बस कर जी || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर (2014)

Acharya Prashant

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बस कर जी || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर (2014)

बस कर जी, हुण बस कर जी,

काई गल असां नाल हस कर जी | टेक |

तुसीं दिल मेरे विच वसदे सी,

तद सानूं दूर क्यों दसदे सी,

घत जादू दिल नूं खसदे सी,

हुण आइओ मेरे वस कर जी |

तुसी मोइआं नूं मार ना मुकदे सी,

नित खिद्दो वांगूं कुटदे सी,

गल करदे सां गल घुटदे सी,

हुण तीर लगाईओ कस कर जी |

तुसीं छपदे हो, असां पकड़े हो,

असां विच्च जिगर दे जकड़े हो,

तुसीं अजे छपण नूं तकड़े हो,

हुण रहा पिंजर विच वस कर जी |

बुल्लाह शौह असीं तेरे बरदे हां,

तेरा मुख वेखण नूं मरदे हां,

बन्दी वांगूं मिनतां करदे हां,

हुण कित वल जासो नस कर जी |

वक्ता: मौज का एक अर्थ मस्ती है ये तो पता ही है, इसका जो दूसरा अर्थ प्रयोग होता है उस से बात खुल जाएगी।

‘लहर’ के लिए इस्तेमाल होता है मौज। बहुत बड़ा एक समुद्र है अथा समुद्र है, लेकिन वो दिखाई नहीं देता, दिखाई क्या देती है सिर्फ उसकी लहर। ध्यान दीजियेगा आपने कभी समुद्र नहीं देखा है, आपने सदा लहर देखी है। लहरों के होने से समुद्र का पता चलता है। क्या लहरविहीन समुद्र कभी देखा है? समुद्र तालाब तो नहीं है कि जहाँ लहरे न हों, जहाँ समुद्र है वहां लहरे होंगी, छोटी, बड़ी, किसी तरीके की लहर होगी ही होगी।

लहर समुद्र की अभिव्यक्ति है, समुद्र है अनंत तो लहर अनंत की अभिव्यक्ति है। लहर समुद्र की अभिव्यक्ति है, समुद्र है अनंत, तो लहर क्या हुई? अनंत की अभिव्यक्ति। अनंत अपने आप को दिखता है लहर के रूप में।

इसी तरीके से जब तुम भी अनंत से जुड़ जाते हो तो तुम्हारी हर अभिव्यक्ति मौज कहलाती है। दिल से जो आदमी पूरा महसूस कर रहा है, भरा-भरा, खूब मिला हुआ है, वो जो भी करता है उसको कहते हैं ‘मौज’। पूरेपन से किया गया कोई भी काम या अकाम, कि तुम चुप बैठे हो, वो भी मौज है।

मौज क्या है? कोई भी कर्म, अकर्म, विचार जो तुम्हारे अंतस से निकलता है, जो तुम्हारी बीमारी से नहीं निकल रहा है, जो तुम्हारे स्वस्थ होने से निकल रहा है उसको मौज कहते हैं। अधूरेपन से निकलेगा तो सउद्देश्य होगा, कि कुछ पाने के लिए कर रहा हूँ। पूरेपन से निकलेगा तो खेल होगा कि पाना कुछ नहीं है, खेल रहा हूँ। उसी खेलने को मौज कहते हैं। क्या कर रहे हो? कुछ कर ही नहीं रहे। क्योंकि करा तो पाने के लिए जाता है।

समुद्र कुछ पाने के लिए थोड़े ही लहराता है, वो तो है तो लहराता है।

कुछ कर रहे हो? क्यों करें भाई कुछ? कुछ कमी है जो कुछ करें? हम मौजा रहे हैं। हम कर नहीं रहे।

श्रोता १: हमने बात की थी कि हम ‘परम’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे पर ‘गुरु’ का इस्तेमाल करेंगे। क्या हम गुरु को जानते हैं? क्या हम ‘परम’ और ‘गुरु’ की जगह पर ‘मैं’ नहीं इस्तेमाल कर सकते?

वक्ता: तुम देखो, परम को अहम् से बड़े मज़े से बदल सकते हैं। ज्ञान मार्ग वही है जो तुम कह रहे हो, कि उसमें कुछ परम नहीं। अहम् ही परम है, और वह वैध बात है, उसमें कुछ गलत नहीं। बिल्कुल ठीक है। कुछ मायनों में वो बात ज्यादा सही है, कि ‘मैं ही हूँ’। बस उसके खतरों से बचके रहना, वरना वो बात ठीक है। खतरा समझ रहे हो ना उसमें क्या है? कि ‘मैं’ दो होते हैं, एक कब दूसरे का रूप धारण कर ले पता नहीं चलता। अहंकार कब दावा करना शुरू कर दे कि मैं ही तो परम हूँ।

श्रोता २: रमण महर्षि से किसी ने पूछा कि ‘आपने बताया था कि ईश्वर हमारे अन्दर है, तो मैं ही हूँ इश्वर’। तो रमण कहते हैं, ‘आप ही हैं, पर आप नहीं हैं’।

वक्ता: बढ़िया, पर वो भेद बहुत सूक्ष्म है।

श्रोता ३: इसमें ये भी लिखा है, ‘तद सानूं दूर क्यों दसदे सी’।

वक्ता: असल बात वही है, जब पता है कि वहां फिसलना हो सकता है तो थोड़ा सा…। पर याद रखना एक बात, अगर लगातार ये ‘तू-तू’ भी करते रहे तो भी गड़बड़ हो जानी है। आखिर में तो ‘मैं’ ही बोलना पड़ेगा। लेकिन ज़रा ये विवेक रहे कि कब तक ‘तू’ और कब ‘मैं’। यह आखिरी बात है, जब तुम ये कह सको कि ‘मैं’।

-बुल्ले शाह की काफ़ी की व्याख्या पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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