बदले स्थिति न बदले तुम्हारा स्थान, राजा वो जो आसन पर विराजमान || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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बदले स्थिति न बदले तुम्हारा स्थान, राजा वो जो आसन पर विराजमान || आचार्य प्रशांत (2014)

वक्ता: आप बिंदु पर बैठते हैं। आपका आसन वहाँ पर है, वहाँ कुछ बदलता नहीं है। आपका आसन थोड़ा सा डोलता है, मन का क्षेत्र शुरू हो जाता है। वहाँ तीन खंड होते हैं – जाग्रृत, सुषुप्ति, स्वप्न। दो ही मान लीजिये – जगना और सोना। पर दो खंड तो हो ही गए। जब आप बिंदु पर थे, केंद्र पर थे, तो आप अपनी अवस्था का कोई वर्णन नहीं कर सकते थे क्योंकि आपकी कोई अवस्था थी ही नहीं। वहाँ कुछ बदलता ही नहीं। अवस्था का तो अर्थ ही है कि कुछ बदलने की सम्भावना है। मैं एक ख़ास अवस्था में हूँ जो की बदल सकती है। तो अब आप अपने सिंघासन से हट गए! आप मन में आ गए। वहाँ पर कम से कम दो अवस्थाएं हैं जिनमें अब आप झूला झूल रहे हैं। कभी आप कहते हैं – जग रहा हूँ, कभी आप कहते हैं – सो रहा हूँ। फिर और डोले आप, और बाहर की तरफ आये, या यूं कहूँ कि और बहिष्कृत हुए, तो जागृति की भी फिर एक अवस्था नहीं रही, उसके भी सौ हिस्से हो गए। फिर जागृति में सुख आ गया, फिर दुःख आ गया, फिर दुनिया भर की और वस्तुएं आ गयीं। पर अब आप अवस्था से अवस्था के बीच में डोल रहे हैं। हज़ारों रंगों के बीच में ऊपर-नीचे हो रहे हैं। वही हालत फिर सपनों में हो रही है आपकी। लगातार आप इधर से, उधर से, उधर से, इधर से, हो रहे हैं, सब लगातार बदल ही रहा है। आपको ऐसा लगने लग गया है कि आपका स्वभाव ही परिवर्तन है।

यह होता है आम तौर पर, पर जो बिंदु पर ही आसीन है, वो कह ही नहीं सकता कि मैं सो रहा हूँ। सोने से उसका कोई तादात्म्य है नहीं। आप इसकी थोड़ी सी अगर साधना करेंगे, थोड़ी मन को एक व्यवस्था देंगे, तो आपको बड़ी, एक बड़ी मज़ेदार बात पता चलेगी कि जब आप सपना देख रहे होंगे न, कहीं न कहीं आपको पता होगा कि यह सपना चल रहा है। और जब यह अनुभव होने लगेगा तो यह बड़ी ही स्वतंत्रता का अनुभव होता है क्योंकि अब सपना चल रहा है, सपना टूट भी नहीं रहा है। आम तौर पर क्या होता है हमारे साथ कि जान जायें कि सपना चल रहा है तो उसी क्षण सपना टूट जाता है। सपना चल रहा है, सपना टूट भी नहीं रहा है और आप सपने के विषय में बहुत गंभीर भी नहीं हो। एहसास है कि सपना ही है, ठीक है! और सपने में कोई कमी भी नहीं आई है। सपना अपनी गति से चल रहा है, आप सपने में होते हुए भी सपने में नहीं हो, और यह बड़ा विलक्षण अनुभव होता है।

असल में, जगते हुए तो आसान होता है अपने ही आप को धोखा देना, यह कह देना कि मैं साक्षी भाव में हूँ। पर सारे साक्षी भाव कि कलही खुल जाती है सपने में। कभी अगर वास्तव में साक्षी भाव है, तो वो सपने में भी कायम रहता है, नींद में भी कायम रहता है। आपके भीतर एक बिंदु होता है जो जान रहा होता है कि आप सो रहे हो।

यह बड़ी मज़ेदार बात है कि आपने यह सवाल पूछा। अभी ५:३० से ६:३० की एक घंटे की नींद ही ले कर आ रहा हूँ, सपना ही देख कर आ रहा हूँ। और बिलकुल यही हो रहा था। इतना ही भर नहीं था कि यह पता था कि सपना चल रहा है, यह तक पता था कि समय चल रहा है। यह भी स्पष्ट पता था कि समय चल रहा है। और सपना पूरा था, सजीव। जो-जो सपने में हो सकता है। कोई हल्का सपना नहीं। तो सपने में हैं भी, पर नहीं हैं। यही हाल जगने में होता है। आपसे बात चीत कर तो रहे हैं पर हमें क्षमा कीजियेगा हम यह नहीं कह पाएंगे हम आपसे बात-चीत करने में प्रवृत्त हो गए हैं। कर भी रहे हैं, नहीं भी कर रहे हैं। कर भी रहे हैं, और नहीं भी कर रहे हैं।

इसका अर्थ यह नहीं है कि आपसे बात-चीत करने में हम कहीं और चले गए हैं, कि मन भटका हुआ है। नहीं! मन भटका-वटका नहीं हुआ है। हम मौजूद हैं। पूरे तरीके से आपके साथ हैं। पर इस पूरी गतिविधि में कुछ है जो संलग्न नहीं हो गया है। जो अछूता सा है। पूरे डूबे हुए हैं तुमसे बात-चीत करने में, पर कुछ है जो डूब सकता नहीं है। वो समस्त डूबने का आधार है। उसके कारण डूबे हैं। वो है इस कारण डूब लिए हैं, पर वो नहीं डूब सकता। समझ रहे हो? तो उसी दशा की बात है कि तीनों अवस्थाएं जो मन की होती हैं, किसी भी अवस्था के साथ सम्प्रक्त नहीं हैं। यह नहीं है कि वो उन अवस्थाओं के साथ अन्याय कर रहा है। यह नहीं है कि वो उन अवस्थाओं का त्याग कर रहा है, कि उन अवस्थाओं में उसे कोई खराबी नज़र आती है। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मन है, मन का काम है अवस्थित रहना, इधर नहीं तो उधर।

जब ऐसा हो जाता है तो जीवन में एक बड़ी लयबद्धता आ जाती है। जब ऐसा हो जाता है तो जीवन में एक खिलवाड़ का स्वभाव आ जाता है। तुम इस पल गंभीर दिखाई देते हो, अगले ही पल हँस सकते हो, क्योंकि जो गंभीरता थी वो वहीं पर थी जहाँ उसका आवास है। कहाँ? मन में थी, तुम गंभीर नहीं हो गए थे। और मन तो क्षणों में जीता है, और क्षण बीता तो अब तुम्हारे पास कोई कारण नहीं है कि तुम उस गंभीरता को पकड़ कर बैठे रहो। क्षण बीता, गंभीरता भी बीत गयी।

अब मन तुम्हारे सामने बहता है, एक ऐसा प्रवाह जो अपने पीछे कोई चिन्ह, निशान, अवशेष नहीं छोड़ जाता। वो बह रहा है, ठीक है, बह रहा है। वो बह रहा है, तुम बह नहीं रहे। और तुम्हें उस बहने से कोई शिकायत नहीं है, मैं फिर कह रहा हूँ। तुम्हें उस बहने से कहीं, कोई, कतई आपत्ति नहीं है। बल्कि सही बात तो यह है कि तुम उस बहने का पूरा मज़ा ले पा रहे हो। तुम्हारे पास स्वतंत्रता है, कभी तुम दूर खड़े होके उसका बहना देखते हो, कभी तुम एक दम पास आ के देखने लग जाते हो, कभी तुम्हारा मन करता है तो तुम छलांग ही मार देते हो। तुम जकड़े हुए नहीं हो मन के साथ। तुम्हारे ऊपर यह बाध्यता नहीं है कि मन का रंग बदलेगा तो तुम्हारा भी रंग बदल जायेगा। तुम्हें अब पूरी मुक्ति है। तुम्हें गोता खाना है? गाओ, खाओ। तुम्हारे ऊपर यह बाध्यता भी नहीं है कि तुम्हें सूखा-सूखा रहना है, तुम गोता खाना चाहते हो तो खा सकते हो। तुम वहाँ बैठे हो, वहाँ बैठे रहो। जो हो रहा है, तुम सब के दृष्टा हो सकते हो।

आपको जो करना है करिये। आपको सपने में मज़े लेने है, लीजिये। आपको जागृति में मज़े लेने है, लीजिये। आपको रोना है, रोइए। आपको पगलाहट दिखानी है, वो दिखाइए। आपको जो करना है करिए, अपनी गद्दी मत छोड़िये बस। उस गद्दी पर बैठ कर आप जो भी करेंगे, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हाँ! जब आप इतने आकर्षित हो जायें कि होश खो बैठें और गद्दी छोड़ के कूद पड़ें, तब ख़त्म हो गया काम। यह करीब-करीब वही है कि लक्ष्मण रेखा बना दी गयी थी, जो करना, करना, इसके भीतर रहना। तो वही है, समझिये ये जो लक्ष्मण रेखा है, उसका नाम होश है।

जो करना है करो, कौन रोक रहा है? लेकिन यह ख्याल रखिये, कुछ अपने लिए बातें जान लीजिये कि अगर यह पता चल रहा है की इतनी दूर चले जा रहे हैं कि अपनी शांति छिन रही है, तो वापस आ जाइएगा। अगर यह दिखाई दे रहा है कि इतनी दूर आते जा रहे हैं कि कटुता आती जा रही है, तो वापस आते जाइये।

श्रोता: यह भी एक तरह से लिटमस टेस्ट ही है कि हम जान जायें कि जिस दिशा जा रहे हैं…

वक्ता: हाँ! आप पूरी तरीके से डूबिये, उतराइये, कीचड़ से खेलिए, पर जब यह देखिये कि वो आपकी शांति ख़त्म करने लग गया है तो समझ लीजिये कि आपकी गद्दी छिन रही है। तब वापस आ जाइये। इसका मतलब यह नहीं है कि गद्दी छिन सकती है। इसका मतलब इतना ही है कि मन में अभी वृत्तियाँ हैं, विकार हैं। तो अभी आप दूर जायेंगे तो उन विकारों को और प्रोत्साहित करेंगे। तो मत जाइये अभी। स्थिति वो भी आएगी कि जहाँ आप कहीं भी चले जायें, आपकी गद्दी नहीं छिनेगी। पर वो स्थिति जब तक नहीं आती तब तक उतने ही दूर जाइये जितनी दूर आपके लिए उचित है।

होता क्या है, जितनी बार आप खो देते हैं अपना स्थान, उतनी बार आप कूदे हैं, अपनी जगह आपने खो दी है और आपने फिर बहुत सारा कीचड इकट्ठा कर लिया है। आपकी वृत्तियाँ और गहरी हो गयी हैं। अब अगली बार आपके लिए कूदना और मुश्किल हो जाना है, और अगर आप कूदते हैं तो और ज़्यादा कीचड़ इकट्ठा करेंगे। बात समझ रहीं हैं मैं क्या बोल रहा हूँ?

गद्दी को जो जितनी बार खोएगा, उसके खोने की सम्भावना उतनी ही बढ़ती जाएगी। आपने अगर एक बार खोया तो अब सम्भावना तैयार हो गयी है कि दूसरी बार भी खोएंगे। दो बार खोया तो तीसरे की सम्भावना और बढ़ गयी है, और यदि दस बार खोया तो करीब-करीब पक्का हो गया है कि अब ग्यारहवीं बार भी खोओगे ही। तो अपने भीतर तो संवेदना लगातार रखिये, वो सजगता लगातार रखिये कि वो खोये न। वो जब भी खोएगी, आपके मन पर निशान छोड़ जाएगी और फिर आपका काम और मुश्किल होगा। पहले ही निशान बहुत हैं, कुछ निशान और आ जायेंगे, आपको उन निशानों की सफाई करनी पड़ेगी। समझ रहे हैं? खेल कुछ इस प्रकार का है।

मन को इलास्टिक जैसा बनाइये।

इलास्टिक की क्या निशानी होती है?

श्रोता: कितनी भी दूर जाये, वापस आ जाता है।

वक्ता: और जितनी भी दूर जाये, उतना उसमें वापस आने की आकांक्षा बढती है। उसको आप उसके केंद्र से जितनी दूर ले जाओगे, वो उतनी ज़ोर से कहेगा कि मुझे वापस आना है। लेकिन एक दिक्कत हो जाती है, एक पेंडुलम भी एक इलास्टिक की तरह ही होता है। उसको आप उसके केंद्र से जितनी दूर ले जाते हो वो उतनी ऊर्जा इकट्ठा करता है वापस आने के लिए। करता है कि नहीं?

श्रोता: हाँ।

वक्ता: उर्जा तो उसने इसलिए इकट्ठी करी थी कि वो वापस आ सके। पर वो वापस आ कर के रुकता नहीं है। वो जितना जिधर से आया था, उतना ही उधर दूसरी तरफ निकल जाता है। मन के साथ भी यही होता है। दो चीज़ें हो सकती हैं कि या तो फ़ैल ही गया हो, लौट ही नहीं रहा। दूसरा यह है कि लौट तो रहा है पर लौट कर के विपरीत दिशा में उतनी ही दूर निकल जा रहा है। समझ रहे हो बात को?

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

YouTube Link: https://youtu.be/5ISwxHAzJh0

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