प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, मैं अपनी फ्रेंड्स को आपके वीडियोज भेजती हूँ जिसमें जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा नहीं देना है। तो वो मुझसे रिवर्ट में तर्क करती हैं कि उनका चाहे वो पहला बच्चा हो चाहे वो दूसरा बच्चा हो कि यह गुड न्यूज़ है। और आचार्य जी, अभी जितनी इस पृथ्वी पर जनसंख्या है उसमें एक बच्चा भी अकोमडेट (वहन) कर पाना असंभव है। तो वो मुझसे कहते हैं कि यह गुड न्यूज़ है और आचार्य जी यह आप कहते हैं कि यह अभिशाप है। तो मुझे इस पर थोड़ा सा स्पष्टता चाहिए।
आचार्य प्रशांत: नहीं इस पर जो स्पष्टता है उसके लिए तो विशेष आध्यात्मिक शिक्षा की भी ज़रुरत नहीं है, तो बहुत भौतिक विषय है, आँकड़ें ही समझा देंगे कि बात क्या है ।
प्रति व्यक्ति हम संसाधनों का जितना उपभोग करते हैं उतने के लिए ही पृथ्वी पर पर्याप्त संसाधन मौजूद नहीं है। तुम और लोग कहाँ से ले आ दोगे ? एक घर हो जिसमें दस ही लोगों के खाने की गुंजाइश हो और उसमें चालीस लोग पहले से हैं और तुम चाह रहे हो चालीस को सत्तर बना दें, तो इसमें अब क्या तुमको अध्यात्म समझाया जाये। यह बात तो सीधे-सीधे गणित की और आँकड़ों की है। एक साधारण घर हो उसमें तो फिर भी उधार से ला सकते हो, बाहर से कहीं ला सकते हो। अगर उस घर का नाम ही ‘ग्रह’ हो तो ? पृथ्वी पर अनाज बाहर से कहाँ से लेकर आओगे ? पृथ्वी पर जगह और संसाधन बाहर से कहाँ से लेकर के आओगे ? कोई दूसरी पृथ्वी तो है नहीं न। एक ही पृथ्वी है और वो जितना दे सकती है वो पर्याप्त नहीं है इन आठ- सौ -करोड़ लोगों के लिए ही। और ज़्यादा लोग कहाँ से लाओगे? समझ में आ रही है बात।
और यह भी नहीं है कि यह जो आठ- सौ- करोड़ लोग हैं अगर यह न बढ़े तो भी पर्याप्त हो जाएगा, तो भी नहीं होगा। क्योंकि हर व्यक्ति प्रगति चाहता है, विकास और तरक्की का अर्थ क्या है ? कंसम्प्शन (उपभोग) बढ़ाना। यही तो! और जो हम कंसम्प्शन भोग बढ़ाते हैं, दो तरीके से बढ़ाते हैं। एक यह कि जितने हैं वो और ज़्यादा भोगे और दूसरा, भोगने के लिए और नए-नए लोग भी वो पैदा करें जो भोग रहे हैं। जो हमारा भोग है उसकी दो पहलू हैं— ख़ुद भी ज़्यादा भोगो और भोगने के लिए अपने घर में और लोग पैदा कर दो, जो और भोगे।
आप कितने यूनिट बिजली की खपत करते हैं आज ? बिजली के बिल को कोई देखता है ठीक से अपने ? जिन्होंने देखा होगा उन्हें पता होगा। और बताइएगा बीस साल पहले कितने यूनिट का बिल आता था आपके घर में। जल्दी बताइए। एक बटा दस। एक आम परिवार ने अपनी बिजली की खपत दस गुना बढ़ा ली है, वो बिजली कहाँ से आएगी और दस गुना पर आप रुक नहीं गए हो, अभी आपको और बढ़ानी है। औसत भारतीय औसत जर्मन या अमेरिकन कि अपेक्षा बिजली का एक बटा दस या एक बटा बीस इस्तेमाल करता है। तो अभी तो भारतीय और बढ़ाएगा और वो सिर्फ़ बिजली की अपनी प्रति व्यक्ति खपत ही नहीं बढ़ाएगा, उन व्यक्तियों की संख्या भी बढ़ाएगा जो खपत करेंगे। बिजली कहाँ से आएगी ? भारत में बिजली कहाँ से आती है ज़्यादातर ? कोयला कहाँ से आएगा? किसी और ग्रह से आएगा! कोयला कहाँ है? और पृथ्वी का भी जो कोयला है अगर वो तुम जलाओगे तो उससे क्या निकलता है?
यह जो बच्चा पैदा करते हो, यह अपने साथ सड़क लेकर आता है, स्कूल लेकर के आता है, हवा लेकर के आता है, अन्न लेकर के आता है, घर ले करके आता है, गाड़ी लेकर के आता है! एक बच्चा जब पैदा होता है वो अपने जीवन में अब किन-किन चीज़ों का इस्तेमाल करेगा। उसे क्या-क्या चाहिए? उसे सड़क चाहिए। क्या माँ के गर्भ से सड़क पैदा होती है? माँ अगर ज़िम्मेदार हो तो उसे सिर्फ़ बच्चा नहीं पैदा करना चाहिए, उसे एक कार भी पैदा करनी चाहिए। क्योंकि जो बच्चा पैदा हुआ है अब यह कार माँगेगा। वो कार कहाँ से आएगी? पृथ्वी के पास संसाधन नहीं है कार बनाने के और। न सड़कों पर जगह है, न पृथ्वी पर जगह है सड़क बनाने की क्योंकि सड़क बन रही है अब, तो जंगल काटकर बन रही है। तो जो बच्चा पैदा हो रहा है वो वास्तव में जंगल काटकर पैदा हो रहा है, इसलिए बोला करता हूँ कि जो बच्चा पैदा हो रहा है वो लाखों जीवों की लाश पर पैदा होता है। आप कहते होंगे अपने आप को बड़े अहिंसक इत्यादि कुछ भी लेकिन आप महाहिंसक हैं अगर आपने बच्चा पैदा कर दिया। जो बच्चा पैदा कर रहा है, दो टूक बात बोलूँ तो बच्चा पैदा करने के क्षण में ही लाखों हत्याओं का दोषी हो जाता है।
आपको पता है, आप जो खाते हो, उसकी खेती करने के लिए जमीन है नहीं, तो वो कैसे पैदा होता है? जंगल काटे जाते हैं ताकि खेत बनाए जा सके और जब जंगल कटता है तो सिर्फ़ पेड़ नहीं कटता, उस पेड़ पर जितने पशु-पक्षी, जितनी प्रजातियाँ आश्रित थीं, वो सब गईं, ख़त्म। आपका घर भर गया उनका घर उजड़ गया। यह हम विचार ही नहीं करते न। और आप जब बच्चा पैदा करते हो तो आप साथ में यह भी चाहते हो कि आप उसके लिए ऊँची से ऊँची तरह की लाइफ़स्टाइल की व्यवस्था कर सको, चाहते हो न! और ऊँची लाइफस्टाइल का अर्थ ही क्या होता है, क्या अर्थ होता है? भोग। सिर्फ़ एक जगह है जहाँ से अब भोग आता है। वो है पृथ्वी को नष्ट करके।
अमेरिका का औसत नागरिक जितने संसाधनों का इस्तेमाल करता है अगर दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति उतने संसाधनों का इस्तेमाल करने लगे तो हमें सत्रह पृथ्वियाँ चाहिए, कितनी ? सत्रह। और बनना सबको अमेरिकन ही है न। एक आम आदमी की अभिलाषा क्या है, गुडलाइफ हम किसको बोलते हैं? यही तो, कि जैसे अमेरिका वाले जीते हैं वैसे हम भी जिएँगे। उसके लिए सत्रह पृथ्वियाँ चाहिए और सत्रह पृथ्वियाँ वर्तमान भोग के स्तर पर अमेरिका के।
अमेरिका वाले भी अपना भोग अभी और बढ़ा रहे हैं। तुम पृथ्वियाँ कहाँ से लाओगे, सीधा गणित है। बच्चा तो पैदा कर दिया, उसके लिए स्कूल भी तो बनाओ । नहीं, स्कूल कहाँ से, स्कूल..। सोचते ही नहीं न माँ-बाप। स्कूल कहाँ से आएगा उसके लिए, रोटी कहाँ से आएगी, हवा कहाँ से आएगी।
एक बार कल्पना करो एक बच्चा अगर अस्सी साल जिएगा तो वो अस्सी साल किन-किन चीज़ोंका भोग करेगा। वो चीज़ें कहाँ से आएँगी? पैदा करो उनको साथ में। माँ-बाप के ऊपर यह नियम लगाया जाना चाहिए। तुम यह सब चीज़ें भी पैदा करके दो।
और इसलिए कोई अगर एक व्यक्ति संतान पैदा कर रहा है तो वो उसका निजी मसला नहीं हो सकता न। आपने इतनी संतानें पैदा कर दीं, वो ट्रैफिक-जाम लगा रही हैं। बताइए यह आपका व्यक्तिगत मसला कैसे है, ट्रैफिक जाम में तो मैं फँस गया। आप कहते हैं, ‘साहब, यह तो हमारा मसला है, हम कुछ भी करें।’ आप कुछ भी करिए अपने घर के अंदर करिए फिर वो बच्चा कभी घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए और उसके जीवन भर में जितनी चीज़ें लगनी है वो भी फिर घर के अंदर ही पैदा होने चाहिए, घर के बाहर से नहीं आनी चाहिए। यह आपके घर का मसला नहीं है।
आज के समय में अनियंत्रित रूप से जनसंख्या बढ़ाना पूरी मानवजाति और जितनी भी समस्त पशु-पक्षियों की, पौधों की, पेड़ों की जातियाँ हैं सबके प्रति महाअपराध है। नदी के प्रति आप अपराध कर रहे हो बच्चा पैदा करके क्योंकि उस बच्चे के लिए पानी कहाँ से आना है? और नदियों की जो दुर्दशा हुई है, यह को क्या लगता है, यह इतनी जनसंख्या के बिना हो सकती थी? हमारे घर की खुशियाँ नदी की बर्बादी बनती हैं, यह बात हमें समझ में ही नहीं आ रही। जनसंख्या नियंत्रण का एक समुचित कानून, किसी उल्टे-पुल्टे उद्देश्य से नहीं, बिलकुल सही, साफ़, सच्चे उद्देश्य से बनाया गया कानून भारत की, पूरी दुनिया की आज पहली ज़रूरत है। और कोई यह न बोले- पहली बात कि यह मेरे घर का मसला है, इसमें सरकार को दख़ल देने की क्या ज़रूरत है, यह तुम्हारे घर का मसला नहीं है।
आप अपने घर में जनरेटर चलाओ— मान लो— वो जो पुराने क़िस्म के डीजल सेट होते थे और वो खूब धुँआ फेंक रहा है। क्या यह आपका व्यक्तिगत मसला है? बच्चा पैदा करना ऐसा ही है। वो डीजल सेट रखा तो तुम्हारे घर में है पर उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है, वो तुम्हारा निजी मसला कैसे हो सकता है। यह चूँकि तुम्हारा निजी मसला नहीं है इसलिए दूसरों को दख़ल देने का हक़ भी पूरा है। और दूसरी बात कोई यह न बोले कि यह सब कुछ जो होता है यह भगवान की मर्जी से होता है। ऊपर वाले की देन नहीं है औलादें। किसी ऊपर वाले ने औलादें नहीं भेजी हैं। तुम्हारी वहशत की पैदाइश है औलादें। वहशी दरिंदे की तरह तुम दिन-रात टूटे रहते हो क्योंकि तुम्हारे पास जीने के लिए कोई सार्थक वजह तो है नहीं, तो एक ही काम है- मनोरंजन। स्त्री-जाति का दमन करते हो, घर में एक स्त्री मिल जाती है, उसको हर समय गर्भवती करे रहते हो। एक के बाद एक औलादें पैदा किये जा रहे हो फिर कहते हो यह तो ऊपर वाले की बरकत है। बेवकूफी की बात, बेवकूफी की भी बेईमानी की भी।
न यह निजी मसला है न इसका ऊपर वाले से कोई लेना-देना है। ज़िम्मेदारी तुम्हारी है और मसला सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक है। ऊपर वाले की ज़िम्मेदारी नहीं है। व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है और किसके प्रति ज़िम्मेदारी ? पूरी दुनिया के प्रति ज़िम्मेदारी है। तो वो ज़िम्मेदारी आपको स्वीकार करनी पड़ेगी कि यह जो आप कर रहे हैं यह आप पूरी दुनिया के प्रति एक गुनाह कर रहे हैं।
बहुत यदि लगता भी हो कि संतान सुख भोगना ही है तो एक बच्चा, अधिक से अधिक एक। और अगर थोड़ा संयम बरत सकते हैं, जीवन को चेतना की एक ऊँचाई दे सकते हैं तो एक बच्चा भी आवश्यक है नहीं। दूसरे पर तो ज़बरदस्त अर्थदंड होना चाहिए और तीसरे पर तो जेल ही। बात आ रही है समझ में।
प्र: आचार्य जी, आपने कहा कि जितनी जनसंख्या है और जिस प्रकार से उनको उपभोग करना है तो सत्रह और पृथ्वी चाहिए। तो आचार्य जी साइंस के बेस पर भी यदि इसको सिद्ध करके उन्होंने दूसरे ग्रहों पर लोगों को बसाना शुरू कर दिया है। हो सकता है साइंस निकट भविष्य में ऐसे सत्रह पृथ्वी खोज ले या वहाँ से संसाधन यदि लाता है, तो क्या इस बात को..।
आचार्य: जब हो जाएगा तो कर लेना, पहले करके दिखा दो। दूसरे ग्रह खोजने के लिए भी जितने संसाधन चाहिए उसके लिए भी सत्रह पृथ्वियाँ चाहिए। हम कह रहे हैं कि गाड़ी चलती है तो बड़ा प्रदूषण होता है और उसके लिए बड़ा ईंधन लगता है। गाड़ी कहाँ से कहाँ को चलती है? दिल्ली से गुड़गांव को चलती है। उसके लिए ईंधन लग जाता है और दिल्ली से मार्स तक जाने में कितना लगेगा? और वो भी जब पूरी जनसंख्या को जाना हो, आठ- सौ- करोड़ लोग मार्स पर जा रहे हों उसके लिए ईंधन कहाँ से आएगा? तो यह क्या बेवकूफी वाली बातें हैं कि मैं दूसरी पृथ्वी लाकर के दूसरी ग्रहों पर जीवन बसा दूँगा।
एक नयी कॉलोनी बसाने में पता है न कितना पैसा लगता है और कितने संसाधन लगते हैं। एक नया ग्रह बसाने में कितना लगेगा? जहाँ न हवा ठीक है, न पानी ठीक है और जहाँ कुछ पता नहीं कि और कितने तरह के और जीवाणु हैं उनके लिए भी वैक्सीन निकालनी पड़ेगी। कुछ पता भी है वहाँ क्या होगा? लेकिन दिमागी फितूर, जैसे बच्चों की कॉमिक्स हो कि छोटू को अर्थ प्लेनेट पर खिलौना नहीं मिल रहा था तो छोटू जाकर के मार्स प्लेनेट पर बैठ गया और वहाँ खिलौना मिल गया, मिल गया। बच्चों ताली बजाओ। कभी विचार करा है- एक पूरे नये ग्रह को हैबिटेबल बनाने में कितनी चुनौतियाँ, कितना श्रम और सर्वप्रथम कितने संसाधन लगेंगे? एक छोटा-सा घर इसी पृथ्वी पर बनाने में जान निकल जाती है, वहाँ क्या बनाओगे। और तुम्हारी सारी व्यवस्था पृथ्वी जैसी है वहाँ पर तो गुरुत्वाकर्षण भी दूसरा है।
आपकी जो पूरी शारीरिक व्यवस्था है न, आप पृथ्वी से उठे हो। उदाहरण के लिए आपकी जो रक्त-धमनियाँ है इनमें एक ब्लड-प्रेशर होता है, वो किससे कैलिब्रेटेड है, पृथ्वी ने उसको किससे मेल में बनाया है? जो पृथ्वी पर एटमॉस्फेरिक प्रेशर है और एटमॉस्फेरिक प्रेशर पृथ्वी पर किससे संबंधित है? पृथ्वी का जो ग्रेविटेशनल पुल है। पृथ्वी हवा को खींचती है क्योंकि पृथ्वी के पास गुरुत्वाकर्षण है उसी से एटमॉस्फेरिक प्रेशर बनता है और वही जो एटमॉस्फेरिक प्रेशर है उससे कैलिब्रेटेड करके आपका ब्लड प्रेशर होता है। अगर ग्रैविटी दूसरी होगी तो आपकी रक्त-धमनियाँ फट जाएँगी। अभी आपका ब्लडप्रेशर ऐसा रहता है कि बाहर से जितना दबाव पड़ा है और भीतर से खून का जितना दबाव पड़ रहा है वो बराबर है। आप ऊपर जाते हो जब पहाड़ी पर तो नाक से खून क्यों निकलने लगता है? क्योंकि भीतर का प्रेशर तो उतना ही है, बाहर का प्रेशर कम हो गया तो भीतर का प्रेशर फाड़ देता है और खून निकलने लगता है।
आप किसी ऐसे ग्रह पर जाओगे जहाँ ग्रेविटी दूसरी है, आप जी लोगे? पर नहीं, सोशल-मीडिया पर छाने के लिए, हवा-हवाई बातें करने के लिए, एक पापुलरआइकन बन जाने के लिए यह सब उछालना बड़ा अच्छा लगता है, मार्स- मार्स- मार्स। और छोटे-छोटे बच्चे इन सब बातों को किसको लक्ष्य करके बोला जाता है? यह जो पंद्रह साल वाले होते हैं जिन्हें ‘निब्बा’ बोलते हैं, इन्हें बड़ा मजा आ जाता है। अच्छा, मार्स पर जाने को मिल रहा है, बताओ कब मिलेगा? और यह पंद्रह साल की बुद्धि की बातें हैं सारी। कोई ज़रा सा भी परिपक्व आदमी होगा तो इस तरह से सोच भी नहीं सकता।
एक बड़ी दुर्घटना घटी है। भारत जैसे देशों की जो आबादी है वो और ज़्यादा और ज़्यादा युवा होती जा रही है। भारत की जो औसत उम्र है वो प्रतिवर्ष कम होती जा रही है, मतलब जो जीवित भारतीय हैं। ‘आयु’ नहीं कह रहा हूँ- ‘उम्र’। बात समझ रहे हो। तो ज़्यादा लोग हैं जो अब पंद्रह से पच्चीस वाली दरमियान में आते हैं। यही लोग है। अब यही लोग हैं फिर जिनके पास पैसा भी है, कैसे? इसलिए नहीं कि ख़ुद कमाते हैं। इसलिए क्योंकि माँ-बाप के इकलौते लड़के हैं तो माँ-बाप का सारा पैसा इनके हाथ में है, भले ही ख़ुद कुछ न कमाते हों, बेरोजगार हों।
तो दुनिया भर के जितने मार्केटर हैं, वो सब अब इन्हीं को टारगेट करते हैं, पंद्रह से पच्चीस वालों को। और इसीलिए एक से एक फ़िज़ूल, बचकानी, अविकसित या अर्धविकसित, पागलों जैसी, अपरिपक्व एमेच्योर बातें अभी बाजार में खूब तैरती हैं। इसको आप कह सकते हैं कि कल्चर पर, इकोनॉमी पर, पॉलिटिक्स पर भी यह एक ‘निब्बा इफेक्ट’ है।
चूँकि यही लोग अब तादाद में हैं, कम उम्र वाले तो जिसने इनको पकड़ लिया वो शहंशाह हो जाता है और इनको पकड़ने के लिए क्या चाहिए, कोई ऊँची बात नहीं चाहिए, कोई लुभावनी, आकर्षक, बच्चोंवाली बात चाहिए, यह पकड़ में आ जाते हैं। यहाँ तक कि जो आपको आज अगर राजनैतिक सत्ता भी चाहिए तो आपको इस आयुवर्ग को को पकड़ना पड़ेगा- पंद्रह से पच्चीस, अट्ठारह के बाद वोट देना शुरू कर देते हैं। जिसने इनको पकड़ लिया वो जीत जाता है, वो शहंशाह हो जाता है। वो सत्ता में भी ऊपर बैठ जाता है, वो व्यापार में भी ऊपर हो जाता है। मनोरंजन में, टीवी में, मीडिया में, सोशल मीडिया में, हर जगह वही जीतेगा क्योंकि आबादी आज इन्हीं की सबसे ज़्यादा है।
लेकिन उसका दुष्प्रभाव समझ रहे हैं न? अगर इनकी आबादी ज़्यादा है तो इन्हीं की सोच फिर राज करेगी। जिसकी आबादी ज़्यादा होती है वही राज करता है न। तो अगर पंद्रह, अट्ठारह साल वालों की आबादी ज़्यादा है तो फिर इन्हीं की सोच अब राज कर रही है। इसीलिए आप पा रहे हो कि जीवन के हर तल पर आपको अब इम्मेचौरटी बहुत ज़्यादा दिखायी देगी। उसकी वजह डेमोग्राफिक है। और जो जितनी ज़्यादा बिल्कुल अल्पबुद्धि की, इम्मेचौर बातें कर रहा होगा उसको उतनी सफलता मिल रही होगी और आप ज़्यादा अगर विकसित, परिपक्व बात करेंगे, समझदारी की बात करेंगे तो आपको सुनने वाले लोग ही कम होंगे क्योंकि उन लोगों का अनुपात जनसंख्या में कम ही होती जा रहाहै। इसलिए नहीं क्योंकि समझदारों की संख्या कम हो रही है, इसलिए क्योंकि अट्ठारह से पच्चीस साल वालों की ही तो संख्या बढ़ती जा रही है लगातार। यह भारत में हो रहा है, हर जगह ऐसा नहीं है। जापान चले जाएँगे वहाँ उल्टा है, यूरोप जाइए वहाँ उल्टा है।
आपको क्या लगता है, क्यों ऐसा हो रहा है कि पीआर ही सब कुछ हो गया है। दिल्ली की सत्ता पर कौन बैठेगा यह भी इसी से निर्धारित हो रहा है कि ज़्यादा अच्छा पीआर कैंपेन कौन चला ले रहा है। जिसको आप ‘पीआर’ कहते हैं उसका सबसे ज़्यादा असर किस पर पड़ता है— एक विकसित मन पर या एक बालक बुद्धि पर? हाँ। चूँकि अधिकांश जनसंख्या बालक बुद्धि ही है क्योंकि उम्र से ही बालक है अट्ठारह की है, इक्कीस की है, पच्चीस की है तो इसीलिए राजनीति में भी ऐसा मुकाम आ गया है जहाँ जो ज़्यादा अच्छा पीआर करेगा,सत्ता उसके हाथ में रहेगी। अगर लोग ज़्यादा विकसित होते चेतना से तो पीआर का इतना ज़्यादा महत्व नहीं रह जाता।
आप थोड़ा सा याद करिएगा साठ-सत्तर के दशक के जो अभिनेता और अभिनेत्री थे, वो कैसे लगते थे, दिखने में ही? आप राज कपूर को याद करिए। आप संजीव कुमार को याद करिए। कैसे लगते थे? और परिपक्व लगते थे। जैसे उन्होंने बोला अभी— अंकल टाइप, है न। आज की दृष्टि से ‘अंकल टाइप’, थोड़ा बड़ी उम्र के लगते थे और आज उनको देखिए जो बॉलीवुड वाले, दक्षिण भारत के सिनेमा को हटाइए। वहाँ अभी अलग है संस्कृति पर जो बॉलीवुड वाले हैं आज के सफल हीरो-हीरोइन, यह दिखने में कैसे लगते हैं? एन फॉर ‘निब्बा’, वो पैंतीस साल का भी होगा पर आप उसको देखोगे तो आप कहोगे, ’यह अल्प बुद्धि है। इसके मुँह पर लिखा हुआ है अल्प बुद्धि है। यह खोपड़े से विकसित हुआ ही नहीं।’
और जो जितना खोपड़े से अविकसित होता है आज के समय में वो उतना सफल हो जाता है क्योंकि मार्केट जो है वो पूरी अट्ठारह साल वालों की है। आप ज़्यादा अगर समझदार हो तो वो अट्ठारह साल वाला आपको समझ ही नहीं पाएगा। तो इसीलिए फिर यह सब और उसमें ख़तरा बहुत बड़ा यह है कि बच्चे पैदा करने का काम भी सब कौन करते हैं ? यही। और बुद्धि है नहीं, बच्चे हैं।
प्र: आपने बोला कि अट्ठारह से बत्तीस साल के बच्चों का माइंड मतलब दे यार निब्बा कैटेगरी , माय क्वेश्चन टू यू इस दैट हाउ दे प्रोडूस, लाइक व्हाई दे आर लाइक दिस। ऑय मीन द जनरेशन हू इस एल्डर टू देम आर रेस्पोंसिबल फ़ॉर दिस। इसं इट! सो व्हाट इस मिस्ड। (मेरा प्रश्न आपसे यह है कि वो इस तरह से क्यों पैदा करते हैं। वो इस तरह क्यों हैं। क्या इसके लिए उनकी बड़ी पीढ़ी ज़िम्मेदार नहीं हैं। क्या छूट गया? )
आचार्य: जो रिस्पांसिबल हैं उन्होंने ही कुछ मिस करा होगा, सोचिए क्या मिस करा होगा?
प्र: सो इट इस लाइक दे आर मोर मटेरियलिस्टिक एंड दैट्स व्हाई दे आर सेटिंग उप द टारगेट्स। (तो क्या यह ऐसा है जैसे कि वो भौतिकवादी हैं इसीलिए वो इस तरह के लक्ष्य बनाते हैं?)
आचार्य: देखिए हर बच्चा पैदा तो अविकसित ही होता, उसको विकसित बनाना पड़ता है न। अब जिनको विकसित बनाना है वो ख़ुद ही अविकसित रहे अपने समय में तो एक यह बड़ा कारण हो जाता है बच्चे के कुंठित रह जाने का। दूसरा कारण— आप अगर अविकसित हो, मैच्योर नहीं हो तो ज़िंदगी आपको साथारणतया मजबूर कर देती है विकसित होने के लिए लेकिन तब नहीं जब आपके सिर पर माँ-बाप की ज़बरदस्त छाया और सुरक्षा हो। जो आज की पीढ़ी के माँ-बाप हैं उनके पास ज़्यादा पैसा है और ज़्यादा ताकत है, बनिस्बत उनके जो उनके माँ-बाप थे। पैसा ज़्यादा है बच्चे कम हैं, पैसा ज़्यादा है बच्चे कम हैं तो क्या होगा? वो बच्चा कितना भी नालायक हो उसको पालन-पोषण, सुरक्षा मिलती रहेगी। दंड नहीं मिलेगा न। जीवन साधारणतया स्वयं ही आपका सुधार कर देता है आपको सज़ा दे- देकर के। अब सज़ासजा मिलने नहीं पाती। वो ज़िगर का टुकड़ा है, वो लाल है घर का और एक ही है या दो हैंतो मोह भी पूरा है और अज्ञान भी पूरा है।
यह जो इतनी बेरोज़गारी भारत में बतायी जा रही है, आप जानते हो इससे कहीं ज़्यादा है यह, बेरोज़गारी। भारत में प्रछन्न रोज़गार है बहुत सारा। भारत का जो अनइंप्लॉयमेंट डाटा है आप उसको स्टडी करें तो बहुत बातें आपको जानने को मिलेगी। बहुत सारे लोग हैं जिनको रोज़गार उपलब्ध है वो रोज़गार ले नहीं रहे। वो कह रहे हैं,’नहीं करना। इससे ज़्यादा पैसे तो मुझे पॉकेटमनी में मिल जाते हैं, नहीं करता।’ वो फिर गिने जाते हैं बेरोज़गारों में। और बहुत सारे ऐसे हैं जो अपने आप को रोज़गार बताते हैं पर वो हिडेन अनइंप्लॉयमेंट हैं।
दोनों तरह के लोग हैं। एक वो जिन्हें रोज़गार उपलब्ध है पर वो अपनेआप को बेरोज़गार बताते हैं। वो कहते हैं,’यार, काम करने जाऊँगा, इतनी मेहनत करूँगा। माँ-बाप ने ही इंजीनियरिंग करा दी डोनेशन देकर के तो जॉब तो मिल रही है लेकिन वो जॉब अब मैं फ्रेशेर लेवल पर ज्वाइन कर रहा हूँ, पंद्रह हज़ार की मिल रही है। पन्द्रह हज़ार से ज़्यादा तो मुझे पापा हफ़्तेका दे देते हैं, कैश थमा देते हैं। मैं पन्द्रह हज़ार की नौकरी क्यों करने जाऊँ इतना परेशान होकर के। मैं घर पर बैठा हुआ हूँ।’ और घर पर बैठने का कारण क्या बताऊँगा, बहाना क्या बताऊँगा कि मैं तैयारी कर रहा हूँ।
दस-दस साल तक यूपीएससी की तैयारी कर रहा है और बेरोज़गार गिना जा रहा है। वो वास्तव में ज़बरदस्तीका बेरोज़गार है। अर्थव्यवस्था उसको नौकरी देने को तैयार है वो नौकरी लेने को तैयार नहीं है। कह रहा है,’यह पंद्रह हज़ार वाली चलेगी ही नहीं। मेहनत बहुत कराता है बॉस और पंद्रह हज़ार तो मैं दो दिन में उड़ा दूँ, मैं ऐसा बंदा हूँ।’ एक सिरे पर ऐसे लोग हैं, दूसरे सिरे पर ऐसे लोग हैं जो अपनेआप को बोलते हैं कि हम कहीं काम कर रहे हैं लेकिन वो जो काम कर रहे हैं उसमें उनकी ज़रूरत ही नहीं है।
उदाहरण के लिए खेत है घर में, उसमें छ: भाई लगे हुए हैं। लगने की ज़रूरत सिर्फ़ दो भाइयों की है पर बाकी चार इसलिए लगे हुए हैं ताकि लगे कि कुछ कर रहे हैं ताकि शादी हो जाए। काहे कि अगर साफ़-साफ़ गाँव में पता लग गया कि यह चार जो हैं यहबिलकुल बेरोज़गार हैं तो उनका ब्याह होगा नहीं। तो वो छ: के छ: घोषित करते हैं कि हम सब लगे हुए हैं उसी खेत पर, और खेत है इतना। उससे दस गुना ज़्यादा बड़े खेत पर अमेरिका में एक आदमी लगा होता है और यहाँ उतने छोटे से खेत पर छ: भाई लगे हुए हैं। यह हिडेन अनइंप्लॉयमेंट है, प्रछन्न बेरोज़गारी। समझ में आ रहा है।
तो जो आज का युवा है वो बेचारा बड़ी विकट स्थितियों से जूझ रहा है। शिक्षा उसको मिली नहीं है कि उसके भीतर विवेक जागृत हो। जो हमारी पूरी एजुकेशन है, उसको हमने सेकुलरिज्म के नाम पर जीवन मूल्यों से बिलकुल वंचित कर दिया है, रूखी शिक्षा है हमारी। तो शिक्षा से उसको विवेक मिल नहीं रहा और जीवन उसको सज़ा देकर के उसको विवेक सिखा दें ऐसा उसके माँ-बाप होने नहीं दे रहे। तो वो क्या सीखेगा और कहाँ से सीखेगा। और कोढ़ में खाज़ जैसी बात यह कि इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के कारण दुनिया भर की बदतमीजियाँ उसको इंटरनेट पर उपलब्ध है और इंसान का मन बेवकूफी और गन्दगी की तरफ़ ही ज़्यादा जल्दी भागता है। एक बहुत ही कमजोर सी पीढ़ी हमारे सामने खड़ी हो रही है और दोष उसका नहीं है। दोष अभिभावकों का और सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था का ही है।आप समझ रहे हैं।
प्र: सो वाट इस अ वे आउट? (तो निकलने का रास्ता क्या है?)
आचार्य: जहाँ गड़बड़ हुई है वहीं ठीक करना पड़ेगा न। हमने कहा दो-तीन चीजें हैं जो गलत हुई हैं। माँ-बाप में विवेक नहीं है, शिक्षा व्यवस्था में अध्यात्म नहीं है और इंटरनेट के माध्यम से ऐसी सामग्री पहुँच रही है उन तक जो नहीं पहुँचनी चाहिए। और जो सामग्री उन तक पहुँचनी चाहिए वो बहुत पीछे छूट जा रही है। इनमें से कौन सी चीज़ है जिसको आप तुरंत ठीक कर सकते हैं?
माँ-बाप में विवेक लाना कोई बड़ा-लंबा चौड़ा काम हो सकता है, इंटरनेट को रेगुलेट करना टेढ़ी खीर है क्योंकि कुछ पता नहीं कि किस चीज़ को रोका जाना चाहिए किसको नहीं, कौन तय करेगा? और लोगों को आप यह अधिकार दे देंगे सरकारों को कि इंटरनेट को रेगुलेट करें तो उसमें तमाम तरह की मक्कारियाँ कर सकते हैं। तो फिर जो सबसे सीधा तरीका है वो अध्यात्म ही है। हमें शिक्षा-व्यवस्था में जीवन मूल्यों को लाना पड़ेगा, अगर तीन-चार साल भी हमारे करिकुलम में लाइफ एजुकेशन सम्मिलित हो तो उससे बहुत अन्तर पड़ जाएगा।