वक्ता: सवाल है कि कैसे, यह जो स्थिति है जिसमें पीड़ा है, जिसमें बंधन है, जिसमें हम बस अर्द्ध-चैतन्य हैं, इससे आगे बढ़ें?
मुक्ति कैसे संभव है? मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक तुमने जाना नहीं कि तुम मुक्त नहीं हो। मुक्ति की दिशा में सबसे पहला कदम होता है यह देखना कि ‘मैं बंधक हूँ, गुलाम हूँ’। जब तक तुमने अपने बन्धनों को ही ठीक-ठीक देखा नहीं, मन ने ठीक समझा नहीं कि ये रहे बंधन, तब तक मुक्ति संभव नहीं है। हमने अपने बन्धनों को बड़े प्यारे-प्यारे नाम दे दिए हैं। हम अपने बन्धनों को बंधन जानते ही नहीं। हमने बन्धनों को नाम दे दी है रिश्तों के, नातों के, कर्तव्यों के, मोह के। यह ठीक वैसा ही है कि जैसे तुम्हें हथकड़ी लगा दी जाए और कहा जाए कि यह बहुत प्यारे कंगन हैं, इन्हें पहने ही रहना। अब तुम कभी मुक्त हो ही नहीं पाओगी क्योंकि तुम्हारे मन में यह बात बैठा दी गई है कि यह कंगन है, ये चूड़ियाँ हैं, यह मेरी सुन्दरता की निशानी हैं। जिस कैदी को यह बता दिया जाए कि यह जेल नहीं है, यह तुम्हारा अपना व्यक्तिगत महल है और यही बात भर दी जाए उसके मन में कि यहीं पर रहना सबसे बेहतर है तुम्हारे लिए, तो अब वो मुक्त नहीं हो पाएगा।
कुछ सौ साल पहले की घटना है। फ्रांस में क्रांति हुई। क्रांतिकारिओं ने सभी को तानाशाही से आज़ाद करने का संकल्प पूरा किया। एक दिन कुछ क्रांतिकारी एक जेल में पहुंचे। उन्होंने कहा कि इन कैदियों को भी हम आजाद कर देंगे क्योंकि इन को भी इस शोषक सरकार ने बंदी बना रखा है। कोई जरुरी नहीं है कि यह सारे अपराधी ही हों, इन्हें जबरदस्ती कैदी बनाया गया होगा। इन्हें भी मुक्ति मिलनी चाहिए। क्रांतिकारी लोग थे, जज़्बा था। तो जेल की दीवारें तोड़ कर अन्दर गए, जितने भी कैदी थे उनसे कहा कि जेल से बाहर जाओ, आजाद हो। जितने नए कैदी थे, वो तो भाग लिए क्योंकि जेल से मुक्ति मिल रही थी। लेकिन जितने पुराने थे, कोई दस साल से कैद में है, कोई पंद्रह, कोई बीस कोई, कोई तीस साल से, उन्होंने कहा, ‘हम कहाँ जाएँ? हम कहीं जा ही नहीं सकते, हमने सीख लिया है यहाँ रहना। हमें पसंद आ गई यह जगह, हम मुक्त नहीं होना चाहते। हमें मुक्त करो ही मत, हमें बहुत अच्छा लगता है यहाँ पर’।
क्रांतिकारिओं ने कहा कि हम सबको मुक्त होना ही चाहिए। उन्होंने जबरदस्ती उनकी बेड़ियाँ काट दीं और कहा कि निकलो यहाँ से। किसी तरीके से उन्हें वहाँ से निकाला गया। रात को जाकर देखा तो पाया कि जितने भी पुराने कैदी थे जिन्हें उन्होंने निकाला था, वो सब फिर आकर अपने-अपने कमरों में चले गए और अन्दर ही नहीं चले गए, वो जो भारी-भारी जंजीरें हैं, फिर से पहन ली हैं। हँसना मत! यह हम सब की कहानी है। क्रांतिकारी अन्दर गए और उनसे पूछा, ‘तुम विक्षिप्त हो? तुम कैसे हो?’ उन्होंने कहा, ‘आदत लग गई है हाथो को इन बेड़ियों की, यही हमारा तकिया हैं, पैर पर बेड़ियाँ ना हों, तो ऐसा लगता ही नहीं कि चल रहे हैं। ऐसा लगता है की गुरुत्वाकर्षण ही नहीं है, वजन नहीं है। यह हम सबकी कहानी है। बीस साल की गुलामी बड़ी गहरी आदतें डाल देती है। उसके बाद कोई तुम्हें मुक्ति सन्देश भी दे, तो वो तुम्हें दुश्मन समान लगेगा। तुम कहोगे कि हमें अदात लग गई है ऐसे ही रहने की। हम संस्कारित हो चुके हैं।
मुक्ति की दिशा में पहला कदम है यह जानना कि यह बेड़ियाँ हैं, आर तुमने उन्हें बड़े प्यारे, मोहक नाम दे रखे हैं। उनके साथ कोमल भावनाएँ जोड़ दी हैं। अब कैसे होगी मुक्ति? किसी को गुलाम रखने का बड़ा आसान तरीका है कि उसको यह विश्वास दिला दिया जाए कि तू मुक्त है। अब क्यों करेगा मुक्ति की कोशिश? तुमने तो उसे विश्वास दिल दिया है कि तू मुक्त है। या उसे यह विश्वास दिला दिया जाए कि बंधन में बड़ा सुख है, उसे यह विश्वास दिला दो कि जीवन बन्धनों का ही नाम है, और बन्धनों में बड़ा सुख है। उन बन्धनों को नाम दे दो: धर्म का, परिवार की सेवा का, देश की सेवा का। और जो जितना बड़ा बंधक हो, उसे फूल माला भी पहना दो।
अब तो उसके लिए मुश्किल हो जाएगा मुक्त होना। जो औरतें सती होती थीं, उनके लिए मंदिर बनवा दिये जाते थे। मंदिरों को देख कर और दस तैयार हो जाती थीं सती होने के लिए ‘वैसे तो हमारा जीवन व्यर्थ ही है और हमने किया क्या है जीवन में चूल्हे-चौके के अलावा, पर कम से कम यही कर लूँ, तो मंदिर बन जाएगा मेरे नाम का’।
बात समझ में आ रही है? मैं बस इशारा कर रहा हूँ। मैंने बस लकीर खींची है, उसके भीतर रंग तुम्हें ही भरने हैं। आँख खोल कर के देखो कि जीवन वास्तव में है क्या। तुम्हारे संबंधो का आधार क्या है। याद रखना प्रेम मुक्ति देता है। अगर तुम्हारे संबंधो में प्रेम नहीं है तो देख लेना मामला कुछ और ही है। क्या खिचड़ी पक रही है इसे ध्यान से देखो। प्रेम मुक्ति देता है।
-‘संवाद’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं |