बदलाव से ही डरता है ये निरंतर बदलता मन || आचार्य प्रशांत (2015)

Acharya Prashant

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बदलाव से ही डरता है ये निरंतर बदलता मन || आचार्य प्रशांत (2015)

प्रश्न: आपने अभी कहा कि जो बदल जाए वो झूठ है। तो जब मैं अपने जीवन को देखता हूँ तो मेरे जीवन में तो हर एक चीज़ बदल ही रही है। जैसे मन की स्थिति बदलती है, तो वह भी बदलाव ही है। कृपया प्रकाश डालें।

वक्ता: और जब कुछ बदलता है, तो तुम्हें कैसा लगता है? तुमने अपने-आप को परिस्थितियों के संदर्भ में ही जाना है। पूर्णतया परिस्थिति और संसार सापेक्ष होते हैं। जब कुछ बदलता है तो कैसा प्रतीत होता है? तुमने किसी से सम्बन्ध बैठाया, वो सम्बन्ध बदल गया – तुम्हें कैसा लगता है?

श्रोता १: बुरा।

वक्ता: और तुमने फिर किसी से सम्बन्ध बैठाया, अब तुम क्या चाहते हो कि खत्म हो जाए? बदल जाए या यथाव्रत रहे, क्या चाहते हो?

श्रोता १: बदले नहीं।

वक्ता: बदले नहीं। तो ठीक है तुम्हारी बात बिलकुल कि जीवन में जो कुछ भी है, जिस भी रूप में अपने-आप को जानते हो, वो सब बदल रहा है। पर तुम्हारी गहनतम इच्छा क्या है?

बदलाव दुःख देता है और तुम खोज रहे हो कुछ ऐसा जो न बदले। हर बदलाव तुम्हारा कुछ हिस्सा अपने साथ ले जाता है, तुम्हें खंडित कर देता है।

गहरे में तुम्हारी अभिलाषा ये है कि कुछ ऐसा मिल जाए जिसपर पूर्ण श्रद्धा की जा सके; जिसके बदलने का कोई खतरा न हो। यही कारण है कि मनीषियों ने उसको कभी वैधता दी ही नहीं जिसपर अनंत भरोसा न किया जा सके।

समस्त आध्यात्मिकता का ध्येय है — डर से मुक्ति।

और डर तुम्हें बदलाव का ही होता है।

बड़े से बड़ा जो बदलाव है उस डर को तुमने नाम दिया है मृत्यु, कि संसार ही नहीं रहेगा – ये बड़ा भीषण बदलाव है। तो मन के इस संताप को ऋषियों ने समझा और उन्होंने कहा जीवन जीने लायक नहीं है अगर मन लगातार इसी डर में है कि फिर कहीं कुछ छिन न जाए, फिर कहीं कुछ बदल न जाए।

क्योंकि समझिएगा जब कुछ छिनता है, जब कुछ बदलता है, तो मानो आप का ही कोई अंश मिट जाता है। यही नहीं होता कि आपका कोई सम्बन्ध बदल गया है, कि बाहरी परिस्थितयां बदल गयी हैं; आपका कोई अपना आपके पास से चला गया है। वो ऐसे होता है कि जैसे आपका हाथ कट गया हो, कि जैसे आपके शरीर का कोई अंश कोई निकाल ले गया हो – इतना गहरा दुःख होता है बदलाव का। उसको सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि यदि वो सत्य होता तो मन उसके साथ राज़ी हो जाता। मन बदलाव के साथ कभी राज़ी नहीं होता।

आप कहेंगे — “पर हमने तो ये देखा है कि मन अक्सर बदलाव के लिए आतुर रहता है”। मन बदलाव के लिए यदि आतुर भी रहता है तो इस कारण कि कुछ ऐसा मिल जाए जो बदले न। मन की प्रत्येक यात्रा उस तक पहुंचने के लिए है जो यात्रा का अंत कर दे। यात्रा चल ही इसीलिए रही है क्योंकि वो मिला नहीं कि जिसके आगे जाने की ज़रुरत न पड़े। जो भी मिला है वो आधा–अधूरा मिला है; जो भी मिला है वो ऐसा मिला है कि तृप्त नहीं कर पाया। जब तृप्त नहीं कर पाया तो ज़ाहिर है कि उसे बदलना पड़ेगा। आप चाहोगे कि इसके आगे कहीं और जायें, तो इसीलिए आध्यात्मिकता में नित्यता का प्रथम स्थान है; नित्यता का अर्थ ही है बदलाव से मुक्ति।

इसीलिए संत कह गए हैं कि “जो आये-जाये सो माया”। इसीलिए उन्होंने तुम्हें कुंजी दी है कि जिस भी विचार से, चीज़ से, जीवन को भर रखा हो, उसके बारे में एक ही सवाल करना — “ये टिकेगा? पक्का है कि टिकेगा?” क्योंकि अगर टिकने का भरोसा नहीं, तो तुम अशांति में ही रहोगे।

और वो बात को उसके बिलकुल छोर तक लेके गये हैं। उन्होंने यही भर नहीं कहा है कि “क्या तुम्हारा जीवन काल में टिकेगा?” उन्होंने कहा है कि “क्या तुम्हारी मृत्यु के उपरांत भी टिकेगा?”। क्या तब भी रहेगा जब तुम्हारा शरीर नहीं रहेगा? इसीलिए वो तुम्हें बार-बार याद दिलाते हैं कि जो कुछ तुमने इकट्ठा किया है, वो मौत तुमसे छीन लेगी। नित्यता नहीं है उसमें, समय छीन ले जायेगा।

जो कुछ समय तुमसे छीन ले – वो झूठा। जो कुछ समय ने तुम्हें दिया – वो झूठा।

कोई शौक नहीं है उन्हें कि यूँ ही सब पर झूठ आरोपित करते रहें, कि ये भी झूठा और वो भी झूठा। बात मन के स्वभाव की, उसकी प्रकृति की है। वो चैन पाता ही नहीं उन चीजों में जिन पर उसे पूरा भरोसा न हो। इसी कारण तुम हमेशा शंकित और बौखलाए हुए रहते हो; इसी कारण डरे हुए रहते हो, कि कहीं खबर न आ जाए कि कुछ और छिन गया।

और चूँकि छिनने का खतरा है इसीलिए इकट्ठा करने की कोशिश भी है कि भई छिनता तो रहता ही है तो दूसरे हाथ से ज़रा संचय भी करते चलो। यही कारण है कि आदमी लगातार इकट्ठा करने की कोशिश में संलग्न रहता है; यही मन का ताप है, ये बताता है कि हम अनित्य में जी रहे हैं।

आध्यात्मिकता इसीलिए है कि जीवन — भरा, पूरा, शांत हो सके। लगातार जिस खौफ़ में, जिस तड़प में, जिस परेशानी में हम जीते हैं, उससे मुक्ति मिल सके।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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