प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। सर्वप्रथम कोटी-कोटी धन्यवाद और आभार, मुझे एक नयी दिशा और ज़िंदगी देने के लिए। जीवन में अब हल्का महसूस करता हूँ। छोटी-छोटी बातें अब उतना परेशान नहीं करती और इसी दिशा में कार्यरत हूँ कि इसी पथ पर आगे बढ़ता जाऊँ।
मेरा प्रश्न आपसे यह था कि आजकल मेरा मन ग्रंथ पढ़ने और प्रवचन सुनने से ज़्यादा भजन सुनने में काफ़ी लगता है। उनमें से कुछ भजन मैं गाता-गुनगुनाता भी हूँ और उनमें प्रायः डूब जाता हूँ। मुझे लगता है, मेरे लिए सत्य में डूबने के लिए भजन और भक्ति संगीत ज़्यादा सहायक हैं। ग्रंथों के शब्द भी स्पष्टता देते हैं, पर वो मुझे निर्विचार में ले जाने में सहायक नहीं हैं। क्योंकि मन उन्हीं शब्दों के आसपास फिर घूमता रहता है। कृपया इस पर थोड़ा प्रकाश डालें और यह जो मेरे साथ हो रहा है वो कितना सही है? कृपया मार्गदर्शन करने की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: भजनों में मन लग रहा है, तो यह बात शुभ ही है। बस थोड़ा-सा ख़्याल रहे कि भजन में संगीत की अपेक्षा बोल और भाव प्रमुख रहें। और बोलों का अर्थ स्पष्ट रहे, कही जा रही बात बिलकुल वैसे ही पकड़ में आए जैसी कही गई है। उसके लिए ग्रंथों का पाठ, श्रवण, मनन, चिंतन भी आवश्यक है। बोध के अभाव में कुछ भी सहायक नहीं होता, फिर वो भक्ति संगीत ही क्यों न हो।
संगीत कर्णप्रिय होता है, इंद्रियों को भाता है। बोध नहीं है अगर तो भक्ति संगीत के प्रति भी आपका आकर्षण बस उसकी कर्णप्रियता के कारण रह जाएगा। आप भजनों की ओर, भक्ति गीतों की ओर, आकर्षित हो रहे होंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा कि वो आकर्षण अधिकतर इंद्रिय सुख के कारण है। मैं नहीं कह रहा कि ऐसा हो रहा है, पर ऐसा हो जाने की संभावना होती है, ख़तरा होता है, अतः सजग रहना चाहिए ।
किसी देवता की कोई मूर्ति हो आभूषित, अलंकृत, सब तरह के परिधानों, सुसज्जा अलंकारों से आभूषित, कोई एकटक निहारता हो उस मूर्ति को तो कोई आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति में उस देव के प्रति या सत्य के प्रति बड़ा अनुराग ही जग गया है। जिसकी आँखें बंध ही गई हैं उस मूर्ति से, बहुत संभावना है कि उसे मूर्ति का रूप, सज्जा, कलेवर, परिधान, आभूषण, यही बड़े मनभावन लगे हों।
वो एकटक देख रहा है मूर्ति के सिर पर रखे मुकुट को, वो एकटक देख रहा है मूर्ति के गले में पड़े चंद्रहार को, वो देख रहा है मूर्ति के भाल पर कितना सुंदर तिलक शोभायमान है। मूर्ति के सौंदर्य ने उसके मन को पकड़ लिया है। लेकिन इसी स्थिति में क्या हम ऐसा कहेंगे कि उस व्यक्ति में बोध या भक्ति जागृत हो गए हैं? ऐसा तो नहीं है।
यही ख़तरा भजनों और भक्ति संगीत के साथ भी है। संगीत आकर्षक तो होता ही है, ऐसा न हो कि देवता की मूर्ति से आपका बड़ा रिश्ता बैठ जाए और दैवीयता से कुछ भी नहीं । संगीत दुधारी तलवार होती है। वो शोर को परास्त कर मन को अपनी ओर खींच सकती है। जब शोर को जीतने का सवाल हो, तब संगीत उपयोगी है। लेकिन संगीत यह भी कर सकता है कि मन को स्वयं में ही बाँध ले। और जब मन संगीत में ही बँध गया, तो मन क्या करेगा सत्य का?
मन को तो ठिकाना चाहिए था, शांति चाहिए थी, और वो शांति अगर मन को लगा कि संगीत में ही मिल रही है, तो वो संगीत पर ही रुक जाएगा। संगीत से आगे सत्य की ओर क्यों जाएगा? और संगीत पर भी अगर मन रुकेगा तो अल्पकालीन शांति का अनुभव तो होगा ही, कुछ लाभ तो मिलेगा ही। तो लाभ मिलेगा तो ऐसा लगेगा कि यह लाभ भक्ति के कारण मिला है। वो लाभ भक्ति के कारण नहीं मिला होता, वो लाभ मधुर संगीत से मिली अल्पकालीन शांति है। वो सत्य का वरदान नहीं है, वो इंद्रिय गत सुख है।
एक उदाहरण ले लीजिए। बड़ा चलन है कई सालों से, कई दशकों से कि प्रचलित फिल्मी गानों की धुनो पर ही भजन बना दिए जाते हैं। प्रचलित फिल्मी गानों की धुनो पर ही भजन बना दिए जाते हैं और फिर भक्तगण उन भजनों को बड़े रस से सुनते हैं और गाते हैं। गौर से देखिए यह क्या हो रहा है। भक्त का आकर्षण उस गाने के भाव की तरफ़ है या रसीली धुन की तरफ़ है? धुन की तरफ़ है।
और धुन को सामाजिक स्तर पर सफलता पहले ही मिल चुकी है। वो किसी प्रचलित, प्रसिद्ध गाने की धुन है। पता है कि वो धुन कान पर जब भी पड़ेगी, मन बिलकुल लहरा उठेगा, बड़ा सुख मानेगा। अब उस धुन पर तुम भक्ति के बोल बैठा दो, तो भी मन – मुझे बताओ – किसकी ओर आकर्षित है, भक्ति के बोलो की ओर या उस नशीली धुन की ओर? किसकी ओर आकर्षित है? धुन की ओर। अगर बोलों की ओर आकर्षित होता तो मदहोश कर देने वाली धुन की आवश्यकता ही न होती। एक सीधी, सरल, सच्ची धुन भी काफ़ी होती।
संत बोल लिखते थे, संगीत नहीं रचते थे, याद रखना! लिरिक्स थीं, वो म्यूजिक कंपोज़र नहीं थे। क्योंकि उनका सारा सरोकार सिर्फ़ सच्चाई से था, वो सत्य के प्रति प्रेम निवेदन कर देते थे। वही उनकी साखियाँ हैं, वही उनके भजन हैं, वही उनकी काफियाँ हैं और उनको यह ज़रूरत भी नहीं महसूस हुई कि बड़े आकर्षक धुनों पर इन बोलों को सजाया जाए। लेकिन बाद में धुन भी चाहिए, दस तरह के वाद्य यंत्र भी चाहिए, बीट्स चाहिए, क्योंकि यह जो बाद का श्रोता है, इसको सच्चे शब्द से कम प्रयोजन है और कर्णप्रियता से ज़्यादा। तो यह भक्ति संगीत को भी ऐसी धुनो पर रखता है, भक्ति के बोलो के पीछे भी ऐसी आवाज़ें रखता है, ऐसी धुनियाँ कि इंद्रियगत सुख मिलता रहे।
सावधान रहिएगा! कबीर साहब के भजन गाएँ आप, और आपको पता ही न हो कि उन भजनों के बोल इशारा किधर को कर रहे हैं, तो मैं नहीं समझता कि उन भजनों को गाने से कोई लाभ होने वाला है। और बोलों में जो कहा गया है, वो बात गा-गाकर ही समझ में नहीं आएगी। अब कह रहे हैं कबीर साहब, “अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय।” आप गाइए खूब, और एक-से-एक बाकी धुनों पर आप गा सकते हैं। “अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय”। अर्थ बताइएगा, कह क्या रहे हैं वो? गाने से क्या होगा जब समझा ही नहीं कि क्या बात है। और बिना अर्थ समझे गाया जा सकता है। गाने में इंद्रियों को और मन को कोई समस्या नहीं है, कुछ भी गाइए। पर कबीर साहब की रुचि इसमें नहीं थी कि आप गाने लग जाएँ, वो चाहते थे कि पहले आप समझें तो कि अनहद बात क्या है।
किसी भी प्रचलित भजन का उदाहरण ले लो और देखो, कि उसकी कर्णप्रियता एक तरफ़ है और सार बिलकुल दूसरा। और खतरे की बात यह है कि बिना सार को समझे भी वो भजन तुम्हें कर्णप्रिय लग सकता है। तुम उसे लगातार गुनगुनाते रह सकते हो, कान को अच्छा लग रहा है। अर्थ? उससे कोई ताल्लुक नहीं। इतना ही नहीं, अक्सर यह भी होता है कि जो बात कही गई है बोलों में, शब्दों में, दोहों में, भजनों में, उसमें और धुन में बड़ा विरोधाभास हो।
आज से सात-आठ साल पहले की बात है, कुणाल एक गीत लेकर के आया — और ऐसे ही बोध सभा बैठी हुई थी। कबीर भजन ही था — और कुणाल ने सुना दिया, लगा दिया। वो अपनी गाड़ी में लगातार सुनता ही रहता था। पहले जिस संस्था से संबंधित था, वहाँ का गीत था। कुणाल ने बोध सभा में भी वो गीत सब को सुनाया और सुनाया नहीं कि सब बिलकुल बाग-बाग– फूल खिला है, अहाहा, क्या बोला है! जब सब बिलकुल पुष्पित हो लिए, हरियाली छा गई, तो मैंने कहा, ‘यह पाप है। क्या कह रहे हैं कबीर साहब और उसको कैसे गाया जा रहा है।’
लोगों को थोड़ा झटका लगा। बोले, ‘क्या बात है?’ मैंने कहा, ‘सुनो पहले, वो बोल क्या रहे हैं।’ वो शब्द चेतावनी के थे। कबीर साहब चेतावनी दे रहे थे और उसको गाया ऐसे जा रहा था जैसे प्रकृति को रिझाया जा रहा हो, जैसे यौवन का खेल चल रहा हो। और फिर दुबारा सब ने उसको सुना तो हक्के-बक्के रह गए। बोले, ‘बात तो बिलकुल ठीक है। क्या कबीर साहब कह रहे हैं, और कैसे उसको गाया जा रहा है।’ “माया गार से काची”।
याद है, कुणाल? और सुनने में वो इतना मीठा, इतना मीठा कि सब बहके जाएँ, फिसले जाएँ, जाम छलकने लगे। यह ख़तरा होता है निहित संगीत के साथ। वो तुम्हें होश में भी ला सकता है और बेहोश भी कर सकता है। अधिकांशतः हम उसका उपयोग बेहोश हो जाने के लिए करते हैं। ख़ासतौर पर जब हम यह कहें कि ‘मुझे सत्संग सुनना अच्छा नहीं लगता, मुझे तो भजन सुनना पसंद है’, तो समझ लो कि कुछ गड़बड़ चल रही है, बहुत तगड़ी।
संतों ने मनोरंजन थोड़े ही किया था तुम्हारा कि मीठे-मीठे गीत सुना दिए हों। वो प्रबोधन है, वो जागृति का कार्यक्रम है, वो झटका दिया जा रहा है। तुमको लोरी नहीं सुनाई जा रही है, मिठाई नहीं खिलाई जा रही है, झंझोड़ कर जगाया जा रहा है। डंडा मारा जा रहा है, पर हम उसको ऐसे मीठे संगीत में पगा लेते हैं कि पूछो मत। और फिर तो भजन मीठा लगेगा ही। साहब की चेतावनियों को भी हमने रसगुल्ला बना लिया — मीठा-मीठा।
हाँ, साहब के उन्हीं शब्दों पर अगर मुझे बोलना हो तो मेरे माध्यम से फ़िर साहब का डंडा चलेगा। वो फिर सत्संग आपको क्यों भाएगा। कबीर साहब का वही भजन है और उस पर मैं बोलूँ, तो मेरी वाणी में साहब का डंडा अवतरित हो जाएगा, पटापट! अब वही भजन भाएगा नहीं। ‘बड़ी पिटाई लगाई, भजन था कि बेत? पीठ छिल गई, ऐसे पड़े कोड़े।’ और उसी भजन को चाशनी में पगा लो, ‘ना ना न न न नि ना न न ना’ (भजन की धुन गुनगुनाते हैं) लगा, ‘अहाहा, स्वर सरिता बही है! गीत माधुर्य। और सुनाओ, और सुनाओ।’
जब मैं डंडा मारूँ तो काहे नहीं कहते ‘और सुनाओ, और सुनाओ’, तब तो कहते हो ‘प्राण छुटे। इनका सत्र ख़त्म हो, जान बचे।’ वही संगीत अभी लगाया जाए तो देखो, कैसे झूमोगे मदहोश होकर। यह तुम इसलिए नहीं झूम रहे कि तुम्हें साहब से प्रेम है, कि साहब के राम से प्रेम है, वो तुम्हें झूमाने वाला है संगीत और उसकी कर्ण प्रियता — ‘ना ना न ।’
इसीलिए कई पंथों में संगीत को बड़ा हतोत्साहित किया गया है। कहते हैं, ‘आदमी के हाथ में संगीत पड़ेगा तो उसका दुरुपयोग ही होगा।’ मैं नहीं कह रहा कि दुरुपयोग होना आवश्यक है, लेकिन हम ऐसे ही हैं, हम उसका दुरुपयोग ही कर डालते हैं।
यूट्यूब उठाओ, वहाँ देखो, कबीर साहब की जितनी बेइज्ज़ती कबीर साहब को गाने वाले गायक करते हैं, उतनी शायद ही कोई करता हो। वो कुछ जानते ही नहीं कि बोला क्या है कबीर साहब ने, पर वो गा रहे हैं। गा भी रहे हैं, अपने मुताबिक़ अर्थ भी कर रहे हैं। कि बुल्लेशाह हो, बाबा फरीद हो, सबका यही हश्र किया हमने। कुछ पता नहीं कि बात क्या कही जा रही है, पर मीठी-मीठी और उत्तेजक धुनो पर उनके शब्दों को रख दो, और फिर कहो, ‘हम तो भक्ति संगीत सुन रहे हैं, गा रहे हैं।’
बात पहले पूरी समझ लो फिर गाओ, तो अच्छा लगता है न। बात समझी ही नहीं, सिर्फ़ संगीत पर झूम रहे हो, तो गड़बड़ हो गई। यह तो वैसा ही है कि ज़रा-सा आलू लेकर के उसमें किलो भर मिर्च-मसाला भर दिया, बढ़िया छौंक लगा दी। आलू उसमें इतना (उँगली का छोटा हिस्सा दिखाते हुए) और बाकी क्या है? (दोनों हाथों से बड़ा दर्शाते हुए) मसाला। और वो बड़ा स्वाद आ रहा है। स्वाद आलू की वजह से आ रहा है? तुम्हारा आकर्षण ही किसके प्रति है? मसाले के प्रति। और फ़िर तुम कहोगे, ‘मुझे न आलू की सब्ज़ी बहुत अच्छी लगती है।’ आलू को क्यों बदनाम कर रहे हो? आलू से तुम्हारा कोई लेना-ही-देना नहीं है। तुम्हें पसंद क्या आया है? मसाला।
संतों के सुंदर बोल जब साधारण संगीतज्ञों के हाथ में पड़ जाते हैं, तो मसालेदार आलू की सब्ज़ी बन जाती है। मसालेदार आलू की सब्ज़ी जिसमें आलू है एक फाँक और मसाला है पव्वा भर के। और यह और ज़्यादा खतरनाक है, क्योंकि अगर तुम यह सुन रहे हो, मिका को और झीका को और हनी और बनी सिंग को, तो भीतर नैतिक काँटा भी चुभता है कि ‘अरे-अरे-अरे! मैं यह क्या सुन रहा हूँ! छी-छी-छी! ओछी बातें!’ पर जब भक्ति संगीत सुनते हो, तब तो नैतिक तल पर भी हरी झंडी मिल जाती है खुद से ही।
सुन तुम वही रहे हो, सुन अभी भी तुम वही रहे हो जो बस शरीर को सुख दे रहा है, जो कानों को सुख दे रहा है। अभी भी तुम वो नहीं सुन रहे हो जो अहंकार को क्षीण करेगा, जो तुम्हें राम से मिलाएगा। अभी भी तुम कुछ वही ग्रहण कर रहे हो जो तुमको ज़बान का स्वाद देता है, लेकिन अब तुम्हारा अहंकार लज्जा भी नहीं मानेगा। अब तुम्हारा अहंकार बिलकुल छाती फुला करके, उदंडता के साथ कहेगा कि ‘हम भक्त हैं, अभी हम भक्ति के गीत सुन रहे हैं।’
गीतों में जो बात है, समझ में कुछ नहीं आ रही। ‘मेरा पिया घर आया हंऽ हंऽ', देखा है, इस पर क्या गीत बना है? उसका प्रस्तुतिकरण पूरा देखा है, सिनेमेटायझेशन ? क्या कह रहे हैं बुल्लेशाह साहब और क्या तुमने उसको तबदील कर दिया। यौवन का रुप-रस छलकाती सिनेतारिका, वो गा रही है, ‘मेरा पिया घर आया, ओ रामजी, ओ रामजी।’ बुल्लेशाह के चित्र से भी दूर ही रहना तुम। उनके शब्दों के साथ जो धृष्टता करी है, कहीं ऐसा न हो कि अपनी तस्वीर से बाहर कूदकर आएँ और पाँच मारें, पट-पट-पट।
संतों ने गीत लिखे, तो गीत गाए भी जाएँगे, पर वैसे न गाए जाएँ जैसे गाए जा रहे हैं, जैसे प्रचलित सामग्री इंटरनेट इत्यादि पर पड़ी हैं। इसीलिए स्टूडियो कबीर की संस्थापना की गई थी कि तुमको पौष्टिक सब्ज़ी भी मिल जाए और कम-से-कम मसाले में। उसमें कुछ अगर तेल, मसाला पड़े भी तो ऐसा कि सब्ज़ी की पौष्टिकता में इज़ाफ़ा ही करे। नहीं तो बहुत आसान है अहंकार के लिए किसी भी ऊँची-से-ऊँची, सुंदर, शुद्धतम, पवित्रतम वस्तु पर भी हाथ रखकर उसे मैला कर देना-—अहंकार किसी को नहीं छोड़ता।
प्रसिद्धि कमानी है, मुनाफ़ा बनाना है, तो कोई गायक, कोई संगीतकार, कोई फ़िल्मकार वैदिक ऋचाओं को भी उठा लेगा, ‘सत्यम-शिवम-सुंदरम’ को भी उठा लेगा, वैदिक शांति पाठ को भी उठा लेगा, संतों के उद्गारों को भी उठा लेगा, और फ़िर उनमें लगाएगा तड़का। और आपको पसंद है– तड़का, और आप कहेंगे, ‘साहब, मैं तो देखिए, अध्यात्मिक साधना के पथ पर हूँ, भजन सुना करता हूँ।’ पूछूँगा, ‘इस सब्ज़ी में आलू कहाँ है?’ तुम जो चाट रहे हो वो सिर्फ़ मसाला है। आलू तो उबाल कर दे दें, तो तुमसे ग्रहण ही नहीं होगा। आलू से तुम्हारी कोई रुचि नहीं, निष्ठा नहीं। तुम किसके दीवाने हो? मसाले के। नहीं तो बात असंभव है न?
कबीर साहब का एक-एक वचन वैदिक ऋचा है। अगर तुमने ज्ञानाभ्यास ही नहीं करा है, तो तुम समझोगे ही क्या कि वो क्या कहना चाहते हैं? बताओ न मुझे, कैसे समझोगे? हाँ, गा कुछ भी सकते हो, गाने के लिए समझ बिलकुल आवश्यक नहीं है। किन्हीं शब्दों को धुन पर रख देने के लिए बिलकुल ज़रूरी नहीं है कि तुम्हें उन शब्दों की समझ हो। गा तो कुछ भी सकते हो, समझे क्या? और गाने में मगन हो जाओ, नाचने लगो।
जानते हो, संगीत पशु भी समझते हैं। स्वर लहरियाँ हों तो पशु भी थिरकना शुरू कर देते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि बात कुछ समझ में आ गई है। इसका अर्थ बस यह है कि इंद्रिय सुख मिल रहा है। जैसे स्वाद पशु भी समझते हैं, घ्राण शक्ति पशुओं में भी होती है, दृश्य पशुओं को भी दिखते हैं, वैसे ही संगीत की लहरियाँ पशुओं को भी आकर्षित कर ले जाती हैं। इसका अर्थ यह थोड़ी है कि उन्हें सत्य का लाभ हो गया। कुछ भी नहीं! बस, टुनटुनिया बजी है, वो कान को और चित्त को अच्छी लग रही है।
कुछ दोहों का, काफ़ियों का, या भजनों का उदाहरण दीजिएगा, या श्लोकों का दीजिए। कोई भी जो बिलकुल तुरंत याद आ रहा हो, फ़िर मैं जानना चाहता हूँ कि इसको गाया तो तत्काल जा सकता है, पर क्या गाने भर से समझ जाओगे बात को? उदाहरण दो। साधारण-से-साधारण बोल भी बड़े सारगर्भित होते हैं। अगर उनको ध्यान से समझा नहीं हैं, सत्संग से समझा नहीं है, तो क्या करोगे गाकर के? उथली बात थोड़ी-ही होती है भजनों में। ‘तू मेरी मैं तेरा, हेरा फेरा हेरा फेरा’, यह गाने लग गए, हो गया। समझना किसको है, समझने लायक कुछ है ही नहीं।
यहाँ भजन की बात हो रही है, वहाँ सब कुछ समझने के लिए ही है। समझ के गाइए, फ़िर जादू होगा। और एक गुस्ताख़ी कभी मत करिएगा– संतों के वचनों को मिश्रित या प्रदूषित करने की। उन्होंने जो बात कही, बिलकुल वैसे ही रखिए। जो उन्होंने कही, बीच में एक भी नुख्ता अपना मत जोड़ दीजिएगा, ज़रा-सा भी कुछ आगे पीछे मत कर दीजिएगा, और उसमें तड़का तो लगा ही मत दीजिएगा।
‘धी चिक धिन तिनिन तिन तिन, धी चिक धिन धिनिन तिन तिन’ फ़िर बड़ा आकर्षक लगेगा। जो सुनेगा, ‘क्या बात है, क्या बात है!' ड्रम भी है? लाओ और क्या-क्या है? इलेक्ट्रॉनिक बीट्स हैं? हाँ-हाँ, बढ़िया!’ वो आकर्षक तो बहुत हो जाएगा और साथ में जहरीला भी। जहाँ कहीं भी तुम संतों और ऋषियों के बोलों के साथ ‘धिन चिक धिन धिनिन तिन तिन’ सुनना, तहाँ समझ लेना कि यह बहुत किसी भ्रष्ट दिमाग की करतूत है। तुरंत अपने कान बंद कर लेना, वहाँ से हट जाना।
सब्ज़ी की पौष्टिकता बचाए रखने का सूत्र क्या होता है? या तो पकाओ ही मत या कम-से-कम पकाओ, या तो उसमें तेल मसाले का उपयोग करो ही मत और करो तो कम-से-कम, न्यूनतम। यह सूत्र याद रखना– जहाँ कहीं भी देखना कि बात ली गई है संतों की और उसमें जोड़ दिया गया है, ‘धिन चिक धिन तिनिन तिन धिन’ तुरंत वहाँ से गायब हो जाना। कहना– ‘ये किसी पापी का ही काम है।’ अरे! ‘धिन चिक धिन तिनिन तिन धिन' करना होता तो साहब खुद ही उसमें लिख देते न कि ‘मेघा बरसे रिमझिम रिमझिम’ और ‘धिन चिक धिन तिनिन तिन धिन।’ जब उन्होंने नहीं लिखा तो तुम काहे जोड़ रहे हो भाई!
इस मामले में ‘गुरु ग्रंथ साहिब, गुरुबाणी’ के पाठ कुछ बड़े सुंदर और बड़े प्यारे हैं। सिक्खों ने उस उच्चतम धर्मग्रंथ में मिलावट की छूट किसी को नहीं दी है। और बड़ा उपकार करा है उन्होंने दुनिया पर, जो यह छूट किसी को नहीं लेने दी। आप नानक साहब के वचनों के साथ धृष्टताएँ नहीं कर सकते। और बहुत ज़रूरी है कि आप न करें। नहीं तो फिल्मों ने जो सुलूक बाबा बुल्लेशाह के साथ किया, उन्होंने वही सुलूक बाबा नानक के साथ और तेग बहादुर साहब के साथ भी किया होता। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर संतों के वचनों को भी मैला कर देने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती, बिलकुल भी नहीं!
ऐसे ही आदि शंकर का, जगद्गुरु शंकराचार्य का ‘निर्वाण षट्कम’ है। उसको भी गाने वाले समझ ही नहीं रहे हैं कि उसमें बात क्या कही जा रही है और उसे गा कैसे रहे हैं। वहाँ बात ही पूरी मुक्ति की है और उसको गाया ऐसे जा रहा है जैसे प्रेम निवेदन किया जा रहा हो– ‘सुनो जी, मैं तो न चित्त हूँ, न अहंकार हूँ, न देह हूँ, न मन हूँ, न बुद्धि हूँ, मैं तो बस तुम्हारी हूँ।’ ऐसा कह रहे हैं क्या शंकराचार्य, तो यह गाया कैसे जा रहा है फ़िर उसको? इंटरनेट पर देखो, निर्वाण षट्कम के साथ क्या बदसलूकी की जा रही है। और लोगों को बड़ा अच्छा लग रहा है– ‘ना ना न न ना।’ शंकराचार्य भी सोचते होंगे कि ‘मैंने व्यर्थ निर्वाण लिया, नीचे ही उतर आता हूँ और एक बंदूक दे देना, बस मुझे।’
जैसे राष्ट्रगान है, उसको एक बंधी धुन में गाते हो न, और समय भी निश्चित है कि इतनी ही देर चलेगा, इसी धुन में चलेगा। समझ लो, इसी तरीके से संतों के वचनों को भी सम्मान देना है। राष्ट्रगान को तुम कहते हो क्या कि मैं किसी भी धुन में गा दूँगा? धिन चिक धिन के साथ गा दूँगा, करते हो क्या यह काम? जब राष्ट्र गान के साथ यह काम नहीं कर सकते, तो ईशगान के साथ यह काम कैसे कर लेते हो? कैसे कर लेते हो, बोलो? या कहोगे कि ‘यह तो मेरे अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात है, मैं कुछ भी करूँगा।’ जन गण मन टन टन टन टडान टन टन करोगे? कर सकते हो? करना चाहिए? उचित है? नहीं करोगे न?
तो उसी तरीके से संतों के बोलों के साथ भी खिलवाड़ मत किया करो! बड़ी धृष्टता है, बड़ा पाप है। और धुन भी बनाने का अधिकार बस उसको है जो धुन बनाने की पात्रता रखता हो। कबीर साहब के बोलों पर, भजनों पर अगर धुन बनानी है तो पहले कबीर साहब को समझिए। जो गहरा कबीर भक्त हो, उसे ही हक़ है कबीर साहब के बोलों को धुनो पर रखने का। कबीर साहब का आपसे कोई लेना-देना नहीं, आपकी ज़िंदगी में कबीर साहब का कोई महत्व नहीं, लेकिन धंधे के तौर पर, रोज़गार के तौर पर, प्रोफेशन के तौर पर, करिअर के तौर पर आपने क्या किया? कबीर साहब के बोल उठा लिए और उस पर संगीत चढ़ा दिया। यह आपने बद्तमीज़ी करी है।
कबीर साहब से आपका प्रेम का, समझ का और सम्मान का नाता हो, तो ही उनके बोलों को स्पर्श करिए, वरना दूर रहिए! भजना ऊँची-से-ऊँची बात है, पर उस भजने में जो संगीत शामिल हो जाता है – मैं फिर याद दिलाता हूँ-—वो दुधारी तलवार है, सतर्क रहना। भजना माने गाना नहीं होता! संतों ने कहा है, ‘भजो।’ और भजो का मतलब यह नहीं है कि संगीतमय होकर ही भजो।
‘भज गोविंदम भज गोविंदम, गोविंदम भज मूढ़ मते’ — यह है भजना। गोविंद को याद रखना भजन है। भजन माने गोविंद को याद रखना। ‘अरे मूढ़ मति, गोविंद को याद रख’ — यही भजन है। लगातार भीतर नाम उसी का चलता रहे, ये ही। जपना और भजना बहुत करीब की बातें हैं। तो खूब भजिए! भजनों से आपको प्रेम है तो खूब भजिए। संगीत – उससे थोड़ा-सा सावधान रहिए।