मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोअनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।। (श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १४ )
आचार्य प्रशांत: श्रीमद्भगवद्गीता, द्वितीय अध्याय, श्लोक क्रमांक चौदह। हे कुन्तीपुत्र, इन्द्रियों और विषयों का संस्पर्श ही शीत-उष्ण और सुख-दुख देने वाला है। वे आते हैं और फिर चले जाते हैं। वे नष्ट हो जाते हैं। वे अनित्य हैं। अतः हे अर्जुन, तुम तितिक्षा दर्शाओ। तुम तितिक्षा दर्शाओ। ‘तितिक्षा’ माने, सुख-दुख, समस्त आवागमन को अकंपित रहकर के सहना।
क्या कह रहे हैं अर्जुन से, ये जो कुछ भी है, जो प्रतीत तो होता है, अनुभव तो होता है, पर यथार्थ नहीं है क्योंकि नित्य नहीं है, क्योंकि उसे बदल जाना है, क्योंकि आकर चले जाना है, क्योंकि जाकर पुनः वापस आना है। उसके साथ बहना नहीं है, उसे सहना है। बहो नहीं, सहो। बात दूर तक जाती है। देखिए, अनित्य कह दिया तो आगे जाकर यह भी कह सकते थे कि मिथ्या है क्योंकि जो अनित्य है, वो वास्तव में है ही नहीं। लेकिन अर्जुन को तो प्रतीत हो रहा है न! अर्जुन आत्मस्थ नहीं।
तो किसी पंडित मात्र की तरह श्रीकृष्ण यहाँ नहीं कह देते हैं कि समस्त भावनाएँ, विचार, सुख-दुख और अनुभव अनित्य हैं, असत्य हैं। इनको बस जान लो मिथ्या, और तुम मुक्त हो। नहीं, ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि श्रीकृष्ण यथार्थ के धरातल पर काम कर रहे हैं। उनके सामने कोई मुमुक्ष शिष्य नहीं बल्कि एक मोहित योद्धा खड़ा हुआ है।
तो श्रीकृष्ण नहीं कहते कि भावनाओं, विचारों, उद्वेगों आदि का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वो कहते हैं, ‘तुम्हारे लिए तो हैं अर्जुन, और तुम यही कर सकते हो कि उनको सहो। तब तक सहते रहो, जब तक सहने की आवश्यकता बची हुई है।‘ एक बिन्दु ऐसा आता है, जिसके पश्चात सहना ही नहीं पड़ता क्योंकि असत का अनुभव होना ही समाप्त हो जाता है। जब पीड़ा ही नहीं रहेगी तो सहोगे किसको। लेकिन अभी तो पीड़ा है। अभी सिर्फ़ इतना कह देने से अर्जुन को कि झूठ है, जीव का अस्तित्व ही, आत्मा ही एकमात्र सत्य है, बात बनेगी नहीं। न सिर्फ़ बात नहीं बनेगी, बल्कि थोड़ी विचित्र हो जाएगी।
यदि आत्मा मात्र का अस्तित्व है, तो आप मुझे किसे मारने को कह रहे हैं और मारूँ क्यों? यदि आत्मा मात्र का अस्तित्व है तो मैं कुछ भी क्यों करूँ, कोई कुछ भी क्यों करे। यदि आत्मा मात्र सत्य है, तो कौन प्रवचन दे रहा है अभी और किसको। तमाम तरह के प्रश्न खड़े हो जाएँगे तो इसलिए जो बात श्रीकृष्ण कह रहे हैं, वह बहुत व्यावहारिक, बहुत उपयोगी, बहुत सार्थक है।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं तुम्हारे लिए तो अभी अनित्य का अस्तित्व है ही, लेकिन मैं साथ ही ये भी बता रहा हूँ कि जिसको तुम इतना महत्व, इतना वज़न, इतना मूल्य दे रहे हो, वो है अनित्य। दोनों बातें मैं एक साथ कह रहा हूँ। तुम्हारे लिए अनित्य नहीं है, तुम्हारे लिए अनित्य होना चाहिए लेकिन, क्योंकि अनित्य नहीं होगा तो तुम उसी तरह उहापोह और बेचैनी में पड़े रहोगे जैसे अभी हो। तो भ्रम है ये सब कुछ। लेकिन इसको काटने का रास्ता भी भ्रम के बीचोंबीच जाता है। अहंकार हो अभी तुम अर्जुन, आत्मा नहीं हो; इसीलिए तुम्हें धर्म का पालन करना चाहिए।
धर्म क्या, जो अहम् को आत्मा की ओर ले जाए, वो धर्म है। यही धर्म की परिभाषा है। इसका मतलब है कि आत्मा के सन्दर्भ में धर्म का कोई अर्थ होता ही नहीं। आत्मा को धर्म नहीं चाहिए। धर्म अहम् को चाहिए। धर्म अहम् को चाहिए ताकि वो आत्मा की ओर बढ़ सके क्योंकि आत्मा की ओर बढ़ने में ही उसकी भलाई है, क्योंकि अहम् क्या है, जैसे जलता हुआ एक पिंड। जैसे लगातार रोता हुआ मन, जैसे तपता हुआ शरीर। उसे शान्ति चाहिए, उसे शीतलता चाहिए। वो झूठ भले ही है, पर अपनी दृष्टि में तो वो सबसे बड़ा सत्य है। सत्य की दृष्टि से, तात्विक दृष्टि से अहम् नहीं है। पर अहम् के लिए तो अहम् ही है।
तो धर्म का सारा क्षेत्र, गीता का सारा प्रवचन अहम् को ही सम्बोधित किया गया है। और अहम् से कहा जा रहा है, तुम वो करो जो तुम्हें आत्मा की ओर ले जाएगा। मोह और तमाम तरह के अन्य प्राकृतिक गुण-दोष तुमको तुममें ही फँसाए रहेंगे। तुम्हें अगर स्वयं से बाहर आना है तो अपने विपरीत जाकर ही अपनेआप से बाहर आ पाओगे।
तुम वो मत करो जो तुम्हें अभी रुचिकर लगता हो, प्रिय लगता हो; तुम वो करो जो उचित है। और उचित अभी ये है कि अहम् की उस दिशा को बाधित किया जाए, जो आत्मा विरुद्ध जाना चाहती है — अहम् की उस दिशा का क्या नाम है — अहम् की उस दिशा का नाम है — कुरुदल, कौरव सेना।
तर्क पूरा समझ में आ रहा है?
अहम् हो तुम अर्जुन और तुम्हारी भलाई इसी में है कि आत्मा की ओर बढ़ो। हर जीव जो अपनेआप को अहम् समझता है, उसकी भी भलाई इसी में है कि आत्मा की ओर बढ़े। लेकिन आत्मा की ओर बढ़ने, सच्चाई की ओर बढ़ने से रोकने वाली शक्ति जगत में मौजूद है और इस समय तुम्हारे सामने उस शक्ति का नाम है कौरव सेना। इसलिए तुम्हें लड़ना होगा कौरव सेना से अन्यथा कोई कारण नहीं था।
यदि जीवन मुक्त होते अर्जुन और जीवन मुक्तों का ही समाज, कौरवों से फिर किसी को कोई ख़तरा नहीं होता। फिर महाभारत के युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं थी। अभी युद्ध की आवश्यकता है, अभी एक विशेष कारण है कि स्वयं श्रीकृष्ण इस युद्ध में सम्मिलित हैं।
अभी स्थिति यह है कि अहम् दोराहे पर खड़ा है, जहाँ से एक रास्ता धर्म का है जो उसे आत्मा की ओर ले जाएगा और दूसरी दिशा अधर्म की है, कौरवों की है, जो उसे और ज़्यादा लालच की ओर, कुटिलता की ओर, हिंसा की ओर, विनाश की ओर ले जाएगी। इस बिन्दु पर सभी खड़े हुए हैं। अर्जुन भी खड़े हैं। हस्तिनापुर की समस्त प्रजा खड़ी है और इतने सारे जो भारत भर के राजा, योद्धा एकत्रित हैं, वो सब भी वहाँ खड़े हैं। इन सब के हित में यही है कि कौरव हारें। स्वयं कौरवों के हित में भी यही है कि वे हारें।
इसलिए ये युद्ध आवश्यक है। ये युद्ध इसलिए नहीं लड़ा जा रहा कि एक ओर अहम् है और एक ओर आत्मा है, नहीं। अहम् की ही अहम् से लड़ाई है। हाँ, अहम् का एक पक्ष आत्मामुखी है। अहम् का दूसरा पक्ष आत्मा से विमुख है। आत्मा की ओर पीठ करे हुए है।
तो श्रीकृष्ण यहाँ स्पष्ट देख रहे हैं कि किसको जीतना चाहिए और इसलिए अर्जुन को बार-बार प्रेरित करते हैं कि उठो, युद्ध करो। जितनी भी मानवीय दुर्बलताएँ होती हैं, वो इस वक्त आकर तुमको कचोटेंगी, तुम उनको सहो। और यही अन्तर होता है, अहम् की दो दिशाओं में। एक अहम् होता है जो बह जाता है, जब प्रकृति उसको लुभाती है या डराती है या भरमाती है।
लोभ, भय, भ्रम इनमें बह जाता है एक प्रकार का अहम् और एक दूसरा अहम् होता है, जो कहता है कि जो भी मुझ पर अनुभवों के आघात हो रहे हैं, उससे कहीं आवश्यक है मेरा कर्तव्य, मेरा धर्म। कभी-कभी वो उसको अपना प्रेम भी कह देता है। कहता है, ‘चोट तो लग ही रही है। प्रकृति माँ है मेरी, वो मेरी रग-रग से परिचित है। वह भली-भाँति जानती है कि मैं किन-किन जगहों पर दुर्बल हूँ। एक माँ को अपनी संतान के बारे में क्या कुछ नहीं पता होता। आपके बारे में प्रकृति को सब कुछ पता है। वो ठीक वहीं पर चोट करेगी जहाँ आप सबसे ज़्यादा कमज़ोर हैं।
तो प्रकृति जब चोट कर रही है तो लग तो रही ही है मुझे। पीड़ा उठ रही है। पर अभी मैं इस पीड़ा को अपने ऊपर छाने की अनुमति नहीं दे सकता। कुछ और है जो कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ये हम कह रहे हैं दूसरे प्रकार का अहम् है। ये सह लेता है क्योंकि इसे प्रेम है। या कह सकते हैं कि ये सह लेता है, क्योंकि इसकी दृष्टि में सत्य का मूल्य सुविधा से कहीं ज़्यादा है।
प्रत्येक जीव को छूट है कि वो इन दोनों में से किसी को चुन ले। सहने को या बहने को। कौरवों ने तो चुनाव कर लिया है और वो दृढ हैं अपने चुनाव। अर्जुन थोड़े से विशेष हैं क्योंकि वो अभी चुनने की प्रक्रिया के मध्य में हैं। दोराहे पर खड़े हुए हैं। वो इधर भी जा सकते हैं, उधर भी जा सकते हैं।
वास्तव में जब अर्जुन कह रहे हैं कि मैं युद्ध नहीं करना चाहता, तो समझने वाले समझेंगे कि वो ये कह रहे हैं कि उन्हें कौरवों की तरफ़ जाना है। क्योंकि कौरव कौन, जो वृत्ति के बहाव में बह गया और यही तो अर्जुन करने पर उतारु हैं कि मुझे भी वृत्ति के बहाव में बह जाना है। ऊपर-ऊपर से देखने वालों को लगेगा कि अर्जुन रथ से उतरे और जंगल की ओर पलायन कर गये, सन्यस्थ हो गये। बोले, ‘युद्ध नहीं करूँगा।‘ पर जानने वाले जानेंगे कि अगर अर्जुन युद्ध छोड़कर चले गये होते, तो वो वास्तव में कौरवों में सम्मिलित हो गये होते।
कौरवों की परिभाषा यह नहीं है कि जो धृतराष्ट्र के पुत्र हैं या जिनमें आपस में रक्त सम्बन्ध है। एक प्रकार के मन का नाम है कौरव। और वो जो मन है, वो धृतराष्ट्र के भाइयों में भी पाया जाता है और युधिष्ठिर के भाइयों में भी। उसी मन का प्रदर्शन अभी हम अर्जुन में देख रहे हैं।
श्रीकृष्ण चेता रहे हैं, बोल रहे हैं, ‘मैं भली-भाँति समझता हूँ तुम्हारी सब मानवीय दुर्बलताओं को। मुझे मालूम है अभी तुम्हें कैसा अनुभव हो रहा होगा। ब्रह्म होकर नहीं बोल रहा, मनुष्य होकर बोल रहा हूँ। उस मनुष्य को भले ही तुम अवतार का नाम दे लो। लेकिन अवतार होता तो मानवीय ही है न। सत्य होकर नहीं बोल रहा अर्जुन अभी तुमसे मैं, जीव होकर बोल रहा हूँ। जीव होकर बोल रहा हूँ, इसीलिए जीव की पीड़ा समझता हूँ। मुझे मालूम है अभी तुम्हारे हृदय में कैसी वेदना उठी है। इतना ही कह सकता हूँ, ‘सह लो। उसी में कल्याण है। सह लो।‘ यही गीता का संदेश है समस्त विश्व के लिए।
सही काम में जो पीड़ा मिले, अगर उसे प्रेम का उपहार मानकर सीने से नहीं लगा सकते, अगर उसे देवता का प्रसाद मानकर माथे से नहीं लगा सकते, तो उसे दवाई का कड़वा घूँट ही मानकर बस सह लो। बहुत अच्छा होता कि उसे प्रेम का उपहार मानते, सहना नहीं पड़ता। बात आनन्द की होती। बहुत अच्छा होता, अगर उसे देवत्व का प्रसाद मानते, सहना नहीं पड़ता। बात समर्पण की होती।
पर हम ऐसे हैं नहीं कि हममें बहुत प्रेम हो या समर्पण हो या ज्ञान भी हो। जब प्रेम भी आधा-अधूरा हो, भक्ति और समर्पण भी आधे-अधूरे हों, ज्ञान अभी बहुत ज़्यादा न हो, तब के लिए सीख यही है, सहते चलो। सहते चलो। पीड़ा उठेगी। पर वो पीड़ा इसलिए नहीं उठ रही है कि तुमको जो चीज़ मिल रही है, जिसे तुम सह रहे हो। वो चीज़ अपनेआप में तुम्हारे लिए घातक है। तुम्हें पीड़ा इसलिए उठ रही है क्योंकि तुम्हारी स्थिति ऐसी है कि सही चीज़ भी तुम्हें पीड़ित कर जा रही है।
बाहर का मौसम बड़ा सुन्दर है अभी। क्या हवा बह रही है! सब कुछ सुखद। और एक बीमार आदमी है, उससे कहा जा रहा है आओ, थोड़ा सा टहल लो, वो टहलना तुम्हारी सेहत के लिए भी अच्छा है। और बीमार आदमी निकला है सड़क पर और चार कदम चलना और हवा के मन्द शीतल झोंके भी झेलना उसे भारी पड़ रहा है। उसकी टाँगो में दर्द शुरू हो गया। ज़रा सी हवा लगी, उसका बुख़ार चढ़ने लगा। लेकिन उसके साथ कोई शुभचिंतक है, वो उससे कह रहा है, सह लो। चलो, थोड़ा और चलो। बिस्तर पर ही पड़े रहोगे तो तुम्हारी बीमारी कभी हटेगी नहीं। थोड़ा-थोड़ा चलना शुरू करो। सहो।
अब क्यों कहा जा रहा है सहो, इसलिए कि हवा बहुत बुरी है और पृथ्वी ने तुम्हारे ख़िलाफ षडयंत्र करा है, जिसे तुम्हें सहना पड़ेगा। चार कदम तुम चल नहीं पा रहे, पृथ्वी ने ज़रूर तुम्हारे लिए बड़ी चढ़ाई खड़ी कर दी है। जैसे ही तुम्हें देखा कि तुम आये हो टहलने के लिए, तुम्हारे सामने की सपाट ज़मीन को पर्वत जैसी चढ़ाई बना दिया। पृथ्वी ने कोई साज़िश करी होगी। हवा ने अपना तापमान गिरा दिया ताकि तुम्हें कंपकंपी छूटे, तुम्हें ज्वर उठे। ऐसा हुआ है क्या कुछ।
तो जब सहने की सीख दी जा रही है, तो उसमें ये भाव निहित नहीं था कि तुम बड़े अच्छे आदमी हो। और समस्त संसार और स्थितियाँ तुम्हारे विरुद्ध षडयंत्र कर रही हैं। और तुम अपनी भलाई दर्शाते हुए बस चुपचाप सज्जनता में सहे जाओ। नहीं, ऐसी बात नहीं है। आपको सहना पड़ रहा है, आपको पीड़ा का अनुभव हो रहा है क्योंकि आप दुर्बल हैं। क्योंकि आपके अतीत में आपने सही निर्णय नहीं लिए। इसलिए ये स्थिति आ गयी है कि आपको एक साधारण स्थिति भी सहज नहीं लग रही, सहनी पड़ रही है।
यही व्यक्ति अगर स्वस्थ होता तो कहता, 'वाह! मलय पवन के झोंके, क्या खुशगवार हवा है!' यही व्यक्ति अगर स्वस्थ होता तो खाली मैदान देखकर सरपट दौड़ लगा देता। कहता, ‘दौड़ने में बड़ा मज़ा आ रहा है। इतना अच्छा मौसम है।‘ पर जब आप ठीक नहीं होते तो सब स्थितियाँ आपको भारी पड़ती हैं।
श्रीकृष्ण कह रहे हैं, ‘जब स्थितियाँ भारी पड़ें, तो न तो स्थितियों को दोष देने लग जाओ, न स्थितियों से पलायन कर जाओ। बस एक बात का निश्चय कर लो कि दिशा सही है तुम्हारी। दिशा सही है तुम्हारी, उसके बाद स्थितियों से जो भी कष्ट मिलता है, उसको सहते रहो। सहते रहो और ये भाव कभी मत लाना कि स्थितियाँ खराब हैं। स्थितियाँ नहीं ख़राब हैं, तुम कमज़ोर हो। सह तुम स्थितियों की मार को नहीं रहे, सह तुम अपनी कमज़ोरियों को रहे हो। और सहना इसीलिए आवश्यक है क्योंकि जितना सहोगे, उतना भीतर की दुर्बलता मिटेगी।
जब तुम दौड़ रहे हो, तो वास्तव में न तुम पृथ्वी के विरुद्ध दौड़ रहे हो, न पवन के। तुम अपने ही विरुद्ध दौड़ रहे हो।‘ ग़ौर से सोचिएगा जब आप दौड़ते हैं, तो आप किसके विरुद्ध दौड़ रहे होते हैं, आप अपनी ही कमज़ोरी के विरुद्ध दौड़ रहे हैं। आप अपने ही वजन के विरुद्ध दौड़ रहे हैं। वही है जो आपके दौड़ने में बाधा है। तो तुम सह भी रहे हो अर्जुन, तो अपने ही कर्मफल को सह रहे हो।
हाँ, ये जो सहनशीलता है, मैं अभी जिसका उपदेश दे रहा हूँ अर्जुन, ये एक विशिष्ट सहनशीलता है। क्योंकि ये तुम्हारी दुर्बलता मिटा देगी।
समझ में आ रही बात?
तितिक्षा का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी अन्धी दिशा में जा रहे हो और उस अन्धी दिशा में जाने के कारण जो पीड़ा हो रही है, उसको बस तुम सहे जाओ। न। तितिक्षा का अर्थ है, सही दिशा में जाने पर, जो भी ऊँच-नीच झेलनी पड़े, झेल लो। सिर्फ़ इसलिए कि कोई अपने प्राण तक देने को तैयार है, इससे वो व्यक्ति सही सिद्ध नहीं हो जाता। आप मृत्यु-तुल्य पीड़ा को भी झेलने को तैयार हो, इससे भी आपकी साधुता प्रमाणित नहीं हो जाती।
अहम् का ऐसा है कि वो अपनी अज्ञानता को बचाने के लिए, शारीरिक मृत्यु तक का वरण करने को तैयार हो जाता है। आपको लोग मिलेंगे जो अपने खोखले आदर्शों के लिए और अपने झूठे पूर्वाग्रहों और हठों के लिए मरने को तैयार हो जाते हैं। वो कैसी भी पीड़ा सहने को तैयार हो जाते हैं। तो सिर्फ़ सह लेने को तितिक्षा नहीं कहते। सच्चाई की राह में जो कुछ भी आये उसको सहने को तितिक्षा कहते हैं।
हमें बड़ा भ्रम हो जाता है कई बार। हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति है जो बड़ी आपदा में भी डटा हुआ है, टिका हुआ है। तमाम तरह के कष्टों के समक्ष भी अडिग है। हममें सम्मान उठने लगता है। हम कहते हैं, ‘ये व्यक्ति, देखो निसंदेह आदर का पात्र है। कितनी प्रतिकूल स्थितियाँ हैं और ये अटल है।‘ नहीं, नहीं, नहीं, नहीं। ये धोखे की हालत हो सकती है। कोई अटल तो है। कोई है जो नहीं हार मान रहा, सब बर्दाश्त कर रहा है, पर किसकी ख़ातिर, चाहता क्या है वो।
हार तो दुर्योधन भी नहीं मान रहा था। सारे योद्धा मर गये, सारे भाई गँवा दिये, पूरी सेना नष्ट हो गयी। उसके बाद भी हार थोड़े ही मानी थी। जाकर के एक सरोवर में छुप गया था। फिर जब अन्त में मौका मिला, बोला, ‘हाँ, बिलकुल, युद्ध करूँगा।‘ गदा युद्ध किया भीम से। दुर्योधन को हराने का तो कोई तरीका ही नहीं था, उसे बस मारा जा सकता था। वह सब तरह के कष्ट सहने को तैयार था, हार नहीं माननी थी उसे।
आपके जीवन में भी बहुत लोग ऐसे होंगे। हो सकता है आप स्वयं ऐसे हों कि आपने कुछ बातें, कुछ सिद्धान्त, कुछ वस्तुएँ, कुछ व्यक्ति, पकड़ रखे हों, और आप कहते हों कि इनकी ख़ातिर तो मैं सब कुछ सहूँगा। ये बात कोई आवश्यक नहीं है कि सत्य या प्रेम का द्योतक हो। ये बात बहुत गहरे अहंकार का भी द्योतक हो सकती है। रावण ने भी सब कुछ सहा। कहाँ हार मानी, कहाँ समर्पण किया। समानता है दुर्योधन में, रावण में। दोनों ने अपने पूरे कुल का नाश देखा अपने सामने और तब भी झुके नहीं। आप झुकने को तैयार नहीं हैं, इससे यह नहीं साबित हो जाता कि आप बड़े सच्चे आदमी हैं। प्रश्न यह है कि आप किसके सामने नहीं झुक रहे हो।
झूठ के सामने न झुकना एक बात है। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग जो बिलकुल झुकने को तैयार नहीं होते, वास्तव में वो सच के सामने तने खड़े होते हैं। वो कहते हैं सच के सामने नहीं झुकूँगा और इस बात में बड़ी वीरता मानते हैं। और सच के सामने आप नहीं झुकोगे तो कष्ट तो मिलेगा ही। उस कष्ट को सहने में भी वो बड़ी शूरता समझते हैं।
एक सहनशीलता होती है, जिसमें आप कष्ट को सहते हैं, तो धीरे-धीरे कष्ट कम होता जाता है और एक सहना होता है बिलकुल दूसरे प्रकार का, जिसमें आप जितना सहेंगे, आपको कष्ट उतना मिलेगा। सहने से पहले गहना सीखिए। कौन सा कष्ट सह रहे हो, किसकी रक्षा में पीड़ा झेलने को तैयार हो, गहो। गहो माने जानो, फिर सहो। झूठ की ख़ातिर ज़रा सा भी कष्ट मत सहो। वो चीज़ इतनी सस्ती है, इतनी मूल्यहीन है कि उसके लिए ज़रा सी भी पीड़ा क्यों उठानी, ज़रा सी भी पीड़ा नहीं उठाएँगे, कोई भाव नहीं देंगे। और सच की ख़ातिर, सिर्फ़ सच की ख़ा तिर जो कुछ भी झेलना पड़े, झेल लेंगे। समझ में आ रही है बात?