बस इनसे बचे रहो, सब ठीक रहेगा || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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बस इनसे बचे रहो, सब ठीक रहेगा || आचार्य प्रशांत (2020)

आचार्य प्रशांत: सृष्टिकाल में वो सबकुछ बनाता है, प्रलयकाल में सब समेट लेता है। मतलब क्या है इस बात से?

अरे बाबा, अहंकार क्या होता है? अहंकार कोई चीज़ थोड़े ही है, कटोरा थोड़े ही है। अहंकार माने क्या? अहंकार माने जो कुछ अहंकार माने बैठा है। तो किस धारणा को काटने के लिए कहा गया है?

श्रोतागण: मैंने बनाया, मैंने समेटा।

आचार्य: बहुत बढ़िया। कि मैंने बनाया, मैंने समेटा। बहुत एक छोटे दायरे के भीतर देखोगे तो निश्चित रूप से कह सकते हो कि तुमने बनाया, ठीक है? अब यह कपड़ा है, कह सकते हो मैंने बनाया, तुम्हें लग रहा है। लेकिन अगर तुम होशियार हो तो तुम थोड़ा पीछे आकर कहोगे, 'मुझे किसने कहा यह बनाना है?' पहली बात। ठीक है? बनाने वाले के छोर पर यह भाव कहाँ से आया कि यह बनाना है? और फिर बनायी गयी वस्तु में भी जब अंदर जाओगे — कपड़ा है, कपड़े के पीछे कपास, कपास के पीछे पौधा, पौधे के पीछे मिट्टी, फिर फँस जाओगे। कहोगे, ‘किसने बनाया है? झूठमूठ ही मुझे लग रहा है मैंने बनाया है।’

हाँ, कामचलाऊ तौर पर मैं ज़रूर कह सकता हूँ कि मैंने बनाया है यह कपड़ा और वो बात जगत के व्यवहार में मान्य भी है। आपका कपड़ा है, आपने बनाया, आपको इसे बेचकर पैसा भी मिल जाएगा। और वो बात बिलकुल कानूनी मानी जाएगी कि साहब कपड़ा आपने बनाया, आपने बेचा, पैसा आपका ही है। लेकिन अध्यात्म में ये बातें बच्चों की मानी जाती हैं क्योंकि इन बातों से कर्ताभाव प्रगाढ़ होता है। तुमको लगता है 'मैं कर रहा हूँ', जबकि तुमसे करवा रही हैं परिस्थितियाँ। तुमसे करवा रहा है वो भीतर वाला। नौकर अपनेआप को मालिक समझने लगे, इसी को कर्ताभाव कहते हैं। समझ में आ रही है बात?

कि तुमको भेज दिया है किसी ने, तुम जानते भी नहीं किसने तुमको भेज दिया है। तुम जानते भी नहीं वो कैसे तुम्हारा मालिक बन बैठा। उसने तुम्हें भेज दिया है कुछ करने के लिए, कुछ ख़रीदने के लिए और तुम कर रहे हो, ख़रीद रहो हो। और सोच रहे हो, 'ये सब तो मैं स्वेच्छा से कर रहा हूँ, ये सब तो मेरा है।' नहीं, तुम नहीं कर रहे, तुमसे कोई और करवा रहा है।

और जो करवा रहा है उसको परमात्मा नहीं बोलते। हम उसके नहीं नौकर हैं, हम किसी और के ग़ुलाम हैं। किसके? 'उसके'! परमात्मा को याद रखो-न-रखो, ‘उसको’ याद रखा करो, क्योंकि अगर ‘उसको’ नहीं याद रखा और परमात्मा को याद रखा तो वास्तव में तुमनें उसी को याद रख लिया है उसे परमात्मा का नाम देकर। कितनी ख़तरनाक बात है जब तुम अपनी माया को ही परमात्मा का नाम दे लेते हो और कहते हो, 'मैं तो बहुत भजता हूँ। मैं तो धार्मिक आदमी हूँ, मैं तो लगातार याद रखता हूँ अपने भगवान जी को।' माया ने किसका नाम पहन लिया? भगवान जी का। और तुम उसको भजे जा रहे हो, माला घुमा रहे हो।

"माया महाठगिनी हम जानी। पंडित की मूरत बन बैठी, तीर्थ में भई पानी।"

अरे भाई यह तो! पंडित सोच रहा है किसकी पूजा कर रहा है? भगवान जी की। और जानने वाले बता रहे हैं, 'बेटा, महा-महाठगिनी हम जानी। पंडित की मूरत बन बैठी।' वो जो मूर्ति है जिसकी पूजा कर रहा है पंडित, वो माया है। इसी तरीक़े से तीर्थ में यह जो पानी बह रहा है, तीर्थ-स्थलों पर नदी बह रही होती है न, तुम डुबकी मारने जाते हो? तुम सोच रहे हो तुम पानी में डुबकी मार रहे हो, वो वही है, माया है। अब क्या करें!

और उसने किसी को नहीं छोड़ा है। इसी में आगे कहते हैं कि वो ब्रह्मा के घर ब्रह्माणी बनकर बैठी है और शिव के घर भवानी बनकर बैठी है; वो किसी को नहीं छोड़ती। तुम सोच रहे हो कि तुम बहुत अच्छे काम कर रहे हो, वो तुम्हारे अच्छे कामों में बैठी हुई है। वो तुम्हारी धार्मिकता में बैठी हुई है, क्योंकि तुम्हारी धार्मिकता तुम्हारी है। कुछ आ रहा है बात समझ में?

मैं वो पूरी रचना पढ़ना चाहूँगा। यह स्मृति में पूरा याद नहीं रहता, दीजिए मुझे (स्वयंसेवक से कहते हैं)। मैं सबके लिए पढ़ना चाहूँगा, बहुत उचित मौक़ा है।

माया महाठगिनी हम जानी। तिरगुन फाँस लिये कर डोले, बोले मधुरे बानी। केसव के कमला बन बैठी, शिव के भवन भवानी। पंडा के मूरत बन बैठी, तीरथ में भई पानी। योगी के योगन वे बैठी, राजा के घर रानी। काहू के हीरा बन बैठी, काहू के कौड़ी कानी। भगतन की भगतिन बन बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी।। कहे कबीर सुनो भई साधो, यह सब अकथ कहानी।

~ कबीर साहिब

"माया महाठगिनी हम जानी। तिरगुन फाँस लिये कर डोले, बोले मधुरी बानी।" तिरगुन फाँस माने? तीन गुणों की फाँस लेकर। फाँस माने जिसमें फँसाया जाता है, एक तरह का जाल। तीन गुणों की फाँस लेकर वो पूरी दुनिया को फँसाये हुए है। बड़ी मीठी-मीठी उसकी वाणी है, "बोले मधुरी वाणी।" मधुर वाणी में बोलती है। वो ऐसे नहीं है कि आकर आपको डराएगी, वो लुभाती है। डराना उसका आख़िरी हथियार है। जो प्रलोभन में नहीं आते, उनको डराना पड़ता है। बाक़ियों को डराने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। जब प्यार-मोहब्बत से काम हो जा रहा हो तो डंडा क्या चलाना? वो भी प्यार-मोहब्बत से काम करती है, मीठे-मीठे।

"तिरगुन फाँस लिये कर डोले, बोले मधुरी बानी। केसव के कमला बन बैठी, शिव के भवन भवानी।" केशव के यहाँ, माने कृष्ण या विष्णु के यहाँ क्या बनकर बैठी है? कमला बनकर बैठी है, जो उनके साथ-साथ चल रही है। शिव के यहाँ क्या बनकर बैठ गयी है? भवानी बनकर बैठ गयी है। नहीं तो सत्य तो अद्वैत होता है, उसमें दो कहाँ से आ गये? यह दूसरा कहाँ से आ गया? दूसरा मतलब समझ रहे हैं न? कमला कहाँ से आ गयीं, भवानी कहाँ से आ गयीं? सच दो तो होते नहीं। और सच तो असंग होता है, उसके बगल में तो कोई हो सकता नहीं। तो यह दूसरा कहाँ से आ गया कोई?

"पंडा के मूरत बन बैठी, तीर्थ में भई पानी।" पंडा की मूर्ति बनकर बैठी है और तीर्थ में पानी बनकर बह रही है।

"योगी के योगन बन बैठी, राजा के घर रानी।" योगी ने योगन बैठा ली, राजा ने रानी बैठा ली। और रानी से मतलब यह नहीं है कि जो उसकी स्त्री, अर्धांगिनी; वो जो कुछ भी अपने मज़े, अपनी प्रसन्नता के लिए अपने से जोड़ लेता है। अब राजा के पास पूरा राज्य है, सारी सत्ता है फिर भी उसको एक व्यक्ति चाहिए अपने बगल में, एक स्त्री चाहिए अपने बगल में। कह रहा है, ‘इसके बिना बात नहीं बन रही है।‘ सबकुछ मिला हुआ है लेकिन फिर भी एक स्त्री चाहिए। और वो नहीं मिलेगी तो वो गाना गाएगा कि सबकुछ तो मिला हुआ है लेकिन फिर भी दिल में एक सुराख़ सा है। और ग़ज़लें और शेर बताएगा।

"काहू के हीरा बन बैठी, काहू के कौड़ी कानी।" जो अमीर है उसके घर हीरा बनकर बैठ गयी है। अमीर की अमीरी बनकर बैठ गयी है और जो ग़रीब है उसके घर कानी-कौड़ी बनकर बैठ गयी है। अमीर की अमीरी भी वही है और ग़रीब की ग़रीबी भी वही है। जिसके पास जो कुछ है वही माया है। अमीर के पास अमीरी है, माया है। ग़रीब के पास ग़रीबी है, वो भी माया है।

"भगतन की भगतिन बन बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी।" जो भक्त हैं, उनकी भक्ति क्या है? माया ही है। और ब्रह्मा की ब्रह्माणी क्या है? वो भी माया ही है।

"कहे कबीर सुनो भई साधो, यह सब अकथ कहानी।" 'अरे साधो, यह कहानी ऐसी है कि कहना मुश्किल है और सुनना मुश्किल है।' इसीलिए तो बस साधुओं से कही जा रही है। यह ‘सुनो भई साधो’ ऐसे ही नहीं है, यह इसलिए है क्योंकि यह जो बात है, इतनी दुर्गम है, इतनी अलभ्य है कि नहीं समझ में आनी सबको। साधुओं की भी समझ में आ जाए तो बहुत बड़ी बात है। समझने का मतलब यह नहीं होता कि ज्ञान हो गया। समझने का मतलब होता है कि जीवन में उतर गयी बात; नहीं उतरनी, नहीं उतरनी।

कोई वजह है कि कबीर साहब के प्रति इतनी निष्ठा, इतना प्रेम रखता हूँ मैं। मैं समझता हूँ उपनिषदों ने जो बात बिलकुल सैद्धान्तिक और गणितीय तरीक़े से कही है, उसको मिट्टी की आवाज़ में जैसा कबीर साहब ने बोला है किसी और ने नहीं। उपनिषदों ने हमारे सामने सूत्र रख दिये हैं। कबीर साहब ने उन सूत्रों को गीतों में पिरो कर जीवित कर दिया है। और जब सूत्र गीत बन जाता है तो ज़्यादा बोधगम्य हो जाता है। नहीं तो सूत्र, सूत्र रह जाता है। वही बात यहाँ श्लोकों के माध्यम से आ रही है। देखिए, यहाँ पर जब आपके सामने गीत के रूप में आ गयी, एकदम ज़मीनी भाषा में आ गयी तो अचानक कैसे खुल गयी, खिल गयी, निखर गयी।

जो स्तर, जो स्थान, जो रुतबा कहने वाले का हो न, वही गाने वाले का भी होना चाहिए। तो अभी बहुत सारा पॉप-संगीत आ गया है जिसमें कभी कबीर साहब को ले लेते हैं, कभी बुल्लेशाह को ले लेते हैं, कभी शेख़ फ़रीद को ले लेते हैं। गुरु तेग बहादुर की भी रचना को लेकर के कुछ बना देंगे। उसको तोड़-मरोड़कर भी गा देंगे, उसमें बीट्स वगैरह डाल देते हैं तो वो कानों को अच्छा लगने लगता है। उससे बहुत-बहुत बचकर रहिएगा, बहुत सावधान। मैंने कहा, जो कहने वाले का स्तर है, गाने वाले के समझ का स्तर भी वैसा ही होना चाहिए। अगर कोई यूँही उठकर के कबीर साहब को गाने लग जाए तो उससे बचकर रहिएगा। अगर एक जाग्रत समाज होता तो ऐसे लोगों को प्रतिबंधित किया जाता कि आपके चार गाने हैं, एक गाना है कि मैं दारू पीकर नाच रही थी तो फिर मैंने क्या किया, एक गाना है कि मैंने पहले मर्सडीज़ ख़रीदी थी अब मुझे बीएमडब्ल्यू दिला दो सजना। और फिर अगला गाना किस पर है? बुल्लेशाह पर। यह बहुत बड़ा अपराध है और यह अपराध खुलेआम हो रहा है। आप कम-से-कम इस अपराध में सम्मिलित मत होइएगा। ये जितने भी पॉप-सिंगर्स हैं ये जब हाथ रखें संतों पर तो तुरन्त दूर हो जाइएगा। इसीलिए कुमार गंधर्व साहब का आपको मैंने परिचय दिया, इनको सुनिएगा।

पता नहीं कौनसा गीत है, उसमें आता है बीच में, ‘ओ कबीरा मान जा, ओ फ़कीरा मान जा।’ और अपनी ओर से आन्तरिक तौर पर मैं अभ्यास करता हूँ कम प्रतिक्रिया करने का। जब भी ये कानों में पड़ता है, भीतर से ज्वाला सी उठती है कि यह कौन बदतमीज़ आदमी है जिसने लिख दिया, जिसने गा दिया और कौन फ़ूहड़ है जो उसको बजा भी रहा है। याद आ गया होगा?

हिम्मत, हैसियत कैसे हो गयी, ‘ओ कबीरा मान जा, ओ फ़कीरा मान जा‘? तुम जो गा रहे हो उसका कबीर साहब से रिश्ता क्या है? कुछ नहीं। जो तुम्हारे बोल हैं, उनमें न स्पष्टता है न गहराई है, उनमें माया-ही-माया भारी हुई है। और उसमें साथ में तुमने कबीरा-फ़कीरा लगा दिया!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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