बदल-बदल के भी क्या बदला? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Acharya Prashant

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बदल-बदल के भी क्या बदला? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

प्रश्नकर्ता: हमारे जीवन में परिवर्तन कैसे सम्भव है?

आचार्य प्रशांत: हर समय हो तो रहा है परिवर्तन। अभी बैठे थे, अब खड़े हो गये। हो गया परिवर्तन। और कैसा परिवर्तन चाहते हो? टीशर्ट पहने हो, थोड़ी देर में उतार दोगे, तो हो गया परिवर्तन। परिवर्तन क्या है? दायें को अटके थे, अब बायें को अटक गये, ये परिवर्तन है? पहले अपरिवर्तित होने के खयाल पर अटके थे, अब परिवर्तित होने के खयाल पर अटक गये, ये परिवर्तन है? पहले ऊपर उठना बहुत अच्छा लगता था अब नीचे गिरना बहुत अच्छा लगता है, ये परिवर्तन है?

पहले एक नौकरी में थे, अब दूसरी नौकरी में आ गये, ये परिवर्तन है? पहले एक रिश्ते में आसक्त थे, अब दूसरे रिश्ते में आसक्त हो गये, ये परिवर्तन है? परिवर्तन माने क्या? हम परिवर्तन का अर्थ यही समझते हैं कि पहले गिलास में चाय पीते थे अब चाँदी के कप में पीने लग गये। पहले रोटी खाते थे, अब पूड़ी खाने लग गये। या बहुत ज़ोर लगाया तो धर्म ही परिवर्तित कर दिया।

उससे भी मन नहीं भरा तो घर की दीवारों का रंग बदल दिया। कहे, ‘हो गया परिवर्तन।’ और ज़रा क्रान्तिकारी किस्म के हैं तो सरकार बदल दी। चल रहा है न ‘पोरिवर्तन’। तो यही है परिवर्तन। परिवर्तित करते तो रहते हो, कपड़े बदलते हो। हर हफ़्ते नयी मूवी देखने जाते हो। टहलने निकलते हो, कहते हो न, ‘चलो, ज़रा मन बदल जाएगा।’ परिवर्तित करते तो रहते हो। क्या ये परिवर्तन है? बैठो। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए )

परिवर्तन का अर्थ ये नहीं होता कि ‘कुछ’ ‘कुछ और’ में बदल गया। परिवर्तन का अर्थ ये नहीं होता कि ‘अ’ ‘ब’ में बदल गया। परिवर्तन का अर्थ ये नहीं होता कि सीमा सुशीला में बदल गयी। परिवर्तन का अर्थ ये नहीं होता कि टीशर्ट शर्ट में बदल गयी, कि मुसलमान ईसाई बन गया, कि एक सरकार से दूसरी सरकार आ गयी। ये सब परिवर्तन है ही नहीं।

परिवर्तन का अर्थ ‘कुछ’ का ‘कुछ और’ हो जाना नहीं है। परिवर्तन का अर्थ है ‘कुछ’ का ‘नाकुछ’ हो जाना। हम ‘कुछ’ को ‘कुछ और’ बदलने में बड़े उद्यत रहते हैं। पर ‘कुछ’ का ‘नाकुछ’ होना बर्दाश्त नहीं कर पाते। वास्तविक परिवर्तन है ‘कुछ’ का ‘नाकुछ’ हो जाना। मन में एक खयाल चल रहा था, वो तब्दील होकर के दूसरा खयाल बन गया, ये परिवर्तन नहीं है। परिवर्तन है मन का मौन हो जाना।

जीवन में तुमने एक तरह के लोग भर रखे थे, और उन पर तुम निर्भर और आसक्त थे। और फिर जगह बदली, संयोग बदले, स्थितियाँ बदलीं, तुम्हारे जीवन में दूसरे तरह के लोग आ गये, और तुम उन पर भी निर्भर और आसक्त हो गये तो कोई परिवर्तन नहीं है। परिवर्तन है अनिर्भरता और अनासक्ति। ये परिवर्तन है।

बात आ रही है समझ में?

अब तुमने पूछा कि परिवर्तन हो क्यों नहीं पाता। क्योंकि जब ‘कुछ’ ‘नाकुछ’ बनता है तो उसमें तुम्हें बड़ा खतरा रहता है। वो कुछ तुम ही हो। क्योंकि जीवन में तुम्हारे जो कुछ भी है, चाहे दायें जाने का निर्णय हो चाहे बायें जाने का निर्णय हो, वो तुम्हारा निर्णय है न। परिवर्तन के नाम पर तुम दायें को बायें बदलने को तो तैयार हो जाते हो, आसानी से तैयार हो जाते हो क्योंकि बदलने में भी तुम कायम हो, निर्णय तुम्हारा ही है और दायें की जगह बायें जाने वाले भी तुम ही हो।

तो तुम्हारी सुरक्षा तो बची ही हुई है न। तुम कौन? जो पहले बायें जाते थे। तुम कौन? जो अब दायें जाते हैं। तुम पर आँच नहीं आयी। तुम पर खरोंच भी नहीं लगी। तुम बचे हुए हो। तो तुम ऐसे परिवर्तन के लिए तैयार हो जाते हो। लेकिन वास्तविक परिवर्तन, न दायें, न बायें। ठहर जाओ। इसके लिए तुम तैयार नहीं हो पाते। क्योंकि तुम व्यग्र हो, चिन्तित हो, उद्वेलित हो। तुम्हारी बेचैनी तुम्हारी पहचान है।

तुम्हारा चलना तुम्हारी मजबूरी है। तुम्हें कोई किधर भी जाने को कहे, तुम जाने को तैयार हो जाओगे। तुम दिशा परिवर्तन के लिए सदा तैयार रहोगे। करते ही रहते हो दिशा परिवर्तन, कभी ऊपर, कभी दायें, कभी बायें, कभी दक्षिण, कभी उत्तर। करते ही रहते हो न। चलना तुम्हारी मजबूरी है। वास्तविक परिवर्तन उस दिन है जिस दिन तुम ये चलना, ये व्यर्थ की दौड़-धूप छोड़ दो, ठहर जाओ। उसके लिए तुम तैयार नहीं होओगे।

तुम चाहते हो परिवर्तन आ भी जाये और तुम कायम भी रहो। ये माँग वैसी ही है कि तुम कहो कि मैं ठहर भी जाऊँ और मैं दौड़ता भी रहूँ। क्योंकि तुम कौन? जिसकी पहचान ही बेचैनी और चहलकदमी है। और परिवर्तन का अर्थ क्या? बेचैनी का दूर हो जाना, चहलकदमी का रुक जाना। तुम असम्भव की माँग करते हो। तुम कहते हो, ‘मेरे जीवन में परिवर्तन आ जाए।’ अरे भाई, तुम्हारे जीवन में परिवर्तन नहीं आएगा, जीवन ही परिवर्तित हो जाएगा। इन दोनों बातों का अर्थ समझना। बड़ा अन्तर है।

तुम्हारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता। हाँ, जीवन मात्र ही परिवर्तित हो सकता है। जीवन मात्र को परिवर्तित करने में तुम्हारी कोई रूचि हो ही नहीं सकती। क्योंकि तुम गये! तुम्हारा तो ऐसा था कि जैसे तुम गाड़ी लेकर घर से टहलने निकले हो, सैर-सपाटे के लिए निकले हो। और तुम किसी से दिशा पूछो कि भाई, आगे जाएँ कि पीछे जाएँ। चौराहे पर किस तरफ़ जाएँ? हमें मौज करनी है, हमें आनन्द मनाना है। और वो तुमसे कहे, ‘उतरो गाड़ी से, और यहीं बैठ जाओ तसल्ली से। देखो बढ़िया पेड़ है, अच्छी छाया है। मौसम भी अच्छा है। मौज तुम्हें कहीं दूर नहीं मिलेगी। शान्ति से ठहर जाओ, बड़ी मौज है।’ तुम क्या उस की बात सुन पाओगे?

तुम्हें तकलीफ़ हो जाएगी क्योंकि तुम्हारा तो खयाल ही यही है कि मौज का अर्थ है गाड़ी लेकर घूमो और चले जा रहे हैं, चले जा रहे हैं। परिवर्तन मत माँगो, परिवर्तन तो लगातार तुम्हें मिल ही रहा है। तुम लगातार परिवर्तन की दौड़ में उलझे हुए हो। जो कुछ है तुम उसे बदलने के सदा आकांक्षी रहे हो। तुम ठहराव माँगो। और ये ठहराव ही बड़े-से-बड़ा परिवर्तन होगा। बड़े-से-बड़ा परिवर्तन।

समझ में आ रही है बात?

जिसने बदलने की इच्छा की, वो सिर्फ़ अपनेआप को सुरक्षित करता है बदलने के विरुद्ध। जिसने बदलने की इच्छा की वो बिलकुल बदल सकता ही नहीं। क्योंकि वो है कौन? जो इच्छाएँ करता है। इच्छा चल रही है न लगातार? कुछ और बदले, कुछ और बदले, कुछ और बदले। तुम कायम हो। बड़ी सुविधा है। तुम्हारी लेशमात्र भी हानि नहीं हुई। तुम बचे हुए हो। ये दुश्चक्र समझ पा रहे हो?

तुम कौन? जो लगातार बदलाव का इच्छुक है। तो अगर बदलाव आता जा रहा है तो इसका मतलब तुम बिलकुल भी नहीं बदले। नहीं समझे? तुम कौन? जो लगातार बदलना चाहता है। तुममें से कोई ऐसा है जिसे कंटेंटमेंट , परितोष मिल गया हो, जो ठहर गया हो? तो तुम हो ही कौन? जो लगातार बेचैन है। जो लगातार बदलने का अभिलाषी है। वही हो न तुम? तो अगर बदलाव तुम्हारी ज़िन्दगी में आ ही रहा है तो इसका मतलब क्या हुआ? कि तुम ज़रा भी नहीं बदले। बदला तो वो जिसके भीतर से बदलने की आकांक्षा ही गयी। जिसने कहा, ‘जो है सो है। बदलेंगे क्या हम इसे! ज़रा इसके करीब तो आ लें।’

और जब उसके करीब जाएँ तो पता लगा कि बदलने का खयाल ही इसीलिए आ रहा था क्योंकि समझते नहीं थे। और जिस चीज़ को तुम समझते नहीं, उसी को बदलने का खयाल खूब आता है तुम्हें। और जिस चीज़ को तुम समझते नहीं, बिना समझे उसे बदल कैसे दोगे? और एक बार समझ लिया तो ऐसा नहीं है कि वो चीज़ स्थिर हो जाती है। समझना स्वयं बड़े-बड़े क्रान्तिकारी बदलाव लाता है।

तुम तो ऐसे बदलते हो कि जैसे मकान का रंग-रोगन बदल दिया। जब करीब जाते हो, बिना किसी इच्छा के, शान्ति से, मौन में, और बस देखते हो तो छोटा-मोटा बदलाव नहीं आता, भूचाल आता है। फिर ये नहीं होता कि इमारत का रंग बदल गया, फिर इमारत की बुनियाद हिल जाती है।

समझ रहे हो बात को?

इन सब खयालों से वास्ता छोड़ो कि ये पा लें, ये बदल दें, अभी ये ठीक नहीं है, कल ऐसा ठीक हो सकता है। जो है उसको देखो। और जो है उसको देखना कोई भविष्य की घटना नहीं होती है। जो है वो प्रतिपल घट रहा है और उसे प्रतिपल ही देखना होता है। जब उसको देखते हो तो बदलाव अपनेआप आता है। तुम्हारे करे नहीं आता।

आ रही है बात समझ में?

परिवर्तन इसीलिए नहीं हुआ क्योंकि तुम लगे हुए हो परिवर्तित करने में। तुम परिवर्तन से ज़रा मुक्त हो जाओ। फिर देखो परिवर्तन आता है कि नहीं आता है।

YouTube Link: https://youtu.be/CAQKK1BDtGQ

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