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बनावटी व्यक्ति कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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बनावटी व्यक्ति कैसे पहचानें? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: किसी व्यक्ति के बनावटीपन को कैसे जानें?

आचार्य प्रशांत: क्यों जानना है किसी के बनावटीपन को? क्या करोगे? नीम लड्डू तैयार करवा रहे हो और कुछ नहीं। (सब हँसते हैं)। क्या करना है? अपना काम करो! अपनेआप पता चल जाता है। आप एक सीधी बात बोल रहे हो, उधर से मामला तिरछा हो रहा है, जान जाते हो।

पर ये तुम तब जानोगे न जब पहले तुम ख़ुद सीधी बात बोलोगे? दूसरा कितना टेढ़ा है, दूसरे में कितनी विकृति या वक्रता है, ये जानने के लिए पहले अपने पास सिधाई होनी चाहिए न? तुम कहो, ‘मुझे कैसे पता चले, किसकी आँखें ख़राब हैं किसकी नहीं हैं?’ ये जानने के लिए सबसे पहले अपनी आँखें साफ़ होनी चाहिए न? तुम इस पर ध्यान दो कि अपनी आँखें साफ़ हैं।

अपनी आँखें साफ़ हैं, उसके बाद बहुत मतलब नहीं रह जाता है कि कौन टेढ़ा, कौन सीधा। और मतलब न रह जाने पर भी पता सब चलने लग जाता है कि कौन टेढ़ा कौन सीधा। जब तक तुम इच्छा करते रहोगे ये जानने की कि मैं पता करूॅं, ये सीधा आदमी है, ये कुटिल आदमी है’ तब तक सब उल्टे-पुल्टे निष्कर्ष निकलेंगे तुम्हारे।

दुनिया में सब लोगों की रुचि इसी में रहती है न, ‘पता करूँ, अच्छा! इसमें क्या कपट चल रहा है, उसके दिमाग में क्या पक रहा है, इसने क्या चाल खेली।’ सब ऐसे ही सोचते हैं, किसी को कुछ पता चलता है? एक से बढ़कर एक हैं, तू डाल-डाल मैं पात-पात! तुम सोचते हो तुमने दूसरे को पढ़ लिया, दूसरे ने उससे पहले तुमको पढ़ लिया, काटम-काट मची रहती है तो कुछ पता नहीं चलता।

पता इसीलिए नहीं चलता क्योंकि तुम्हें रुचि बहुत है ये सब पता करने में। इन सब चीज़ों से रुचि हटाओ, ये बेकार के धन्धे हैं। जब तुम्हारा ये जानने में बहुत मन ही नहीं रहेगा, तो तुमको बिना इच्छा के ही पता लगने लग जाएगा, कौन सीधा है, कौन नहीं। अपनी सिधाई क़ायम रखो।

प्र: विचारों पर नियन्त्रण कैसे हो सकता है या विचारों पर नियन्त्रण हो ही नहीं सकता? उसमें कुछ तथ्य भी निकले हैं मेरे।

आचार्य: क्यों करना है विचारों पर नियन्त्रण? क्या समस्या आ गयी?

प्र: कुछ भी मतलब, ऐसे ही, आने को तो कोई भी विचार आते रहते हैं।

आचार्य: आने दो! तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? अरे! बताओ न हम पूछ रहे हैं कुछ, तुम्हारा क्या बिगड़ रहा है? कुछ नहीं बिगड़ रहा तो सवाल काहे को पूछा? पहले देखो इधर तो, उधर तुम छुप जाते हो अपने उसमें (प्रश्नकर्ता का ध्यान अपनी ओर खींचते हुए)। विचारों पर नियन्त्रण का मुद्दा ही क्यों आ रहा है? विचार आ गये, ठीक है आ गये; तो आ गये तो आ गये। बहुत अच्छे लगते हैं? बहुत डरावने लगते हैं? तो आ गये तो आ गये, क्या करें? हमने बुलाया था? तो हमारी क्यों ग़लती है, आ गये तो? जब हमने बुलाया नहीं, बिना हमारे बुलाये आये तो हम दोषी कैसे हो सकते हैं अगर वो आ गये तो? हमारा है दोष?

तो हमारे ऊपर क्यों इल्ज़ाम रखा जा रहा है कि इसको ऐसे विचार आते हैं, छी-छी-छी! गन्दी सोच रखता है। हमने तो बुलाया नहीं, वो आ गया, अब आ गया।

हमारा दोष क्या हो सकता है अधिक-से-अधिक? किस स्थिति में हम दोषी माने जाएँगे? जब, जो आ गया, हमने उसको, हाँ! चाय पिला रहे हैं, पराठा पका रहे हैं, खिला रहे हैं, पिला रहे हैं, मोटा कर रहे हैं, उसका घर बना दिया, ‘आप यहीं बैठ जाइए, बार बार आया करिए।’

अब ये तुम जानो अगर तुम ऐसा करते हो तो क्यों करते हो। कोई ऐसा नहीं होता जिसके पास आँखें न हों। कोई ऐसा नहीं होता जिसके पास अतीत न हो। और विचारों के आने के लिए यह दो काफ़ी होते हैं, आँखें और अतीत। आँखें तुम्हें दिखाएँगी और चित्त दृश्य वस्तु का अतीत से सम्बन्ध बैठाएगा, विचार खड़ा हो जाएगा। आँखें बाहर से तुम्हारे पास दृश्य लेकर के आएँगी, और दृश्य कोई नया तो होता नहीं है, चित्त स्मृति का भंडार है; चित्त क्या करेगा? उस दृश्य का अतीत से कोई मेल बैठा देगा। अब विचार खड़ा हो गया क्योंकि अतीत में घटना घटी थी, उसी घटना का कोई रूप तुम्हारे सामने विचार बनकर आ जाएगा।

वही नहीं कि घटना ही दोहरा दोगे, उस घटना से सम्बन्धित कोई कहानी खड़ी हो जाएगी, उस कहानी को ही विचार कहते हैं। वो जो पुरानी घटना थी, घटना भी क्या होती है? हर घटना क्या है एक? ‘कहानी’ और वही जो पुरानी कहानी थी, एक नये रूप में जब सामने आ जाती है, तो उसको कहते हैं, विचार।

हम विचार-विचार कहने लगते हैं, विचार कुछ नहीं होता, कहानी भर होती है। कहानी माने कल्पना! बस! तो आने दो! आ रहे हैं, आने दो, आये हैं अपना, ठीक है, उनका भी हक़ है आने का, घूमें-फिरें, चले जाएँ; हमें क्या करना है?

प्र: एक और प्रश्न है, स्थिरता कैसे लायी जाए? स्थिरता।

आचार्य: कहाँ?

प्र: स्वयं में।

आचार्य: किस जगह स्थिर होना चाहते हो? कहाँ टिकना है?

प्र: किसी एक जगह पर।

आचार्य: किस जगह पर?

प्र: किसी भी एक पर्टिकुलर (विशिष्ट) जगह।

आचार्य: किसी भी जगह पर काहे को टिकना है तुम्हें ? कोई सही जगह होगी टिकने के लिए, तो टिकोगे न! कहाँ टिकना है?

प्र: सही जगह पर।

आचार्य: कौनसी सही जगह?

प्र: आप जो बताना चाह रहे हो, बस वहीं।

आचार्य: तो उसको समझ लो न, फिर टिक जाओगे। जब सही जगह पता चल जाएगी तो टिकना भी वहाँ आसान हो जाएगा। सही जगह अगर पता ही नहीं तो टिकोगे काहे को? इसीलिए हम लोग कहीं भी टिक नहीं पाते क्योंकि जहाँ भी टिकने जाते हैं उससे बेहतर कुछ और दिखाई देने लग जाता है।

आपको पता ही नहीं है न सही क्या है, जान जाइए कि सही क्या है, वहाँ टिकना आसान हो जाएगा। ग़लत जगह टिक गये फिर क्या होगा? हम ये भी कर सकते हैं, बहुत लोग करते हैं, अपने साथ ज़बरदस्ती कर ली और किसी भी ग़लत जगह जाकर के, वहीं बॅंध गये, बैठ गये, टिक गये, आसन जमा लिया वहीं पर; यही है! फिर क्या होगा?

ग़लत जगह पर भी बहुत समय तक टिक गये न तो उठना मुश्किल हो जाएगा। फॅंस जाओगे। बोतलें देखीं हैं न जिनके तंग मुँह होते हैं, बोतल बड़ी सी होती है और मुँह उसका थोड़ा छोटा सा होता है, उसमें तुम डाल दो लौकी की कली को, लौकी की बेल देखी है? लौकी, तोरई, कद्दू, इनकी बेलें देखीं हैं? इनमें कलियाँ आतीं हैं, फूल आते हैं, फिर वो बड़े होते हैं।

तो एक बोतल ले लो और उसमें लौकी की कली डाल दो, काटकर नहीं, तोड़कर नहीं, ज़िन्दा! पौधे से लगी हुई, उसको वहीं पर डाल दो। अब क्या होगा फिर? फॅंस गयी! अब तो फॅंस गयी, अब नहीं निकलेगी। वो निकल नहीं सकती, बोतल टूट नहीं सकती, छोटी वो हो नहीं सकती और बड़ी भी हो नहीं सकती। हाय-हाय! काश कि छोटी हो पाती, छोटी हो पाती तो बाहर निकल आती। छोटी हो नहीं सकती, और बड़ी उसे बोतल होने नहीं देगी। अब वो क्या करेगी? वो तो टिक गयी।

सही जगह टिकना! यह न हो कि टिकने के इतने आतुर हो गये कि कहीं भी जा करके ‘टिकाना’ बना लिया। एक पोस्टर था न अपना क्या? ‘उम्र भर भटकते रहना भी बेहतर है, ग़लत जगह बॅंध जाने से।’ भटकते रहना, भटकते रहना, ग़लत जगह मत टिक जाना। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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