बेटा, आगे क्या करना है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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बेटा, आगे क्या करना है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता१: नमस्ते आचार्य जी, मैं आपको दस महीने से सुन रहा हूँ लगभग और मैं इक्कीस साल का हूँ। तो अभी फ़िलहाल दो महीने पहले मेरी जॉब (नौकरी) लगी है। तो प्रॉब्लम (समस्या) यह है कि मुझसे जब भी कोई पूछता है, तुझे आगे क्या करना है; घर से भी पूछते हैं बार-बार, डेली कॉल्स आती हैं कि तू अब क्या करेगा, आगे क्या करेगा। अभी क्योंकि सैलरी (वेतन) इतनी नहीं है कि, वो चाहते हैं कि और बड़े सैलरी। तो और ऑफिस (कार्यालय) में भी सब मेरे से पूछते हैं कि अच्छा, तेरा आगे का क्या प्लान (योजना) है, दो साल बाद?

तो मैं कहता हूँ पता नहीं और यही सवाल दस महीने पहले कोई मेरे से पूछता तो निर्धारित था कि इस जॉब में जाना है, पर अब कुछ भी पता नहीं है कि क्या करना है, किस डायरेक्शन (दिशा) में जाना है? कोई कहता है, मेरी जो मेरी बहन है, वो मुझे कहती है कि तू इंडिया के बाहर चला जा। मम्मी-पापा कहते हैं कि डेटा के फील्ड मे चला जा, वो बूम (उछाल) है उस फील्ड (क्षेत्र) में क्योंकि और कोई मेरे सामने जा रहा है, कोई रेडियो जॉकी बन रहा है, कोई फिल्म इंडस्ट्री (फ़िल्म उद्योग) में जा रहा है।

तो बहुत ज़्यादा रुख़, समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ आगे। कैसे सोचूँ। मतलब डिसीजन (निर्णय) ले ही नहीं पा रहा हूँ मैं। ऑफिस से घर आता हूँ तो खाली बैठा रहता हूँ। समझ नहीं आता है कि किस, कौन सी स्किल (कौशल) पकडूँ या क्या चीज़ करूँ आगे, किस डायरेक्शन में जाना है, कुछ समझ में नहीं आता।

आचार्य प्रशांत: दो चीज़ें देखो। तुम्हारी कमजोरियाँ कहाँ हैं जिन्हें तुम्हें जीतने की ज़रूरत है और दूसरा दुनिया की अभी जो हालत है उसमें दुनिया की क्या ज़रूरत है। ये दो ज़रूरते, पहली ज़रूरत अपनी मेरी कमज़ोरी कहाँ है, जिसे जीतना ज़रूरी है और दूसरी ज़रूरत दुनिया की, जिसको अभी पूरा करना ज़रूरी है। इन दोनों से तय करो कि आगे क्या काम करना है?

देखो, रही बात उन सब लोगों के आस-पास की, जो बार-बार पूछते हैं आगे क्या करेगा, वो पूछते नहीं हैं आमतौर पर। वो बताते हैं, क्योंकि अगर तुम उन्हें कुछ ऐसा बता दो जो उनकी अपेक्षाओं से हटकर है तो वो नाराज़ हो जाएँगे। वो वही पुराना ढर्रा है कि कब सेटल हो जाओगे। कब सेटल हो जाओगे। उनकी माँगे अपनी जगह हैं, लेकिन हर वो व्यक्ति जो अभी यह सोच रहा हो कि ज़िंदगी में क्या काम करने लायक है, वो इन दो बातों का अगर ख़्याल रखेगा तो निर्णय बेहतर कर पाएगा। देखो कि तुम्हारे अपने बँधन कहाँ पर हैं और देखो कि दुनिया को आज किस चीज़ की आवश्यकता है। तुम्हारे लिये अच्छे-से-अच्छा काम वो है जहाँ ये दोनों ज़रूरतें पूरी होती हैं।

प्र२: भगवान श्री नमन। बचपन से जिस परिवेश में बड़े हुए जैसा आपने बताया कि कम्फ़र्ट्स (सुविधा) कमज़ोर बना देते हैं। तो वही पाठ पढ़ाया गया कि जीवन में कम्फ़र्ट्स इकट्ठे करो, वही किया, सारे कम्फ़र्ट्स इकट्ठे किए, इधर तीन साल में माया ने मारा तो अन्दर डर नहीं था, कोई घबराहट नहीं थी। लेकिन पीछे देख रहा था बार-बार कि ये चुनाव सही है कि नहीं लेकिन बाद में अन्दर से होता था कि नहीं ठीक है, अब जो होगा देखा जाएगा।

तो डर तो घटे हैं, लेकिन बार-बार सवाल वो कंडीशनिंग (अनुकूलन) बार-बार क्वेशचन (प्रश्न) उठाती है कि बचपन में वो लग्जरी (विलासिता) रहने देते। ये एक द्वंद्व थोड़ी देर के लिए सालता है, लेकिन फ़िर ओवर कम (नियंत्रित) हो जाता है। कभी जब सोते समय, जब नींद आने के पहले, उसी समय ये सालता है कि लग्जरी रहने देते, क्यों इस चक्कर में पड़े। लेकिन फिर सुबह उठकर फ़िर वो ठीक हो जाता है इस स्थिति में प्रकाश डालें।

आचार्य: चलने दीजिए। आप इतने मज़बूत हैं कि ये सब रोजाना की दुविधाएँ और कष्ट आते रहेंगे और आप झेल जाएँगे, बस झेल जाइए। देखिये कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जब आपके शरीर पर पैथोजन (रोगाणु) हमला न कर रहे हों। आप झेल जाते हैं न। आपमें से कोई अभी ऐसा नहीं होगा जिसके शरीर पर कोई-न-कोई बैक्टीरिया , वायरस वगैरह न चढ़े बैठे हों, आपको पता भी नहीं चल रहा होगा क्योंकि हमारी इम्यूनिटी (रोग प्रतिरोधक क्षमता) इतनी सशक्त होती है कि उन चीज़ों को दिन-प्रतिदिन झेलती रहती है।

आपको पता भी नहीं लगने पाता। हाँ, जब कोई ख़ास वायरस आ जाता है जिसको आपकी इम्युनिटी नहीं हरा पाती, तो पता लगता है कि कुछ गड़बड़ हो गयी। ये सब छोटे-मोटे वायरस हैं, इनसे लड़ते रहिये। इनसे बड़ते रहिए। कोई बहुत तकलीफ़ की बात नहीं है। तकलीफ़ है, उसी में तो तकलीफ़ का उपचार है न। तकलीफ़ का उपचार क्या है? तकलीफ़ से संघर्ष।

वो संघर्ष आपको इतना थका दे कि आपके पास तकलीफ़ झेलने के लिए वक्त ही न बचे। तकलीफ़ से संघर्ष का फ़ायदा यह नहीं होगा कि तकलीफ़ ख़त्म हो जाएगी या उसको आप जीत लेंगे। फ़ायदा यह होगा कि उस संघर्ष के कारण आपको तकलीफ़ के बारे में विचार करने का, तकलीफ़ का अनुभव करने का समय ही नहीं मिलेगा।

समझ रहे हो बात को?

आपमें से जिन लोगों ने फुटबॉल वगैरह खेली हो या सोर कॉन्टैक्ट स्पोर्ट कौन सा होता है? कोई भी जो और भी या टेनिस भी या आपमें से जो लोग गेंदबाजी करते हों क्रिकेट में, उन्हें पता होगा। आप खेल रहे हो, एक घंटा, सवा घंटा, आपको दर्द नहीं महसूस होता।

दर्द महसूस होने के लिए भी ज़रूरी है कि रुको, जब रुक जाते हो तो कई बार पता चलता है, अरे! खून बह रहा है। ऐसा हुआ है? ख़ून आधे घंटे से बह रहा है, पता ही नहीं था, जब रुक गए देखा तो पता चला, अरे! यहाँ पाँव में खून बह रहा है, घुटना छिल गया खून बह रहा है। इसी तरीक़े से जो ख़ासतौर पर फास्ट बॉलर्स होंगे उनको पता होगा। स्पेल के बीच में तकलीफ़ नहीं होती।

आपको लगातार छः-आठ या दस ओवर भी डालनी हैं तो आप डाल लोगे। स्पेल के बीच में उतनी तकलीफ़ नहीं होती। तकलीफ़ तब होती है जब आठ या दस ओवर के स्पेल के बाद आपको पैंतालीस, पचास मिनट खड़े रहना है बाउंड्री पर, ज़्यादा हिले-डुले नहीं और कप्तान फिर आपकी तरफ़ गेंद उछाल देता है, कहता है अब डालो और तब आप पाते हो कि घुटना, बैक, कंधा अब चीं-चां कर रहे हैं, अब साथ नहीं दे रहे हैं, फिर एकाध ओवर डालते हो फिर खुल जाता है सब कुछ।

तकलीफ़ नहीं झेलनी तो लगे रहो, रुकोगे तो तकलीफ़ बढ़ेगी और जो जितना रुका हुआ रह जायेगा, तकलीफ़ झेलने की उसकी क्षमता उतनी कम हो जाएगी। इसीलिए रुको ही मत। पहली बात तो गेंद माँग लो, बाउंड्री पर मत खड़े रहो, कहो लगूँगा, गेंदबाजी करूँगा और फिर करते ही जाओ, करते ही जाओ, करते ही जाओ। कब तक करते जाएँ? जब तक मैच ख़त्म न हो जाए और कोई तरीका नहीं है इस मैच से गुजरने का।

गेंद डालते रहो, डालते रहो, डालते रहो जब तक ख़त्म न हो जाए। ये सुनके उत्साह आता है या निराशा होती है? तो कई लोगों के चेहरों पर डर क्यों दिखता है, जब भी ये बोलता हूँ कि लगातार लगे रहो। एक आदर्श बना लिया है हमने, एक-एक रोमांटिक यूटोपिया (कल्पना-लोक) कि एक दिन ऐसा आएगा जब आख़िरी फ़तह हो जाएगी और फिर हम बैठकर के स्वीटजरलैंड की पहाड़ी पर या मॉरिशस के बीच (समुद्र तट) पर, वैसा कुछ नहीं होता।

सतत् संघर्ष को ही जीवन बना लीजिए, उसी में आराम करना सीखिए। संघर्ष के बीच ही आराम कर लिया। ये कामना हटा दीजिए कि संघर्ष कभी भी ख़त्म हो, क्योंकि होगा नहीं।

प्र१: आजकल बहुत सारे बड़े-बड़े जो इन्फ्लुएंसर्स (प्रेरक) रहे हैं, आज से पहले वो एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) बता रहे हैं कि फाइनेंशियली फ्री (आर्थिक रूप से मुक्त) मतलब कि आप लोग एट इयर्स या टेन इयर्स लगभग इन्वेस्ट (निवेश) कर लो या काम कर लो और इतना पैसा जमा कर लो ताकि तुम पैसे की टेंशन (तनाव) से छूट जाओ।

आगे तुम्हें पैसे के लिए काम न करना पड़े तो ताकि जैसे आप भी कल कह रहे थे कि सबसे बड़ी दिक्क़त ये है कि पैसा आता है, आप कुछ करना चाहते हो, पीछे से पैसा ही पकड़ लेते हैं कि नहीं और कमाना है या कुछ और करना है। तो ये कांसेप्ट भी बहुत अट्रैक्ट (आकर्षित) करता है कि इतने साल काम कर लो लगाके और इतना जमा कर लो, फिर उसके बाद तुम्हे पैसे के लिए कभी काम न करना पड़े और आगे जो मर्जी करना चाहो कर सकते हो। तो मतलब इसके लिए आपके इसमें व्यूज (दृष्टिकोण) जानना चाहता हूँ। क्योंकि बहुत ट्रेंड (रुझान) हो रहा है ये अभी।

आचार्य: अव्यावहारिक है। बता देता हूँ वजह। एकदम छोटे स्तर से शुरू करते हैं। कोई अभी दस हज़ार कमाता है। उदाहरण के तौर पर, उसके खर्चे आठ हजार के हैं, ठीक है। वो कहता है कि मुझे, मैं अभी इसमें इन्फ्लेशन (मुद्रा स्फीति) वगैरह नहीं जोड़ रहा, सीधे-सीधे आगे प्रोजेक्ट (शामिल) करूँगा। तो वो यही जो तुमने कांसेप्ट बताया वो सुन लेता है। वो कहता है दस साल काम करो और उसमें इतना इकट्ठा कर लो कि आगे पचास साल तक काम चल जाए। ठीक है।

तो कहता है मेरे खर्चे अभी आठ हजार के हैं, तो मुझे अगले पचास साल में आठ हजार के हिसाब से कितना चाहिए मैं जोड़े लेता हूँ और उतना मैं दस साल में ही कमा लूँगा। आठ हजार के हिसाब से मैं पचास साल के खर्चे जोड़ लेता हूँ और जितना आता है उतना मैं दस साल में ही कमा लूँगा दस साल के बाद मैं फाइनेंशियली फ्री हो जाऊँगा।

अब अगर उसकी साधारण कमाने की दर दस हजार ही होती तो वो आठ हजार खर्च करता। लेकिन वो कह रहा है कि पचास साल के खर्चों के लायक में तो दस ही साल में कमाऊँगा। तो वो दस हजार की जगह कितना कमाएगा? पचास हजार। क्योंकि उसे पचास साल के लिए कमाना है, चालीस साल तो कह रहा है मैं घर बैठूँगा, दस साल में, पचास साल का कमाना है तो दस की जगह कितना कमाएगा? पचास हज़ार।

इसमें उसने यह एजम्शन (अनुमान) किया है कि जब वो दस हज़ार कमाता था तो भी आठ हजार खर्च करता था और जब वो पचास हजार कमा रहा है तो भी आठ ही हजार खर्च करेगा। ऐसा होता नहीं है। तुम अपने खर्चे भी अपनी आय के अनुपात में बढ़ा डालते हो। तो तुम कह तो देते हो कि अभी मैं ज़्यादा कमा रहा हूँ, ताकि मैं आगे फ्री (स्वतंत्र) हो जाऊँ। लेकिन उस ज़्यादा कमाई के साथ तुम अपने खर्चे भी ज़्यादा कर लेते हो।

तुम एक कॉस्ट स्ट्रक्चर (लागत संरचना) खड़ा कर लेते हो, इतना अनुशासन हममें होता नहीं कि आमदनी बहुत ज़्यादा हो, लेकिन फिर भी खर्चे बहुत कम रखें। हमारे भीतर जो वृत्ति बैठी है उसको समझो, वो भोग की है, वो पूछती है कि जब दस हजार आ रहा था तो आठ कर रहे थे, अब जब पचास आ रहा है, तो भी आठ क्यों कर रहे हो। अब अड़तालिस करो न और तुम करोगे। इसलिए भी करोगे क्योंकि जो लोग तुमको यह ज्ञान दे रहे हैं कि ऐसे कर लो, वो लोग ही तुमको और बातें भी बताएँगे जो तुम्हारे काम की होती हैं।

और उन बातों में ही इनडायरेक्टली कॉस्ट एम्प्लिफिकेशन (अप्रत्यक्ष रूप से लागत में वृद्धि) शामिल होगा। उदाहरण के लिए अभी तुम कितने साल के हो? इक्कीस। तुमको अगर ये है कि दस साल, पंद्रह साल काम करके मुझे आगे के लिए मुक्त हो जाना है। तो ये विचार तुम्हे इक्कीस के अपने हालात में आ रहा है न, जो तुमको कह रहे हैं कि ऐसे करो, समाज से या इन्फ्लूएंसर से या यूट्यूब से जो आवाज़ें आ रही हैं, जो कह रही है ऐसे करो। वही आवाज़ें तुम्हें आज से छः, सात साल बाद एक और काम करने के लिए भी कह रही होंगी, क्या, क्या करो? अभी इक्कीस के हो सत्ताईस-अट्ठाईस के होगे नहीं कि यही इन्फ्लूएंसर्स तुमसे एक चीज़ और कह रहे होंगे, क्या करो, क्या करो? शादी करो।

वो ही तुमको बता रहे होंगे वेडिंग गोल्स (विवाह के लक्ष्य) और ये पचास तरह की चीज़ें। वही इन्फ्लूएंसर्स जिस दिन तुम तीस या बत्तीस के होगे तो तुमसे कह रहे होंगे फैमिली चाहिए। वो तुम्हे फैमिली गोल्स (परिवार के लक्ष्य) भी दे रहे होंगे। आज उन्होंने तुम्हें फाइनेंशियल गोल्स (आर्थिक लक्ष्य) दिए हैं, वही तुम्हें वेडिंग गोल्स भी देंगे, वही तुम्हें फैमिली गोल्स भी देंगे। आठ हजार में कर लोगे यह सब। आठ हजार, आठ हजार ही रह जाएगा क्या? पचास आय होगी, अड़तालिस खर्चा होगा, अड़तालिस नहीं होगा, अट्ठावन होगा। क्रेडिट कार्ड किसलिए है।

मज़े की बात है कि ये ही तुम्हें क्रेडिट कार्ड भी बता रहे होंगे। और एक नहीं मल्टिपल कार्ड्स और क्रेडिट कार्ड बेचने के बाद ये तुमको एक चीज़ और बेचेंगे कि हाव टू मैनेज योर वेरियस क्रेडिट कार्ड्स, तो क्रेडिट कार्ड के ऊपर भी एक और कार्ड। तुम आठ हजार में कैसे काम चला लोगे।

तो इसलिए यह बात बिलकुल छोड़ दो कि काम ऐसा पकड़ें कि दस साल में खूब बचत करके आगे मौज़ मारेंगे। काम ऐसा पकड़ो जिसे मरते दम तक कर सको। बिलकुल उल्टी बात बता रहा हूँ। यह छोड़ दो कि काम लिया, पैसे कमाये, दस साल में छोड़ा और फिर रिटायर होकर जीवन भर मौज़ मारी। एक आईलैंड खरीद लिया और वहाँ पर परपेक्चुअल हनीमून , नहीं-नहीं, नहीं-नहीं। काम वो पकड़ो कि मौत भी आये, तो उससे कहो बाद में आना अभी काम बचा हुआ है।

मरने की भी फुरसत नहीं होनी चाहिए। काम पैसा कमाने का जरिया नहीं होता, काम ज़िंदगी ही होता है। पैसे के लिए काम करके ज़िंदगी बर्बाद मत करना। अगर तुम्हारे काम से तुमको सिर्फ़ पैसा मिलता है तो तुम्हारा काम तुम्हारा शोषण, एक्सप्लाइटेशन कर रहा है। तुम्हें लग रहा है कि तुम कमा रहे हो, तुम कमा नहीं रहे, तुम हर दिन काम पर जाकर कुछ गँवा रहे हो। हर दिन गँवा रहे हो।

रोज़ उठते हो बिस्तर से, तैयार होते हो ऑफिस जाने को, माने कुछ गँवाने को। काम वो पकड़ो कि चिल्लाओ, जिस दिन काम करने को न मिले। दिल लग जाना चाहिए, असली लव अफ़ेयर (प्रेम प्रसंग) यही है, काम करूँगा, लगकर करूँगा। यह बहुत घटिया आदर्श है, मौज़ मारना। रिटायर अर्ली एंड इंजॉय लाइफ (जल्दी सेवानिवृत होओ और जीवन का आनन्द लो)। बदबू आती है इस बात से।

कौन सा आदर्श हो गया है कि बीच (समुद्र तट) पर लेटे हुए हो और कोकोनट वाटर (नारियल पानी) पी रहे हो। उसमें थोड़ी सी वोदका मिलाकर। ये कौन सा आदर्श है? छुट्टी भी तब शोभा देती है जब पहले बिलकुल हाड़-तोड़ काम किया हो, उसके बाद तीन-चार दिन, हफ़्ते भर अगर विश्राम ले लोगे, तो वो हक़ है तुम्हारा। पर पर्पक्चुअल (सतत) मौज़, पैसा कमा लिया अब मौज़ करते हैं, क्या करते हैं? मौज़ करते हैं और ये एक फैड बनता जा रहा है।

आई डू नथिंग, आई जस्ट रिलैक्स (मैं कुछ नहीं करता, मैं बस आराम करता हूँ)। माने सीधे-सीधे कहो कि किसी और की खाते हो। लगातार काम करते रहो। ऐसी भी स्थिति आ जाए कि पैसा बहुत इकट्ठा हो गया है। काम की कोई ज़रूरत नहीं है तो पैसा मत लो। बिना पैसा लिए काम करते रहो, रुको मत, ठीक है।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी, मेरा नाम विक्रांत है। मैं बीटेक थर्ड ईयर में हूँ और मैं फर्स्ट ईयर से आपको सुनता, काफी सकारात्मक बदलाव आये हैं। जैसे कि विगनिज्म अच्छे से फॉलो (अनुकरण) कर रहा हूँ और नियमित एक्सरसाइज (व्यायाम) वगैरह और कॉलेज में एक संस्था है जिसमें गरीब बच्चों को पढ़ाया जाता है, तो उनको भी पढ़ा रहा हूँ। सब कुछ चल तो रहा है।

मतलब कॉन्टिन्यूटी (निरंतरता) भी रहती है पर एफिसेंसी (क्षमता) नहीं बढ़ रही है। मतलब कि लेवल (स्तर) उतने पर ही है, जैसे मैं हॉस्टल में रहता हूँ तो साथ देने वाला कोई है नहीं। तो उदाहरण के तौर पर जैसे रनिंग (दौड़) के लिए जैसे जाता हूँ, अकेले तो दो किलोमीटर हो जाता है। लेकिन अगर कोई साथ में जाता है तो चार-पाँच किलोमीटर भी आसानी से हो जाता है। अब साथ जाने वाला कोई रेगुलर (नियमित) नहीं रहता तो ज़्यादातर अकेले ही जाना पड़ता है। तो वही है यह पूछना है कि अकेले में कैसे अपना बेस्ट एफिसेंसी (उत्कृर्ष क्षमता) बढ़ाएँ बिना किसी के साथ?

आचार्य अपने ही ख़िलाफ स्कोर करो। अकेले माने क्या? तुम आत्मा तो हो नहीं कि तुम अकेले हो, तुम तो अहंकार हो और अहंकार तो खंडित होता है, माने बहुत सारा होता है और आत्मा तक पहुँचने का रास्ता भी यही होता है कि अहंकार को ही खंड-दर-खंड सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना है।

यह एक पायदान है। यह एक पायदान है। ये एक, ये सब क्या हैं, ये अहंकार के टुकड़े हैं। अहंकार का ही एक तल होता है निचला, एक होता है उससे थोड़े ऊपर होता, एक होता है उससे थोड़े ऊपर, एक होता है उससे थोड़े ऊपर का। तो तुम प्रतिस्पर्धा करो अपने ही निचले तल के विरुद्ध। नहीं समझे।

कल कितना दौड़े थे, अरे! कल माने कल नहीं, अतीत में। ढाई किलोमीटर मान लो, तो आज उससे प्रतिस्पर्धा करो न। आज पौने तीन। कोई नहीं है बगल में, तो ख़ुद के विरुद्ध होड़ करो, कल कितना समय लिया था ढाई किलोमीटर में? पंद्रह मिनट। आज साढ़े चौदह लेने हैं,

प्र३: जैसे मतलब कि साथ में आसपास कोई कर नहीं रहा होता। तो ये होता है कि इतना, इतना ही काफ़ी है, तो ये हो जाता है और की ज़रूरत नहीं है।

आचार्य: ऐसा तो नहीं है कि तुम्हें नहीं पता कि इतना काफ़ी नहीं है, जानते हो न इतना काफ़ी नहीं है, तभी तो यहाँ बोल रहे हो कि इतना काफ़ी नहीं है। शुरू करने से पहले, दौड़ने से पहले तो नहीं थके हुए हो, वो समय है जब अपने लिए लक्ष्य निर्धारित कर लो और तय कर दो कि आज इतना दौड़ना है। दौड़ने के बीच में लक्ष्य निर्धारित करोगे तो थकान के कारण मन बेईमानी कर देगा। जब ताजे हो तभी बोलो, ‘कल ढाई किलोमीटर था, आज तीन है।‘ अपने ही ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा करो न।

प्र४: नमस्कार आचार्य जी, मेरा नाम शुभम है। सबसे पहले तो आपका मैं बहुत-बहुत अनुग्रह प्रकट करता हूँ, आपकी हेल्प से और भगवान रजनीश और कृष्णमूर्ति और जो भी बोध प्रदान करते हैं उनके हेल्प से मैं जो भी घर में कलह है उसको सुधार पाया हूँ और बहुत सारे, बहुत सारे लोग नहीं तीन-चार लोगों को जो आध्यात्मिक रोग होता है, भगवत रोग जो मुझे लग चुका है उनको भी दे पाया हूँ।

तो मेरा प्रश्न यह है कि आचार्य जी मैं, मुझे जब संजय जी ने कंफर्म (पुष्टि) किया, संजय भैया ने कंफर्म किया कि आप आ सकते हैं यहाँ पर, अनुदान मैं ज़्यादा नहीं दे पाया था, तो मेरे मन में ये प्रश्न आने लगे कि मुझे आपसे क्या पूछने हैं। जैसे-जैसे दिन पार हो रहा था तो पुराने प्रश्न गिरते गये और फिर नये प्रश्न उठ रहे थे, पुराने प्रश्न मुझे व्यर्थ लगने लगे थे। धीरे-धीरे फिर अब मुझे ऐसा लग रहा कि कहीं प्रश्न बनाना मुझे अपनेआप को बचाने का एक तरह का विधि तो नहीं है, अहंकार को बचाने का एक विधि तो नहीं है प्रश्न बनाना।

मैं बहुत बार फँस चुका हूँ क्योंकि मैंने ये बातें सुनी हैं भगवान रजनीश से और अन्त में कोई प्रश्न नहीं बचता है बाद में, जो उच्चतर स्थिति होती है। फिर मौन में ही संवाद होता है और मौन में ही आगे प्रगति होती है। तो कहीं मैं आगे फँस न जाऊँ, इसलिए मुझे लगता है मुझे पूछ लेना चाहिए कि प्रश्न बनाना कहीं अहंकार को बनाये रखने का एक तरह का टेक्निक (कला) तो नहीं है या फिर टेक्नोलॉजी (तकनीक), ये प्रश्न। धन्यवाद।

आचार्य: तुम्हें खड़े होकर मुझसे बात करनी थी बस। इतनी सी बात है। अब खड़े होकर के कुछ समय बिताने का कुछ बहाना चाहिए तो तुमने कुछ भी बोल दिया। अच्छी बात है, प्रेम की बात है। आई लव यू टू (श्रोताओं की हँसी)।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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