यह पूछना चाहती हूँ कि अध्याय दो श्लोक संख्या चौंसठ और पैंसठ में आपने बोला था कि ‘सही मालिक चुनो और आत्म के वश में हो जाओ', तो हम इसको कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसके बारे में मैं जानना चाहती हूँ। इस आत्मा को हम भगवान भी कह सकते हैं न?

आचार्य: आत्मा को आत्मा ही कहना चाहिए। पर चूँकि बहुत लोगों की ज़बान पर भगवान शब्द बस गया होता है, तो मैं उनसे कहता हूँ कि भगवान शुद्धतम अर्थ में आत्मा का ही नाम है। अगर आप मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूँगा, ‘आत्मा के लिए तो जितने कम शब्द लगाए जाएँ उतना अच्छा, आत्मा को आत्मा भी न बोला जाए तो और अच्छा, चुप ही हो जाए मन, इससे बेहतर क्या।' तो मैं तो नहीं कहूँगा कि आप आत्मा को भगवान बोलें। लेकिन चूँकि हमारी धार्मिक आस्था ईश्वर, भगवान इन शब्दों में बैठ गई है, तो फिर इसमें कोई बुराई नहीं है कि आप कह दें कि आत्मा ही परमात्मा है और परमात्मा ही परमेश्वर है; आत्मा ही भगवान है, आप ऐसे कह सकते हैं।

प्र२: हाँ, ठीक है। मैं यह जानना चाहती हूँ कि सही मालिक को चुनना, इसके लिए कुछ प्रोसेस (तरीका) है, स्टैप्स (कदम) हैं, तो थोड़ा विस्तार में बता सकते हैं आप?

आचार्य: आप टेनिस खेल रही हैं, मान लीजिए। बेडमिंटन, टेनिस कुछ खेलती हैं आप या देखा होगा?

प्र२: हाँ, देखा है।

आचार्य: देखा है। ठीक है। तो आप टेनिस खेल रही हैं और आप दौड़ लगा रही हैं ज़ोर-ज़ोर से, ठीक है। कैमरा सिर्फ़ आपके ऊपर है। कैमरे ने ज़ूम इन कर रखा है आपके ऊपर। तो उसमें क्या दिखाई देता है कि आप तड़बग-तड़बग दौड़ रही हैं। हर समय आप कोर्ट (मैदान) में क्या कर रही हैं? दौड़ ही रही हैं, आगे-पीछे। कभी झुक भी रही हैं, कभी उछलना पड़ रहा है दाएँ-बाएँ। सब हो रहा है न?

प्र२: हाँ।

आचार्य: सब हो रहा है न?

प्र२: हाँ।

आचार्य: यह कौन है जो आपको नचा रहा है? आपकी नज़र लगातार किस पर है?

प्र२: बॉल पर।

आचार्य: हाँ, बस बॉल पर। तो सही मालिक चुनो। आपको पता होना चाहिए कि आपको चाहिए क्या। और वो निर्धारित करेगा कि आप दाएँ को जाएँ; बाएँ को जा रही हैं, आगे को, पीछे को उछल रही हैं, झुक रही हैं, वो निर्धारित करेगा।

आपने बिलकुल सही अपना लक्ष्य पकड़ लिया है और लक्ष्य के आगे अब आपकी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद, दुख-दर्द, सुख इत्यादि अब कुछ भी नहीं है।

आपके घुटने में दर्द है। आप ज़्यादा झुक नहीं पाती हैं, लेकिन गेंद आपको निचाई पर मिल रही है। झुकेंगी कि नहीं झुकेंगी?

प्र२: झुकेंगे।

आचार्य: हाँ, तो बस यही ही है। मालिक बन गई न गेंद! मालिक ने बोला झुको, तो मैं…। मालिक बोली—गेंद मालिक है—मालिक ने कहा झुको और मालिक हमारे चलाए चलता नहीं; गेंद कहाँ को आएगी, इस पर आपका तो कोई बस होता नहीं न? गेंद तो कहीं भी आ सकती है। और गेंद आमतौर पर वहीं आती है जहाँ आप होते नहीं। सामने अगर अच्छा खड़ा हुआ है, तगड़ा खिलाड़ी, तो जहाँ खड़े हो वहीं तो देगा नहीं, वो इधर-उधर ही देगा। और आप दौड़ रहे हो उसके पीछे-पीछे, दौड़ रहे हो उसके—यह है सही मालिक चुनो।

जो आपका लक्ष्य है उसे अपने सुख से ऊपर का स्थान दे दो, इतनी-सी बात है। अभी लक्ष्य बोला, मैं उसी को प्रेम बोल सकता हूँ। प्रेम का ओहदा सुख से बहुत ऊपर का होना चाहिए। प्रेम के पीछे दुख भी मिले, जान भी चली जाए, तो भी स्वीकार है।

प्र२: हाँ, वो तो समझ गई, तो उसको अचीव (प्राप्त) करने के लिए बहुत दिक्क़त आती है।

आचार्य: तो उतनी दूर जाना नहीं है न। आप जहाँ भी हैं, आपकी जो भी स्थिति है, आप जानती होंगी न, कुछ चीज़ें जो जीवन में आपको मूल्यवान लगती हैं। आपसे बोला जाए अपनी ज़िंदगी के दस मुद्दे लिखिए, तो आप लिख देंगी, ठीक?

प्र२: हाँ।

आचार्य: अपनी ज़िंदगी के आप दस मुद्दे अभी कागज़ पर लिख सकती हैं न?

प्र२: टू डू लिस्ट, टेन इयर्स डाउन द लाइन , दस सालों के अंदर किए जाने वाले कामों की सूची, कि क्या कर सकते हैं।

आचार्य: हाँ, टू डू लिस्ट या—मैं इसीलिए बस मुद्दा बोल रहा हूँ—कंसर्न , टॉपिक , विषय। जीवन में जो चीज़ें चल रहीं हैं ऐसी दस चीज़ें आप लिख सकती हैं। हैं न?

प्र२: हाँ।

आचार्य: आप फिर उनको एक प्रकार की रेटिंग (मूल्यांकन) भी दे सकती हैं जिससे उनकी रैंकिंग (श्रेणी) आ जाएगी। आप सीधे से उनकी रैंकिंग कर सकती हैं न? रैंकिंग माने वरीयता क्रम।

प्र२: हाँ।

आचार्य: आप तय कर सकती हैं न, इन दस मुद्दों में सबसे ऊपर कौन है, फिर नीचे कौन है, फिर कौन है, ऐसे-ऐसे करके आप एक, दो, तीन, छः, आठ, नौ ऐसे स्थान दे देंगी न?

प्र२: हाँ।

आचार्य: तो अपनी अभी की जो बुद्धि है, जितनी अभी अपनी चेतना समर्थ है, उसी अनुसार जिसको आपने एक बोल दिया और दो बोल दिया, उनमें ज़िंदगी को झोंक दीजिए। यही है सही मालिक चुनना। और सही मालिक चुनने का आपको पुरस्कार यह मिलता है कि अगर एक और दो के पीछे आपने पूरी ऊर्जा लगा दी, तो यह एक और दो ही आपको अपने से आगे का एक और बेहतर, एक थोड़ा और ऊँचा लक्ष्य सुझा देते हैं।

वो ख़ुद ही बता देंगे कि देखो, तुमने हमारे पीछे बड़ी आस्था दिखाई है, तुमने हममें बड़ी ऊर्जा लगाई है, तो अब ऐसा करो, अब इस चीज़ को लक्ष्य बनाओ, जो हमसे भी बेहतर है।

प्र२: अगर मैं पहली बार सूची बनाती हूँ।

आचार्य: बना लीजिए।

प्र२: हाँ, तो उसमें कुछ ग़लत हो गया तो?

आचार्य: बिलकुल हो सकता है! बिलकुल हो सकता है, आप फ़िक्र न करिए कि कुछ ग़लत हो जाएगा। अभी आपकी जितनी बुद्धि चलती है, अपनी पूरी ईमानदारी माने साफ़ नीयत से आप उसमें एक, दो, तीन, चार लिख दीजिए। और कोई नहीं कह रहा है कि वो एक झटके में ही करना है।

अगर आपको लगता है कि आपने आवेग के एक क्षण में उनको ग़लत वरीयताएँ दे दीं, तो रुक जाइए, दो दिन बाद फिर से उस सूची पर वापस लौटिए। और फिर देखिए कि इसमें से मेरे लिए क्या ज़रूरी है। और जब आपको यथासंभव सुनश्चित हो जाए कि हाँ ठीक है, एक और दो जो हैं, वो तो निश्चित रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं ही, फिर उसके बाद पीछे मत मुड़िए। उन एक और दो को अपनी ज़िंदगी बना लीजिए। और कोई चारा नहीं है। आप बैठे-बैठे सोचेंगी कि आपको आसमान से कोई बहुत ऊँचा लक्ष्य उतरेगा, तो ऐसा तो होने वाला नहीं है। हम तो साधारण सब लोग हैं। सीमित, छोटे लोग हैं हम। तो हमें तो अपने-अपने छोटे दायरों में ही जो उच्चतम संभव है उसके पीछे प्रयास करना है, उसी की भक्ति करनी है।

और अगर सही की भक्ति कर रहे हो तो वो आपको और आगे भेज देता है अपने से। भाई, छोटू है चौथी में, तो वो पर्चा भी लिखेगा तो किस कक्षा का लिखेगा? चौथी का ही तो लिखेगा न, उस पर हँसें क्यों? कि ये देखो, ये पूरा तैयार हो करके अपना ज्योमैट्री बॉक्स (ज्यामिति बॉक्स) सजा करके और गत्ता ले करके आए हैं परीक्षा लिखने और परीक्षा काहे की लिख रहे हैं? चौथी का इनका पर्चा है, वो छोटू है।

हम छोटू हैं। तो हमें तो यही करना है कि चौथी का ही जो हमारे सामने पेपर आ रहा है, हम उसी को यथाशक्ति सुंदर तरीके से हल करें। और अगर सही हल कर दिया तो पाँचवीं में पहुँच जाओगे; यही उसका फल मिलेगा।

प्र२: एक और क्लियरिटी (स्पष्टता) चाहती हूँ। अगर मैं नंबर वन और नंबर टू में, प्रायोरिटी (वरीयता) में नौकरी और पर्सनल लाइफ दोनों को रखती हूँ, तो हम अध्यात्म के बारे में तो विचार नहीं कर सकते न? वी विल बी बिज़ी इन देम इटसेल्फ (हम इसी में व्यस्त हो जाएँगे)।

आचार्य: (मुस्कुराकर) वही अध्यात्म है। अध्यात्म यह थोड़े ही है कि सब छोड़-छाड़ करके मंजीरा बजा रहे हो। आपके सामने आ करके बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है, क्योंकि दिन भर मैं अपनी प्रोफेशनल लाइफ़ (व्यवसायिक जीवन) में ही व्यस्त रहता हूँ।

आप लोगों को लगता होगा, अरे! यह तो आध्यात्मिक संस्था है, तो यहाँ पर तो सब बैठ करके कहीं कोई भजन गा रहा है, कहीं कीर्तन चल रहा है, कहीं कोई अचानक नृत्य में खो गया, एक ने वहाँ उधर कोने में धूनी रमा रखी है; तीन हैं, उन्होंने समाधी ले ली है, वो चार दिन से उठ नहीं रहे (श्रोताओं की हँसी)। आप लोग बाहर बैठ करके ऐसी ही कुछ कल्पना करते होगे। यहाँ काम होता है और बहुत भारी काम होता है। जितना, जितनी इंटेंसिटी (तीव्रता) से, आपके प्रोफेशनल कार्पोरेशन्स में, कंपनीज़ में काम नहीं होता, उससे ज़्यादा होता है। यही अध्यात्म है।

प्र२: हाँ, तो जो भी करना है उसी को सौ प्रतिशत श्रद्धा से करना है।

आचार्य: नहीं-नहीं, जो भी करना है नहीं। यह नहीं बोला मैंने। मैंने बोला पहले तो पूरा विवेक लगा करके, पूरी ईमानदारी से देखो कि करने लायक क्या है। उसमें मनचलापन नहीं चलेगा। उसमें भावनाएँ नहीं चलेंगी। उसमें पसंद-नापसंद वाली चीज़ नहीं चलेगी और स्वार्थ नहीं चलेगा। उसमें विवेक की दृष्टि चाहिए। आपको पूछना होगा कि वर्दीनेस , पात्रता कितनी है उस काम में कि उसे किया जाए।

प्र२: तब तो यह जाहिर तौर से सोशल सर्विस (समाज सेवा) की तरफ़ ही जाएगा, वर्दीनेस का ख़्याल रखेंगे तो? सो वी हैव टू बी इंडल्ज इन दैट ओनली (इसलिए हमें उसी में लिप्त होना होगा)?

आचार्य: पता नहीं, मुझे नहीं मालूम।

मैंने तो अपने जीवन में, अपने लिए निर्णय किया कि क्या सही है और जो सही था, मैं उसके पीछे चल दिया। अब यह आपको देखना है क्या सही है? वैसे कोई सोशल काम ख़ास तौर पर करने का मेरा कोई इरादा था नहीं। खासतौर पर जिस तरीके से हम समाज सेवा का अर्थ लेते हैं, उन अर्थो में तो समाज सेवा का तो मेरा कोई इरादा नहीं था।

यह जीवन में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होनी चाहिए और इसमें सालों लगने चाहिए। और सालों लगाने के बाद भी प्रक्रिया ख़त्म नहीं होनी चाहिए, निरंतर चलनी चाहिए। आदमी बैठे और अपनेआप से पूछा करे, ज़रूरी क्या है, ज़रूरी क्या है, ज़रूरी क्या है? मुझे शायद इसी सवाल ने बचा लिया।

मैं कौन हूँ? कोऽहम्? ये सब सवाल मेरी ज़िंदगी में बहुत बाद में आए थे। लेकिन जो सवाल मेरे पास शायद छठी-आठवीं से ही आ गया था, वो यह था कि ज़रूरी क्या है। कैसे पता चले क्या ज़रूरी है? क्योंकि इतने सारे विकल्प हैं, इतनी बड़ी दुनिया है, कोई ये करता है, कोई वो करता है।

फ्री पीरियड मिल गया। मैम आयीं नहीं थीं आज क्लास लेने। कोई लाइब्रेरी में चला गया है, कोई बाहर जाकर फुटबॉल खेल रहा है, कोई क्लास में ही बैठा हुआ है, दो लोग गप्प कर रहे हैं, किसी ने उसी समय का इस्तेमाल होमवर्क (गृह कार्य) करने के लिए कर लिया। हम कैसे माने कि क्या ज़रूरी है?

तो इस मुद्दे पर इंसान को बहुत समय देना चाहिए। और यहीं से आपको पता चलेगा, आपकी वरियता सूची में वो एक और दो क्या हैं? ऐसे आपने बैठे-बैठे कल्पना कर ली कि सोशल सर्विस , तो वो थोड़ी हल्की बात हो जाती है। उसको बहुत विचार की ज़रूरत है। ध्यान से जीवन को देखना पड़ेगा, जगत को देखना पड़ेगा, तब पता चलता है कि व्हॉट इज वर्थ कमिटिंग वन्स लाइफ टू (किसी के जीवन को पूरी तरह झोंक देने के लिए ज़रूरी चीज़ क्या है)।

प्र३: नमस्कार, आचार्य जी।

आचार्य: जी, नमस्कार।

प्र३: सबसे पहले तो आपको सादर-सादर नमस्कार है। बहुत तरक्की हो रही है जीवन में (भावुक होते हुए) और इतनी कि बहुत कम समय में, मैं कह भी नहीं पाऊँगी। तो मैं सीधे अपने प्रश्न पर आना चाहूँगी। आपने बताया था, हमारी नीयत में शुद्धता होनी चाहिए और हमारी बुद्धि में सरलता होनी चाहिए। सही है, आचार्य जी?

आचार्य: ठीक-ठीक, कह सकते हैं। यह कह सकते हैं।

प्र३: हाँ, जी। तो नीयत में शुद्धता बहुत हद तक़ महसूस होती है, लेकिन बुद्धि में सरलता नहीं महसूस होती। क्योंकि बुद्धि हमेशा युक्तियों का प्रयोग करती है ज्ञान की तरफ बढ़ने के लिए। तो उस सरलता को कैसे समझें?

आचार्य: बहुत अच्छा प्रश्न है यह। बुद्धि का तो काम होता है कि अहम् जिधर को भी जा रहा है, उसको सही ठहरा देना। ठीक है न? तो बुद्धि अपनी प्राकृतिक अवस्था में अहम् के लिए तो दुरबुद्धि ही होती है। क्योंकि अहम् अगर जा रहा है प्रकृति की दिशा में, तो बुद्धि पीछे से आ करके तो उसको समझाने से रही कि बेटा गलत कर रहे हो। वो आगे कभी नहीं जाती, वो पीछे-पीछे आती है। वो पीछे से आएगी और बिलकुल जिधर जा रहे हो, उधर को आ जाती है।

सरल बुद्धि क्या होती है? सरल बुद्धि वो होती है जो तर्क से ज़्यादा—लिख सकते हैं आप—जो तर्क से ज़्यादा, तथ्य को सम्मान देती है। क्योंकि तर्क का आविष्कार किया जा सकता है, तथ्य का नहीं करा जा सकता। और बुद्धि क्या करती है? वो समझती है मेरा काम है, इन्वेंटर , आविष्कारक बनना। (मुस्कुराते हुए) वो तर्कों की बाज़ीगरी खेलती है। वो कहती है, ‘तथ्य कुछ होंगे!' जैसे वकील करते हैं न्यायालय में। अब कत्ल हुआ है कि नहीं हुआ है, यह तो बहुत अच्छे से पता है न, जो सामने खड़ा हुआ है मुज़रिम उसके वकील को। पता है कि नहीं पता है? पर फिर भी वो क्या करता है? वो पूरी रात बैठ करके—अगले दिन पेशी, सुनवाई चलनी हो—वो पूरी रात बैठ करके क्या गढ़ेगा? तर्क गढ़ेगा। (मुस्कुराते हुए)

या वो यह करता है कि मैं जानना चाहता हूँ कि इस आदमी ने सचमुच कत्ल करा था कि नहीं? क्या वो तथ्य का अन्वेषण करता है? वो तथ्य को तो कब का भुला चुका। तथ्य की ओर जाएगा तो जेब पर चोट पड़ जानी है तुरंत। क्योंकि तथ्य तो यही है कि तुम जिसकी वकालत कर रहे हो, हत्या इसी ने करी है। तो तथ्य की ओर तो देखना ही नहीं चाहता।

प्र३: तथ्य को भी तर्क से मोल्ड (गढ़ना) करेगा।

आचार्य: बहुत बढ़िया! और तर्क के माध्यम से कल्पना रखेगा। तथ्य जो मोल्ड हो गया वो तथ्य नहीं है न। क्योंकि तथ्य में किसी तरह की छेड़-छाड़ तो करी नहीं जा सकती। तो अगर आपने तथ्य को तर्क के माध्यम से अपने अनुकूल एक जामा पहना दिया या उसमें काट-छाँट कर दी या उसमें रंग-रोगन कर दिया, तो वो तथ्य क्या अब तथ्य कहलाने लायक है? नहीं है न! हाँ, तो सरल बुद्धि वो है जो तर्क पर तथ्य को प्राथमिकता देती है। उसको बैठ करके खोपड़ा नहीं लगाना है कि (सोचने का अभिनय करते हुए) जिधर मेरा स्वार्थ है उसको सही कैसे साबित करूँ? उसको आँख बंद करके विचार नहीं करना है, उसको आँख खोल करके सीधे तथ्य का अवलोकन कर लेना है, सीधे। आप एक आम विचारक को देखिए, उसकी दशा क्या होती है? ऑंखें बंद हैं, खोपड़ा घूम रहा है।

ऑंखें बंद, खोपड़ा चालू। यह झूठा आदमी है। यह किसके प्रति आँख बंद कर रहा है? यह हक़ीक़त नहीं देखना चाहता, हक़ीक़त देखेगा तो इसकी चर्बी घटेगी (मुस्कराते हुए)।

यह ध्यानी नहीं है, यह गड़बड़ आदमी है। यह आँखें बंद करके, तथ्यों का आविष्कार कर रहा है। और तथ्यों का अविष्कार हो सकता है क्या? तथ्यों का अधिक-से-अधिक सिर्फ़ क्या हो सकता है? अन्वेषण।

प्र३: डिस्कवर (खोज)।

आचार्य: हाँ, डिस्कवर हो सकते हैं इन्वेंट (अविष्कार) तो नहीं हो सकते न? लेकिन यह जो विचारक है यह ऑंखें बंद करके क्या करता है? बुद्धि के माध्यम से ये नये-नये तथ्य गढ़ता है। और गढ़े गए तथ्य तो सत्य होते ही नहीं।

सरलचित्त उसको कहेंगे, सरल बुद्धि उसको कहेंगे जो खंभे को खंभा, हथौड़े को हथौड़ा बोलेगा। सीधे देख लेगा, तत्काल, 'अरे! यह ऐसा है, दिस इज दैट वे ', बात ख़तम! वो यह नहीं करेगा कि अब मुझे खंभे को हथौड़ा साबित करना है।

तो सबसे पहले मैं क्या करूं? खंभा है, साबित क्या करना है? तो सबसे पहले तो खंभे की ओर से आँखें बंद कर रखी हैं (हाथ से आँखें बंद करते हुए)। यह दशा है और हार्ड डिस्क घनाघन-घनाघन घूम रही है भीतर (ऊँगली को गोल-गोल घुमाते हुए)। यह कर क्या रहा है? भीतर झूठ की फैक्ट्री है, लगा हुआ है उसका आउटपुट बढ़ाने में।

अरे! बच्चे की तरह हो जाओ न। बच्चों को कभी देखा है? वो क्या करते हैं? ऐसे उनकी…(आँखें बंद करके, फिर खोलकर चारों ओर देखते हुए)। देखना पर्याप्त है! देखना पर्याप्त है!

प्र३: जी, आचार्य जी।

आचार्य: इसलिए, इसलिए, इसलिए भारत ने विचारक से कहीं-कहीं ज़्यादा सम्मान दिया दार्शनिक को। विचार से बहुत ऊपर रखा दर्शन को। क्योंकि दर्शन माने देख लिया।

यह थोड़े ही कहते हो कि मंदिर जा रहा हूँ, भगवान का विचार करने। वहाँ क्या करने जा रहे हो? दर्शन करने। भारत ने हमेशा जाना कि दर्शन—डायरेक्ट ऑब्ज़र्वेशन (प्रत्यक्ष अवलोकन), ए वेरी डायरेक्ट एंड इंटिमेट कांटेक्ट विद द फैक्ट (तथ्य से सीधे और अंतरंग सम्पर्क)—कहीं ज़्यादा ऊँची बात है।

विचार तो दलाल होता है। बीच में घुसा हुआ है। तुम्हे मध्यस्थ चाहिए क्यों? जब सीधे-सीधे तथ्य से संपर्क हो सकता है, तो यह ऑंखें बंद करके किसको बुद्धू बना रहे हो? जो चीज़ प्रत्यक्ष है—प्रत्यक्ष माने प्रति अक्ष। अक्ष माने?

श्रोता: सामने।

आचार्य: हाँ। सामने है। नॉट नेसेसरिली इन फिज़िकल टर्म (आवश्यक नहीं कि भौतिक रूप से) यह नहीं कि वो आँखों के सामने है, ऐसे जैसे मग रखा हुआ है। (मग हाथ में पकड़ कर दिखाते हुए) सामने है। माने सामने है, माने उपलब्ध है। जाना जा सकता है।

सामने है, तो सामने की चीज़ को तुम ऐसे करके सोच रहे हो (गर्दन बाईं तरफ घूमाकर अनदेखा करने का अभिनय करते हुए)। तुम कितने होशियार हो!

यह माया की परिभाषा है। ‘भक्ता के पीछे पड़े, सम्मुख भागे सोय'। जो सम्मुख है—सम्मुख माने वही प्रत्यक्ष, मुख के सामने, सम्मुख—जो सामने है, उससे तुम ऑंखें बंद करके कौन से विचारलोक में रमण कर रहे हो? 'माया-छाया एक-सी, बिरला जाने कोय'।

छाया का गुण यह होता है कि जिधर सूरज होगा उसके विपरीत होगी वो। जिधर सत्य होगा, जिधर प्रकाश होगा, छाया उसके बिलकुल विपरीत होगी। तो कह रहे हैं, 'माया-छाया एक-सी।' सम्मुख है सूरज, पर वो अपना मुँह उल्टे दिशा को करती है हमेशा। जिधर सूरज होता है उससे उल्टी भागती है छाया, और एकदम सिर पर आ जाए सूरज, तो पैरों के नीचे घुस जाती है छाया।

तो सरल आदमी वो है जो जो सम्मुख है उससे इंकार न करे। और आप सम्मुख से इंकार करने पर आतुर ही हो जाओ बिलकुल, तो आपको सबसे बड़ी मदद कौन देता है? तर्क। यक़ीन जानिए इस वक़्त आप अपनी नीयत यह बना लीजिए कि मैंने आज तक जितनी बातें कहीं हैं, आपको सबको झूठलाना है; आप झुठला सकती हैं।

हम खेल करते थे, कॉलेज का समय था। उसको बोलते थे पीसीपी और उसमें मैंने भी कई सर्टिफिकेट पाए हैं। पीसीपी क्या होता था? पॉइंट काउंटर पॉइंट। उसमें एक आपको विषय दे दिया जाता था। पहले तीन मिनट आपको विषय के पक्ष में बोलना होता था और अगले तीन मिनट आपको उस विषय के विपक्ष में बोलना होता था। आपने ही जो बातें बोली हैं, उन सबको काटना होता था। वो करा जा सकता है खूबसूरती से, सफलता से। मैंने भी करा है। तमगे जीते हैं इसमें।

बुद्धि ऐसी होती है। तुम उसको जो उपक्रम, जो टास्क थमा दोगे, वो उसी को सफलता पूर्वक कर डालेगी। तुम उसको बोलोगे पॉइंट, तुम उसको बोलोगे काउंटर पॉइंट, वो सब निकाल देगी।

समझ में आ रही बात?

तर्क पर नहीं चलना है, तथ्य पर चलना है। तथ्य पर चलना है। और अब मैं इस पर कितना भी ज़ोर दे दूँ, वो कम पड़ेगा। प्रत्यक्ष दर्शन का महत्व विचार की मध्यस्थता द्वारा निकाले गए सिद्धांत से सदा बहुत आगे रहेगा। आपने विचार कर-करके कोई सिद्धांत निकाल लिया, उसके बहुत आगे की बात हमेशा रहेगी कि प्रत्यक्ष दर्शन, सीधे-सीधे अवलोकन से जो बात आपको पता चली है। यह होता है सरल मन।

प्र३: जी, आचार्य जी। तो इसमें एक चीज़ यह है कि जैसे हम व्यावहारिक जीवन में सीधी-सी बात देखें कि अभी रात का ऑनलाइन सत्र है, तो इसको अटेंड (भाग लेना) करने के लिए थोड़ी-सी बुद्धि लगानी पड़ती है, युक्तियाँ रचनी पड़ती हैं कि मैं तो सोने जा रही हूँ, मुझे कोई परेशान न करे। तो इसे तो सही बुद्धि कहेंगे?

आचार्य: नीयत सही होनी चाहिए न। दोनों बातें हो सकती हैं। बुद्धि यह भी कह सकती है। अब यह अहम् की नीयत की बात है। अहम् की नीयत के अनुसार बुद्धि यह भी कह सकती है, रात का है तो असुविधा है। और बुद्धि यह तर्क भी ला सकती है, रात का है, इसलिए तो सुविधा है — इस वक़्त कोई नहीं आएगा छेड़ने। सारी दुनिया जब खुमारी में है, खर्राटे मार रही है, उस वक़्त हम जगे हुए हैं, किसी को पता भी नहीं लगेगा, हमने क्या कर डाला।

‘या निशां सर्व भूतानाम, तस्याम जागृति संयमि'।

पूरी दुनिया सोयी पड़ी है, तब हम जगे हुए हैं। यह दोनों बातें हैं। अभी कल वही आईआईटी वालों के साथ हमारा सत्र चल रहा था, यहाँ बगल में ठोका-पीटी शुरू कर दी लोगों ने। सत्र में आ गयी समस्या।

आप लोगों से इतना बोला है कि समझो कि यह जो वर्तमान में हमारी जगह है, यह अनुपयुक्त भी है और असुरक्षित भी है, पर आप लोग समझते ही नहीं। आपको लगता है कि पता नहीं क्या? यहाँ किसी भी दिन, कोई भी कांड हो जाएगा, आज जिस तरह की देश में स्थितियाँ बन रही हैं हमारे ख़िलाफ।

तो कल शाम की बात है यहाँ पर लगे वो ठोकने। दो बार बीच में सत्र रोका गया, यहाँ से लोग बाहर भागे, वहाँ जा करके बगल में उनको बोला। तो अब बताइए बेहतर समय क्या है सत्र के लिए, दिन का या रात का? अब वो रात में नहीं ठोक रहे हैं न अभी या जो भी कर रहे हों, हमें नहीं सुनाई दे रहा।

दिन में तो कुछ भी हो सकता है। अब लेकिन बहुत ऐसे लोग होंगे, हमें बताया जाता है कि लोग आएँगे कहेंगे कि फ़लाने थे वो दो महीने से गीता में हमारे साथ थे, अब इस माह नहीं हैं। क्यों नहीं हैं इस माह? ‘वो अरे! सुबह-सुबह हमारी सात बजे की बस होती है ऑफिस की, आ जाती है। अब रात में ग्यारह-साढ़े ग्यारह के आगे नहीं जगा जाता।' कितना अच्छा तर्क है! आप इस तर्क को काट तो नहीं सकते न, तो नीयत की बात है। नीयत की बात है!

प्र३: प्रकृति को आत्मा के ऊपर स्थान दे दिया।

आचार्य: और आप जो भी करोगे, आपको उसके पक्ष में तर्क मिल जाएगा। जिनको गीता में साथ रहना है वो कहेंगे, ‘यह सबसे अच्छी बात है कि सत्र देर रात होते हैं। हम निर्विघ्न हो करके मन को केंद्रित कर पाते हैं। और जिन्हें नहीं रहना वो ठीक उसी तथ्य का इस्तेमाल करके उल्टा तर्क निकाल लेंगे, ‘इतनी रात को कैसे करेंगे।'

प्र३: बहुत-बहुत धन्यवाद आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories