आचार्य प्रशान्त: पहला ही सवाल यह है कि, बेबसी क्या है? बेसहारा होने का अनुभव क्यों होता है? तो मैंने कहा, ‘बेसहारा होने में और बेसहारा हो जाने में अन्तर है।’ बीईंग (होना) और बिकमिंग (हो जाना / बन जाना) का अन्तर है। सहारे हम सबने ख़ूब बना रखे हैं, अभिलाष (प्रश्नकर्ता)। ऐसा यहाँ कोई नहीं है जिसने मदद के स्रोत न पकड़ रखे हों। ऐसा कोई नहीं है जिसने कुछ आधार न खड़े कर रखे हों जिस पर उसकी ज़िंदगी चलती है, जहाँ से वो जाकर के सहायता भी माँग सकता है। दिक्क़त बस यह आती है कि वो सारे आधार नाकाफ़ी सिद्ध होते हैं। तुमने रास्ते तो बहुत खोल रखे हैं अपने लिए, लेकिन उस में से कोई भी रास्ता वास्तव में मदद दे नहीं पाता, जब मदद की ज़रूरत होती है। अगर वो दे पाता होता, तो बेबसी अनुभव होती ही नहीं।
दरवाज़े तो बहुत हैं जो तुम्हें बता दिए गए हैं कि ये दरवाज़े हैं, ये दरवाज़े हैं। लेकिन खटखटाते रहते हो उन दरवाज़ों को, वहाँ से मदद आती नहीं है। वादे आते हैं। कह तो दिया गया है कि यह सब कुछ है जो जीवन में महत्वपूर्ण है, और यह रहेगा तो जीवन में सहारा बना रहेगा। पर तुमने पाया है कि जब भी वास्तव में सहारा चाहिए, मिला नहीं है। और अगर मिला भी है, तो उसने अपनी बड़ी क़ीमत माँगी है। जितने का सहारा नहीं, उससे कई-कई गुना तुम्हें उसकी क़ीमत देनी पड़ी है।
कौन-से सहारे हैं जो हमने बना रखे हैं? — और याद रखना हम बात कर रहे हैं बेबसी की, बेसहारा होने की — तो पहले एक बार देख लेना ज़रूरी है कि कौन से सहारे हैं जो हमें उपलब्ध ही हैं, जिनको हम मानते हैं कि हमें मिले ही हुए हैं। यही वो है न जो चूँकि कारगर सिद्ध नहीं होते, इसीलिए बेबसी का प्रश्न ही उठता है? ये सहारे अगर सच्चे होते, तो यह सवाल ही नहीं उठता कि मदद उपलब्ध क्यों नहीं है।
तो कौन से स्रोत हैं जिनको हमने माना है कि वहाँ से मदद मिल जाएगी? हमने माना है कि जो हमें पहचानें दे दी गई हैं, वो हमें मदद कर देंगी। हमने माना है कि ये जो हम सारी डिग्रियाँ, शिक्षा, ज्ञान ले करके चलते हैं, इससे मदद मिल जाएगी। हमने माना है कि हमारे आस-पास जो हमारे दोस्तों का झुंड है, हमें उससे मदद मिल जाएगी। रिश्ते हैं, नाते हैं, परिवार है, हमें इनसे मदद मिल जाएगी। पूरा समाज मदद कर देगा। राष्ट्रीयता की, धर्म की, और हमारी बाक़ी जितनी आईडेंटिटीज (पहचानें) हैं, उनसे हमें कुछ मदद मिल जाएगी।
पर दिक्क़त यह आती है — और यह बड़ी मज़ेदार दिक्क़त है — कि हमें कहा तो यह गया कि इनसे हमें मदद मिलेगी, इनसे हमें कुछ सुविधा रहेगी शायद जीने में। लेकिन हम पाते यह हैं कि हमें इनसे मदद नहीं चाहिए, हमें अक्सर इनसे बचने के लिए मदद चाहिए। जिसको तुम्हें दिया गया था कि यह तुम्हारा सहारा है, यह तुम्हारा दोस्त है। तुम पाते हो कि वही तो तुम्हारी बगल में खड़ा हुआ तुम्हारा दुश्मन है। दूर का दुश्मन तो तुम्हारा क्या ही नुक़सान करता है — क्योंकि दूर है। पर यह जो दुश्मन बगल में खड़ा कर दिया गया है दोस्त कहकर के, यह ख़ूब नुक़सान कर ले जाता है। सवाल भी इसीलिए उठा है कि सहारा चाहिए।
हेल्पलेसनेस (विवशता) अनुभव क्यों होती है?” वो इसीलिए होती है क्योंकि नक़ली सहारे बहुत सारे हैं हमारे पास। नक़ली सहारे इतने हैं कि हमें उन्हीं के विरुद्ध मदद चाहिए।
वरना बेसहारा कोई होता नहीं। सबकी मदद करने वाला मौजूद है। पर जहाँ से असली मदद आ सकती है, उसको छोड़कर के जब तुम नक़ली की ओर चले जाते हो, तो फिर स्वाभाविक सी बात है कि निराशा ही हाथ लगती है। फिर तुम पाते हो कि रोज़मर्रा के ढर्रे में तो ठीक है, किसी तरह से काम चल गया, कामचलाऊ सुविधाएँ मिल रही हैं। पर जब भी जीवन में थोड़ी भी परीक्षा की घड़ी आती है, तो ये सब दरवाज़े मदद के लिए खुलते ही नहीं। खुल सकते ही नहीं। क्योंकि उन दरवाज़ों के पीछे जो हैं, उनमें मदद कर पाने की सामर्थ्य ही नहीं है।
सहारा तो कोई तुम्हें तब देगा न, जब ख़ुद उसमें ताक़त हो सहारा देने की। अंधा क्या दूसरे को रोशनी दिखाएगा? जो ख़ुद अपने पाँव नहीं चल सकता, वह किसी को क्या उठाकर के दौड़ेगा? जो ख़ुद सोया हुआ है, वो किसी और को क्या जगाएगा? पर हमारी ज़िंदगी ऐसी ही बीत रही है। अंधे को अंधे का सहारा मिला हुआ है। कबीर साहिब ने कहा, “अंधा अंधे ठेलिया।” — वैसा ही हमारा जीवन चल रहा है। नक़ली सहारे बहुत हैं हमारे पास।
एच० जी० वैल्स की एक प्रसिद्ध कहानी है — ‘दि कन्ट्री ऑफ दि ब्लाइन्ड’ (अंधों का देश)। उसमें एक ऐसे देश का ज़िक्र है जहाँ सब अंधे हैं। वहाँ पर एक आँखों वाला आदमी पहुँच जाता है। और वह देखता है कि यहाँ सब अंधे हैं, तो हँसने लगता है। वह कहता है, ‘यहाँ पर तो मैं राजा हो जाऊँगा; क्योंकि अंधों में तो काना भी राजा होता है, और मेरे तो दोनों आँखें हैं। तो यहाँ तो मैं निश्चित ही राजा हो जाऊँगा।’ अंधे उसके सामने आते हैं, वह कहता है, ‘तुम अंधे हो।’ पर वो जो अंधे थे, वो बड़े अद्भुत अंधे थे। वो पिछली पन्द्रह पीढ़ियों से अंधे थे। वो इतने अंधे थे कि उन्हें अब पता भी नहीं था कि वो अंधे हैं। उन्हें प्रकाश का अब कोई ख़याल ही नहीं रह गया था। उन्होंने कहा, “अंधे? अंधा क्या होता है? जीवन ऐसा ही होता है और ऐसा ही चलना चाहिए।’
इसने कहा, ‘नहीं, रोशनी होती है, रंग होते हैं, इन्द्रधनुष होते हैं, बादल होते हैं, तितलियाँ होती हैं।’ उन्होंने कहा, ‘यह पागल है। इसका दिमाग़ ख़राब है, इसीलिए ऐसी बातें कर रहा है।’ उसने कहा, ‘कोई बात नहीं। चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। आओ, मेरे पीछे-पीछे आओ।’ अंधों ने कहा, ‘तुम पागल हो। यह हमारा देश है। यहाँ के रास्ते हम जानते हैं। हम तुम्हें रास्ता दिखाएँगे।’ वह लाख बोलता रहा, और जितना बोलता रहा लोगों ने उसे उतना ही पागल समझा। अन्ततः दो अंधे उसका एक-एक हाथ पकड़कर के उसको बढ़ाने लग गए। और यह बड़ा मज़ेदार दृश्य है कि एक आँख वाले आदमी को दो अंधे खींचे लिए जा रहे हैं, और वह बेबसी में चिल्ला रहा है। यह बेबसी क्या इस बात की है कि उसके पास आँखें नहीं हैं? या इस बात की है कि अंधे ही उसका सहारा बन बैठे हैं? वह बेसहारा है या उसे ग़लत सहारा मिल गया है? सवाल तुमसे पूछ रहा हूँ।
श्रोतागण: उसे ग़लत सहारा मिल गया है।
आचार्य: यही स्थिति हम सब की है। हम बेसहारा नहीं हैं, हमने कुछ ज़्यादा ही सहारे ढूँढ लिए हैं। और ये सारे अंधे हैं जिनके हम सहारे चल रहे हैं। एक हाथ एक अंधा पकड़ कर खींच रहा है, और दूसरा हाथ दूसरा।
तो तुम ध्यान से देखना, अभिलाष, दिक्क़त यह बिलकुल भी नहीं है की हेल्पलेस (असहाय) हो। दिक्क़त बस यही है कि जहाँ हेल्प (सहायता) लेनी नहीं चाहिए, वहाँ भी ले रहे हो। क्योंकि तुम्हें बता दिया गया है कि रिश्ते ऐसे ही होते हैं, सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं। तुमसे कह दिया गया है कि ये बड़े पवित्र दरवाज़े हैं, और इन्हीं पर तुम खटखटाना, जब भी तुम्हें मदद चाहिए हो।
मैं तुमसे कह रहा हूँ, वो दरवाज़े अंधे दरवाज़े हैं। वो कभी खुल नहीं सकते, तुम खटखटाते रहो, लाख खटखटाते रहो। एक ही व्यक्ति है जो तुम्हारी मदद कर सकता है, जो तुम्हें सहारा दे सकता है, और वो ख़ुद तुम हो। तुम्हारे ही भीतर वो बोध है जो आज भी — और सदा — तुम्हारी सहायता करेगा। उसके अलावा अगर तुमने कहीं से भी सहायता चाही, तो तुम्हें ठीक वही अनुभव होगा जो तुम्हें अभी अनुभव हो रहा है, हेल्पलेसनेस।
क्योंकि हेल्पलेसनेस इसी बात का नाम है कि मैंने अपने अलावा किसी और से मदद माँगी। और जब मैं कह रहा हूँ अपने अलावा, तो याद रखना मैं उस अभिलाष की बात नहीं कर रहा हूँ जिसके मन पर दूसरों का कब्ज़ा है। जब मैं कह रहा हूँ, ‘अपनी मदद माँगो’ तो मैं कह रहा हूँ, अपने बोध से मदद माँगो। तुम्हारे भीतर जो परम-सत्ता बैठी हुई है, उससे मदद माँगो।तुम्हारा मन तुम्हारी मदद नहीं कर पाएगा, क्योंकि वो तो पूरी तरह दूसरों द्वारा ही संस्कारित है। तुम्हारे मन पर तो दूसरों का कब्ज़ा है। तो तुम अगर अपने मन से मदद माँग रहे हो, तो तुम परोक्ष रूप से दूसरों से ही मदद माँग रहे हो। तुम फिर फँस जाओगे।
तुम्हारे भीतर ही कुछ ऐसा है जो तब जागृत होता है जब तुम सामाजिक नहीं रह जाते। जो तब जागृत होता है जब तुम बाकी सारे आसरे छोड़ देते हो, जब तुम बाकी सारी आशाएँ छोड़ देते हो।
जब तुम बिलकुल उम्मीद रखना ही छोड़ देते हो कि दूसरों से, या भविष्य से तुम्हें कुछ मिल सकता है, तब तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जो उठ खड़ा होता है। और वो सिर्फ़ तभी खड़ा होता है जब तुम नक़ली मदद लेना छोड़ देते हो। जब तक तुम नक़ली मदद ले रहे हो, जब तक तुम नक़ली सहारों पर टिके हुए हो, तब तक वो कहता है, ‘ठीक है। अभी तो तुझे इधर से, उधर से, दस जगह से बड़ी उम्मीद है न!’ जब तक तुम्हारी उम्मीद बाकी है तब तक तुम्हारे भीतर वो प्राण नहीं जागेंगे जो वास्तव में तुम्हारी मदद कर सकते हैं। इसीलिए बहुत आवश्यक है कि बिलकुल बेसहारा हो जाओ। जिस क्षण तुम पूरी तरह बेसहारा हुए, उसी क्षण तुम पाओगे कि सहारे की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
यह बड़ा अजीब-सा खेल है! जिसके पास बहुत सहारे हैं, उसके पास कुछ नहीं है, उसके पास कोई सहारा नहीं है। हमने अभी कहा कि जिसके पास बहुत सहारे हैं, उसके ऊपर तो वो सहारे ही भारी पड़ते हैं। और जो घोषणा कर देता है कि अब नहीं सहारा माँगूँगा अंधों से, अब नहीं भीख माँगूँगा भिखारियों से। जो यह कह देता है कि बिलकुल अब मैं निराश्रय हो गया, वो पाता है कि उसकी सामर्थ्य अचानक जग उठी है। कहीं बाहर से नहीं आई, उसके भीतर सदा से थी। पर वो सोयी पड़ी रहती है, वो दबी पड़ी रहती है। जैसे— जब सपना हो, तो सत्य दबा पड़ा रहे, वैसे ही।
लेकिन थोड़ी हिम्मत जुटानी पड़ेगी। क्योंकि पहले तो तुम्हें ठुकराना पड़ेगा, पहले बेसहारा होना पड़ेगा, उसमें डर लगेगा। तुम कहोगे, ‘बाद में कुछ पता नहीं मिलेगा या नहीं मिलेगा। अभी तो जो उपलब्ध है उसको भी छोड़े दे रहा हूँ। मेरा होगा क्या?’ मन तुमसे कहेगा, ‘यह पागलपन है। क्या बेवकूफ़ी कर रहे हो?’ तब चाहिए श्रद्धा। तब तुम कहो कि पता नहीं मेरा क्या होगा। पर यह तो मुझे पक्का पता है कि अभी जो हो रहा है यह मैं होने नहीं दे सकता। इसके बाद क्या होगा? नहीं जानता। पर यह जो है, इसको तो मैं चलने नहीं दे सकता। आँख होते हुए भी अंधों को अनुमति नहीं दे सकता कि तुम मेरा जीवन निर्धारित करो। बोध होते हुए भी परम्परा को अनुमति नहीं दे सकता कि वो मुझे बताए कि मुझे जीवन कैसे जीना है। समझ होते हुए भी नासमझों के हाथ की कठपुतली नहीं बना रह सकता। मुझे नहीं मालूम आगे क्या होगा, पर अभी तो मुझे इस सबसे मुक्त होना ही है। ये सारी झूठी बैसाखियाँ हैं, इनके सहारे नहीं चल सकता, इनसे तो मुक्त होना-ही-होना है।
जब तुम नक़ली से मुक्त हो जाते हो, तो असली अपनेआप प्रकट हो जाता है। पर पहले नक़ली से मुक्त होना पड़ता है। और जैसा मैंने कहा, उसमें थोड़ा डर लगेगा। जो लोग उतना साहस रखते हों, वो फिर पाते हैं कि उन्हें परम सहारा मिल गया है। वो फिर पाते हैं कि उन्हें अब किसी और सहारे की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। तो सब कुछ तुम्हारे ऊपर है। थोड़ी श्रद्धा जगाओ, थोड़ा साहस दिखाओ, अपना सहारा आप बन जाओगे। नहीं तो फिर बहुत लोग हैं। दुनिया की अधिकांश आबादी एक नक़ली जीवन जीती है, और नक़ली जीवन जीकर के मर भी जाती है,वैसे ही रहे आओगे। कुछ बात स्पष्ट हो रही है?
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