भक्ति और साधना कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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भक्ति और साधना कैसे करें? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: सर, क्या भक्ति सुमिरन है, क्या इसमें ध्यान लगाना चाहिए, भक्ति कैसे करनी है? कई लोग कहते हैं कि आप ध्यान में बैठोगे, वो भक्ति है; या आप सुमिरन कर लोगे, वाहे गुरु, वाहे गुरु जाप कर लोगे, वो है। आप राम-राम कर लो वो है या आप ओम्-ओम् करते जाओ, वो है। आप एक ओंमकार बोलते जाओ, वो भक्ति है। भक्ति क्या है? उसको बुद्धि के साथ जोड़ना तो है, मगर करनी कैसे है, क्या है?

आचार्य प्रशांत: आप, जो भी जपें वही भक्ति है, बस एक छोटी-सी शर्त के साथ — आप वाहे गुरु जाप करें, भक्ति है। आप हरे राम हरे कृष्ण बोलें, आप मौन धारण करें, आप ओम् का, ओंमकार का जप करें, सब भक्ति है — शर्त क्या है छोटी-सी? शर्त यह है कि जिसका करें बस उसका करें। एक के दो नहीं होने चाहिए। भक्ति के मूल में है — एकनिष्ठा।

एकनिष्ठा। भारत ने इसी को कहा है — एकव्रता होना। और उसी बात को थोड़ा किसी अन्य संदर्भ में कह दिया गया है, पतिव्रता होना कि एक को छोड़कर दूसरे की तरफ़ हम देखते नहीं। यह है भक्ति। ‘मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई'। इतना ही कहना काफ़ी नहीं है कि मेरो तो गिरधर गोपाल। वो जो आगे की बात है, वो बराबर की, बल्कि और ज़्यादा ज़रूरी है — "दूसरो न कोई।"

दूसरा जब तक हटा नहीं तब तक भक्ति नहीं हो पायेगी। इसीलिए भक्ति के साथ-साथ ज्ञान अनिवार्य है—अभी हम चर्चा कर रहे थे न—ज्ञान चाहिए दूसरे को विदा करने के लिए। दूसरा विदा नहीं हुआ, तो आप जब राम-राम भी भज रही होंगी, तो मन में तो दूसरे घूम ही रहे होंगे न। फिर राम मुस्कराकर दूर ही खड़े रहते हैं, वो कहते हैं, ‘अभी तो तुमने मेरे कई प्रतिद्वंदी खड़े कर रखे हैं।'

और राम एक हैं, सत्य एक है। उसका कोई प्रतिद्वंदी तो हो नहीं सकता। और आप जप रहे हो या ध्यान में बैठो हो और एक ध्येय के अतिरिक्त कोई और आ गया आपके ज़हन में, तो आपका ध्यान व्यर्थ गया। देखिए, समझिएगा मेरी बात को। (प्याली दिखाते हुए) इसमें चाय है बहुत सारी, बहुत सारी। हज़ारों बूँद चाय है इसमें। इसमें और आप कितनी भी चाय डाल दो, यह बेहतर तो नहीं हो जायेगी। या हो जायेगी? चाय तो चाय ही रहेगी। चाय में चाय जुड़ी क्या मिला?

श्रोता: चाय।

आचार्य: चाय। पर इसमें आप ज़रा-सा आधा बूँद कीचड़ डाल दो या चौथाई बूँद ज़हर डाल दो, तो ये क्या हो गयी?

श्रोता: ज़हर।

आचार्य: भक्ति ऐसी ही है! तुम इतनी करो (कम का संकेत करते हुए) और चाहे थर्मस भरके करो, इतनी सारी (ज़्यादा का संकेत करते हुए) वो बात एक है। उससे ज़्यादा कीमती बात है कि इतनी थी चाय, उतनी थी, उसमें कहीं चौथाई बूँद किसी दूसरी चीज़ की तो नहीं थी। किसी पराए तत्व की, किसी विजातीय तत्व की तो नही थी? ओंमकार माने फिर ओंमकार। ओंमकार के बीच में कारोबार नहीं आना चाहिए। आप समझना! हम मार इसलिए नहीं खा रहे कि हमारी भक्ति में कमी है।

चाय भरपूर है। चाय में कमी बिलकुल नहीं है। चाय भरपूर है, चाय में कमी नहीं है; कमी यहाँ पर रह गई है कि इसमें चाय तो है, पर सिर्फ़ चाय नहीं है, इसमें चौथाई बूँद…?

श्रोता: ज़हर है।

आचार्य: ज़हर की भी है। और आप क्या कोशिश कर रहे हो? आप कह रहे हो, ‘मेरी भक्ति में कोई कमी है। लाओ रे! एक थर्मस और लाओ चाय।' और वो किसमें मिला दी? वो इसी में मिला दी। कोई फ़र्क पड़ा?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: आपको और ज़्यादा चाय चाहिए या जो है आपके पास उसी का शोधन चाहिए, नेति-नेति चाहिए? समझिए बात को!

इसमें थोड़ा-सा कुछ दोष है। कुछ इसमें मिश्रित है। कोई इसमें ऐसा तत्व, पदार्थ मौजूद है जो इसके जैसा नहीं है; जो दूसरे गुण धर्म का है, विजातीय है। अब मैं क्या करूँ? मैं इसी को दूना कर दूँ, कर दूँ दूना?

आप बताओ न, घर में दूध रहता है। दूध रहता है और दूध का भगोना है आपके पास। उसमें ज़रा-सी दही डली हुई है। ठीक है? तभी दो किलो दूध और आ गया घर में, आप क्या करोगे? उसको वो दही वाले दूध में मिला दोगे? क्या होगा मिलाने से?

श्रोता: सारा दूध दही हो जायेगा।

आचार्य: सारा दही हो जायेगा न। तो चलो ठीक है, वो भगोने में आधा ही किलो था, उसमें ऐसा करते हैं पाँच किलो दूध मिला देते हैं। अब उस पाँच किलो का भी क्या होगा? कुछ बचेगा नहीं। आपको और नहीं करना है कि मैं आधे घंटे ध्यान में बैठती हूँ, तो मैं दो घंटे बैठूँगी।

समझो बात को!

यह जो दूसरा मौजूद है, यह जो दही मौजूद है दूध में, इसको हटाना है। यह जो आधी बूँद, चौथाई बूँद ज़हर की मौजूद है जीवन में, उसको हटाना है। ‘दूसरो न कोई'। दूसरी चीज़ें हैं यह हटाओ! जब तक यें पूरी तरह हटेंगी नहीं, तुम्हारा काम होगा ही नहीं।

पूर्ण के मामले में तो पूर्णता ही चाहिए। वहाँ पर बहुत सारा नहीं चाहिए। वहाँ इतना-सा भी हो, लेकिन पूर्ण हो। और हम जब देखते हैं बात बन नहीं रही है, तो हम गुणवत्ता नहीं बढ़ाते, हम मात्रा, संख्या, तादाद बढ़ाते हैं। क्वालिटी नहीं बढ़ाते, क्वांटिटी बढ़ाते हैं। उससे क्या होगा? तुम दस घंटे ध्यान कर लो। ओंमकार के साथ, कारोबार भी चल रहा है। राम के साथ, काम भी चल रहा है। क्या लाभ हुआ?

जिन चीज़ों से आसक्त हो, जो चीज़ें मन में लगातार घूम रही हैं, उनका मूल्य कम करते जाओ, कम करते जाओ। तुम्हें समझना पड़ेगा कि तुम व्यर्थ दबे बैठे हो, व्यर्थ अटके हुए हो। नहीं छोड़ सकते एक झटके में, तो इतना तो करो कि उनको जो तुम हैसियत देते हो, वो हैसियत ज़रा कम तो करो। इतना तो करो या यह भी नहीं कर पाओगे?

किसी व्यर्थ चीज़ को अगर दिन का डेढ़ घंटा देते हो, तो सवा घंटा कर दो यार! इतना तो कर सकते हो? या यह भी बहुत मुश्किल है? मत छोड़ो, थोड़ा-सा कम कर दो। नहीं? कहीं तो सहमत हो जाओ, किसी बिंदु पर आकर।

कल दो-तीन सवाल इस पर आए थे कि ऐसे तो छोड़ने की बात तो करियेगा ही नहीं। नहीं कर रहा! मैं कह रहा हूँ, ‘कम कर दो!' इधर कुछ कम करो, उधर कुछ बढ़ाओ।

प्र: लेकिन छूट नहीं रहा न। छोडें कैसे?

आचार्य: अरे! छोड़…।

प्र: छूटता ही नहीं, छोड़ें कैसे?

आचार्य: कम, कम कर दो।

प्र: कम कैसे करें?

आचार्य: अरे! चार सीरियल देखती हैं, तीन कर दीजिए न (श्रोतागण हँसते हुए)। और क्या कम करना है?

प्र: सुई अटकी हुई है, वहीं से तो हिल नहीं रही।

आचार्य: क्या कम करने की बात हो रही है? यहीं से शुरू कर लो कि समय दिनभर कहाँ जाता है? जिन जगहों पर तुम जानते हो कि नहीं जाना चाहिए, वहाँ से दस प्रतिशत घटा दो। बहुत बड़ी बात माँग ली? जहाँ तुम जानते हो कि जाना ही चाहिए, वहाँ दस प्रतिशत बढ़ा दो। इतना तो कर सकते हो? ऐसे ही करते जाओ। ये जो बातें होती है न कि पूरा ही छोड़ना है, ये न छोड़ने का बहाना होती हैं। तुम्हें पता है, पूरा तो तुम कभी छोड़ोगे नहीं, तो बस कह दो कि पूरा छूट नहीं रहा, काम हो नहीं रहा।

अरे भाई, एक बार में चाँद तक छलाँग नहीं मार सकते, तो वो तो करो जो करने के तुम अभ्यस्त हो, थोड़ी-थोड़ी तरक्की। एक साल कारोबार दस प्रतिशत बढ़ा लिया—ऐसे ही तो बात करते हो न—मुनाफ़े में चौदह प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। तो प्रतिशत के हिसाब से ही आगे बढ़ लो, इंक्रीमेंटल इम्प्रूवमेंट ही कर लो। 'अभी दिल नहीं है!'

प्र: आचार्य जी, एक के साथ दूसरे की भक्ति भी कर सकते हैं? राम की कर रहे हैं, शिवजी की कर ली।

आचार्य: उनको बस अलग मत मान लेना। उनको अलग मत मान लेना, तुम सौ की भक्ति कर लो। बस उनको अलग-अलग मत मान लेना। ‘जग में सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम'। अलग मत मान लेना बस।

प्र२: आचार्य जी, साधना करने लगते हैं तो हमारी प्रकृति और हावी क्यों होने लग जाती है?

आचार्य: मैं अभी प्रकृति से थोड़े ही बात कर रहा हूँ। मैं प्रकृति को थोड़े ही सलाह दे रहा हूँ कि तुम साधना की तरफ़ दस प्रतिशत वक़्त…। प्रकृति क्या साधना करेगी? प्रकृति का तो बंधा-बंधाया, तयशुदा हिसाब है। उसे क्या चाहिए जो उसे साधना से मिलेगा? प्रकृति को जो चाहिए, वो तो उसे प्रकृति के ही चक्र के चलने से मिलता है। प्रकृति को साधना थोड़े ही करनी है। यह सारी बात प्रकृति से थोड़े ही हो रही है। तुमसे हो रही है न! बैचेन अहंता तुम हो, प्रकृति तो अपनेआप में संतुष्ट है। कुत्ते को देखो सड़क के बीचों-बीच सो जाता है, उसे क्या चाहिए? कुछ चाहिए? प्रकृति तो संतुष्ट है। तुम्हें मुक्ति चाहिए, तुम्हें सत्य चाहिए। प्रकृति को थोड़े ही चाहिए। प्रकृति के तो अपने अलग मंसूबे रहते हैं।

कुत्ते को क्या चाहिए? उसे रोटी चाहिए। तुम्हें मुक्ति चाहिए। भीतर जो पशु बैठा है उसे रोटी चाहिए। दोनों के मंसूबे ही अलग-अलग हैं न, तो क्या करें? प्रकृति को जो करना है उसे करने दो, हम वो करेंगे जो हमें करना है। तेरा काम है कि तू रोटी-रोटी चिल्लाए, मेरा काम है, मैं राम-राम जपूँ। तू रोटी-रोटी चिल्लाती रह, मैं राम-राम जपता रहूँगा।

मैं तुझे मना नहीं कर सकता, ठीक वैसे जैसे हम अभी यहाँ पर बात कर रहे हैं और बाहर कुत्ते भौंकने लगें, तो क्या करें? बात करना छोड़ दें? भौंकने दो। और बहुत ही परेशान करें, बिलकुल द्वार पर ही आ करके नारेबाजी शुरू कर दें, तो थोड़ा दो-चार मिनट को रोक करके, बात कर लो कि क्या चाहते हो भाई? विदा कर आओ, फिर अपने ध्यान में लग जाओ। जैसे तुम्हारा हक़ है ध्यान का, वैसे ही कुत्तों का हक़ है?

श्रोता: भौंकने का।

आचार्य: भौंकने का। उनका हक़ क्यों छीनते हो? पेट का हक़ है कि रोटी-रोटी चिल्लाए। जवान हो तो शरीर का हक़ है कि कामवासना के लिए शोर मचाए। बहुत ही उपद्रव करे, तो रोटी डाल दो या भगा दो। कबीर साहब कहते हैं, ‘माया काली कुतिया है।' तुम जहाँ बैठोगे भजन में, वो तहाँ आ जाएगी और काटेगी पीछे से, शोर मचाएगी। तो क्या करना है फिर?

श्रोता: रोटी डाल दो।

आचार्य: तेरा भी हक़ है रोटी खाने का, ले ले रोटी और जा। प्रकृति के साथ यह बड़ी राहत की बात है, उसकी माँग अनंत नहीं होती। अहंकार की माँग अनंत होती है, प्रकृति की माँग अनंत नहीं होती। बार-बार आती है, पर अनंत नहीं होती। सावधिक होती है।

बात समझ रहे हो?

तुम्हें रोटी रोज़ चाहिए, पर रोटी अनंत नहीं चाहिए। तुम्हें रोटी रोज़ चाहिए, पर रोटियाँ अनंत नहीं चाहिए। बढ़िया बात है। जितनी चाहिए, उतनी डाल दो। मन की चाहत तो अनंत होती है, प्रकृति की नहीं होती। तुम अनंत रोटी पेट में डालोगे तो गड़बड़ हो जायेगी।

अपना काम करो न! प्रकृति थोड़ा बहुत माँगती है, उसको दे दो। और उसके बाद भी भौंके, तो क्या करोगे? भौंकने दो। कितने कुत्तों को भगाओगे? या बहुत तकलीफ़ होती हो उसके भौंकने से, तो किसी ऐसी जगह जाकर बैठ जाओ, जहाँ न हों कुत्ते या शोर न आता हो। पर बार-बार यह दुहाई मत दो कि ध्यान भी नहीं कर सकते, भजन भी नहीं कर सकते, यह कुत्ते बहुत परेशान करते हैं। कुत्ते…?

श्रोता: बहुत परेशान करते हैं।

आचार्य: कुत्ते हैं। हमारे भीतर भी जो पाशविकता बैठी है, जो वृत्ती बैठी है, वो कुत्ते जैसी ही है। उसका काम है, काटना, चिल्लाना, रोटी माँगना, कुतिया के पीछे दौड़ना। तुम कबतक उसकी बात करते रहोगे? अपना काम कब करोगे?

प्र: आचार्य जी, अहंकार को पोषण नहीं मिलता।

आचार्य: अहंकार पोषण किसी से नहीं चाहता, अहंकार तादात्म्य करता है। प्रकृति से तादात्म्य करोगे, तो प्रकृति जो चाहती है वही पूरा करने में लग जाओगे। भीतर जो पशु बैठा है, तुमने उससे तादात्म्य कर लिया, आईडेंटिफिकेशन कर लिया, तो फिर तुम पशु की माँग को अपनी माँग समझ लोगे और उसको पूरा करने में लग जाओगे। फिर तुम यह कहोगे ही नहीं कि देह की माँग है मेरी नहीं। देह को सेक्स चाहिए, मुझे मुक्ति चाहिए। यह अंतर तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा फिर। फिर जो देह की माँग है उसको तुम कहने लगोगे यह तो…?

श्रोता: मेरी माँग है।

आचार्य मेरी माँग है और उसको पूरा करने में खूब समय, ऊर्जा लगा दोगे। साफ़ अंतर करना सीखो, कौन-सी चीज़ है जो भीतर के जानवर को चाहिए और कौन-सी चीज़ है जो तुम्हें चाहिए। तुम्हे तो बेटा एक ही चीज़ चाहिए — मुक्ति। बाकी सबकुछ जिसे चाहिए, उसका नाम है, वही वो पुराना जानवर, जो भीतर हमारे बैठा हुआ है।

जानते हो यह जो रिवाज़ चलते थे, बलि, कुर्बानी यह वास्तव में क्या थे? इसका मतलब यह नहीं था कि किसी त्यौहार पर बकरे काट दिये बहुत सारे या मंदिर में जा करके बकरे की बलि दे दी। उनका वास्तविक अर्थ यही था कि हम सबके भीतर जानवर बैठा हुआ है, उस जानवर को मारना है। पर हम इतने नासमझ लोग हैं कि हमने भीतर के जानवर को मारने की जगह बकरा पकड़-पकड़ के मारना शुरू कर दिया।

जिस पशु को मारना है, वो कौन-सा पशु है, बाहर का कुत्ता या भीतर वाला जानवर? भीतर वाले जानवर को मारने का नाम है — अध्यात्म। यही है वास्तविक बलि, हवि, कुर्बानी। बाहर-बाहर मार कर क्या होगा? बाहर-बाहर मार कर तुम उसे खा ही जाओगे। भीतर का जानवर और पुष्ट हो जायेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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