ये खिसिआना, ये चिढ़चिढ़ाना, ये तनाव, ये खींझ, ये क्रोध, ये उदासी, ये सूनापन, ये भाव कि ‘जीवन ने हमारे साथ अन्याय किया है, हम शोषित हैं, हम शिकार हैं’, ये क्या कर रहा है हमारे साथ? कहीं का छोड़ रहा है हमको? और क्या हम सब इसी भाव में नहीं जी रहे? कोई ऐसा बैठा है जिसे ज़िंदगी से तकलीफ़ और शिक़ायत ना हो? सब अपनी-अपनी नज़रों में शोषण के शिकार हैं, विक्टिम (शोषित) है।
मुझे ताज्जुब होता है, सब विक्टिम है तो विक्टिमइज़र (शोषक) कौन है? सब बताते हैं कि हम तो शोषित हैं, सब शिकार हैं तो शिकारी कौन है? सब शोषित है तो शोषक कौन है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम दोनों ही हैं, शिकार और शिकारी? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अपना ही शिकार कर रहे हैं?
बेपरवाह जियो और बुलंद जियो!