श्लोक: नियतं कुरु कर्म, त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न, प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥3.8॥
काव्यात्मक अर्थ:
कर्म के परि त्याग से, श्रेष्ठ है नि यत कर्म । कर्मयात्रा पर चल पड़े, जि स क्षण लि या जीव जन्म॥
आचार्य जी: श्रीमद्भगवद्गीता गीता, तीसरा अध्याय कर्म का विषय है, पिछले सत्र में हमने देखा था कि मिथ्याचारी और सदाचारी का भेद स्पष्ट कर रहे थे कृष्ण, और जो भी था वो भी कर्म के केंद्र पर ही आधारित था। कहां से आ रहा है कर्म ,और आज जो हमारे पास श्लोक है आठवां वो भी कर्म पर ही पूरी तरीके से ।कर्म के बारे में कुछ बातें समझेंगे पहले फिर श्लोक में प्रवेश करेंगे।
कर्म क्या है?
प्रकृति माने द्वैत, ठीक है ।प्रकृति माने जड़ और चेतन की परस्पर क्रीडा, द्वि का खेल, चेतन है वो द्रष्टा हो जाता है, जो जड़ है वो दृश्य हो जाता है ठीक है।
और जो दृश्य है उसका काम है निरंतर बदलते रहना, क्योंकि जो दृष्टा है वो दृश्य से लगातार क्रिया कर रहा है ,एक इंटरेक्शन है। प्रकृति का अर्थ है दृष्टा और दृश्य ठीक है। दृश्य और दृष्टा आपस में लगातार क्रिया कर रहे हैं ।जिसकी वजह से दोनों ही लगातार बदल रहे हैं ,इसी बदलाव को "गति" कहते हैं, "समय" कहते हैं, "कर्म" भी कहते हैं। ये जो दृष्टा है इसके लिए बहुत आसान है भ्रमित होकर ये सोच लेना कि, वो दृश्य में आ रहे बदलाव का कारण है।
तब वो बन जाता है कर्ता, वो ये नही देख पाता की ये एक क्रिया है। वो ये नहीं देख पाता कि दृश्य और दृष्टा दोनों एक दूसरे को बदल रहे हैं, और उसी बदलाव के फल स्वरुप उसी परस्पर प्रभाव के फल स्वरुप जो पूरी जगत की धारा है, जीव का अस्तित्व है वो आगे बढ़ रहा है। उसे लगने लग जाता है कि मैंने किया, मैंने किया, वो ये नहीं समझ पाता कि हो रहा है। उसको लगता है वह कर रहा है।
ठीक वैसे जैसे कि कहीं पर रंगों का खेल चल रहा हो, ठीक है। वहां 50 तरीके के रंग उझल रहे हैं। आप वहां पहुंच जाए ,आप वहां पहुंचे इसलिए कि वह रंगों ने आपको आकर्षित कर लिया था, दृश्य ने द्रष्टा को आकर्षित कर लिया था । दृश्य ने दृष्टा को आकर्षित किया , दृष्टा को आकर्षित किया तो वो पहुंच गया , वहां रंगों का खेल चल रहा है। वहां रंगों का खेल चल रहा है, ये वहां पहुंच गया तो हरा रंग कहीं से उछल करके इसके चश्मे पर आकर गिरता है।
जब चश्में पर हरा रंग आकर गिरता है,तो वो ये कह सकता है की मेरी मौजूदगी ने ये सब कुछ हरा - हरा कर दिया। अब बदलाव यदि आया है, तो पहले किसमें आया है, पहले दृष्टा हरा हुआ है फिर दृश्य हरा हुआ है। अब दृष्टा हरा क्यों हो गया? था तो नही वो हरा मान लीजिए किसी रंग का नहीं था , वो तो किसी रंग का नहीं था, प्रकृति में सब रंगों का खेल चल रहा था , वो हरा हुआ क्या? नौबत क्यों आई, आकर्षित हो गया।
आकर्षित हो गया तो प्रकृति के रंग में रंग गया ,प्रकृति में अनंत रंग है, सब एक साथ आ कर के रंग देंगे,जैसे जहां होली खेली जा रही होना जाने कितने रंग होते हैं ,और आपको सबरंग समानुपात में आकर नही पड़ जाते हैं। त्रिगुणात्मक होती है ना प्रकृति, सारे रंग एक साथ किसी में नहीं आ जाते , एक ही बराबर अनुपात में। एक रंग आकर उस पर गिर गया हरा ,जब हटा गिर गया तो उसने कह दिया , कि मेरे आने भर से देखो दुनिया हरि हो गई। या मैंने हरा कर डाला सब कुछ, मैं आया और मैंने सब हरा कर दिया, तो ये क्रत्रत्व होता है, ये कर्ता भाव है । कर्ता भाव में ये तो कहा जाता है कि मैंने सामने वाली चीजों में बदलाव ला दिया। चलो ठीक है, यहां तक तो ठीक है , कि बदलाव आया तो है तुम लाएं कि नहीं लाएं, उस पर बाद में चर्चा हो जाएगी ।
लेकिन कर्ता भाव में जिस चीज की बिल्कुल उपेक्षा हो जाती है वो ये है कि वो ये है कि आप स्वयं बदल ले, यह परस्पर बदलाव की क्रिया चल रही है, दोनों बदलते हो ठीक है। तो प्रकृति माने दृश्य और दृष्टा जो दोनों एक दूसरे से बंधे हुए हैं, दृष्टा दृश्य से मुक्त नहीं है ।दृष्टा दृश्य से मुक्त नहीं है ,इसको क्या बोलते हैं ? "प्रकृति" । तो हम कहां करते हैं की प्रकृति की संतान है, "अहम" उसी "अहम "को हम इतनी देर से क्या बोल रहे थे? दृष्टा । तो प्रकृति में अहम है ,और अहम के चारों ओर दृश्य ही दृश्य है, अनंत दृश्य हैं ठीक , और ये दोनों एक दूसरे से लगातार कुछ ना कुछ संबंध बनाए हुए हैं।
और वो जो संबंध भी है, वो भी लगातार बदल रहा है, डायनेमिक है । वो भी लगातार विकास की क्रिया पर है, विकास की यात्रा पर है , ये "प्रकृति" है। प्रकृति समझ में आई, प्रकृति क्या है? प्रकृति में सदैव दो होते हैं, कौन - कौन? दृश्य और दृष्टा, उसी को आप कभी जीव और जगत भी बोल देते हो, कभी पुरुष और प्रकृति बोल देते हो । वो सब एक ही बात है, कोई मौलिक अंतर नहीं है ठीक है ।और चूंकि ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं ,इसीलिए बदलाव चल रहा है, इसीलिए बदलाव चल रहा है ।अगर जो दृष्टा है वो श्रेय न लें बदलाव का, तो उस बदलाव को आप मात्र कह सकते हो गति। क्या कह सकते हो? गति, गति मात्र है। पर ये जो दृष्टा होता है ना , वो इतना पगला होता है, की पहली बात तो ये बदलाव के खेल में फंसता है ,क्योंकि दृश्य का भी बदलाव हो नहीं सकता था ना दृष्टा के बदलाव के बगैर।
तो ये इतना पगला है कि पहले तो ये बदलाव के खेल में फंसता है, और फंसने के बाद हो ये नहीं कहता कि मैं फंसा हूं , वो श्रेय लेने लग जाता है। जैसे कि आपने कोई भारी गलती कर दी हो , ये तो आप नहीं माने की गलती हुई है ,उल्टे श्रेय लेने लग जाएं। एकदम अकड़ में आकर कहने लग जाएं मैंने किया । कैसा होगा ये आदमी पहले तो मूर्खता करी है और फिर सीना तान के कह रहा है मैंने किया, ये "कर्ता भाव" है ।
जो हमारी एकदम मूल जैविक व्रत्ति है शारीरिक,उसके करण बदलाव की प्रक्रिया में तो हम लगातार सहभागी रहेंगे ही रहेंगे। ये मुद्द्दा थोड़ा महीन है, ध्यान देंगे तो ही समझ में आएगा, ठीक है। क्योंकि अगर बदलाव नहीं होगा तो एक क्षण में जीव मर जाएगा। सांस ही नहीं चलेगी, सांस चल रही है इसका क्या मतलब है बताओ? दिल की धड़कने का क्या मतलब है ? पलकें झपकने का क्या मतलब है ?विचारों के होने का क्या मतलब है? तो अगर बदलाव एकदम शारीरिक तल पर भी रुक गया तो जीव रहेगा ही नहीं। तो उस तल पर बदलाव को रोकने की बात अध्यात्म करता नहीं ,और वो बात होती है तो बहुत अंत में होती है , ठीक है।
बात करी जाती है श्रेय लेने की वृत्ति को रोकने की, ठीक है बदलाव हो रहे हैं, एक प्रक्रिया चल रही है ,तुम कम से कम इस भ्रम से तो बाहर आओ की वो सब कुछ तुम्हारी मुक्त इच्छा से चल रहा है, की वो तुम्हारे करें हो रहा है । की वो तुम्हारे करे हो रहा है ,हां और जब ये बदलाव की प्रक्रिया चल ही रही है तो फिर तीन उसमें विकल्प होते हैं,जो सबसे निम्नतम स्तर का विकल्प है, अभी उसकी बात करी हमने वो होता है श्रेय लेना माने कर्ता ही बन जाना। और कर्ता बन करके वही होली चल रही है,रंगो में उछल कूद शुरू कर दी।
उससे ऊपरी तल होता है, की क्या कर्म के मध्य से माध्यम से ही ऐसा रास्ता बना सकता हूं कि मेरा कर्ता भाव शिथिल बने । क्या कर्म इस तरह का हो सकता है जी मैं कर्म बंध से मुक्त हो जाऊं। जब आप कर्ता बने हुए हो तो कर्म बंध से मुक्त होने के लिए बनते हो क्या? जो हमने निम्नतम स्तर की बात कारी थी, आप कर्ता किस उद्देश्य से बनते हो? भोगने के लिए । तो मुक्त ही नही कहलाओगे , मुक्त हो गए तो भोगेंगे कैसे ,ये निम्नतम स्तर होता है उसमें आप कर्म करते इसलिए हो की आगे अब मजा आएगा हां। वो चेतना की सबसे गिरी हुई हालत है ,ठीक है ।इससे ऊपर होता है जब आप कर्म में सहभागी बनते हो कि मेरी प्रतिभागीता खत्म हो, मैं प्रतिभागी हो रहा हूं इस उद्देश्य से कि मेरी प्रतिभागीता खत्म हो ,जो सबसे नीचे हमने कहा वो अधार्मिक चित्त है । जो निम्नतम स्तर का था ना उसके आगे आप लिख सकते है, अधार्मिक चित्त। जो ये मध्ययम स्थिति में खड़ा हुआ है उसको आप कह सकते हैं धार्मिक चित्त।और इनके ऊपर आता है मुक्त, ऊपर है मुक्त।
जो मुक्त है उसे अब किसी तरह की प्रतिभागिता करनी नहीं हैं ,वो दृश्य और दृष्टि दोनों के खेल को इतनी गहराई से जान गया है, की दृष्टा होना अब उसको बड़े बचपने की बात लगती है, कहता ये अपरिपक्व व्यक्ति। मजाक की बात है, मुस्कुरा सकते हैं इस पर, पर गंभीरता से नहीं ले पाएंगे। ये हो रहा हो तो देख लेंगे पर कर नहीं पाएंगे। समझ में आ रही है बात, ये दृष्टा के दृश्य से संबंध की तीन अवस्थाएं तीन तल हमने बताएं। दृष्टा से दृश्य के संबंध के हमने तीन तल कहे, सबसे निकला तल है की कोई दृश्य दिखा, रंगीन था और उसमें अपने आप को खींच जाने दिया की आगे अब और भोगनी को मिलेगा । और आगे जो कुछ भी हुआ अपने आप को उसका कर्ता भी घोषित करते रहे। वहीं चश्मे पर हरा रंग आकर पढ़ा था, कहा कि देखो मैंने सब हरा हरा पोत दिया।
और हुआ कुछ भी नहीं आपने कुछ भी नहीं करा है, आपके साथ तो बस घटना घटी है। आपके चश्मे पर हरा रंग आकर पड़ गया है ,क्योंकि जहां आप गए थे वहां यही रंग इस तरह की चीजें उछल रही थी ,आपन पर भी आकर पड़ गई। प्रकृति में बस क्या होते हैं "संयोग", रंग और उनके संयोग,बहुत सारे लोग करणता वहां ढूंढने लगते हैं जहां चीज अकारण है। रैंडमनेस में कॉजेशन ढूंढोगे तो बहुत बेवकूफ बनोगे।
कुछ भी नहीं है बात बस क्या है ,अकारण है रेंडम। असल में अहंकार को चूंकि कर्ता बनना है इसीलिए उसे कारण बनाना है ना, कर्ता कौन होता है? कारण होता है। करता कौन होता है कारण होता है,जैसे बोध शास्त्रीय तौर पर कहा जाता है कि मिट्टी है मिट्टी से घड़ा बन गया। तो कुम्हार जो है निमित्त कारण है। कहते हैं ना साधारण और मिट्टी को कौन सा कारण होते हैं उपादान कारण तो कहते हैं कि दोनों तरह के कारण चाहिए ।और भी तरह के कारण बताए जाते हैं , मुख्यतः ये दानों। तो कुम्हार , कुम्हार माने वो जो जीव है, जो कर्ता है, उसे कारण बनना होता है, मैं कारण हूं, तो कर्ता कारण बनाना होता है। करता कारणता में मजबूरन यकीन करता है , क्योंकि उसे क्या बनना है कारण। अब कारणता ही नहीं है तो कारण बिचारे का क्या होगा?
अगर कारणता माने कॉसिशन ही नहीं है, करता है कि व्यवस्था एक सिस्टम है जिस पर कॉसिशन का नियम लागू ही नहीं होता, तो वहां कर्ता तो मर जाएगा उसका दम ही घुट जाएगा ना । क्योंकि वो तभी जिंदा रह सकता है जब , वो कहे कि मैंने किया अर्थात में कारण हूं । मैंने किया आई कास्ड मैंने किया ,मैं कारण हूं तो वहां भी कारण बन जाता है जहां पर कारण जैसी कोई चीज होती ही नहीं, वहां भी कारण होता है। कारण जैसे कोई चीज और वो सामने जो कार्य मैं किया । मैं कारण हूं जगत कार्य है , मैं कारण हूं, जगत कार्य है, और खेल सारा क्या है? संयोगवश , याद्राक्षिक खेल है, रैंडम खेल है ,लेकिन जिस बात से हम बिल्कुल परेशान हो जाते हैं वो ये शब्द हैं संयोग ।संयोग के अलावा कुछ नहीं, आपको बताया जाए कि आपका ये जो पूरा जीवन है वो संयोग के आधार पर ही खड़ा है, बड़ा बुरा लगेगा। बहुत बुरा लगेगा, हम मानना चाहते हैं की उसके पीछे कुछ ना कुछ तो है ।
भारत, ने पुनर्जन्म के सिद्धांत को बड़ी हास्यास्पद दूरी तक खींच डाला ,क्यों ? क्योंकि आप से रेंडमनेस स्वीकार नहीं कारी जा रही है । आज भी यही तर्क दिया जाता है, वो बच्चा अंधा पैदा हुआ कोई करण तो होगा ना ,तो क्या करण है? अरे भई कोई कारण नहीं है, बात संयोग है, रेंडम है, रैंडम है। नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन नहीं जानते, नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन का मतलब यही होता है। आप यहां से एक अपने हाथ में चावल ले ले चावल के दाने ले ले दोनों हथेली में भर ले और ऐसे जोर से उछाल दे (आचार्य जी दोनों हाथों से उछलते हुए)।ऐसे जोर से उछाल दे ,तो वो नीचे गिरते हैं। नीचे जब गिरेंगे तो आप जहां गिरे हो उसके केंद्र पर बिंदु बना के और की ये केंद्र बिंदु है रखके,केंद्र पर ऐसे हाथ रखकर इससे ऐसे ऐसे सर्कल करके कंस्ट्रिक सर्किल बना दे, तो सबसे ज्यादा च चावल आपको कहां मिलेंगे?
जो एकदम पहला केंद्रीय इनर सर्कल है ,ठीक है फिर आप जो उससे बाहर का जो व्रत है उसमें कितने मिलेंगे चावल के दाने, कम मिलेंगे ।फिर और बाहर वाले में, फिर और बाहर वाले में 1,2 अभागे ऐसे भी दाने होंगे, जो कहां मिलेंगे? वो एकदम ही कहीं और मिलेंगे वो, वो है जो अंधे काने पैदा हुए हैं।
प्रकृति ने कुछ चाहा नहीं था, प्रकृति तो ऐसे लेती है बीज और ऊछाल देती है, छींट देती है। कहीं कुछ गिरा कहीं कुछ गिरा रेंडमनेस, प्रकृति को स्वयं ही नही पता होता है , की किसका क्या होगा! उसके पीछे प्रकृति स्वयं भी कारण नहीं है। वो बस ऐसे , कुछ नहीं पता या आपको अगर कारण खोजने भी है तो आपको फिर अनंत करण खोजना पढ़ेंगे। अनंत कारण, की बीज कितने थे हाथ में वो किस कंफीग्रेशन में थे,कितनी गति से और किस कॉन्फ़िगरेशन से किस ट्रांजैक्ट्री पर हाथ ऊपर गया । हवा किस गति से बाह रही थी, वो ऊपर जाकर के दाने आपस में कैसे टकराए, जब वो नीचे गिरे तो आपस में कैसे टकराए। जब वो नीचे गिरे तो हवा की गति का जो कर्व था डिस्ट्रीब्यूशन था वो क्या बदल गया? यहां तक भी फर्क पड़ जाएगा, की ये सारा काम किस लट्टीट्यूड पर हो रहा है ।
क्योंकि गुरुत्वाकर्षण से लेकर के, हवा की गति तक, सब कुछ इस पर भी निर्भर करता है, समझ में आ रही है बात । यहां तक कि उछाली हुई थी स्विंग भी कितना करेगी, यहां तक की ये भी निर्भर करता है कि ये काम तो आपको फिर अनंत कारणों को लेकर के गणना करनी पड़ेगी तो पता चलेगा की कौन सा दाना कहां जाके गिरेगी । या सीधे-सीधे कह दीजिए कि बात संयोग की है ।क्योंकि 200 दाने हो तो फिर भी गणना की जा सकती है,400 दाने हो तो ये पूरा डिस्ट्रीब्यूशन ठीक ठीक पता करने में बहुत जबरदस्त कंप्यूटर चाहिए। 4000 दाने हो तो सुपर कंप्यूटर चाहिए, लेकिन प्रकृति में कितने दाने हैं जो प्रतिपल उछाले जा रहे हैं अनंत । तो सुपर कंप्यूटर का भी बाप चाहिए जो ठीक ठीक बता पाए ,की कब, क्या, कहां कैसे हो रहा है। समझ मैं आ रही है बात।
करने को तो गणना इस बात की भी करी जा सकती है, की एक पेड़ में ढाई सौ शाकें हो, साफ बता सकते हैं किस जगह पर पहले फल ,फिर फूल लगेगा । बिल्कुल बताया जा सकता है, पर वो गणना करना सुपर कंप्यूटर में आ जाता है। वो गणना फिर सुपर कंप्यूटर में, ये एक पेड़ की बात है और आनंद पेड़ होते समझ में आ रही बात। तो वो चीज रैंडम है ,उसमें कुछ नहीं रखा है , और मनुष्य पगला बनता ही इसलिए है क्योंकि जो कुछ मात्र सा सांयोगिक होता है, उसको वो आत्मिक समझ लेता है। आत्मिक माने मेरा, मेरा दृष्टा कहने लग जाता है मैं कर्ता हूं मैंने किया। तुमने करा नहीं तुम्हारे ऊपर हुआ है, तुम पर इंफ्लेक्टेड है ,तेरे साथ दुर्घटना हो गई है। तेरे साथ कुछ हो गया ,जैसे कि किसी को कोई कीड़ा आकर काट लें। और उस कीड़े का मस्तिष्क पर ब्रेन पर प्रभाव ही यहीं पड़ता हो, कि उस कीड़े के काटने के कारण फिर आप सोचने लग जाते हो कि मैंने ही तो उस कीड़े को आमंत्रित करा था।
उस कीड़े का आप पर असर यह पड़ता है, कि आप अपने आप को उस कीड़े का आमंत्रण दादा समझने लग जाते हो ,प्रेमी समझने लग जाते हो। मैंने इस कीड़े वो उस कीड़े के काटने का असर है , कि तुमने अब लगने लग गया है कि, वो कीड़ा बहुत महत्वपूर्ण है और तुम ही ने तो न्योता दे देकर कीड़े को बुलाया हो जैसे। ये लगने लगा है घटना बस घटी है, मुफ्त की पहचान आप ऐसे भी कर सकते हैं। वो पराए पचड़ों में नहीं पड़ता, "मुक्ति" का मतलब ही यही है ।
कोई मुक्त है माने किस से मुक्त है, प्रकृति से मुक्त है । और प्रकृति का मतलब क्या होता है? कौन से दो, जो कर्ता प्रतीत होता है, और दूसरा जिसके ऊपर हो रहा है । यही दोनों होते हैं ना दृश्य और दृष्टा,मुक्त वो जो इन दोनों को ही जान लेता है की ये पराई घर की बातें है ।जो अपने आप को इफेक्ट बोलना हो, मुक्त कहता है मेरा लेना देना नहीं इससे। जो अपने आप को कॉस बोलता हो, कर्ता ,कारण वो कहता है मेरा इससे भी कोई लेना देना नहीं है ,यही मुक्ति है, समझ में आ रही बात।
वो सबसे निकले तल का, हमने मन क्या कहा था? अधार्मिक, तो क्या करते रहता है लिप्त होते रहता है ।वो कर्ता बना राहत है और जितने तरीके उसको विषय मिल सकते हैं , वो सब में जा जाकर के घुसता राहत है ,और सोचता है की मैं यहां कुछ कर रहा हूं। और मेरे करने के फल स्वरूप मैं कारण हूं, मैंने कार्य किया, आगे उसे कार्य का फल आएगा ।और जो फल आएगा बड़ा रोचक होगा, क्या मधुर फल होगा, ये सबसे निकले तल का आदमी है ।
इससे ऊपर के तल का आदमी कौन सा होता है, शायद कभी तीसरे तल पर था।बंधन उसने खूब अनुभव करें हैं, बंधनों में जकड़ा भी हुआ है पर अब कह रहा है कि अगर मुझे कर्ता बनना ही है मैं कर्म वो करूंगा जो मेरे क्रत्रत्त्व को क्षीण करें , ये धार्मिक चित्त है । धार्मिक मन कर्म करता है पर इसीलिए करता है ताकि वो कर्ता न रहें, कर्ता भाव छिड़ करते हुए जो कर्म करे वो धार्मिक चित्त है। तो बात किसकी हो गई ,वही घूम फिर कर फिर पुराने शब्द नियत, इरादा ,कामना।
धार्मिक चित्त वो जिसकी कामना निष्कामता की है , अधार्मिक चित्त वो जिसकी कामना भोग की है । जिसकी कामना भोग की हो उसको ही कामी बोला जा सकता है वो कमी है। और जिसकी कामना फिर मुक्ति की हो उसको फिर कामी नहीं बोलते, उसको साधक बोलते हैं, उसको योद्धा भी बोल सकते हैं ।वो फंसा हुआ है लेकिन बाहर आना चाहता है , वो घिरा हुआ है पर घेरा तोड़ना चाहता है । और इन सब से ऊपर फिर कौन है ? "मुक्त", उसने घेरा तोड़ दिया, उससे हमें बहुत मतलब नहीं हम उसकी बात कम से कम करना चाहते है ।उसकी बात करना वैसे ही है कि जैसे आसमान में खजूर लटके है ,बताओ स्वाद कैसा है ?
कैसा स्वाद है बताओ, मस्त स्वाद है, सब बता देंगे हमें उसकी बात नहीं करनी है। होता होगा कोई आसमान में ,होते होंगे कोई खजूर हमें क्या पता हमें तो अपनी स्थिति से मतलब है। हमारी स्थिति ये है की हम कभी तीसरी माने सबसे निकले तल पर होते हैं ,कभी थोड़ा सा निकले और मध्यम के बीच में होते हैं, कभी माहौल उचित मिल जाता है, तो दूसरे तल पर आ जाते हैं तो हम तो वहीं पर उछल कूद मचा रहे हैं। हमें बात तीसरे और दूसरे ही तल की करनी है। अधार्मिक मन और अधार्मिक अहम और धार्मिक अहम हमें इन दोनों पर ही ध्यान देना है, ठीक है।
अब देखते हैं, कृष्णा क्या का रहे हैं 8वां श्लोक,
नियतं कुरु कर्म, कभी ये, किंकर्तव्यविमूढ़ता खड़ी होना ना की कर्म क्या उचित है मेरे लिए ।
तो सबसे पहले जो अंतिम बात कही है समझ के, उसको एक तरह कर देते हैं, वो ये कि देखो अगर कर्म एकदम ही रुक गया, तब तो शरीर ही गिर जाएगा ना । शरीर की भी यात्रा चलती रहे इसके लिए कर्म तो हो ही रहा है, तो दिमाग से ये फितूर तो हटाओ अर्जुन, की तुम कर्म नहीं करोगे। अगर खड़े भी हो ना सामने तो ये कर्म ही है ।तुम्हें नहीं पता, तुम्हें लग रहा है की स्थिर खड़े हो कुछ कर रहे। याने कितने कर्म है जो चल ही रहे है, गतियां तो चल ही रही हैं ना शरीर के भीतर । किसी का शरीर ऐसा हो सकता है की शरीर है फिर भी गति नहीं है। शरीर मर भी जाता है, तो भी गति होती है, शरीर माने क्या होता है हम सोचते हैं शरीर माने बस जीव का शरीर ।
कोई एक इकाई है क्या शरीर, तुम्हारे शरीर में करोड़ों तो बैक्टीरिया बैठे हुए हैं। न जाने वो कैसी कैसी गलतियां कर रहे हैं, आप यहां बैठकर के सकते हैं आप यहां कह सकते हैं कि, आप गीता सुन रहे हैं, बैक्टीरिया अपने ही काम में लगे हुए हैं अंदर । तो गति तो पता नहीं कितनी चल रही है ,शरीर के होने भर से चल रही है। वो भी आपके शरीर का हिस्सा है, वो ना हो तो आप अभी मर जाएं तुरंत , जितने अभी बेक्टेरियां लेकर घूम रहें हैं, वो ना हों तो इंसान एक दिन न जिएं , वो भी तो शरीर ही हुई है फिर हमारा। वो सब अपना काम कर रहें हैं ।
ये देखो अगर तुम्हारा ये विचार है, कि कर्म त्याग कर दोगे,थोड़ी देर पहले काहा था ना अर्जुन ने, अगर सन्यास ही इतनी अच्छी बात है और ज्ञान ही इतनी अच्छी बात है, तो बाबा मेरे को कर्म में काहे धकेलते हो। तो बोले देखो ,पहले बात दिमाग से विचार ,ये आइडिया, एकदम हटा दो की कर्म रुक भी सकता है, एकदम हटाओ खाली करो फिर आगे की बात करेंगे। यहां तक जा कर कह दिया क्या अर्जुन तुम कुछ भी ना करो, स्थिर खड़े हो जाओ बिल्कुल तो भी तुम कर्म तो कर ही रहे हो क्योंकि उसके बिना तो शरीर यात्रा ही रुक जानी है । जीव के होने का अर्थ ही है एक न्यूनतम तक तो कर्म चल ही रहा है, तुम चाहो चाहे ना चाहो। आपने सांस लिया, आपने सांस छोड़ी, वो छोटे-मोटे आकर उसमें फंस गए, और चले गए तो आप तो बड़े अहिंसक आदमी है, वो तो मर गए, आप के सांस भर से लेने से मर गए वो तो , कैसे रोक लोगे बोलो?
आप कही खड़े हो आप के खड़े होने भर से किसी की मृत्यु हो सकती हैं, किसी का जन्म हो सकता आप कैसे रोक लोग ? बोले ये हटाओ, इंसान जब तक है कर्म तब तक है। तो हम इस बात को तो अब बिल्कुल खारिज करते हैं, और अर्जुन दोबारा ये बोलना मत की कर्म तो नहीं करूंगा। अगर जीव है तो कर्म तो है, अगर जीव है तो कर्म तो है। अब आगे की बात करते हैं की फिर कर्म कौन सा करना है? लेकिन जो आगे की बात है वो सबसे पहले ही कर दिए श्लोक में कृष्ण ने। नियतम कुरु कर्म , ठीक है । कौन से कर्म करना है? नियत कर्म करना है , ये बात आपको ले जाती है, वो जो मध्यम तल पर खड़ा हुआ है उस व्यक्ति के पास। जो हमने कहा था मुक्त है ,उसको लिख दो, वो हो गया नियति प्राप्त।
वो अपनी नियति पर अब पहुंच गया, वो नियति आरूण है । नियति किसको बोलते हैं, कौन बोलेगा। बहुत बढ़िया आत्मा ही नियति है, "आत्मा ही नियति है", तो जो नियति पर पहुंच गया वो तो कर्म का साक्षी हो गया। वो इन दोनों को देख रहा है अच्छा चल रहा है, बाजी चल रहा है बच्चे खेल रहे हैं। कर्म तो तब भी नहीं होता है, बस वो कर्ता नहीं बचा है । कर्म तो तब भी चल रहा है, या कर्म तो तब भी चल रहा है ना या कर्म रुक गया था? शरीर है तो कर्म है तो भाई जिसको आप साक्षी बोलते हो, वो होता तो कोई प्राणी है ना। बहुत स्थूल बात कर रहा हूं ,और आप जो कहते हो योगी ये साक्षी भाव में है, तो आप किसी का नाम ही तो ले रहे हो सामने कोई देहस्थ व्यक्ति ही तो है, तो कर्म वहां भी हो रहा है बस उसने श्रेय लेना बंद कर दिया है, ठीक है ।
वो तो वो है जो नियति पर पहुंची गया।अर्जुन को कहा जा रहा है की तुम कम से कम दूसरे तल पर तो आजो पार्थ ।और दूसरे तल पर गति की जाती है नियती पर पहुंचने की कामना से ,नियती की दिशा में। ये दूसरे तल की पहचान है, तो पार्थ वो कर्म करो जो तुम्हें नियति की ओर ले जाएं। कभी भी आप फंसे क्या करें क्या ना करें, उस क्षण में यही आपका उत्तर है ,बस इसको बांध लीजिए अच्छी तरीके से । वो कर्म करो जो तुम्हें तुम्हारे नियति की ओर ले जाता हो। नियति क्या है, "मुक्ति"। नियति क्या है? अब 1 मिनट का थोड़ा विश्राम दीजिए, और आपके जीवन में इस समय जो महत्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित हो देखिए कि यह 3 शब्द उनका उत्तर है। सबके सामने ये जो सवाल रहते हैं, उनमें यही बात रहती हैं अब क्या करूं? क्या करूं?
यही जवाब है, जितने भी रास्ते खुल रहे हो तुम्हारे जीवन में, आगे उनमें से वो रास्ता चुन लो जो तुम्हें आत्मा की और ले जाता है बस, बाकी रास्ते बस तुमको वही करेंगे की चश्मा हरा कर देंगे। चाहे तो चाहे तो अपनी - अपनी पुस्तक में लिख भी लो, कि आपके सामने अभी जीवन में कौन से मुद्दे ,प्रश्न उपस्थित है । और देखें कि ये इतनी सी बात नियत कर्म करो, कैसे हर प्रश्न का उत्तर बन जाती हैं।
कुछ दरवाजा खुल रहा है, कुछ रोशनी पड़ रही है, ये नहीं कि ये बात बड़े मुद्दे पर साबित होती है ,छोटे-छोटे मुद्दों पर भी एकदम छोटा मुद्दा हो कोइ। अभी बिस्तर में पढ़ा रहा हूं कि उठ जाऊं तो उत्तर क्या है उत्तर क्या है, नियतम कुरु कर्म। एकदम जो सूचना माइक्रो मुद्दे भी हैं उनका जवाब इससे मिल जाएगा और इस जवाब के केंद्र में वेदांत की एकदम मौलिक दृष्टि बैठी हुई है ,जो कहती है कर्म कर्ता के हित के लिए ही तो करते हो ना, और कर्ता का बड़ा से बड़ा हित यही है कि वो अपने नियती तक पहुंच जाएं।
जिस जगह के लिए मुसाफिर कभी निकल पड़ा था घर से उस मंजिल को पा जाएं। तो कर्म तो कोई अपने आप में चीज होती ही नहीं, सारे कर्म किसके लिए होते हैं, वही वेदांत की बात को "कोहम", for whom. मैं कौन हूं? कर्म किसके लिए है ? कर्ता के लिए है। और कर्ता की भलाई किसमें हैं, मुक्त होने में । तो भैया कर्म का जब भी सामने कुछ चल रहा मुद्दा ,तो बस यही देख लो की ये तुम्हें मुक्ति की और ले जा रहा है, या झंझट की ओर ले जा रहा है मामला।
अब इसमें एक बात और रोचक कृष्ण ने जोड़ दिया है वहीं तीन शब्दों के आगे जो का रहे हैं, की कर्म ज्यायो ह्राकर्मण:, कर्म अकर्मण्यता से श्रेष्ठ है । ये क्या बात हुई, मैं अकर्मण्यता क्यों चुनूं भई उसमें कर्ता भाव नहीं रहता ना । कर्ता लोग क्या करते हैं जो कर्ता वाले होते हैं ना ,कर्ता भाव वाले वो क्या करते हैं, सब वो तो कर्म करेंगे घोर कर्म हम कर्ता है करके । तो अर्जुन कह रहे हैं ये सब देखो सब कर्ता बनकर खड़े हुए हैं हथियार वगैरा लेकर, घोड़े हाथी सब , मैं कर्ता नहीं हूं, मैं नहीं कर्ता। तो कृष्ण जवाब दे रहे हैं कर्म ज्यायो ह्राकर्मण: कर्म बेहतर है अकर्मण्यता से, क्यों बेहतर है बताओ तो, अभी जो आपने लिखा है उसी के आधार पर बता दो।
जब भी पूछा जाए कि कुछ उत्तर दीजिए? तो उसमें हमेशा यही पकड़ा करिए की किसके लिए है ये बात, किससे कहा जा रहा है, ये की कर्म बेहतर है अकर्मण्यता से ? मुक्त से कहां जा रहा है क्या? जो फंसा हुआ है वो अपनी फांसी हुई स्थिति में ही बोले मैं कुछ नहीं करूंगा, जो बंधा हुआ है वो बंधी हुई हालत में बोले ,मैं कुछ नहीं करूंगा तो, उससे कुछ कृष्ण क्या बोलेंगे ,कर्म बेहतर है अकर्मण्यता से । क्योंकि अगर कुछ नही करोगे तो बंधे ही रहोगे। ये जो अभी तुम्हारे लिए है स्टेटस यथास्थिति है वो अच्छी नहीं है, शुभ नहीं है एकदम हिलना भी मत ।
जैसे कहते थे ना निर्वात स्थान पर और कंपित सी रहती है दिए कि लौ ऐसे हो जाओ पार्थ। वो कब कहा जाता है जब, दो अलग-अलग बातें अलग-अलग लोगों से कही जाती है। जो पहुंच गया उसको कहा जाता है की "योगक्षेम" । "योग" माने क्या होता है "पहुंचना" या पाना और "क्षेम" माने क्या होता है "पकड़ कर रखना", बांध कर रखना । योग माने पा लिया और क्षेम माने होता है जो पाया उसको बांधकर रख लिया । हीरा पायो ये क्या हुआ ?योग, और गांठ गठियायो "क्षेम" । ठीक तो पहुंच जाता है उससे कहा जाता है "योगक्षेम", योगक्षेम्म महामियम, लेकिन जो अभी पहुंचा ही नहीं है उसको बोले कि तू गांठ बांध ले गाठ बांध ले वो बोलेगा गांठ में है क्या बांधने को ।
तू काहे की रक्षा कर रहा है? तो उसको क्या बोला जाएगा, उसको बोला जाएगा तू तो मैदान में उतर। तेरे पास कुछ नहीं है बताने को ,तेरे पास कुछ भी नहीं है बचाने को। जैसे जो वंचित शोषित होते हैं इतिहास में उन्हें क्रांति के लिए प्रेरित करने के लिए कहा गया है, you are nothing to lose but you are change , यही बात कही जाती है उससे जो अभी उच्चतम तल पर पहुंचा नहीं है। उससे कहा जाता है तू क्या बचा रहा है तेरे पास है क्या, तेरे पास क्या है बस, तेरी बेड़ियां है, इनको बचा कर भी क्या करेगा। तू तो खुल्ला बाहर निकल युद्ध्यस्व । आप फुटबॉल मैच में 4 बॉल से पीछे हो आखिर के 10 मिनट है, आप क्या करोगे? तो इंसान पैदा होता है थ्री गोल्स डाउन, ये हर बच्चे की कहानी है, वो पैदा ही होता है थ्री गोल्स डाउन ।
जब आप पैदा होते हो उस वक्त पीछे स्कोरबोर्ड क्या दिखा रहा होता है , थ्री गोल्स और 3 माने क्या? सत रज तम। तीनों आगे निकल गए तीनों आपने खा लिए तभी तो पैदा हुए हो, नहीं तो पैदा काहे को होते। तीन को खा के पैदा होते है , नहीं तो पैदा होते ।थ्री गोल्स डाउन जो 3 गोल्स डाउन ना हो वो पैदा ही नहीं होगा। इसी को तुम जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति बोल लो कुछ भी बोल लो, ब्रह्मा, विष्णु महेश भी बोल लो। जिस भी तरीके से पकड़ना है पकड़ लो। तो आप पैदा ही होते हो तो जिंदगी में क्या करोगे? अकर्मण्यता करोगे, आप कहोगे चलो तीन गोल पीछे हो आप क्या करोगे,आप कहोगे आपस में ही बाल रिटेंशन रखते हैं । ये करोगे? या क्या करोगे,आप कहोगे यथास्थिति ,जो है वो मेरे लिए अच्छी जो चीज जैसी है वो मेरे लिए अच्छी नहीं है।
तो यथास्थिति को चलते रहने देने का विकल्प मेरे लिए नहीं अच्छा है। मैं तो हार गया, मैं तो हरा पैदा हुआ हूं, मेरी तो हालत बहुत खराब है। मुझे तो श्रम करना पड़ेगा, उसी को साधना कहते हैं,उसी को युद्ध कहते है । उसी के लिए सूरमा का आह्वान होता है, वो युद्ध करेगा। तो युद्ध करना कोई शौक की बात नहीं होती है, हां बढ़िया है मजबूरी होती है हम करें क्या, कोई हमारे भीतर का जानवर नहीं जगा हुआ है कि हमारे सिंग निकल आए और हम मारने दौड़ रहें हैं। कहे देखो ये तो ज्यादा संघर्ष की बात करते हैं ,बड़े हिंसक हैं ।और गीता पर अक्सर ये आरोप लगा है संघर्ष, संघर्ष। क्या संघर्ष काहे को करना उनको यह पता ही नहीं है,की जब कोई बोले ना संघर्ष ।
ऐसा उनको कोई थपथपा के बोलो, पीछे देख, स्कोर बोर्ड देख, पलट पलट हम जान लगा रहे हैं, और जब जान लगाते हो तो थोड़ा कई बार डर्टी भी खेलना पड़ता है, सोल्डर पुश मारा, कुछ करा । तो कोई आ करके आपको उपदेश बता रहा है बोल रहा है, देखो क्यों इतना संघर्ष करना ,काहे के लिए ।कृष्ण भी तो बोल गए हैं ना, विगत ज्वर उसको ये नहीं पता कि विगत ज्वर के साथ क्या बोले थे? युद्धयस्व, विगत ज्वर तो बोला था, कि ज्यादा गरमाओं मत , ये वही है जिसे आजकल बोलते ना आज बहुत गर्मी चढ़ी है, उसी को कहते है ,गर्मी उतारने को बोलते हैं विगत ज्वार हो जाओं।
लेकिन साथ में भी विगत ज्वार के साथ ही बिल्कुल, सटा हुआ शब्द क्या दिया था ? युद्ध्स्व।
तो लड़ना तो पड़ेगा, इसीलिए नहीं कि हम बहुत युद्धातुर है या हिंसातूर है, बल्कि इसीलिए की पैदा हुए हैं हम। ना होते पैदा तो ना लड़ते, पैदा ही बंधन में हुए हैं तो बिना लड़े काम कैसे चलेगा। थ्री गोल्स डाउन। समझ में आ रही है बात, जब कोई बोले ना देखो देखो अंहकार बहुत है हर समय लड़ने के बात करते हो, जब देखो तब। शांत नहीं बैठ सकते जब देखो तब जिसको देखो उसको योद्धा बन जा।
उसको बोलना हमारी "मजबूरी को मजदूरी मत समझ अनारकली", ये लड़ाई हमने नहीं शुरू करी हां। पर समाप्त करने का दायित्व हमें दे दिया गया है। शुरु किसी और ने करी है उसे अंत तक हमें लेकर आना है तो क्या करें? हां शुरु तो करी थी, पता नहीं किसने करी थी, क्या हमसे पूछ कर करी थी पता नहीं किसने करी थी ।पर उसको निष्पत्ति तक हमें लाना हैं, खत्म हमें करना है ,उस अंत को क्या बोलते हैं? मैं ऐसे ही दे देती है क्या मुक्ति, ऐसे बैठे-बैठे ओके मिल जाएगी ,लड्डू ऐसे ही खा लेंगे ।मुक्ति तो सश्रम ही मिलती है। बिना मेहनत के मिलती है क्या? समझ में आ रही है बात, तो ये दोनों सूत्र आपके बहुत काम के हैं। आज कृष्ण बिल्कुल प्रसन्नचित्त है आशीर्वाद पर आशीर्वाद दे रहे हैं।
नियतं कुरु कर्म, पहली बात ,जब कर्म का निर्धारण करना हो । और दूसरा कर्म ज्यायो ह्राकर्मण:, कर्म बेहतर है अकर्मण्यता से। पीछे घटने का विकल्प ,और तुम अगर अपने आप को और समझाना भी चाहते हो कि कुछ नहीं करूंगा कुछ नहीं करूंगा तो अगली बार बोल रहे हैं कृष्ण, वो जरा होश ठिकाने ला देगी , वो कह रहे हैं शरीर यात्रा भी नहीं हो पाती है बिना कर्म के, तुम कहां से आ गए बड़े धुरंधर ये कहने वाले कि कर्म नहीं करूंगा।
बिना कर्म करे तो शरीर की यात्रा नहीं होती है। तो कर्म तो करोगे ही अब मुद्दा ही आता है कि सही कर्म करो ,सही कर्म। कहीं-कहीं पर जब आप गीता पर तमाम जो बातें कही गई है भाष्य वगैरह ।
क्या हो गया!
तो उसमें आप आएंगे कि वहां पर नियत कर्म ऐसे बता दिया गया है कि ,सांस लेना नियत कर्म है। कहा गया है कि नियत कर्म तो करते ही रहो लिख देंगे कि सांस लेना नियत कर्म है, खाना-पीना नियत कर्म है, टट्टी पेशाब नियत कर्म है, ये चक्कर में मत पड़ जाएगा । ये वो लोग हैं जो नियति और प्रकृति में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। वो समझ ही नहीं पा रहे हैं कि आत्मा और प्रकृति अलग अलग चीज है, तो वो जो साधारण शारीरिक हरकतें होती है, उनको नियत कर्म समझ रहे हैं । इसी तरह अन्य जगहों पर लिख देंगे, की नियत कर्म माने आपके वर्णाश्रम धर्म के अनुसार जो कर्म निर्धारित होता है वो करिए। ये भी बहुत खतरनाक बात है, इसमें भी मत फंस जाएगा। कृष्ण ने गीता इसीलिए नहीं लिखी है कि वर्णाश्रम धर्म को आगे बढ़ाएंगे ,ठीक है अर्जुन का वर्ण और आश्रम देखकर कि नहीं कह रहे हैं कि लड़ो।
आपके लिए कौन सा कर्म उचित है वो आपकी जाति से नहीं तय होगा, आपके लिए कौन सा कर्म उचित है वो आपके लिए और आपके लिंग से भी नहीं तय होगा । सबके लिए एक ही कर्म उचित है, कौन सा । जो उधर को ले जाए, लेकिन कृष्ण ने तो एकदम सार संक्षेप में बात बोल दी कि नियत कर्म करो। लोगों ने उसी संक्षिप्तता का दुरुपयोग कर लिया ,बेजा फायदा उठा लिया। क्योंकि अगर ये तय हो जाएगी एक ही नियत कर्म होता है "मुक्ति" की ओर जाना ,तो धर्म के नाम पर जो दुकानें चल रही हैं सब बंद हो जाएंगी।
तो उन्होंने ऐसे कहना शुरू कर दिया कि नियत कर्म का मतलब होता है की शास्त्र विहित कर्म करना।और शास्त्र की कोई परिभाषा देंगे नहीं, तो इधर उधर जो सौकड़ो एकदम कम महत्व की भी पुस्तकें उनको कह देंगे ये तो शस्त्र है। और किसी शास्त्र में बता देंगे कि, देखो तुम कितने उम्र के हो और तुम्हारे घर में ये घटना घट गई हैं । और तुम फलाने तो अभी तुम्हारे लिए उचित है कि तुम जा करके उस पेड़ पर 10 किलो आटे की गोलियां बनाकर टांग आओ ,ये सब होता है।
आटे के ऐसे ऐसे मोटे मोटे पिंड बनाओ और जाकर उसे पेड़ पर रखकर आओ ।यही तो नियत कर्म है , यही तो कृष्ण ने गीता में बोला है । नहीं भैया नियत कर्म माने ये नहीं होता है, नियत कर्म की सीधी परिभाषा है, "जो नियति की ओर ले जाए" उसको नियत कर्म बोलते है ।"जो नियति की ओर ले जाए और नियति क्या है, "मुक्ति"। तो नियत कर्म क्या है? जो "मुक्ति की ओर ले जाए "और कोई नहीं परिभाषा है। और शास्त्र विहित कर्म से, शास्त्र गीता जी शास्त्र है । और कौन सा शास्त्र विहित कर्म करना होगा, शास्त्र तो सामने रखा हुआ है। कौन सा शास्त्र! गीता । गीता सामने रखी हो और आपसे कहा जाए देखो, शास्त्र जो बताते हैं वो करने के लिए कह रहे हैं कृष्णा । अरे कृष्ण स्वयं शास्त्र हैं कृष्ण के बाद कोई और शास्त्र पड़ेंगे क्या? ये कैसी बात है।
ठीक वैसे जैसे अभी 5 ,7 दिन पहले अनुष्का ने भेजा था, कि अर्जुन कृष्ण से कह रहे हैं की स्थितप्रज्ञ कैसा होता है, उसके लक्षण बताओ? ये वो कह रहे हैं कृष्ण से पूछ रहे हैं ,और जिंदगी भर रहे किसके साथ है? कृष्ण के साथ। जिंदगी भर कृष्ण के साथ रहने के बाद कह रहे हैं, ये स्थितप्रज्ञ कैसा होता होगा?
और कृष्ण कह रहे हैं,(आचार्य एक अलग सा चेहरा बनाते हुए और दोनों हाथ से अपनी ओर इशारा करते हैं) हेलो । तो वैसे ही आरंभ में ही अर्जुन कृष्ण से कहते हैं, वहां सब मेरे गुरु लोग खड़े हुए हैं, और आप कह रहे हैं कि उन पर तीर चला दो। कृष्ण कह रहे हैं गुरु सब उधर खड़े हुए हैं, तो मैं कौन हूं?
वो द्रोणाचार्य तुम्हारे गुरु हो गए, वर्णवादी जिन्होंने एकलव्य का अंगूठा काट लिया था ।वो कृपाचार्य तुम्हारे गुरु हो गए, जो तुमको इतनी स्पष्ट नहीं दे पे की आज इस क्षण में तुम साफ निर्णय कर पाओ, की क्या करना है ,?उनको उनकी और इशारा करके कह रहे हो, अरे वो मेरे उधर सब गुरु खड़े हुए हैं और आप का रहे हैं की गुरुओं का वध कर दो मैं कैसे जिऊंगा। कृष्ण कह रहे है, गुरु वो है तो मैं कौन हूं? (आचार्य जी अपनी ओर इशारा करते हुए।
वैसे ही जो लोग कहते हैं कि कृष्ण यहां पर बता रहे हैं नियत कर्म माने शास्त्र भेद कर्म करना। उनसे पूछो शास्त्र अगर इधर-उधर है तो फिर गीता क्या है । और कौन से शास्त्र की बात होगी गीता में, समझ में आ रही है बात। कृष्ण ने तो स्वयं ही बता दिया है गीता में कि एक ही लक्ष्य है एक ही दिशा में जाना है, हां एक विशिष्ट बस गीता में है कि कृष्ण ने यहां पर ब्रह्म को एकदम जीवंत कर दिया है ।एक बिंदु पर आकर कह देते हैं मुझे ही वो जानो, और उसकी जरूरत है ।
सगुण उपासना की जो जरूरत है, ठीक वही जरूरत है अर्जुन के सामने स्वयं ब्रम्ह होकर खड़े हो जाने की। नहीं तो अर्जुन को निर्गुण समझ में ही नहीं आ रहा है। वो कहते हैं निर्गुण नहीं समझ में आ रहा है ना ,तो मेरा मुंह देखो। ब्रह्म नहीं समझ में आ रहा है ना तो मैं ही ब्रह्मा हूं, मैं जो कह रहा हूं बस पालन करो उसका। "मैं ही ब्रह्मा हूं" मैं तुम से बोलूं ब्रम्ह तुम कहते हो इधर उधर की बातें करने लग जाते हो। तो तुम्हारी बुद्धि में अगर निर्गुणता समाती नहीं है, तो बस इधर देखो और जो मैं कह रहा हूं उसका पालन करो वही ब्रह्मावादी है।
समझ में आई गई है बात ,तो जब कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ़ मेरी तरफ आओ । मामेकं शरणं व्रज, तो बता रहे हैं कि नियति क्या है! ब्रम्ह ही नियति है। ब्रह्मा ही नियति है, उसके अलावा किसी उद्देश्य के लिए आप नहीं पैदा हुए हो। क्या आप इधर उधर की फिजूल बातें पकड़ कर के और झंझट कर रहे हो। युद्ध भी आप करो तो कोई इधर उधर की बातें के लिए नहीं नहीं युद्ध करा जाता। धर्म युद्ध का मतलब यह नहीं होता है कि जमीन जीत लेनी है, कि जयजात, प्रसिद्धि या सत्ता के लिए। धर्मयुद्ध का मतलब होता है अपनी आत्मा को पाने और बचाने के लिए जो युद्ध लड़ा जाए उसको "धर्मयुद्ध" बोलते हैं ,उसका और कोई उद्देश्य नहीं हो सकता हां । "The fight to save your essence" .
क्योंकि अगर उसको बचाओगे नहीं लड़ाई लड़के तो दुनिया खाने को तैयार बैठी है ना उसको। वो ये भी नहीं करते कि आप को अकेला छोड़ दें, वो आपके ,आपके घर में घुसकर आपको मारते है । घर में भी नहीं घुस कर मारते, वो आपके दिल में घुस के आप को मारते हैं , वो आपके बिल्कुल मर्म में घुस कर के आप को मारते हैं ,तो लड़ना तो पड़ेगा ना । पर उस लड़ाई का उद्देश्य लेकिन एक है "नियति को पाना", जेडआत्मा को पाना" उसके अलावा किसी उद्देश्य के लिए लड़ना एकदम व्यर्थ है ,मूर्खता है । वो फिर ऐसी ही लड़ाई है कि आपके सामने कोई खड़ा हुआ है AK-47 लेकर के , और आप बहुत जोर जोर से मच्छर पीट रहे हो।
कह रहे हो सब मच्छरों का समूल सर्वनाश कर दूंगा ।आप बैठे हुए सामने खड़ा हुआ है, उसमें आप पर क्या तान रखी है , हां कलश्नकोश। और आप क्या कर रहे हो, दे दे फटाफट बजा रहे हो, एक के बाद एक। ये हमारी जिंदगी है , मजा आ रहा है ना मस्त ,हंसी आ रही है । हम ऐसे ही हैं हम जबरदस्त लड़ाई लड़े हुए हैं ,कौन सी लड़ाई बताएं, प्रदीप! कितने मारे आज। बोले कुछ मार दिए हैं कुछ मारेंगे आगे ,रात तो अभी बाकी है ।
मूल मुद्दे से लेना-देना क्या ,क्या मतलब है कि सामने वो खड़ा हुआ है हां । क्या मतलब है हमारी जिंदगी है कि केंद्र में तो सबसे बड़ी बात यही है क्या? मच्छर । मच्छर मरना, आ रही है ना बात समझ में। धर्म युद्ध मच्छर मारने के लिए नहीं हो सकता । जिस कर्म के यहां बात हो रही है, वो मच्छर मारने का कर्म नहीं है, एक ही कर्म है, एक ही युद्ध की बात हो रही है। अपनी आत्मा के लिए लड़ना, आत्मा को सोल नहीं कहते। पर अंग्रेजी में थोड़ा पोएटिक लगेगा तो इसलिए बोल दे रहा हूं the fight your soul ,या सेल्फ बोलो The fight for the self .
और कोई आप पर इल्जाम न दे पाए, तो इसीलिए याद रखिएगा की लड़ाई आपने नहीं शुरू करी। हमने नहीं शुरू करी, लेकिन ये तो फिल्मी डायलॉग भी होता है शुरू तूने करी थी खत्म मैं करूंगा। बात सिर्फ फिल्मी नहीं है, दूर तक जाती है। शुरू तो पता नहीं किसने करी है, लेकिन अंत हम करेंगे ।और जिसने शुरू करी है , वो जीत रहा है ,तो अगर आप अंत नहीं कर पाए तो वो जीत गया । वो जीत रहा है इसके लिए हम ने क्या बोला? थ्री ज़ीरो टू, Please note down जिसने शुरू करा वो शुरू में ही जीत गया । है तो अब आपको तो कुछ आ रही है बात समझ में।
जैसे अब कोई बोले शास्त्र भेद, तो उसको क्या पढ़ना है वेदांत भेज। "शास्त्र" माने "वेदांत" और जो बाकी किताबें हैं उनको बस उस सीमा तक शास्त्र मानना है जिस सीमा तक वो वेदांत का अनुसरण करती है। आपको कोई मिल गई पौराणिक कथा उस कथा का कोई वेदांत सम्मत अर्थ आता हो, तो कथा स्वीकार्य है, नहीं तो बस ठीक है कथा है। हम निंदा नहीं कर रहे हैं कथा की , हम उसको फिर ये नहीं कहेंगे कि बस शास्त्रीय कथा है, हम बस फिर उसको कहेंगे , बस कथा है । शास्त्र की यहां से परिभाषा क्या निकल आई, बहुत बढ़िया "जो नियति की ओर ले जाए सो शास्त्र", उसके अलावा कुछ नहीं है शास्त्र। इधर-उधर की मच्छर मक्खियों को शास्त्र नहीं कहते। शास्त्र में इन तीन के अलावा कोई मिल जाए तो जान लेना गड़बड़ है, कौन से तीन के अलावा?
श्रोतागण: अहम, प्रकृति और आत्मा ।
आचार्य जी: बस बस बस। अहम को प्रकृति से मुक्त करने के अलावा कोई शास्त्रीय विषय नहीं होता । कोई किताब लेकर के आए, और उसमें बताया गया हो किस दिन कौन सा कम करोगे ,तो बढ़िया रसदार फल मिलेगा। ये शास्त्र है? नहीं, कोई कितना बोल दें, ये फलाना शास्त्र भी होता है, ये शास्त्र नहीं है भोग शास्त्र भी होता है। बोल देने पर शास्त्र नहीं हो गया ,शास्त्र सिर्फ वो जिसमें अहम और अहम की मुक्ति की बात हो। उसके अलावा कोई शास्त्र नहीं, तो जब कहा जाए की नियत कर्म वो है जो शास्त्र विहत है ,तो उससे स्पष्ट हो जाना चाहिए की नियत कर्म बस मुक्ति का कर्म है। और शास्त्र वही है जो मुक्ति की और ले जाता हो नहीं तो शास्त्र नहीं है ।
इसी तरह से जब कहा जाए की नियत कर्म वो है जो धर्मअनुकूल है, तो "धर्म" में क्या याद रखना है, धर्म की क्या परिभाषा है? "अहम को मुक्ति की और ले जान धर्म है",तो ये भी अगर कोई बोल दें की "धर्मानुकूल आचरण को ही कहते हैं नियत कर्म", तो उसका भी फिर यही अर्थ करियेगा आप , बहक मत जाइएगा । कह दिया जाए की धर्मानुकूल आचरण को नियत कर्म कहा है कृष्णा ने, तो कहिएगा धर्म का तो एक ही मतलब होता है, "मुक्ति"। तो अगर आप धर्मानुकूल आचरण भी बोल रहे हो अगर, तो उसका भी यही अर्थ निकला, की "नियत कर्म करो जो मुक्ति की ओर ले जाता हो" और कोई अर्थ नहीं निकला, स्पष्ट हो रही है बात।
धर्मानुकूल आचरण ये सब नहीं होता है कि कहीं पर रंगोली पोत दी, कहीं रंग लगा दिया। कहीं जाकर के पानी में कुछ बहा दिया । पहाड़ पर चलकर नाच आए, ये सब क्या है इनका धर्म से अगर कोई संबंध है भी तो बहुत सतही है, बहुत पारिधिक है । ये सब अधिक से अधिक धर्म की विधियों के कुछ बाह्य हिस्से हो सकते हैं । इनको आप धर्म का मर्म नहीं कह सकते । ये बहुत खेत की बात है ,की धर्म के नाम पर हमने धार्मिकता के पिंड का बस छिलका पकड़ लिया है। धार्मिकता जो है ना वो एक बड़ा सा पिंड होती है, जिसमें परत दर परत छिलके होते हैं। हमने तो सबसे बाहरी परत है उसको पकड़ लिया , और कह देते हैं यही तो धर्म है, नहीं नहीं नहीं," धर्म माने धर्म का मर्म"।
भई आम भी बाहर का छिलका होता है, उस छिलके का मेरे को उद्देश्य बताओ क्या है? वो छिलका भी अंततः इसीलिए है कि वो जो गुठली है वो किसी दिन आम का नया वृक्ष बन सके। भरपूर वृक्ष बन सके, ठीक या छिलके का कोई और उद्देश्य है ? गुदे का भी क्या उद्देश्य है ? गुदा ये मत सोचिए की आपको स्वाद देने के लिए होता है । प्रकृति ने आम के फल को गुदा क्यों दिया है? गुदे के लालच में गुठली को दूर तक फैला देंगे लोग, इसलिए दिया है गुदा। आपको बहुत मजा आएगा और आप उसका मैंगो शेक बनाएंगे इससे नहीं गुदा दिया गया है ।
समझ में आ रही है बात ,तो जो बाहरी भी परत है, उसका उद्देश्य यही होता है की मर्म तक पहुंचा जाए ,लेकिन अगर बाहरी जो परत है वही अपने आप में अंतिम उद्देश्य बन जाएं तो हो गया ना गुड गोबर । की नहीं हुआ? हुआ कि नहीं हुआ? तो जहां कहीं भी आप ये बाहरी हरकतें देख रहे हो वहां पूछा करिए कि ये जो बाहरी हरकत है, क्या ये मेरी सहायता करेगी मुक्ति तक पहुंचने में। अगर करेगी तो ,मुझे समझा दीजिए मैं आपके आगे नमित हो जाऊंगा। मैं कोई विरोध करने के लिए विरोध नहीं कर रहा हूं, मैं बस समझना चाहता हूं कि आप यहां जो भी आयोजन कर रहे हैं क्या ये मुझे मेरी मुक्ति तक पहुंचाएगा अगर पहुंचागा तो मैं भी इसमें सम्मिलित हो जाता हूं । नहीं पहुंचाएगा तो मुझे क्षमा करें , समझ में आ रही है बात।
धर्म के नाम पर जो कुछ भी चलाता है, उसका धर्म के मर्म से शून्य संबंध है ।धर्म जो चीज है वो हमारे मन में धर्म की जो छवि है उससे इतनी अलग चीज है, की वास्तविक धार्मिकता जब हमारे सामने आती है तो हम पहचानते ही नहीं। नहीं पहचानते ये तो फिर भी राहत की बात है ,कई बार हमें वास्तविक धार्मिकता, अधार्मिकता जैसी लगती है । न पहचाने तो कम से कम छोड़ दे हम धार्मिक आदमी को , उसके हाल पर, बचा रहेगा । उल्टा हो जाता है जब वास्तविक धार्मिक आदमी आपके सामने आएगा ,तो वो आपको अधार्मिक लगेगा ।
क्योंकि आपके लिए धर्म का मतलब ही ना जाने क्या-क्या हो गया है। अपनी दृष्टि में तो अर्जुन भी धार्मिक है, देखा नहीं है पहले अध्याय में धर्म संबंधी क्या प्रवचन दिया है।पितरों की आत्मा अतृप्त रह जाएगी, वर्ण शंकर पैदा हो जाएंगे, स्त्रियां सब भ्रष्ट हो जाएगी ।अपनी दृष्टि में तो अर्जुन भी धार्मिक है ।
प्रश्न ही ले लेते हैं वैसे तो एक श्लोक और भी ले सकते थे, पर अगला श्लोक अपने आप में भी परिपूर्ण है तो आज प्रश्न ही ले लेते हैं हां।
आचार्य जी: तो कर्म यात्रा शुरू हो गई थी, जिस क्षण लिया जीव जन्म। और कर्म की यात्रा का अंत कहां होना है, कर्ता के अंत के साथ। कर्म की यात्रा है और उसकी मंजिल है कर्ता का अंत । और कर्ता का अंत ये कितनी रोचक बात है, कर्ता का अंत मात्र कर्म करके ही हो सकता है। तो कर्ता बोलता है मैं कर्म करता हूं, हमें कर्म वो करना है जो कर्ता को समाप्त कर दें। है ना ये उलट बाजी ,कर्म वो करो जो कर्ता को समाप्त कर दें।
और जब ऐसा कर्म कर रहे होगे तो कर्ता को कैसा लग रहा होगा, जैसे टीवी में एंकर नहीं आते, बताइए बताइए आपको कैसा फील हो रहा है? तो नियत कर्म करते समय अगर कर्ता के मुंह में माइक दे दो और पूछो कैसा फील हो रहा है? तो क्या बोलेगा ,क्या बोलेगा? अच्छा तो नहीं फील हो रहा है।
क्यों परिणय।अभी पांच-दस दिन से कैसा फील हो रहा है?
तो जिन्हें नियत कर्म करना हो, वो फिलिंग्स की परवाह थोड़ा कम करें ,मुझे ऐसा लगा, ऐसा भाव उठा, ये सब बातें सुरमाओं को शोभा नहीं देती। ये जलील स्तर की बातें है , मुझे ऐसा हो गया मुझे ऐसा इमोशन आता है, ये सब लूज मोशन वालों की बात है।
यह स्वास्थ्य का सूचक नहीं है, लूस ठिले, सस्ते मन की निशानी है ये, उसको बार-बार कुछ न कुछ हो जाता है । उसको कहते हैं "संयोग का रोग" लगा ना हां ,यदि योग स्वास्थ्य है, तो संयोग ही रोग है। जो संयोग को अपने ऊपर चढ़ जाने दे, वही रोगी है । सहयोग माने प्रकृति, तो संयोग को अपने ऊपर चढ़ने दे ना माने प्रकृति से आसक्त हो जाना। कोई घटना बहुत प्रभावित कर रही हो, ऐसे ही बोलो अपने आप से, संयोग का रोग लग रहा है हां, जल्दी से गोली फांकों कौन सी pill , हां बस।
हां बताइए!
तुम ढंग से तो गाओ, थोड़ा देखा करो ऑडियंस के चेहरे की ओर उनका फीडबैक भी लिया करो, शब्द स्पष्ट आने चाहिए। ठीक है संगीत बाद में आता है पहले स्पष्टता, ठीक है चलो गाओ।
साहब के दरबार में, कमी काहू की नाही। बंदा मौज न पावहीं, चूक चाकरी माहीं॥
आचार्य जी: रुको रुको रुको, ये शब्द स्पष्ट हुए, बड़े मौज के हैं हां। बताओ पहले सबको स्पष्ट, फिर साथ में गाएंगे भी ना सब बताओ।
भजनकर्ता: साहब के दरबार में, कमी काहू की नहीं, बंदा मौज ना पावहीं, चूक चाकरी माहीं।
आचार्य जी: इतनी मजेदार बात है, अभी शुभांकर से मैं दो घंटे पहले Right to joy की बात कर रहा था। आनंद का अधिकार , मैंने कहा दुनिया में जो कुछ भी चल रहा है, अगर आप सही जिंदगी जी रहे हैं तो अपना एक हक कभी नहीं छोड़ना चाहिए , क्या? The right to joy , क्योंकि बाकी सब तो प्राकृतिक है दुनिया आपसे छीन सकती है, प्रकृति ने जो दिया है वो आपसे छीन भी सकती है। एक ये चीज है जो आपकी अपनी है ,निजी है । और ये आप कुछ भी हो जाए झीनने न दें । Right to joy, आनंद का अधिकार । कुछ भी हो जाए, कुछ भी हो जाए, भीतर एक मौज बनी रहनी चाहिए उसी से संबंधित देखो साहब ने आज कुछ बता दिया।
साहब के दरबार में, कमी काहू की नाहीं। बंदा मौज ना पावहीं, चुक चकरी माहीं॥
तो यहां कोई किसी चीज की कमी नहीं है, तुम्हें मौज नहीं मिली तुम्हारी चाकरी में कमी थी । चाकरी माने सेवा, तुम्हारी सेवा में कमी थी कि तुम्हें मौज नहीं मिल रही है। बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया।
आपकी निष्ठा उस एक चीज के प्रति ना होकर बटी होगी दो-चार चीजों पर, अलग-अलग आपकी नजर जाकर बैठ गई होगी। तो फिर इसीलिए आपको मौज नहीं मिली, नहीं तो मौज तो पूरी मिल जाती है, कमी काहूँ कि नहीं, कोई कमी नहीं है किसी चीज की कमी नहीं है मौज की कोई कमी नहीं है। बंदा मौज ना पावसी, चूक चाकरी माही, चाकरी में चूक होगी बहुत बढ़िया अब गाओ।
तो वो जो दूसरा तल है, उस दूसरे तल में ऐसे नहीं कि बस खून ही बहता है । जो संघर्ष का ,युद्ध का तल है ,उसमें मौज भी है, तगड़ी मौज है। खून भी बहता है, और मौज भी पूरी रहती है। आ रही है बात समझ में । मौज नहीं आ रही है इसका क्या मतलब है, खून नहीं बह रहा है। खून बहा ही नहीं तो मौज कहां से आएगी। खून बहाते नहीं सड़ा सा मुंह लेकर शिकायत करने आ जाते हैं, नहीं मौज नहीं आ रही है अरे आधा 1 किलो खून हां थोड़ा खाली करो, नहीं तो मच्छर ऐसे ही आकर के पी जाएंगे। उससे अच्छा इसको वीरता के साथ, गरिमा के साथ मैदान में ही बहा दो। नहीं तो प्रकृति माने मच्छर, वो तो चूसते ही रहते हैं खून। मच्छरों को खून चूसाना बेहतर है या घाव खाकर बाहर देते हैं नहीं तो मच्छर खा जाएंगे।