बहन, खाना ही मत बनाती रह जाना || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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बहन, खाना ही मत बनाती रह जाना || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। आचार्य जी, हमारा आठ-नौ लोगों का संयुक्त परिवार है और मैं अकेली खाना बनाती हूँ। दिन में तीन बार तीन तरह का खाना बनता है तो आपके वीडियो भी कम ही देख पाती हूँ, क्योंकि खाना बनाना होता है।

आचार्य जी आप कहते हैं कि महिलाओं को भी आत्मनिर्भर होना चाहिए, नौकरी वगैरह करना चाहिए। मैं नौकरी क्या करूँ, मेरे पास तो आपके विडियो तक देखने के लिए वक्त नहीं है। न कुछ पढ़ सकती हूँ, न कुछ और कर सकती हूँ। आप कहते हैं कि अपने व्यक्तिगत विकास के लिए खेलो भी और तमाम अन्य चीज़ें। मैं उनमें से कुछ भी नहीं कर सकती। ले-देकर दिन भर खाना बनाने में ही व्यस्त रहती हूँ; परिवार काफ़ी बड़ा है। अलग-अलग तरह के खानों की ज़रूरत पड़ती है, वो भी दिन में तीन बार।

यह मुद्दा मैंने घरवालों के आगे उठाया, आपका वीडियो देखकर के। आप बोल रहे हैं कि महिलाओं को रसोई वगैरह तक सीमित नहीं रह जाना चाहिए, तो यह बात मैंने घरवालों से भी बोली। तो घरवालों ने मुझे समझाया है कि सबसे बड़ा धर्म होता है सेवा और तुम तो सेवा करती रहो और सेवा करते-करते ही तुमको मुक्ति प्राप्त हो जाएगी।

तो आचार्य जी, फिर ‌सेवा ही करती रहूँ, आपकी वीडियो भी देखने की क्या ज़रूरत है और बाकी नौकरी वगैरह तो बहुत पीछे हो गई।

आचार्य प्रशांत: नहीं, सेवा तो ठीक है, पर किसकी सेवा? और किसलिए सेवा? सेवा जब भी करी जाती है, तो कोई बैठा होता है, जो उस सेवा को स्वीकार भी कर रहा होता है न? आप सेवा कर रहे हो और सामने कोई है जो आपकी सेवा से लाभ ले रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जो आपको सेवा का पाठ पढ़ा रहे हों, वहीं वो लोग हों, जिन्हें आपकी सेवा से लाभ भी होता हो?

फिर तो कॉन्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट (हितों का टकराव) आ गया। द वन इनकरेजिंग यू टुवर्डस सर्विस, इज़ ऑल्सो द रेसिपिएंट ऑफ द सर्विस (जो आपको सेवा के लिए उत्साहित कर रहा है, वह खुद सेवा का लाभ लेने वाला भी है)। जो आपको बार-बार बोल रहा है, सेवा करो, सेवा करो। वो ऐसे इशारा कर-करके यह भी बता रहा है, मेरी सेवा करो! मेरी सेवा करो! (स्वयं की ओर इशारा करके बताते हुए)

तो अगर सेवा से ही मुक्ति मिल जानी है, तो फिर ठीक है, जाइए बाहर, इतने अनाथ घूम रहे हैं, बेघर घूम रहे हैं, बेसहारे घूम रहे हैं, सड़कों पर पशु हैं, वो सब कहीं ज़्यादा कमज़ोर और दुखद स्थिति में हैं, उनको आपकी सेवा की ज़्यादा ज़रूरत है; आप उनकी सेवा क्यों नहीं करतीं?

महिलाओं को जो भी लोग यह बताते हैं कि महिला के लिए तो सबसे बड़ा धर्म यही है कि वो सेवा में रत रहे। मैं उनकी बात से सहमत हो सकता हूँ, लेकिन फिर जो सबसे ज़्यादा दीन है, दुर्बल है और दुखी है, महिला को उसकी सेवा करने दीजिए न। अपनी सेवा काहे को करवा रहे हैं?

देखिए बहन जी, यह जो आठ-नौ लोग हैं, जिनको आप पका-पका कर खिलाती हैं, अगर ये वास्तव में दीन, दुर्बल, दुखियारे हों, तो अलग बात है। यह आठ-नौ सब छोटे-छोटे बच्चें हों, अलग बात है। कि भाई बेचारे इतने छोटे-छोटे हैं, इतने छोटे छोटे हैं—घर में नौ बच्चे हैं और आप एक माताजी हैं, तो आपको इन नौ को पका कर खिलाना ही पड़ेगा, नहीं तो ये भूखे मर जाएँगे। तो फिर कोई बात नहीं, उनको आप पका कर खिलाती रहिए। फिर मैं कुछ नहीं कहूँगा।

या कि यह नौ-के-नौ सब ऐसे हों कि एकदम रोगी हैं, एकदम वृद्ध हैं और बीमार हैं, तो भी मैं कुछ नहीं कहूँगा। आप इनकी सेवा करिए, इनको पका कर खिलाते रहिए, क्योंकि इन्हें बहुत ज़रूरत है कि आप इनकी सेवा करें। पर यह नौ लोग कौन हैं? कहीं ये हट्टे-कट्टे मुस्टंडे तो नहीं हैं? कि नौ जने खाते हैं और आप पकाती रहती हैं। जिस हिसाब से आपने अपना समय बताया है कि आठ-दस घंटे आपको रसोई में ही लगते हैं, मुझे नहीं लगता ये आठ-दस बच्चें हैं।

इतना सारा खाना बच्चों के लिए तो नहीं बनाती होंगी आप? और आपने यह भी लिखा है कि तीन दफे तीन तरह का बनाना पड़ता है और अलग-अलग लोगों की अलग-अलग फ़रमाइश रहती है। बच्चे तो नहीं इतनी फ़रमाइशें करते होंगे। और वो कर भी दें, तो बच्चों को तो धौंस दिखा कर चुप कराया जा सकता है कि 'चुप जो बना है, वो खा ले।'

यह कौन लोग हैं जो फ़रमाइश करते हैं? एक बोल रहा है कि आज़ मेरे लिए डोसा बनना चाहिए, तो दूसरा बोल रहा है, मुझे पूड़ी चाहिए। और फिर आपको पूड़ी भी बनानी है और डोसा भी बनाना है। और आप जब उनसे कुछ कहती हैं, तो कहते हैं, 'नहीं तुम तो सेवा करो!' यह जो भी लोग हैं जिन्हें खाने-पीने का इतना शौक है, ये खुद अपना खाना काहे नहीं बना लेते? या उनका काम है, आपके बनाए खाने को ठूँसना और बाहर जा करके तमाम तरीके के काम वगैरह करना? और वो जो काम कर रहे हैं, उसमें उनकी तमाम तरीके की तरक्की हो रही है और आप रसोई में कैद हैं।

मैं फिर दोहरा रहा हूँ। अगर ये जो आठ-नौ लोग हैं, जिनका आप खाना बनाती हैं, ये सब-के-सब बिलकुल बूढ़े और बीमार हों, तो आप बेशक इनका खाना बनाती रहिए, ज़रूर बनाइए। अगर यह आठ-नौ लोग जो हैं, यह सब बिलकुल छोटे बच्चे हों, तो भी आप इनका खाना बनाती रहिए, ज़रूर बनाइए। मैं आपके साथ हूँ।

लेकिन अगर ये स्वस्थ, समर्थ, ताकतवर लोग हैं, आप ही की आयु के हैं या आप से कम आयु के हैं, जवान लोग हैं, तो यह कैसी व्यवस्था है और कैसा न्याय है कि आपको इतना भी समय नहीं दिया जा रहा कि आप किताबों के साथ दिन के घंटे, दो घंटे गुज़ार लें, कि आप अखबार पढ़ लें कि कोई आप ज्ञानवर्धक वीडियो देख लें कि घर से बाहर निकलकर के आप किसी तरह का कोई कोर्स कर लें कि आप कोई पार्ट टाइम , अंशकालिक ही सही छोटी-मोटी नौकरी ही कर लें?

आपको समय नहीं दिया जा रहा, यह कौन-सी सेवा करवायी जा रही है आपसे? और जैसे आपका धर्म है, उनकी सेवा करना; उनका धर्म नहीं है आपकी सेवा करना? या महिलाओं और पुरुषों के लिए धर्म भी अलग-अलग हो जाता है, कि पुरुष का काम है ठूँसना? 'यह धर्म है उसके लिए कि जितना ठूँसेगा, उतना मोक्ष की ओर बढ़ेगा। और महिला का काम है ठूँसाना; जितना पका-पकाकर खिलाएगी, उतना मुक्ति पाएगी।'

मैं खाना बनाने को हीन काम नहीं समझता! कुतर्क मत करने लग जाइएगा। यहाँ हम बोधस्थल में हैं, बारी-बारी से सबको खाना बनाना पड़ता है। मैं भी बनाता हूँ। जब शरीर भोजन से ही चलना है, तो भोजन बनाना कोई हीन या नीच काम कैसे हो सकता है? मुझे आपके भोजन बनाने पर आपत्ति नहीं है। मुझे आपत्ति इस पर है कि यह व्यवस्था कैसी है, जो आपको भोजन बनाने से आगे का कोई काम करने ही नहीं दे रही।

क्योंकि भोजन बनाना आवश्यक ज़रूर है, लेकिन किसके लिए आवश्यक है? शरीर के लिए। और उसकी कुछ उपयोगिता निश्चित रूप से है। मैंने कहा तो, हम भी खाना बनाते हैं क्योंकि हमें पता है, खाना बनाना है भ‌ई! शरीर खाना माँगता है, कुछ तो उपयोगिता है ही खाने की। लेकिन इतनी भी उपयोगिता नहीं हो गई न खाने की कि मैं आपके सामने बैठा हूँ, आप मुझसे सवाल पूछ रहे हैं और मैं यहाँ से उठकर चल दूँ कि खाना बनाना है। कैसा लगेगा? आप कहेंगे, 'बहुत बेवकूफ़ है आचार्य। इसको यह भी नहीं पता कि ज़्यादा ज़रूरी क्या काम होता है, खाना बनाना या ऐसे सत्र में सम्मिलित होना?'

तो खाना बनाना शरीर के लिए ज़रूरी है और ज़िंदगी के बाकी काम चेतना के लिए, मन के लिए ज़रूरी हैं। आपकी पहली पहचान शरीर नहीं है, आपकी पहली पहचान है चेतना। तो जब भी आपको उन कामों की तुलना करनी पड़े, जो शरीर के लिए हैं, उन कामों से, जो मन के लिए हैं, तो उसमें वरीयता आपको उन्हीं कामों को देनी पड़ेगी, जो मन के लिए हैं।

समझ रहे हैं बात को?

इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कह रहा हूँ कि खाना ही मत खाओ या खाना बनाओ ही मत। मैं एक तुलनात्मक बात कर रहा हूँ। मैं हर चीज़ को उसकी सही जगह देने की बात कर रहा हूँ।

खाने की अपनी एक जगह है। खाना बनाने की भी अपनी एक जगह है। लेकिन उससे कहीं ऊँची जगह है ज़िंदगी में उन सब कामों की जो ज़िंदगी को जीने लायक बनाती हैं, जो आपकी चेतना को एक ऊँचा स्तर देती हैं। और अगर खाना बनाते-बनाते आपके पास वो ऊँचे काम करने का वक्त ही नहीं मिला; तो भाड़ में जाए ऐसा खाना।

समझ में आ रही है बात?

घर में ज़रा बैठक बुलाइए, जिसमें कुछ न्याय की और ईमानदारी की बात हो और पूछिए कि कितने लोग यहाँ पर ऐसे हैं, जो इतने कमज़ोर हैं और इतने बीमार हैं कि रसोई में प्रवेश ही नहीं कर सकते? और अगर आपके अलावा दो-चार लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाना बनाना आता है या खाना बनाना सीख सकते हैं, तो फिर खाना सबको बारी-बारी से बनाना चाहिए।

ताकि आपके ऊपर से इस काम का बोझ थोड़ा कम हो। आप भी बनाइए, दूसरे लोग भी बनाए। यही उचित और न्यायपूर्ण बात है। और फिर आपका जो समय बचे, वो आपको सोने में और हो हल्ले में और गॉसिप में नहीं बिताना है। वो समय आपको अपने व्यक्तिगत और आंतरिक विकास के लिए इस्तेमाल करना है। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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