बकरा काटने से पुण्य मिलता है?

Acharya Prashant

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बकरा काटने से पुण्य मिलता है?
वो जो सामने आपके एक जीव है, उसकी आँखों में देखो। उसको क्या फ़र्क पड़ता है कि उसका झटका हुआ कि हलाल हुआ; वो तो जान से गया न? और उसने कुछ ऐसा गुनाह नहीं कर दिया था कि आपने उसको मार दिया। और उसको मार करके आपको कोई पुण्य कहीं से नहीं मिल गया। ये काम चाहे हिंदू करे, चाहे मुस्लिम करे, कोई करे — इससे कैसे कोई पुण्य हो सकता है? ये तो सीधे-सीधे पाप का काम है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: सर, एक बात जो निकल कर आती है कि भाई, हम तो बकरा काटते हैं लेकिन आप भी तो अपने मंदिरों के अंदर बलि चढ़ाते हो।

आचार्य प्रशांत: हाँ, तो वो बात बिल्कुल ठीक है। मैं इस तर्क से पूर्णतया सहमत हूँ। बात इसमें ये है ही नहीं कि जानवर को मुस्लिम काट रहा है, कि जानवर को हिंदू काट रहा है। बात ये है कि बेचारा जानवर बिना बात के अपनी जान से गया।

और हिंदुओं के मंदिरों में अगर बलि होती है तो हमने उसका पुरज़ोर विरोध किया है, और वो बात बिल्कुल ग़लत है। और न जाने कितनी बार, कितनी जगहों पर मंदिरों में या धर्म के नाम पर या तंत्र के नाम पर जो बलि दी जाती है, उसको अच्छे तरीक़े से उघेड़ा है। और उसको स्पष्ट किया है कि वो बात कितनी ग़लत है। और इस तरह के जो प्रयास रहे हैं, वो रंग भी लाए हैं।

आप जानते हैं, बहुत सारे ऐसे मंदिर हैं जहाँ पहले पशुबलि दी जाती थी, पर वहाँ पर बरसों तक समझाने-बुझाने का ये प्रभाव पड़ा है कि वहाँ पर अब वो पशुओं की जगह — जैसे पहले था कि अब वहाँ पर भैंस काट रहे हैं, या बकरा काट रहे हैं — तो उसकी जगह वो गन्ना काट देते हैं। वो कहते हैं, ‘चलो, काटना ही है तो सांकेतिक रूप से हम किसी और चीज़ को काट देंगे। संकेत हो गया।' और ईश्वर नहीं कह रहा है कि मुझे किसी बेगुनाह जीव के रक्त में स्नान करना है।

तो जितने भी धर्मों में हिंसा है और जानवरों के साथ अत्याचार है। हमने सभी का विरोध किया है। तो वो ठीक है।ठीक वैसे, जैसे बकरीद पर कुर्बानी की बात जायज़ नहीं है, वैसे ही अगर मंदिरों में बलि हो रही है तो वो बात भी जायज़ नहीं है। और हमने उसका भी विरोध करा है। बिल्कुल!

ये देखिए जो भी आपके मित्र हैं, या जो भी वाइडर ऑडियंस है मुस्लिम, उनको यही समझाइए कि यहाँ बात हिंदू-मुस्लिम की नहीं है। वो जो सामने आपके एक जीव है उसकी आँखों में देखो। उसको क्या फ़र्क पड़ता है कि उसका झटका हुआ कि हलाल हुआ; वो तो जान से गया न? और उसने कुछ ऐसा गुनाह नहीं कर दिया था कि आपने उसको मार दिया। और उसको मार करके आपको कोई पुण्य कहीं से नहीं मिल गया। आप एक खरीदा हुआ जानवर ले आते हो, आप उसकी जान ले लेते हो; थोड़ा तो विचार करो, इससे आपको कौन-सा पुण्य मिल जाएगा?

और वो भी जानवर आप ऊँचे दामों में लेकर आते हो क्योंकि बकरीद के आसपास जानवरों के दाम और बढ़ जाते हैं। इससे आपको कौन-सा पुण्य मिल जाएगा? कैसे? हो सकता है क्या? मैं कहीं बाज़ार में गया, मैं एक जानवर लेकर आ गया। मैंने उसको दस दिन रखा, मैंने उसकी गर्दन काट दी। मैंने उसका गोश्त खा लिया; इससे मुझे पुण्य कैसे मिल सकता है?

ये काम चाहे हिंदू करे, चाहे मुस्लिम करे, कोई करे; बताओ, इससे कैसे कोई लाभ, कोई पुण्य हो सकता है? ये तो पाप का काम है सीधे-सीधे, कि नहीं है?

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: मतलब धर्म इसलिए थोड़े ही होता है कि हमारे विवेक को, हमारी बुद्धि को पूरी तरह खा जाए। तो धार्मिक लोग इतनी उल्टी-पुल्टी बातें क्यों करते हैं? धर्म का काम होता है— बुद्धि को निर्मल करना, विवेक को जागृत करना। उसकी जगह होता ये है कि धार्मिक लोग एकदम ही उटपटांग बातें करते हैं।

प्रश्नकर्ता: सर, इस मामले में मैं उदित जी (स्वयंसेवी) से बात कर रहा था। तो यही था कि हमारे शास्त्रों के अंदर भी अगर ये लिखा हुआ है तो कुछ तो सोच-समझकर लिखा होगा कि भाई, पशुओं की बलि और क़ुर्बानी जो है।

आचार्य प्रशांत: देखिए, अगर किसी भी किताब में — धार्मिक किताब में, धर्मशास्त्र में — कुछ बातें लिखी हुई हैं, मैं बहुत बार समझा चुका हूँ, इस मौके पर फिर बताए देता हूँ, वो बातें हमेशा दो तरह की होती हैं। कोई भी रिलिजियस बुक (धार्मिक ग्रंथ) हो, उसमें हमेशा जो बातें होती हैं, उनको दो हिस्सों में बाँटकर देखना चाहिए। एक बातें होती हैं टाइम-डिपेंडेंट और दूसरी बातें होती हैं टाइमलेस। समय सापेक्ष और समय निरपेक्ष। काल आश्रित और कालातीत।

काल आश्रित बात मतलब जो किसी समय पर प्रासंगिकता रखती है, पर उसके बाद वो प्रासंगिक नहीं है। और जो कालातीत बात होती है, वो बात होती है जो इटरनल (शाश्वत) है, टाइमलेस है। वो हर समय रेलेवेंट (प्रासंगिक) रहेगी।

और ये जो मैंने बात बोली, ये हर रिलीजियस बुक पर लागू होती है, विदआउट एक्सेप्शन (बिना अपवाद के)‌ कि उसमें कुछ बातें ऐसी ज़रूर होंगी जो सिर्फ़ उस समय प्रासंगिक थीं जब वो बातें कही गई हैं। और उसमें बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो दस हज़ार साल बीत जाएँ, वो बातें तब भी सही रहेंगी, काम की रहेंगी, प्रासंगिक रहेंगी, उपयोगी रहेंगी और हमें रोशनी दिखाएँगी, दिशा दिखाएँगी।

तो जो बात एकदम दुनिया की चीज़ों की हो, जैसे अब मान लीजिए कि कहीं पर, किसी भी धार्मिक ग्रंथ में, किसी रथ का उल्लेख आता है। अब रथ तो एक टाइम डिपेंडेंट चीज़ होती है न, उसको हम एक इटरनल बात नहीं मान सकते। या मानोगे? कि कहीं किसी रथ की बात आ गई तो कहेंगे, ‘ये तो टाइम डिपेंडेंट (समय सापेक्ष) बात है, इसको छोड़ो!’ हाँ, उस रथ के माध्यम से कोई मेसेज (सीख) दिया गया हो, वो टाइमलेस हो सकता है। पर अब आप ये थोड़े ही करोगे कि आज से मान लीजिए तीन हज़ार साल पहले कोई किताब लिखी गई या एक हज़ार साल पहले की कोई बात है, और आपने कह दिया उसमें रथ की बात है तो हमें आज भी रथ पर चलना है। आप ये तो नहीं करोगे न?

जो बातें मन से सम्बन्धित हों, वो बातें हमेशा के लिए होती हैं, वो 'टाइमलेस' बातें होती हैं, कालातीत बातें होती हैं।

वो 'इटरनल' बात है, वो हमेशा काम आएगी। क्योंकि मन आदमी का आज भी वैसा है, जैसा?

प्रश्नकर्ता: हज़ार साल पहले था।

आचार्य प्रशांत: पहले था। सबकुछ बदल गया है दुनिया में, इंसान का मन तो नहीं बदला है न ये बिल्कुल फंडामेंटल्स (मूल बातें) हैं, जो लोग इस बात को समझ जाएँगे वो मुझसे थोड़ी कुछ सहानुभूति रख पाएँगे। जो इस बात को नहीं समझेंगे, उनको यही लगेगा कि मैं यहाँ पर आकर कोई भड़काऊ बात कर रहा हूँ या किसी को मैं हर्ट (आहत) करना चाहता हूँ।

भाई, हर्ट-वर्ट करने की कोई बात नहीं है। कोई बात है जो आपको समझाना चाहता हूँ, और आपसे आग्रह है कि कृपा करके थोड़ा समझें उस बात को।

तो आदमी का मन नहीं बदला, बाक़ी सब बदल गया। अपनेआप आसपास देखिए, आपको कोई चीज़ ऐसी नहीं दिखाई देगी जो आज से चंद हज़ार साल पहले भी होती थी। दीवारें ऐसी होती थीं कई हज़ार साल पहले? नहीं होती थीं। ये आपने कोट पहन रखा है, ये आपने हाथ में माइक ले रखा है, आपने घड़ी पहन रखी है, मोबाइल रखा हुआ है, ये फ़र्श इस तरीक़े का है, यहाँ पंखे हैं, ये लाइटें हैं, ये कैमरे हैं, ये सब चीज़ें कई हज़ार साल पहले नहीं होती थीं। सब बदल गया इंसान का। क्या है जो नहीं बदला है?

इंसान का खोपड़ा नहीं बदला है। पहले भी हम लड़ते थे, हम आज भी लड़ते हैं। हम पहले भी पगले थे, हम आज भी पगले हैं। हम पहले भी भ्रम में रहते थे, हम आज भी भ्रम में रहते हैं। हम पहले भी वासना के खेल खेलते थे, हम आज भी खेलते हैं। हम पहले भी लालची और ईर्ष्यालु थे, हम आज भी लालची और ईर्ष्यालु हैं। पहले भी लड़ाइयाँ जिन मुद्दों पर होती थीं, मूल रूप से आज भी लड़ाइयाँ उन्हीं मुद्दों पर होती हैं। तो मन नहीं बदला है न! माने इंसान का मन है जो लगातार एक जैसा ही बना रहता है।

प्रश्नकर्ता: हाँ।

आचार्य प्रशांत: तो फिर शास्त्रों में या जो भी धार्मिक किताबें हैं मज़हबी, उनमें जो बातें इंसान के मन से सम्बन्धित हैं — क्योंकि ये जो ईगो (अहंकार) है, ये मुक्ति के लिए तड़पती है और वही चीज़ है जो धर्म का विषय है। द इगो एंड इट्स क्वेस्ट फ़ॉर फुलफिलमेंट ऑर लिबरेशन (अहम् और इसकी पूर्णता या मुक्ति की प्यास) — बस धर्म इतना ही होता है।

धर्म का बाक़ी चीज़ों से नहीं ताल्लुक़ है। आप कहें कि धर्म का ताल्लुक़ आपके मकान से है, आपकी सड़क से है और आप क्या खाते हो, क्या पीते हो, क्या पहनते हो इन चीज़ों से है; इन चीज़ों से धर्म का क्या लेना-देना? धर्म का सम्बन्ध सीधे-सीधे सिर्फ़ ईगो से होता है, ईगो से। क्योंकि वही चीज़ है जो लगातार बनी रहती है। और वही चीज़ है जो आदमी को बहुत परेशान करती है। और वो चीज़ साइंस (विज्ञान) के दायरे में आती नहीं है। साइंस एक्सटर्नल ऑब्जेक्ट्स (बाह्य वस्तुओं) को देखता है, ये जो इंटरनल सब्जेक्ट (आंतरिक कर्ता) बैठा है, साइंस इसको देखता ही नहीं है।

धर्म उसको देखता है, वो जो इंटरनल सब्जेक्ट है। और जो इंटरनल सब्जेक्ट है, वो बहुत परेशान रहता है। तो धर्म का काम होता है उस इंटरनल सब्जेक्ट माने ईगो (अहम्) को समझना और उसको शांति, संतुष्टि और मुक्ति देने का प्रयास करना।

ये धर्म की परिभाषा है - अहम् को समझना और देखना कि अहम् को कैसे शांति, संतुष्टि, मुक्ति दी जा सकती है।

बस ये धर्म का काम है। और बाक़ी चीज़ों से धर्म का कोई लेना-देना नहीं है। बाक़ी सब कल्पनाएँ हैं, कहानियाँ हैं या बेकार की चीज़ें हैं जो धर्म में डाल दी गई हैं। वो धर्म का कचड़ा है। उस कचड़े को हटाना चाहिए। तो मानव मन की तड़प निरंतर बनी हुई है। तो धर्मशास्त्रों में से भी सिर्फ़ वही बातें लेने लायक़ हैं जो मानव मन की तड़प को सम्बोधित करती हैं, जो मानव मन को शांति देने के लिए ही लिखी गई हैं।

उनके अलावा भी बहुत सारी बातें हैं तमाम तरह की धार्मिक किताबों में। उनको ये मानना चाहिए कि ये बस उस समय के लिए रेलेवेंट (प्रासंगिक) थीं जब ये बातें कही गई थीं। आज उनकी कोई रेलेवेन्स (प्रासंगिकता) नहीं है। तो उन बातों को दूर से नमस्कार करना चाहिए और कहना चाहिए कि भाई, आप एक समय की बात थे। आज आपका कोई उपयोग नहीं है। हमने आपको सम्मान के साथ देखा और हमने कहा आप यहाँ विराजें, हमें हमारी ज़िन्दगी जीने दें। और हमारी ज़िन्दगी जीने में जो बातें हैं, चाहे वो श्लोक हों, दोहे हों, आयतें हों, वो जो हमारे काम आते हैं, हम उनको आज महत्त्व देंगे। जो चीज़ें कालातीत हैं धर्मग्रंथों में, हम उनको महत्त्व देंगे।

अब एक बात बताओ, आप अगर इस तरीक़े का तर्क करोगे कि साहब, हमारे तो ग्रंथ में लिखा हुआ है कि भेड़ और बकरी काटनी है। ठीक है? अब ठीक वैसे, जैसे रथ एक समय सापेक्ष वस्तु होता है, वैसे ही कोई भी प्रजाति भी तो समय सापेक्ष होती है न? जब ग्रंथ लिखा गया था, उस समय से आज के बीच में लाखों-करोड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं न? और उसमें सिर्फ़ यही नहीं है कि पेड़-पौधे विलुप्त होते हैं, जानवर कितने विलुप्त हो गए हम‌ बहुत अच्छे तरीक़े से जानते हैं। साँपों की प्रजातियों से लेकर के पशु-पक्षियों की प्रजातियों तक न जाने क्या-क्या तो विलुप्त हो चुका है। कितने तो कीट-पतंगे विलुप्त हो गए, और कितने से मेरा आशय पाँच-दस नहीं है, हज़ारों।

एक जानवर हुआ करता था—डोडो। वो भेड़-बकरी जैसे ही दिखता था। वो विलुप्त हो गया न? अब मान लीजिए भेड़-बकरी भी विलुप्त हो जाएँ तो? इतने सब जानवर विलुप्त हुए, भेड़-बकरी भी विलुप्त हो गए। आप कहेंगे कि हमारे यहाँ तो लिखा हुआ है कि भेड़-बकरी काटनी है, अब भेड़-बकरी है ही नहीं, एक्सटिंक्ट हो गई, विलुप्त हो गई, अब क्या काटोगे? अब बताओ?

तो समय सापेक्ष चीज़ें धर्म में बहुत महत्त्व नहीं रखती हैं। जहाँ कहीं भी ऐसी चीज़ देखो जो समय के साथ आती है, समय के साथ चली जाती है, जान लो कि वो बात बस धर्म की सरकम्फेरेंस पर है, पेरिफेरी (परिधि) पर है; वो धर्म के कोर में नहीं है। धर्म के कोर में तो वही बात है जो सीधे-सीधे ईगो को ऐड्रेस करती हो।

जो सीधे-सीधे?

प्रश्नकर्ता: ईगो को ऐड्रेस करती हो।

आचार्य प्रशांत: ईगो को ऐड्रेस करती हो बस वही बात। बाक़ी सब बातों को कहना चाहिए कि ये ठीक है, ये बात कभी कही गई थी, आज इसका महत्त्व नहीं है। आज हम इसको बहुत महत्त्व के साथ नहीं रख सकते हैं। आप कह रहे हो कि आप चले जाओगे, आप किसी दूसरे ग्रह पर बसोगे। बिल्कुल ऐसा हो सकता है। आज से सौ, दो-सौ साल बाद मानवता किसी दूसरे ग्रह पर चली गई है। और वहाँ जानवर दूसरे होंगे या पृथ्वी के सारे जानवर वहाँ लेकर जाओगे? और तुम कहो कि साहब, हमारे ग्रंथ में तो लिखा हुआ कि फ़लाना जानवर तो काटना है। वो जानवर वहाँ कहाँ से लाओगे?

तो ये सब बातें तो समय की बातें हैं, "आवत-जावत हैं" — आती-जाती रहती हैं। इन बातों को बहुत महत्त्व नहीं देते। इन बातों को आधार बनाकर तर्क नहीं करते। इन बातों को आधार बनाकर तर्क करोगे तो वो कुतर्क हो जाएगा।

प्रश्नकर्ता: जी, लेकिन मैंने इसमें कई लोगों को ये बोलते हुए सुना है कि आचार्य जी जिस तरह से धर्म को परिभाषित कर रहे हैं वो बहुत अच्छा है, वो बहुत आदर्शवादी है। लेकिन जिस तरह से आज चीज़ें चल रही हैं, जो हम व्यवहारिकता को देखते हैं, वहाँ तो चीज़ें बहुत अलग हैं। उसको फिर हम कैसे सुधारें?

आचार्य प्रशांत: भाई, आप आज कुछ उल्टा-पुल्टा कर लो, तो वो चीज़ असली हो गई? और जो असली चीज़ थी फिर आप उसको बोलोगे, ये तो काल्पनिक और आदर्श है। ऐसा थोड़े ही होता है!

आप इसको (गिलास का पानी) बोलने लग जाओ कि ये एचटूएसओफोर है, सल्फ्यूरिक एसिड है। और बोलो कि ये तो असली बात है न, सब लोग इसको एचटूएसओफोर बोलते हैं। तो वो बात कोई असली नहीं है, वो बात पागल है। वो विक्षिप्तता की बात है।

आप धर्म के एक बहुत ही कचरा रूप को पकड़ कर बैठ गए हो, आपने धर्म को बर्बाद कर दिया है। और मैं पूरी दुनिया के लिए बोल रहा हूँ, मैं जितने धर्म हैं उन सबके अनुयायियों के लिए बोल रहा हूँ ये बात — आपने धर्म को, रिलीज़न को, मज़हब को एकदम तबाह कर दिया, कहीं का नहीं छोड़ा। और उसके बाद आप बोलते हो कि आपने जो तबाही करके धर्म का एडिशन चला रखा है, संस्करण चला रखा है, जो रूप चला रखा है, वो असली है।

और जो असली है, उसको आप बोल देते हो – वो तो आदर्श है, वो तो काल्पनिक है। और मैं जब उसकी बात करता हूँ, तो आप मुझे बोल देते हो कि ये आदमी यूटोपियन (काल्पनिक) है। ये आदमी तो आदर्शवादी और काल्पनिक बात कर रहा है।

मैं काल्पनिक बात नही कर रहा; मैं ही असली बात कर रहा हूँ। फ़ालतू की कल्पनाओं में साहब आप जी रहे हैं। आप अपनेआप को कहते हो- धार्मिक आदमी, और आपको धर्म का कुछ पता है नहीं। उसकी जगह आप धर्म के नाम पर कोई कहानी चला रहे हो। तो कल्पना में कौन जी रहा है, आप या मैं?

और धर्म, मैंने कहा– इंसान की दवाई होती है। दवाई बहुत साफ़ होनी चाहिए, नहीं तो दवाई ज़हर बन जाती है।

बीमार को दवाई का आसरा होता है, बीमार बड़ी श्रद्धा के साथ दवाई लेता है। उसको दवाई के नाम पर आपने कुछ भी ऊटपटांग दे दिया, तो ये पाप है। धर्म का जो सबसे साफ़ रूप है, वही पकड़ना चाहिए। ये मत करिए कि धर्म का एक गन्दा रूप पकड़ लिया और कह दिया — 'यही तो असली है'। और जो साफ़ रूप है, उसको कह दिया — 'वो तो आदर्श है।' ऐसे नहीं करते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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