प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न बंधन से है। आचार्य जी, उपनिषद् हमें अपने बंधनों को काटने के लिए बार-बार कहते हैं। निरालम्ब उपनिषद् में हमें कई तरीक़े से बताया गया कि हमारे बंधन क्या हैं। मैं कौन हूँ, मैं कर्ता हूँ, ममत्व भाव हमारा, मनोकामनाओं की पूर्ति, संकल्प का होना, यज्ञ, तप, दान, विधि-विधान वग़ैरा, मोक्ष की प्राप्ति सबकुछ हमें बताया गया कि ये बंधन ही हैं।
तो आचार्य जी जब अपने जीवन को देखती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं जो भी कर्म कर रही हूँ या फिर जितने भी रिश्ते जो मैं निभा रही हूँ, जितने त्योहार हम मनाते हैं, धर्म के नाम पर जितने हम कर्मकांड करते हैं, नौकरी और पैसे की जो महत्वकांक्षा है हममें; तो ये सब फिर बंधन ही दिखते हैं। तो फिर ऐसा दिखता है कि हम पूरे तरीक़े से तो बंधन में ही हैं। और मैंने ख़ुद इन बंधनों को ज़ोर से पकड़ रखा है अपने पूरे जीवन में। तो जब उपनिषद् हमें छोड़ने की बात कहते हैं तो फिर शेष क्या बचता है?
आचार्य प्रशांत: ये नहीं पूछते हैं कि शेष क्या बचता है। पूछते हैं शेष किसको चाहिए। कौन कह रहा है कि शेष बचे? किसके लिए शेष बचे?
जब आप कह रही हैं कि जीवन में ये चीज़ है, ये बंधन है, ये बंधन, ये बंधन, ये बंधन कुल-मिलाकर जीवन में जो कुछ भी है सब बंधन जैसा। फिर कह रही हैं अगर ये सबकुछ अगर बंधन ही है और हम हटा ही दें जैसा उपनिषद् बोल रहे हैं तो बचेगा क्या। ये प्रश्न किसको चिंतित कर रहा है कि क्या बचेगा? कौन है जो चाहता है कि कुछ बचे? जो चाहता है कि कुछ बचे उसी ने तो बचने-बचाने के खेल में इतने बंधन इकट्ठे कर लिए।
मैं छोटू हूँ, मैं एक बच्चा हूँ। मैंने ये इकट्ठा कर लिया अपने जीवन में (तौलिया दिखाते हुए)। मैंने ये इकट्ठा कर लिया। ये, ये इकट्ठा कर लिए सब खेलने की चीज़ें हैं, ये सब मैंने इकट्ठा कर लिया। (मेज़ पर रखी कुछ चीज़ों को इकट्ठा करते हैं) कंघा रखा हुआ यहाँ पर, कंघा यहाँ इकट्ठा कर लिया मैंने। और ये रखा हुआ है यहाँ पर कुछ प्लास्टिक का ये भी इकट्ठा कर लिया मैंने।
आप मेरे सामने सब हटाना शुरू कर दीजिए। कौन बोलेगा कि अरे! क्या बचेगा, क्या बचेगा, क्या बचेगा; ये कौन बोलेगा?
प्र: छोटू।
आचार्य: कौन है छोटू? जिसने सब इकट्ठा करा था। जिसने इकट्ठा करा होता है उसी को बड़ी चिंता सताती है कि ये सब चला गया तो बचेगा क्या। यहाँ आप ग़लती ये मानने में कर रही हैं कि जिसने इकट्ठा करा है वो बच जाएगा चिंता करने के लिए जब सबकुछ चला जाएगा उसके बाद भी।
यही वेदान्त की मौलिक देन है जो हम पकड़ नहीं पाते। हम ऑब्जेक्टिविटी में, वस्तुनिष्ठता में विश्वास रखते हैं। हमें लगता है चीज़ें हैं। वेदान्त में विषयों को विषयेता की छायाभर माना गया है, माना नहीं गया है जाना गया है। आपने ये चीज़ें इसलिए इकट्ठा करी क्योंकि आप छोटू हैं तो ये सब जो चीज़ें हैं ये छोटू की छाया हैं। ये छोटू की छाया हैं। तो ये जब हटाने की बारी आती है तो हटाने से पहले ही छोटू कलपने लग जाता है कि मेरा क्या होगा!
तुम हो कौन? तुम वही हो जिसका सम्बन्ध इन चीज़ों से है। ये चीज़ें नहीं रहेंगी तो तुम भी तो वो नहीं रहे जिसको बड़ी चिंता होगी इन चीज़ों की। पर हम क्या करते हैं हटाने से पहले ही चिंता कर लेते हैं और चिंता का उपयोग ये होता है कि हम कुछ हटाते नहीं फिर। वो चिंता है ही इसीलिए ताकि आप कुछ हटाओ नहीं।
ये ऐसी सी बात है, समझिए, ये बढ़िया उदाहरण मिल गया मुझे बैठे-बैठे। जैसे बहुत ठंड का मौसम हो, बहुत ठंड का मौसम हो और आपने भारी ऊनी कपड़े पहन रखे हों। ठंड का मौसम है, बाहर बर्फ़ है। शून्य से तीस डिग्री नीचे तापमान है। भारी आपने ऊनी कपड़े पहन रखे हैं और आपसे कहा जाए, ‘उतार दो ठंड नहीं लगेगी।’ आप कहो, ‘उतार दूँ तो ठंड लगेगी ही लगेगी।’ लेकिन इन कपड़ों में एक विशेष बात है, एक बहुत सेंट्रल हीटिंग बल्कि कहिए कि यूनिवर्सल हीटिंग का जो रिमोट है वो इन कपड़ों में ही लगा हुआ है। इस तरह लगा हुआ है कि जैसे ही कपड़े उतारोगे हीटिंग चालू हो जाएगी।
आप डर रहे हो क्योंकि अभी ठंड है बाहर। आप कह रहे हो, ‘ठंड है बाहर तो मैं कपड़े कैसे उतार दूँ।’ बाहर ठंड है ही इसीलिए क्योंकि आपने कपड़े पहन रखे हैं, ये वेदान्त की बात है। आप वो भारी कपड़े जो अनावश्यक रूप से आपने पहन रखे हैं, आप उतारिए, बाहर ठंड बचेगी ही नहीं। एक को बदलने से दूसरा स्वयमेव बदल जाता है।
ये हमें नहीं समझ में आता। हमें लगता है कि बाहर की दुनिया अलग है, भीतर की दुनिया अलग है। हमें लगता है बाहर की दुनिया अलग है, बाहर एक ऑब्जेक्टिव ट्रुथ (वस्तुनिष्ठ सत्य) है और भीतर की दुनिया अलग है।
वेदान्त आपको समझाता है तुम दुनिया बदलो तो सही, तुम भीतर से ही बदल जाओगे। लेकिन दुनिया बदलने से पहले ही तुम अगर ये आग्रह, चिंता करने लग गये कि अरे! अगर मैंने फ़लानी चीज़ छोड़ दी तो मेरा क्या होगा, तो भूलो नहीं कि तुम्हारा अहंकार उस चिंता का बड़ा कुटिल उपयोग कर रहा है। क्या उपयोग कर रहा है? उसको बचाये रखने के लिए, बचाये रखने के लिए।
आप आज वही हैं जो आज से दस वर्ष पूर्व थीं? या जो आज से पंद्रह-बीस वर्ष पूर्व थीं? हर पाँच साल में बदलती रही हैं, इतना तो अनुभव होगा। जब हर पाँच साल में बदलती रही हैं तो आगे के पाँच साल में क्यों नहीं बदल जाएँगी! पर आपकी चिंताएँ इस मान्यता पर आधारित हैं कि पाँच साल बाद भी मैं रहूँगी तो वही जो मैं आज चिंता करने वाली हूँ।
आप पाँच साल की थीं तो आपको किस-किस चीज़ की चिंता होती थी? आपके पास कोई खिलौना गाड़ी रही होगी, आपको बड़ी चिंता होती होगी, इसका एक टायर है इतना बड़ा, कहीं घिस न जाए। वो गाड़ी कहाँ है? मुझे दिखाइए। आपके पास कोई गुड़िया रही होगी, उसका कोई कपड़ा फट रहा होगा, आपको बड़ी चिंता होती होगी कि भी नयी लानी होगी तो कहाँ से होगा। वो चिंताएँ कहाँ गयीं? वो चिंताएँ, बताइए, कहाँ हैं अभी?
तो आपको क्यों लगता है कि जो आपकी आज की चिंताएँ हैं वो पाँच साल बाद कुछ अर्थ रखेंगी? पर आप अध्यात्म में आगे न बढ़ने के लिए अपनी चिंताओं का सहारा लेते हैं। मैं कोई अभियोग वग़ैरा नहीं लगा रहा। मैं साधारण जो वृत्ति के अवगुण होते हैं उनकी चर्चा कर रहा हूँ।
भाई, मुझे कोई चीज़ आज बहुत पसंद है। मुझे तय करके बताओ, पाँच साल बाद पसंद होगी? होगी? लेकिन तुम आज ही उस चीज़ की पाँच वर्ष की आपूर्ति सुनिश्चित कर लेना चाहते हो।
तुम्हें कुछ बहुत पसंद है। कोई चीज़ बता दो जो तुम्हें बहुत पसंद है। कुछ बताओ। तुम्हें कुछ खाना बहुत पसंद है। तुम्हें कुछ खाना बहुत पसंद है, ठीक? और तुम्हारे पास कुछ पैसा है, तुमसे कहा जा रहा है वो पैसा ज़रा सही जगह पर लगा दो।
त्याग का यही अर्थ होता है — जो चीज़ जहाँ लगनी चाहिए वहाँ लगाना, इसको त्याग कहते हैं। त्याग माने फेंक देना नहीं होता। तुम्हारे पास पैसा है, उसको तुमने सही जगह पर लगा दिया, इसको कहते हैं त्याग।
लेकिन तुम्हें वो चीज़ बहुत पसंद है। क्या चीज़ बोली थी अभी? खाने में क्या, कुछ बोलो तो?
बिरयानी तुम्हें बहुत पसंद है — वेज बिरयानी, वीगन (शुद्ध शाकाहार) बिरयानी, सोया वाली। तो तुमको वीगन बिरयानी बहुत पसंद है आज और तुम्हारे पास पैसा है। वो पैसा तुम किसी बहुत अच्छी जगह लगा सकते हो, पर तुम वो पैसा पकड़कर बैठे हुए हो, क्यों? 'बिरयानी कैसे खाऊँगा!' पाँच साल की बिरयानी की पूरी सप्लाई (आपूर्ति) में जितना पैसा लगेगा, वो तुम आज ही पकड़कर बैठ गये हो। आज ही पकड़कर बैठ गये हो।
और दाम कैसे चुका रहे हो तुम? सही काम न करके। वो पैसा जो सही जगह लग सकता था वहाँ तुम नहीं लगा रहे। चलो, तुमने बड़ा अच्छा गणित लगाया, बस इसमें मुझे एक बात बता दो छोटी सी — तुम्हें कैसे पता कि तुम्हें आज से तीन साल बाद, पाँच साल बाद भी ये बिरयानी पसंद होगी? तुम्हें कैसे पता?
और ये मैं नहीं तुम पर आग्रह कर रहा, तुम मुझे बता दो तुम्हें दस साल पहले भी ये पसंद थी क्या? दस साल पहले तुम्हें मैगी नूडल्स पसंद थी। उससे दस साल पहले तुम्हें चंपू चॉकलेट पसंद थी। वो सब कहाँ गये? तो आज की अपनी पसंद को लेकर इतनी गंभीरता क्यों? आज की अपनी पसंद को भविष्य पर क्यों आरोपित, प्रक्षेपित कर रहे हो और चिंता में गड़े जा रहे हो?
'अरे! फ़लानी चीज़ अगर नहीं हुई तो दो साल बाद मेरा क्या होगा!' पगले, दो साल बाद तुम वो व्यक्ति रहोगे ही नहीं जिसे आज वो चिंता हो रही है। आज की चिंता आज की है। दो साल बाद की चिंता कुछ और होगी। आज की चिंता को लेकर के दो साल बाद का मनन करना और निर्धारण कर लेना बचकानी बात है न।
अहंकार की यही बात है, देखिए, लगातार बदलता रहता है लेकिन अपनेआप को जताये रहता है कि मैं तो शाश्वत हूँ। एक बार मुड़कर के अपने अतीत की ओर भी नहीं देखता कि लगातार तो बेटा बदलते रहे हो। इतना कैसे तुम्हें भरोसा है कि कल वही रहोगे जो आज हो?
लेकिन हमें पूरा भरोसा होता है क्योंकि जो बदल गया उसको तो झूठ कहते हैं। अहंकार अगर मान ही ले कि लगातार बदलता रहता है तो अनित्य कहला जाएगा न। अनित्य कहा गया तो फिर मिथ्या है, मिथ्या है तो फिर त्यागा जा सकता है। तो वो अपनेआप को यही बोलता है, 'मैं थोड़ी बदलूँगा!'
सामने वाले को भरोसा देता है, 'जानेमन हम बदलेंगे नहीं सत्तर साल तक।' दूसरे को ही नहीं भरोसा देता, अपनेआप को भी भरोसा दिला देता है कि जानेमन भी सत्तर साल तक नहीं बदलेगा, सामने वाला भी नहीं बदलेगा।
बेटा, बदलना तुमको भी है, बदलना उसको भी है; तुम क्यों उसको वादा दे रहे हो, क्यों ले रहे हो वादा? और अच्छी तरह जानते हो कि जो पिछले वाला था या पिछले वाली थी उसके साथ तुम चार साल भी चल नहीं पाये। ख़ूब जानते हो कितनी जल्दी बदले थे। लेकिन अगले वाले के साथ पूरा भरोसा है कि नहीं बदलोगे।
'शेष क्या बचेगा?' किसके लिए शेष बचना है? किसको चिंता है कि कुछ शेष बचे? आपको कैसे भरोसा है कि आप वो नहीं हो जाएँगे जो कुछ शेष बचाना ही नहीं चाहता या अगर कुछ वो बचाना भी चाहता है तो उसमें वो वस्तुएँ, व्यक्ति, इकाइयाँ सम्मिलित नहीं हैं जो आज आपके जीवन को भरे हुए हैं?
हमने मान लिया कि आप आग्रह करें कि देखिए, हम कैसे भी हो जाएँ लेकिन पूर्ण रिक्तता तो जीवन में कभी भी अच्छी नहीं लगेगी, जीवन में कुछ-न-कुछ तो होना चाहिए। चलो, मान लिया कुछ-न-कुछ होना चाहिए। पर वो जो कुछ-न-कुछ होगा वो वही होगा जो आज है, ये आपने कैसे तय किया? कैसे तय किया?
समझ रहे हैं? हाँ, कहिए।
प्र: आगे बढ़ने के लिए, आचार्य जी, बंधनों को काटते चलते जाना — ऐसा समझ में आता है कि बंधनों को साथ लेकर तो आगे कैसे चला जाए?
आचार्य: आप ये बात इतनी उदासी के साथ क्यों बोल रही हैं? हम बंधन काटने की बात कर रहे हैं, हाथ-पाँव काटने की बात थोड़ी कर रहे हैं! बंधन काटने से तो सबको ख़ुशी होती है, हाथ-पाँव भी आज़ाद अनुभव करते हैं। तो उसमें इतनी तकलीफ़ की क्या बात है?
या तो फिर हम बंधन को अभी बंधन जानते नहीं हैं; नहीं तो बंधन काटना तो मन को उल्लासित कर जाए, ऐसी बात होती है। कोई बोले, 'बंधन काट दिया,' वो ऐसी सी बात है कि मैं कमरे में बंद हूँ, चाबी नहीं मिल रही है और कोई बोले, ‘चाबी मिल गयी।’ ये हुई बंधन काटने वाली बात। तो वो बात तो मुस्कान के साथ आनी चाहिए न।
प्र: जो मेरा संदेह है, मैं ये जानना चाह रही थी कि अगर मैं बंधन काटते हुए आगे चलती जाऊँ, बढ़ती जाऊँ, तो मुझमें ये स्पष्टता नहीं है कि करूँगी क्या।
आचार्य: ऐसे नहीं होता। आप ग़लत तरीक़े से खेल रहे हैं। ये ऐसी सी बात है कि आप बैडमिंटन खेलने जा रहे हैं और आप चिड़िया से बल्ले को मार रहे हैं। आप कुछ नहीं करेंगी। आप अभी जो करती हैं, वो आपसे वो सब सामग्री कराती है जो आपने पकड़ रखी है। आप अभी कुछ नहीं करती हैं। फिर जो आप वाक़ई हैं वो कुछ करने लगेगा। अभी हम करते नहीं है।
ये ऐसी सी बात है कि कोई क़ैदी पूछे कि एक बार मुझे जेल से आज़ादी मिल गयी, जेल का बंधन छूट गया, तो फिर मैं करूँगी क्या। अभी तो मैं बहुत कुछ करती हूँ। सुबह पत्थर तोड़ती हूँ, दोपहर में चार-पाँच सौ लोगों के लिए खाना बनाती हूँ, शाम को बोरे सिलती हूँ। रात में फिर सब इधर-उधर की सफ़ाई-वफ़ाई करती हूँ। इतना कुछ है अभी करने को! बंधन टूट गये, आज़ादी मिल गयी जेल से, तो फिर करूँगी क्या!
अभी आप कुछ नहीं करते, अभी आप जो कर रहे हैं वो आपसे करवाया जा रहा है। और वो सबकुछ जो बाहर का है और जो भीतर का है, जो आपसे करवा रहा है, वो आप नहीं हैं। वो आप नहीं हैं।
क़ैदी के भीतर कोई है जो ऐसा है कि उसे क़ैद में रख रहा है, ठीक! क़ैदी यूँही तो क़ैद में नहीं आ जाता न। उसके भीतर कोई गुनहगार मौजूद होता है इसलिए वो क़ैद में आता है। और क़ैदी के बाहर दीवारें हैं जो उसे क़ैद में रख रही हैं। क़ैद में सदा बाहर और भीतर कुछ ऐसा होता है जो आपको क़ैद में रख रहा है। और जो बाहर का है और जो भीतर का है, वही दोनों मिलकर के आपसे ज़िंदगीभर बहुत श्रम करवाते हैं। वो श्रम आप नहीं कर रहे, वो श्रम आपसे करवाया जा रहा है।
कृष्ण कहते हैं गीता में कि कर्तव्य सज़ा है नासमझी की। नासमझ लोगों पर कर्तव्य डाला जाता है, वो एक सज़ा की तरह होता है।
किस चीज़ की सज़ा? कि जो भीतर बैठा है तुम्हारे जो तुम्हें क़ैदी रख रहा है और जो बाहर तुम्हारी दीवारें हैं तुम दोनों का यथार्थ नहीं जान पा रहे। बाहर की दीवारों को तुम समझते हो कि ये तो मेरी सुरक्षा के लिए खड़ी हैं और भीतर तुम्हारे जो बैठा है जो तुम्हें क़ैद में रख रहा है उसको तुम समझते हो कि वो तुम हो, 'मैं हूँ!' इस नासमझी के कारण फिर आपके ऊपर कर्तव्य डाला जाता है। इन कर्तव्यों को आप अपना काम समझते हैं, 'हम करते हैं!' आप करते नहीं हैं, आपसे करवाया जाता है।
और फिर जब ये संभावना प्रकट होती है कि आप इन कर्तव्यों से मुक्त हो जाएँगी तो आपको बड़ी चिंता उठती है, 'फिर करेंगे क्या! फिर करेंगे क्या! जेल से बाहर आ गये तो करेंगे क्या?' अब ये हम नहीं जानते कि आप क्या करेंगी, हम इतना जानते हैं पत्थर नहीं तोड़ेंगी। बाक़ी जो करना हो आप जानो। हम कौन होते हैं आपके जीवन पर कुछ दबाव डालने वाले।
और ये बात हमसे सहन नहीं होती। इतने दिनों तक क़ैदी रहे हैं कि स्वच्छंदता, मुक्तता, इससे रिश्ता ही टूट गया है। कोई चाहिए जो बता दे कि करना क्या है और डंडे के दम पर बताये क्या करना है। बड़ी घबराहट होती है।
फ्रांसीसी क्रांति हुई थी, उसका तो सुना ही होगा! मैं ही कई बार बता चुका हूँ। और ये उपन्यास का नाम क्यों नहीं याद आ रहा (उपन्यास का नाम याद करने की कोशिश करते हैं)। 'द हंचबैक ऑफ नोट्रे डेम' , शायद यहीं से है, देख लीजिएगा, निश्चित नहीं है।
तो फ्रांसीसी क्रांति हुई है उसमें क्रांतिकारी लोग गये, वहाँ पर जेल-वेल भी उन्होंने उड़ा दी। बोले, ‘ये सब जो यातना गृह में रखे गये हैं, इनको भी बाहर आने दो, सबको आज़ादी मिलनी चाहिए।’
तो उनमें जो दस-दस, बीस-बीस साल से घुसे हुए थे, उन्हें बड़ी तकलीफ़ हो गयी। बोले, 'क्या कर रहे हो? ये घर है हमारा, दीवारें गिरा दी तुमने!'
अब क्रांतिकारी जवान लोग बोले, 'ऐसे नहीं चलेगा।' अंदर जो बैठे हैं वो सब चालीस-पचास के हो रहे हैं, एकदम, क़तई मस्त हो चुके हैं अंदर एकदम। तो उनको खींच-खांचकर किसी तरह बाहर निकाला गया — बाहर निकलो, यहाँ नहीं रहना है। वो कह रहे हैं, 'अरे! हमें माफ़ करो।'
उनको बाहर निकाला गया, छोड़ दिया गया। वो सब दो-चार दिन के अंदर वापस जेल में घुस गये। पूरी कोशिश की जा रही है बाहर घूमें, वो दौड़-दौड़कर, कूद-कूदकर, दीवारें फाँद-फाँदकर जेल के अंदर जा रहे हैं।
क्या पूछ रहे हैं — जेल नहीं रही तो हम करेंगे क्या?
इसी सवाल का जवाब नहीं मिल रहा। वो बेचारे परेशान, 'हम करेंगे क्या? यहाँ सबकुछ तय था। इतने बजे उठना होता है, फिर परेड होती है, फिर नाश्ता मिल जाता है, फिर पत्थर तोड़ने होते हैं। सबकुछ तय था। बाहर छोड़ दिया हमें, हम बाहर करेंगे क्या!’
आप एक अर्थ में बिलकुल सही कह रही हैं, करने वाला फिर कोई और हो जाता है।
ग़ुलामी जो काम करती है, वो बहुत भिन्न होता है उससे जो काम आज़ादी करती है। करने वाला ही कोई और हो जाता है। लेकिन इसका अर्थ ये नहीं है कि करना बंद हो जाएगा। आप चाहें न चाहें, करेंगे तो आप उम्रभर। बस करने का केंद्र ज़रा अच्छा रहे, आज़ाद रहे, तो छोटा सा जीवन है, मौज में बीतता है। नहीं तो यही जीवन नरक सा हो जाता है।
और इतनी गंभीरता और इतनी चिंता की कोई बात नहीं है। ऐसा कोई विकट प्रश्न नहीं खड़ा हो गया है कि अरे! ये छूट जाएगा, शेष क्या रहेगा, करेंगे क्या, इत्यादि। आप अध्यात्म बिलकुल न समझिए, आप किसी मुक्ति की ओर नहीं बढ़िए तो भी अगले दस-बीस साल में तो मर ही जाएँगी। तो इतनी गंभीरता किस बात की है!
आप कुछ मत करिए, कोई नहीं कह रहा आप गीता पढ़ें, उपनिषद् पढ़ें, कोई आवश्यकता नहीं है। जिन्होंने पढ़ भी ली, वो भी तो मरेंगे ही। मरेंगे आप भी, मरेंगे हम भी। तो इतनी कोई गंभीरता की बात नहीं है। हाँ, थोड़ा सा इन दस-बीस सालों को अगर बेहतर गुज़ारना हो तो ऋषियों ने जो बात कही, वो सुन लीजिए।