बेईमान को ज्ञान नहीं, डंडा चाहिए || (2020)

Acharya Prashant

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बेईमान को ज्ञान नहीं, डंडा चाहिए || (2020)

प्रश्नकर्ता: मेरी दूसरों पर निर्भरता बहुत है। अगर दूसरे लोग मेरे प्रति अप्रिय व्यवहार करते हैं तो मुझे बहुत बुरा लगता है। यदि किसी का कहा ना मानूँ तो वह व्यक्ति नाराज़ हो जाता है और इससे मैं बहुत प्रभावित हो जाता हूँ। तो ये जो दूसरों से बंधन है इससे मुक्ति की शुरुआत कहाँ से करूँ?

आचार्य प्रशांत: ये बुरा लगेगा तो छोड़ दोगे। कोई ऐसा नहीं होता जो अपनी दृष्टि में सुख के विपरीत कोई काम करे। हाँ, दूर से आप देख कर कह सकते हैं कि ये आदमी बेवकूफ़ी कर रहा है, ये जो करने जा रहा है उससे दुःख पाएगा। लेकिन जो आदमी आपके दृष्टि में बेवकूफ़ है, अपनी दृष्टि में तो सुख की तरफ़ ही बढ़ रहा है। बढ़ रहा है न? तो तुम भी अगर दूसरों से इस तरह उलझते हो, उनकी कही बात को इस तरह से लेते हो, आहत होते हो, तो इन सब में सुख पा रहे हो। जब इन सब में सुख मानना छोड़ दोगे तो अपने-आप इससे मुक्त हो जाओगे। तुमने कोई मुझे पूरी बात थोड़े ही बताई है, ये तो बता ही नहीं रहे हो कि ये सब जो करते हो, इसमें मज़ा क्या मिलता है।

प्र: उनकी संगति का एक सेंस ऑफ़ कम्पैनियनशिप (साहचर्य की भावना), एक सेंस ऑफ़ कंपनी (संगत की भावना) मिलती है।

आचार्य: जब दिख जाएगा ये जो मज़ा ले रहे हो, इसमें मज़ा कुछ नहीं है, इसमें मौत है, इसमें ज़हर है, इसमें सज़ा है तो ख़ुद छोड़ दोगे। देखो तो सही उस बात को। ये अपने चुनाव की चीज़ें होती हैं। मैं इसीलिए बहुत विधियाँ आदि बताने का समर्थक नहीं रहता।

तुम्हारे सामने कोई चीज़ रखी हुई है, मान लो ये रुमाल। आँखें हैं तुम्हारे पास, मैं जानता हूँ, लेकिन तुम बेईमानी करके बार-बार मुझ से कह रहे हो कि "यहाँ रुमाल है नहीं, मुझे दिख नहीं रहा, यहाँ रुमाल है नहीं, मुझे दिख नहीं रहा।" ये मामला सीधे-सीधे बेईमानी, बदनीयती का है न? अब मैं कहूँ, "नहीं, देखो जब रुमाल दिखाई ना दे तो बाईं आँख बंद करके, दाईं आँख को दस बार गोल-गोल घुमाओ, उसके बाद फलाना मंत्र पढ़ो, उसके बाद अपने दाएँ हाथ के अंगूठे से अपने भृकुटियों के बीच में चार बार दबा करके घिसो, और इस तरह तुम छह महीनो तक करो तो तुम्हें रुमाल दिखने लगेगा।" तो मुझे ये बात बड़ी जड़ता की, बड़ी मूर्खता की लगती है।

तुम देख नहीं रहे हो, तुम्हें विधि नहीं चाहिए, तुम्हें डंडा चाहिए। तुम अँधे थोड़े ही हो, तुम बेईमान हो। जो अँधा हो उसका उपचार किया जा सकता है, उसको बैठा करके दवाई दी जा सकती है, उसकी सर्जरी की जा सकती है। लेकिन हज़ार में से नौ-सौ-निन्यान्वे लोग अगर देख नहीं रहे, तो इसीलिए नहीं वो नहीं देख रहे क्योंकि उनकी आँख में कुछ समस्या है, वो देख इसीलिए नहीं रहे हैं क्योंकि उनकी आँख नहीं नीयत ख़राब है। अब नीयत सुधारने के लिए कोई विधि नहीं होती भईया! बल्कि बदनीयती को छुपाने की हज़ार विधि होती हैं। अध्यात्म के नाम पर ये जो इतनी विधियाँ चलती हैं, ज़्यादातर बदनीयती को छुपाने की विधियाँ हैं।

(शिष्य) कह रहे हैं, कि "वो लालच बहुत है, लालच बहुत है; कोई विधि बताइए कि लालच चला जाए।" तो (गुरु) कह रहे हैं कि "ऐसा किया करो कि शुक्रवार के दिन काले खम्बे को पकड़ कर, बाईं टाँग बिलकुल उठाकर सूर्य देव की दिशा में कर दिया करो। शुक्रवार के दिन सूर्य का मैग्नेटिक फील्ड (चुम्बकीय क्षेत्र) ज़्यादा प्रबल होता है, उससे कुछ-कुछ तुम्हारे भीतर होने लगेगा।" और ये तुम करे जाओ। ये बेईमानी को छुपाने के लिए और बड़ी बेईमानी की जा रही है। कुछ चेला बेईमान, चेले से ज़्यादा गुरु बेईमान।

अब इस विधि के साधक को बड़ी छूट मिल गई है, वो कह रहा है "देखो, हम कोशिश कर रहे हैं न अपना लालच हटाने की। हर शुक्रवार को हम फलाने तरीके की क्रिया किया करते हैं और ऐसे ही करेंगे हम दस-बीस साल तो धीरे-धीरे लालच कम हो जाएगा। दस-बीस साल तक हम लालच के मज़े लूटेंगे; लालच के ही नहीं मज़े लूटेंगे, अब हम इस बात का भी मज़ा लूटेंगे कि हम लालची तो हैं ही और लालच को कम करने की देखो कोशिश भी कर रहे हैं। तो अपने ऊपर अब कोई नैतिक ग्लानि भी नहीं रखेंगे हम। किसी तरह की लाज भी नहीं आएगी, कि 'देखो लालच हम करते हैं पर हम क्या करें हम मजबूर हैं, हमें बीमारी लगी हुई है, इसीलिए लालच करते हैं' और तुम हमारी नीयत पर शक़ मत करना, देखो हम लालच हटाने कि दवाई ले रहे हैं न! बीस साल से दवाई ले रहे हैं तो तुम हमें सम्मान दो। हम तो लालच हटाने की दवाई लेते हैं, हमारी नीयत साफ़ है।" ये बेईमानी पर महा बेईमानी चल रही है।

यहाँ दवाई की नहीं ठुकाई की ज़रूरत है। दुनिया की सबसे बड़ी विधि है डंडा। हज़ार में से नो-सौ-निन्यानवे लोगों के लिए वही विधि है, डंडा। क्योंकि मामला ही खुल्ली बेईमानी का है। कोई आदमी सो रहा हो तो उसको प्यार से जगाया जाता है न? थोड़ा ख्याल किया जाता है कि ये सो रहा है, तो भई झटके से ना जगाओ, सिरदर्द वगैरह ना हो जाए, चौंक ना जाए। तो उसको जा करके धीरे से कंधे पर हाथ रखकर हिलाते-डुलाते हैं, "उठ जाओ भई उठ जाओ, सुबह हो गई है।" और उनका क्या करोगे, मक्कारों का, जो सात बजे से उठ चुके हैं, लेकिन अभी नौ बजे भी कभी दाईं आँख खोल कर देख लेते हैं, कभी बाईं आँख खोल कर देख लेते हैं और फ़िर कहते हैं, "मैं फलानि विधि, फलानि क्रिया कर रहा हूँ, इससे मुझे उठने में सहायता मिलेगी।" अगर ठण्ड हो तो इन्हें चाहिए — बिलकुल बर्फीला पानी और अगर गर्मी हो तो इन्हें चाहिए खौलता हुआ पानी। इनके लिए यही विधि है।

जगे हुए को जगाने के लिए कौन सा ज्ञान दें? कोई ज्ञान नहीं काम आएगा। मैं पूछा करता हूँ — वाकई दुखी होते तुम तो तुम अपने दुःख छोड़ नहीं देते? तुम मेरे सामने आकर कह देते हो कि फलानी चीज़ से बड़ा दुःख है, हक़ीक़त ये है कि जिस चीज़ को तुम मेरे सामने दुःख बताते हो, मेरे पीछे उसी चीज़ के तुम मज़े मारते हो। अब बताओ कौन सी विधि, कौन सी क्रिया, कौन सी मुद्रा बताऊँ तुमको? तुम तो मज़े मार रहे हो।

तुम्हें दुःख है कहाँ, क्योंकि तुम्हें अपने दुःख का कुछ पता ही नहीं है तो इसीलिए मेरा काम है तुम्हें दुखी करना। मैं तुम्हें वास्तव में दुखी करूँगा नहीं, मैं बस तुम्हें तुम्हारे दुःख से अवगत कराऊँगा। उसके अलावा कोई विधि काम कर ही नहीं सकती भाई! या कर सकती है, बोलो?

और कोई आकर के पूरी बात बताता नहीं है। "आचार्य जी, ये समस्या है, वो समस्या है, बड़े परेशान हैं।" बेटा ये भी तो बता दो इसमें सुख कितना लूट रहे हो। ये आचार्य जी को तुमने कचरे का डब्बा समझ रखा है, कि जितनी दुःख की बाते हों, जितना जीवन का मवाद हो, पस हो, वो सब तो आकर के आचार्य जी के ऊपर उड़ेल दो और जो जीवन में तुम मज़े मार रहे हो, वो बिलकुल छुपा जाओ, वो बताओ ही मत। कभी आचार्य जी को तब भी याद कर लिया होता जब मज़े मार रहे थे, तो अभी जिन समस्याओं में घिरे हुए हो, उनमें कम घिरे होते। वो मज़े तो बिलकुल छुपा जाते हो, एकदम मौजा ही मौजा।

कोई आता ही नहीं है इस तरह का सवाल लेकर कि, "मुझे न ऐसी-ऐसी चीज़ों में बड़ा सुख मिलता है और मैं बहुत खुश हूँ।" कोई आता ही नहीं है बताने। और दुःख है, परेशानी है ये बताने आ जाते हैं जबकि दुःख और परेशानी बिना सुख की हवस के हो ही नहीं सकते। वो जो तुम सुख लूट रहे हो इधर-उधर, हो सकता है वो सुख तुम्हें आँसुओं में मिलता हो। कोई ये ना सोचे कि सुख तभी है जब कोई हँसता हुआ, मस्कुराता हुआ नज़र आए; बहुत बड़ा सुख है अपने-आपको पीड़ित और शोषित बताने में। अपने-आपको कहो, "मेरी फूटी क़िस्मत, मेरे साथ बड़ा अन्याय, अत्याचार हुआ है, मैं तो दुनिया भर में बड़ा उत्पीड़ित हूँ, दुनिया ने मेरे साथ बड़ा ज़ुल्म किया है", और लगो छाती पीट-पीट कर ज़ार-ज़ार आँसू बहाने। इसमें पूछो नहीं कितना सुख है, महा सुख है, महा सुख। "एक मैं ही हूँ जो दूध का धुला हूँ, बाकी सब तो कुत्ते-कमीने हैं। इन्होंने तो मेरे साथ बड़ा ज़ुल्म किया है।"

भई, अगर आप अकेले हैं, जो भोले-भाले, सीधे-साधे हैं और पूरी दुनिया गई-गुज़री है, अन्यायी है, शोषक है, राक्षसी है तो आपकी श्रेष्ठता सिद्ध हो गई कि नहीं हो गई? हम कैसे हैं? सीधे-साधे साधू आदमी हैं, और दुनिया कैसी है? कुत्ती कमीनी, तो हम कैसे हुए? श्रेष्ठ। तो ये रो रो करके तुम अपने-आपको श्रेष्ठ बनाने का सुख ले रहे हो, अंदर की बात है — अंदर मक्खन-मलाई चल रही है, अंदर लड्डू-पेड़े फूट रहे हैं। वो तुम बात पूरी तरह से छुपा जाओगे। ऊपर ऊपर बताओगे, "अरे! मैं तो नीर भरी दुःख की गगरी।" प्रकृति की ओर तुम सुख के लिए भागते हो। अहम् वृत्ति सुख-धर्मा है, सुख ही उसकी प्रेरणा है। उसको अगर दुःख भी मिल रहा है, तो शत-प्रतिशत मान कर रखो कि तलाश तो वो सुख की ही कर रही है। और संसार का द्वैत का नियम है कि सुख-दुःख मिलते हमेशा अनुपात में हैं। जो जितना बताए कि उसे दुःख मिल रहा है, समझ लेना उतना ही उसने सुख भी भोग रखा है।

दुःख पाने वाला आवश्यक नहीं है कि सहानुभूति का पात्र हो, ठीक उस तरह सुख लूटने वाला आवश्यक नहीं है कि घृणा का पात्र हो। आज सवाल करा न कि "अरे, दुनिया में जो लोग नाक़ाबिल हैं, वो भी नाजायज़ तरीकों से ताक़त और सत्ता इकट्ठा करके सुख भोग रहे हैं।" अरे बाबा! तुम्हें दिख रहा है कि वो सुख भोग रहे हैं, अंदर की बात ये है कि उनको बराबर का दुःख मिल रहा है। तो फिर क्या बुरा मानें? वो तो वैसे ही दुखी है। ऊपर का सुख पा रहा है, अंदर का दुःख पा रहा है। ठीक उसी तरीके से ऊपर-ऊपर से जो दुखी दिख रहा है वो अंदर-ही-अंदर सुख लूट रहा है।

तो अध्यात्म इसलिए नहीं है कि आपको दुःख से मुक्ति दे दे, अध्यात्म तब है जब दुःख-सुख के इस द्वंद्व से, इस खेल से, इस जोड़े से ही मुक्ति चाहते हो पूरी। जो लोग कहते हैं कि अध्यात्म इसीलिए है कि दुःख से मुक्ति मिल जाएगी और हैप्पीनेस (ख़ुशी) खूब पाएँगे, उनको बहुत सारी बाज़ारें, दुकाने चल रही हैं, वहाँ चले जाना चाहिए जहाँ हैप्पीनेस बिकती है। हैप्पीनेस के शिविर लगते हैं, हैप्पीनेस के कोर्स चलते हैं। उन्हें अध्यात्म की कोई ज़रूरत नहीं हैं, हैप्पीनेस के लिए तो बाज़ार है।

अध्यात्म उनके लिए है जो समझ गए हैं कि सुख-दुःख की छाया मात्र है। जिन्हें समझ में आ गया कि ये खेल ही गड़बड़ है, इसमें जीत भी गड़बड़ है हार भी गड़बड़ है, इसमें सुख भी गड़बड़ है दुःख भी गड़बड़ है, अध्यात्म उनके लिए है।

अपने सुखों से सावधान रहो, दुःख अपने आप छँट जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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