आचार्य प्रशांत: कर्म दो जगहों से निकलता है, पूर्णता से और अपूर्णता से। अपूर्णता का नाम इच्छा है। मैं कहूँगा, 'अपूर्णता एक बीमारी है, क्योंकि अपूर्णता आपका स्वभाव नहीं है।' स्वभाव आपका पूर्णता है। अपूर्णता मात्र भ्रम है — मुझमें कोई कमी है, मुझमें कुछ कमी है, मुझे कुछ पाना है।
जैसे दिल में एक छेद हो — मुझमें कुछ कमी है, मुझे कुछ पाना है — ये अपूर्णता का भाव है। ये समाज और शिक्षा व्यक्ति के भीतर स्थापित कर देते हैं। तुममें कोई कमी है, तुम्हें कुछ पाना है, तुम्हें कुछ हासिल करना है वरना तुम किसी क़ाबिल नहीं हो। जब इस बिन्दु से कर्म निकलता है तो वो इच्छाजनित कर्म है।
पर याद रखिएगा हमने कहा है, 'इच्छा आपका स्वभाव नहीं है, वो बाहर से आयी हुई एक बीमारी है।' जो कुछ भी आपका स्वभाव नहीं है, आपका स्वास्थ्य नहीं है, वो व्याधि ही है।
ज़्यादातर लोगों के ज़्यादातर कर्म अपूर्णता के भाव से निकलते हैं — अगर मैंने कुछ हासिल नहीं किया तो मैं अधूरा रह जाऊँगा। ज़िन्दगीभर वो अपने दिल के छेद को भरने की कोशिश करते रहते हैं उस छेद में हज़ार चीज़े डाल-डालकर। वे उसमें फर्नीचर भरते हैं। वे उसमें रूपया-पैसा भरते हैं, वो उसमें हज़ार तरीक़े की पात्रताएँ भरते हैं, उपाधियाँ भरते हैं, सम्बन्ध भरते हैं, प्रतिष्ठा भरते हैं, पर वो छेद कभी भरता नहीं। और उसका प्रमाण ये है कि उसे कितना भी भर लो अभी उसे और भरने की इच्छा शेष ही रहती है। अपूर्णता से जनित कर्म सिर्फ़ थकान देता है; कभी विश्राम नही देता। वो कभी आपको कहीं पहुँचा नहीं सकता, क्योंकि आप जहाँ पहुँचना चाहते हो वो जगह ही काल्पनिक है।
आप कह रहे हो कि मैं अपूर्णता से यात्रा शुरू कर के हासिल कर के पूर्ण हो जाऊँगा। ये यात्रा ही भ्रम की यात्रा है क्योंकि आप कभी अपूर्ण थे ही नहीं, तो यात्रा कैसी! पर दुनिया इसी यात्रा पर चले जा रही है और इसी यात्रा को उसने तरक़्क़ी का नाम दिया है। आप कहते हो, 'मेरी प्रगति हो रही है अगर मैंने कुछ इकठ्ठा कर लिया।'
ये प्रगति नहीं है, ये बीमारी है। ये गहरी बीमारी है, क्योंकि इसके मूल में एक हीनभावना बैठी हुई है। इसके मूल में अधूरे की भावना बैठी हुई है — मैं क्षुद्र हूँ, मैं छोटा हूँ, मैं नाक़ाबिल हूँ, मैं अपात्र हूँ और मुझे अपने कर्मों से अपनी अपात्रता को पात्रता में बदलना है। अपने दिल का छेद भरना है, अपना ख़ालीपन किसी तरीक़े से निपटाना है।
और दुनिया बड़ी मेहनत कर रही है किसी तरीक़े से इस अपूर्णता को पूर्णता में तब्दील करने के लिए, पर श्रम काम नहीं आएगा। इसी श्रम का नाम हमने तरक़्क़ी दे रखा है, पर उस तरक़्क़ी से क्या हासिल हो रहा है? जीवन के अन्त में भी तुम उतने ही थके हुए और रोये हुए रहते हो जितना यात्रा के शुरू में थे। बल्कि कहीं ज़्यादा क्योंकि जीवनभर की असफलताओं का बोझ अब तुम्हारे साथ है। तुम्हारे सारे श्रम की व्यर्थता का एहसास अब तुम्हारे साथ है। यात्रा बढ़ती जाती है और व्यर्थता का एहसास भी बढ़ता जाता है, लेकिन तुम कोई और विकल्प देख ही नहीं पाते।
तुम कहते हो, 'शायद हासिल इसीलिए नहीं हो रहा है क्योंकि मैं ज़ोर से नहीं दौड़ रहा हूँ।' तुम और ज़ोर से दौड़ते हो, तब भी हासिल नहीं होता। तुम कहते हो, 'शायद हासिल इसीलिए नहीं हो रहा है क्योंकि अभी भी और तेज़ी से नहीं दौड़ रहा हूँ', तो तुम और तेज़ी से दौड़ते हो।
तुम थकते जाते हो, तुम गिरते जाते हो, तुम खटते जाते हो। और तुम जितना खटते हो, तुम उतनी ज़्यादा अपनी गति बढ़ाने की कोशिश करते हो। तुम्हें भ्रम है कि गति बढ़ाने से शायद कुछ हासिल हो जाए; हासिल होता नहीं, गति बढ़ती रहती है और एक दिन मृत्यु।
और एक दूसरा कर्म भी होता है जो अपूर्णता के भाव से नहीं निकलता; वो पूर्णता से निकलता है। कोई ये न समझे कि अगर कामनाएँ ही नहीं रह जाएँगी तो कोई कुछ भी करेगा क्यों। बात ग़लत है। जब कामनाएँ नहीं रह जाएँगी तो काम नहीं होगा, पर क्रीड़ा ज़रूर होगी। काम, श्रम निकलता है कामनाओं से, क्रीड़ा नहीं निकलती कामनाओं से, खेल नहीं निकलता।
जब इच्छा नहीं रह जाती तो ऐसा नहीं है कि कर्म मर जाता है। कर्म होता है, तब कर्म खेल स्वरूप हो जाता है। क्रीड़ा, लीला। तुम खेलते हो, तुम नाचते हो। जैसे कि ये दुनिया है नटराज का नृत्य, परम की लीला। वो नाच रहा है, उसे कुछ पाना नहीं है, इस दुनिया से उसे कुछ हासिल नहीं करना है। उसका नाचना ही ये दुनिया है। अकारण नाचना, निरर्थक नाचना, कोई अर्थ नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है, कुछ पाना नहीं है, हासिल नहीं करना है।
क्यों कर रहे हो फिर? आनन्द है इसीलिए कर रहे हैं। आनन्द है, मग्न हैं, नाच रहे हैं — जैसे, छोटा बच्चा नाच रहा है। कोई व्यावसायिक नचैया नहीं है कि जो इसीलिए नाचता है कि पैसे मिल जाएँ और तालियाँ मिल जाएँ। और छोटा बच्चा क्यों नाचता है कि पैसे मिल जाएँ या तालियाँ मिल जाएँ? वो क्यों नाचता है? वो बस नाचता है।
तो जब कामनाएँ नहीं होती तब भी कर्म होता है। और बड़ी ऊर्जा के साथ होता है। वो निष्काम कर्म है। तब तुम किसी परिणाम की अपेक्षा से नहीं नाच रहे हो, तुम अपने मज़े में नाच रहे हो, अपनी मौज में नाच रहे हो। ये दुनिया सिर्फ़ सकाम कर्म जानती है, उसी को आपने तरक़्क़ी का नाम दिया है, और तरक्की हो नहीं पा रही।
वास्तविक तरक़्क़ी हम जानते नहीं। वास्तविक तरक़्क़ी निष्काम कर्म से आती है। तो ये कहना कि जो उपाधि के पीछे नहीं भागेगा, उसकी तो कामनाएँ ही नहीं रहीं तो तरक्क़ी कैसे होगी? तभी होगी! वास्तविक तरक़्क़ी तब है जब आप तरक़्क़ी की आकांक्षा ही नहीं कर रहें। जीतता वो है जो जीतने के लिए खेल ही नहीं रहा। आगे वो निकल जाता है जिसे आगे निकलना ही नहीं है।
वो निकला ही हुआ है। वो जीता ही हुआ है। पर इस सूत्र को समझने वाले बहुत कम हैं। लोग सोचते है, 'हम दौड़-दौड़कर आगे निकलेंगे।’ न, ठहरकर आगे नहीं निकला जाता है। बात को पकड़ लीजिएगा — जो दौड़ेगा वो हारेगा। जो ठहरा, वो ठहरते ही जीत गया। जो दौड़ा, वो पहले ही कदम पर हार गया, दौड़ना ही तो तुम्हारी हार है। तुम दौड़े नहीं कि तुमने अपनी हार की उद्घोषणा कर दी। जो ठहरा, वो ठहरते ही जीत गया। अब उसे कोई नहीं हरा सकता।
और ठहरने का मतलब ये नहीं है कि अब कर्म होगा नहीं। ठहरने का अर्थ अकर्मण्य हो जाना नहीं है। अकर्मण्यता की वक़ालत नहीं की जा रही है। ठहरने का अर्थ है कि तुम्हारा कर्म, तुम्हारी पूर्णता से उद्भूत हो। ठहरने का अर्थ है कि भीतर एक बिन्दु रहे जहाँ कोई बैचेनी नहीं है। जहाँ कोई छटपटाहट नहीं है। जो कहीं पहुँचने को आतुर नहीं है। जो अचर है। जो हिलता ही नहीं, जो निष्कम्प है।
भीतर रहे वो बिन्दु बिलकुल ठहरा हुआ और जब भीतर वो ठहरा हुआ बिन्दु रहता है, जो किसी दौड़ में शामिल नहीं, तो बाहर तुम बहुत मज़े में दौड़ते हो, क्योंकि तुम्हें जीतना ही नहीं है। तुम ऐसी मौज में दौड़ते हो कि तुम जीत ही जाते हो। जीते हुए ही हो। तुम्हारा कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं।
तुम्हें किसी से होड़ लगानी नहीं। तुम्हें भय ही नहीं कुछ खो जाने का। अब शानदार कर्म, ज्योतिर्मय कर्म, दुस्साहसी कर्म, निर्भीक कर्म सामने आता है। हमारे तो सारे कर्म डरे-डरे रहते हैं। हम जो भी करते हैं ये सोचकर करते हैं कि कहीं इससे हार न जाएँ। दस बार सोचना पड़ता है। हमारे कर्मों में कहाँ कोई निर्भीकता है! जब भी आप जीतने के लिए खेलोगे, आपका हर कदम डरा हुआ रहेगा। इसमें कैसी तरक़्क़ी? डरे-डरे, सहमे-सहमे क़दमों से कोई तरक़्क़ी होती है?
जब तुम जीतने के लिए नहीं खेलते तब तुम खुलकर खेलते हो, तब एक स्वभाविक लोच रहती है तुम्हारे खेलने में। तब मन हार की आशंका से दुबका हुआ नहीं रहता, सहमा नहीं रहता।
तब संसार की हर चाल पर तुम मुस्कुराते हो क्योंकि खेल में तो मुस्कुराया ही जा सकता है न? तब तुम ये नहीं कहते, 'बाप रे! विरोधी ने क्या चाल चली है! अब मेरा क्या होगा!' तुम कहते हो, 'खेल है, चालें चली जा रही हैं, चलने दो, इसमें जीतने को और हारने को और पाने को और खोने को क्या है?'
जो परम प्राप्य था, वो हमने पा ही लिया है। वो बैठा ही हुआ था हमारे भीतर। अब कौन विरोधी और कौन प्रतिद्वन्द्वी! बिगाड़ क्या लेंगे ये मेरा! सब लीला है। जो विरोधी भी है वो खेल का हिस्सा है, प्यारा है। विरोधी न हो तो खेल कैसे होगा! मित्र है मेरा। विरोधी के प्रति भी प्रेम ही है।
प्रतिद्वन्दी भी सहचर है। पूरा जगत इकठ्ठे एक क्रीड़ा में संलग्न है। इसमें किसी से कोई वैर या शत्रुता नहीं। कैसी होड़? कौन विरोधी? सब इकठ्ठे हैं तभी तो खेल हो पा रहा है। इनमें से आधों को अगर हटा दिया, तो कैसा खेल? जगत का अर्थ ही है द्वैत।
कुछ होगा और उसका विपरीत भी होना ज़रूरी है, यही तो लीला है। सफ़ेद बचेगा कहाँ अगर तुम काले को पूरी तरह से हटा दो? काला हट गया तो सफ़ेद भी बचेगा नहीं, खेल रुक जाएगा। तो एक तरफ़ तो सफ़ेद खड़ा होगा कि मैं काले के विपरीत हूँ, दूसरी तरफ़ साफ़-साफ़ वो ये एहसास भी रखेगा कि काले के बिना मैं हूँ नहीं।
पर ये एहसास तब होगा जब आप समझो कि द्वैत का कोई सिरा आपकी पहचान नहीं। कि आप मूल रूप से अद्वैत हो। न काले हो आप, न सफ़ेद हो आप; आप तो काले और सफ़ेद के मध्य जो क्रीड़ा चल रही है, वो क्रीड़ा हो। ये सुन्दरता है निष्काम कर्म की।
काला भी हूँ, सफ़ेद भी हूँ और उन दोनों के मध्य का खेल भी हूँ। न काला हूँ, न सफ़ेद हूँ। अगर काला हूँ तो भय रहेगा सफ़ेद से, जीवनभर भय में जिऊँगा और हम भय में ही जीते हैं। सफ़ेद हूँ तो काले से खौफ खाऊँगा। न ये हूँ, न वो हूँ और दोनों हूँ।
हम बड़ी विक्षिप्त दुनिया में रहते हैं। हम कहते हैं कि पहले बीमारी पालो फिर जीवनभर उस बीमारी का ग़लत इलाज़ करो और इसको हमनें तरक़्क़ी का नाम दिया है। पहले तो एक काल्पनिक बीमारी बच्चे के भीतर ठूँसो कि तू अधूरा है, तुझमें कमी है, तुझमें खोट है। और फिर उसको एक ग़लत इलाज बताओ।
पहले उसे बार-बार जताओ कि तू बीमार है और उसके बाद उसे ग़लत इलाज भी बता दो कि ये बीमारी दूर होगी। कैसे? हमारे बताये रास्ते पर चलकर। हमारा रास्ता है हासिल करो, तरक़्क़ी करो, उपाधियाँ इकठ्ठा करो, प्रतिष्ठा इकठ्ठा करो, अपने सम्पर्क बनाओ, जगत में पहचान बनाओ।
इस रास्ते पर चलोगे तो तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी। बीमारी भी झूठी, इलाज भी झूठा और इस बीमारी को और उसके झूठे इलाज को हम नाम देते हैं तरक़्क़ी का। और यही शिक्षा हम दिये जा रहे हैं अपने घरों में भी और अपने विद्यालयों में भी, मन्दिरों में भी।
आ रही है बात समझ में?
जल्दी से तरक़्क़ी की दौड़ में मत दौड़ पड़ना। करो, काम को होने दो, पर खेल की तरह। निग़ाह परिणाम पर न अटकी रहे कि इससे हासिल क्या होगा, मिलेगा क्या, कितना पैसा देते हो तुम मुझे, कितनी प्रतिष्ठा मिल जानी है ये काम करके, कितने लोगों की वाह-वाहियाँ मिलेंगी, पदोन्नति होगी कि नहीं होगी।
ऐसे कर्म नहीं किये जाते। ऐसे कर्म तो बीमारी के लक्षण हैं। बीमारी न पालो, न फैलाओ। यहाँ बैठे हो, शिक्षक हो तो कह रहा हूँ तुम से, बीमारी न पालो, न फैलाओ। न पालना ज़्यादा ज़रूरी है, क्योंकि यदि पाल रखी है तो फैलेगी। सबसे पहले आवश्यक है कि अभिभावक और शिक्षक इस बीमारी से मुक्त हों।
तरक़्क़ी नाम की इस विक्षिप्तता से मुक्त हो। आगे बढ़ना है, अपना मुकाम हासिल करना है, इन सब मुहावरों से बाज़ आयें। अभिभावक और शिक्षक। और यहाँ अभिभावक भी बैठे हैं और शिक्षक भी बैठे हैं और कुछ लोग तो शिक्षक, अभिभावक दोनों हैं। तो बार-बार और गहराई से और पूरे ध्यान से इस बात को समझ लें कि तरक़्क़ी जैसा हम उसे जानते हैं, मात्र विक्षिप्तता है, गहरा पागलपन है। और इसमें आपके लिए दुनिया के लिए कष्ट के अलावा कुछ नहीं है।
काम कीजिए पूरी मौज से, पूरी ऊर्जा से काम कीजिए, पर भीतर विश्राम बना रहे। बाहर काम, भीतर विश्राम। फिर काम यूँ रहेगा जैसे खेला, जैसे मौज।