प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, फ्री विल (मुक्त इच्छा) कहीं नहीं है। सब अपने गुण व धर्म के अनुसार चल रहे हैं; मैं भी। और अहम् का यानी मेरा कोई चुनाव नहीं है। जैसे नदी की धारा एक साल तक बहकर कहाँ पहुँचेगी यह हम अभी तय कर सकते हैं — अगर थोड़ा-बहुत जान हो तो — तो इसका मतलब यह तो भाग्य वाली बात हो गयी। तो मेरे चुनाव का या मैं क्या चूज़ (चुनना) करती हूँ, क्या निर्णय लेती हूँ इसका क्या ही मतलब है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, इसका मतलब यह है कि जब मैंने बोला था कि जिसको आप फ्री विल बोलते हो उसमें कोई फ्रीडम है नहीं। आप झूठमूठ ही उसको कह देते हो कि यह मेरी फ्री विल है, मुक्तेच्छा है, और मैंने सोच-समझ के अपनी मर्ज़ी से फ़लाना चुनाव करा है। वो हमको ऐसा लगता है कि हमने चुनाव करा है; हमने चुनाव करा नहीं होता वो चुनाव हमसे हो गया होता है।
अहम् का काम है अपनेआप को कर्ता मानना — 'मैंने करा है।' जो उसने करा भी नहीं, जो उससे बस हो गया, उसको वो बोल देता है, 'मैंने करा है।' ठीक वैसे जैसे एक आदमी सो रहा है और सोते समय वो करवट ले ले और बाद में उसको उसकी रिकॉर्डिंग दिखायी जाए — तुम सो रहे थे, तुमने करवट ली — तो वो कहेगा तो यही कि मैंने करवट ली और इस भाषा से पता क्या चलता है, जैसे? जैसे करवट लेने में उसका कोई होशपूर्ण चुनाव शामिल रहा हो।
अब यहाँ तो बहुत स्पष्ट है, क्योंकि आँखें बंद हैं, और वो पड़ा हुआ है बिस्तर पर। तब तो आप देख रहे हो साफ़-साफ़ कि करवट लेना आपका चुनाव नहीं था, आपसे हो गया। इट हैपेंड टू यू, यू डिन्ट डू इट (आपके साथ ऐसा हुआ, आपने ऐसा किया नहीं) यह दो बहुत अलग-अलग बाते हैं। लेकिन अहंकार के पास इतना आत्मज्ञान होता ही नहीं कि यह जान पाए कि अपनी पूरी ज़िन्दगी कुछ नहीं करा इसने; इसके साथ घटनाएँ घटी हैं।
जैसे सड़क पर कोई पत्थर पड़ा हो, उसके ऊपर से गाड़ी निकल गयी, और पत्थर क्या बोल रहा है? 'आज तो गाड़ी उठायी थी मैंने।' और वो किसी रिकॉर्डिंग के माध्यम से सिद्ध कर सकता है कि देखो, पत्थर है, उसके ऊपर गाड़ी है और गाड़ी धीरे-धीरे उठ रही है। और कहे, 'आज मैंने गाड़ी उठायी थी।' तूने क्या करा है? वो तो होना ही था। उसमें तुम्हारा बोध कहीं नहीं है।
तो फिर इसमें जो सूत्र है, वो लिख लीजिए। फ्रीडम के साथ जो जुड़ा हुआ शब्द है, वो है बोध। तो फ्री विल तभी हो सकती है।
अपनेआप को, अपने किसी निर्णय को परखना हो — हम सब रोज़ ही निर्णय करते हैं, कभी-कभार तो बहुत बड़े-बड़े निर्णय कर लेते हैं — कभी आपको परखना हो कि वो निर्णय फ्री है कि नहीं; माने आपका है कि नहीं, तो उसका तरीक़ा बताए देता हूँ।
पूर्ण स्वतंत्रता = बोधपूर्ण स्वतंत्रता फ्री विल (मुक्तेच्छा) = इल्यूमिंड विल (प्रकाशित इच्छा) बिकॉज़ फ्रीडम इज़ अंडरस्टैंडिंग (क्योंकि स्वतंत्रता समझ है)।
फ्रीडम और अंडरस्टैंडिंग , मुक्ति और बोध एकदम साथ-साथ चलते हैं न। तो कुछ आपने करा है कि नहीं यह सिर्फ़ इससे तय हो सकता है, इससे परखा जा सकता है कि उसमें आपकी समझ शामिल थी कि नहीं। बिना समझे जो कुछ कर दिया वो आपने करा नहीं, वो वैसे ही था कि पत्थर के ऊपर से कार गुज़र गयी। और पत्थर का दावा है कि आज तो साहब कार उठा दी पूरी।
या कि आप ज़मीन से एक पत्थर लें और उसको उछाल के मारें कि किसी की खिड़की के अंदर जाकर गिरे। और वो पत्थर रास्ते में दूसरे पत्थरों से और हवाओं से क्या दावा करता फिर रहा है? 'अभी-अभी उड़ा हूँ। अभी उड़ा हूँ और वो जो ऊपर वहाँ रहता है, उससे बहुत प्यार है मुझे, सीधे जाकर उसके बिस्तर पर गिरूँगा।' यह आपने करा? और जितनी ज़्यादा ईमानदारी के साथ आप अपनी ज़िन्दगी को देखते हैं, उतना स्पष्ट होता जाएगा कि करा तो कुछ भी नहीं, क्योंकि करने के लिए क्या चाहिए?
प्र: ईमानदारी।
आचार्य: वो था ही नहीं। जहाँ बोध नहीं होता, वहाँ आप बस विषय होते हो; एक विषय होते हो, एक ऑब्जेक्ट होते हो जिसके साथ चीज़ें हो जाती हैं। हाँ, अब यह उसकी अपनी मूर्खता है कि वो कहने लग जाए कि वो मेरे साथ हुआ नहीं है; मैंने किया। ‘मुझे भूख लगी है’, आपने क्या करा इसमें? आपने क्या करा है? कुछ आपका है इसमें योगदान आपको भूख लगी है तो? आपका जन्म हो गया, और अधिकांश मामलों में देखिए, तो — मृत्यु भी हो गयी — इसमें आपने क्या करा है?
शरीर बीमार हो रहा था या बूढ़ा हो रहा था या दुर्घटना हो रही थी, इसमें आपने क्या करा है? न दुर्घटना में आपका कोई ज़ोर है, न बीमारी पर, न जो शनैः-शनैः बूढ़ा हुआ शरीर, वो आपने करा। यह सब घटनाएँ कैसी थीं? यह प्राकृतिक थीं और प्रकृति में चलते हैं?
प्र: संयोग।
आचार्य प्रशांत: वहाँ तो जो है सो है, आपने क्या करा है? किसने तय करा था कि पाँच उँगलियाँ हों? किसने तय करा था कि गेहुआँ होगा रंग या भूरा होगा? तो हम क्यों इतराते हैं कि मेरा रंग गोरा है? मेरा तो है ही नहीं, वो किसका है?
प्र: प्रकृति का।
आचार्य: तो प्रकृति का है, संयोग की बात है, कोई और भी रंग हो सकता था। हरा हो सकता था जैसे फफूँद लग गयी हो मुँह पर। कुछ भी हो सकता था न।
समझ में आ रही है बात यह?
अब इससे बड़ी चोट लगती है, 'हमने कुछ भी नहीं करा?' जहाँ आपको लगता भी है कि आपका निर्णय है, उसकी बारीकी से जाँच-पड़ताल करेंगे तो वहाँ निर्णय नहीं है, क्योंकि उस निर्णय के आधार पहले ही निश्चित थे — किसी और ने करे थे।
उदाहरण के लिए एक मालिक अपने नौकर को भेजे, दुकान पर जाना, द्रव्य लाना, पीले रंग का हो, सस्ता हो और उसमें खाना पकाया जा सकता हो। और वो जाकर सरसों का तेल ख़रीद लाए और वो बोले, 'मालिक ने सरसों का तेल कहीं बोला? सरसों शब्द का मालिक ने इस्तेमाल करा? तो यह तो मेरा चुनाव था न कि मैंने सरसों को ख़ुद चुना।' तूने क्या चुना? जो क्राइटेरिया (मानदंड) था वो तो किसी और ने ही सेट (तय करना) कर रखा था न। तो वैसे ही जहाँ आपको लगता भी है कि आपने चुना, वहाँ क्राइटेरिया किसी और ने सेट कर रखा है।
आपका कोई दुश्मन बन जाता है। पहले से ही निश्चित होता है कि किस-किस तरह के आदमी को आप दुश्मन मान लोगे। कोई फ़लानी तरह का व्यवहार कर दे आप दुश्मन मान लोगे। क्राइटेरिया तो पहले से ही सेट था न।
आपको प्रेम हो जाता है, कितने पहले से निश्चित होता है कि इस-इस तरह का कोई व्यक्ति मिल जाए आपको, उससे प्रेम होना पक्का है। क्राइटेरिया तो पहले से ही तय है। आपने अधिक-से-अधिक नाम भर दिया है वहाँ पर। जैसे नौकर ने सरसों, वैसे ही आप कुछ वहाँ पर नाम भर देते हो — राजीव लिख दिया, मधु लिख दिया, कुछ नाम लिख दिया आपने। नाम लिखने से यह थोड़े ही साबित हो जाता है कि आपने चुनाव करा है। चुनाव तो बहुत पहले हो चुका है और वो आपने नहीं करा यह खेद की, दुर्भाग्य की बात है।
तो इसलिए फ्री विल को विचारकों ने कहा है, 'फ्री विल होती है एक धोखा, इलूज़न है।' फ्री विल जैसा यहाँ कुछ नहीं चल रहा। लेकिन इसका क्या यह अर्थ है कि हम फ्री विल बिलकुल भुला ही दें? नहीं, इसका यह अर्थ है कि आप फ्री विल की पूजा करें, फ्री विल को लक्ष्य बना लें। वही वो जगह है जहाँ पहुँचने के लिए आप पैदा हुए हो 'फ्रीडम '। जब आप फ्री होते हो तो विल तो फ्री पीछे-पीछे…। बोलिए!
प्र: हो ही जाएगी।
आचार्य: हो ही जाएगी न। आप फ्री हो गए तो विल भी फ्री हो जाएगी। सब कुछ फ्री हो जाएगा। तो मुक्तेच्छा तो उसी के पास हो सकती है जो पहले स्वयं मुक्त हो। नहीं तो जो आम संसारी होता है वो बस चॉइस चॉइस , ऑप्शन-ऑप्शन करता रहता है। उसने न कभी कोई चॉइस करी होती है, न उसका कभी कोई व्यक्तिगत, इंडिविजुअल ऑप्शन होता है। वो बस समय की कठपुतली होता है — समय उसको नाचा रहा है, वो नाच रहा है।
आपको यह कहने में भी बड़ी दिक़्क़त आएगी कि वो व्यक्ति है। मैं कैसे कह दूँ किसी पत्थर को कोई व्यक्ति। सड़क पर पत्थर पड़ा हुआ है, उसके साथ बहुत घटनाएँ घट रही हैं। अभी तो हमने यही कहा कि वो कह रहा है कि कार उठा ली। यह भी हो सकता है, उस पत्थर को आप नदी में डाल दें, और नदी में वो इधर-उधर से घिस-घिस के, घिस-घिस के, घिस-घिस के ऐसा हो जाए, कुछ लोग उठाकर के उसकी पूजा करना शुरू कर दें। हो सकता है कि नहीं हो सकता है? अब उसको पूजने लग जाओ, तो भी वो क्या है? वो तो कुछ नहीं है न। वो तो परिस्थितियों का खिलौना है। कल सड़क पर पड़ा था, तो पाँव की ठोकर खा रहा था; आज पूजा जा रहा है। तुमने क्या करा, जो करा संयोगों ने करा।
ज़्यादातर लोगों की ज़िन्दगी सिर्फ़ और सिर्फ़ संयोगों पर निर्धारित होती है। ठीक है? बड़े घर में पैदा हो गए, कहेंगे, 'हम बड़े आदमी हैं, अमीर हैं।' अपने यहाँ तो छुआ-छूत, जात-पात भी पूरा चलता है। कोई बेचारा किसी तथाकथित निचली जाति में पैदा हो गया, उसको कह देंगे हमेशा के लिए कि यह तो फ़लानी जाति का है, नीचा है। उसमें, उसने क्या करा है? और जो अपनेआप को उच्च कुल के बोलते हैं, उन्होंने क्या करा है? लेकिन अहंकार क्या बोलेगा? 'मैं ऊँचा हूँ।' और वो जो दूसरा वाला है, उसका अहंकार भी मान लेता है बहुत बार — 'मैं नीचा हूँ।'
जो आत्मिक नहीं है, उसे आत्मिक मान लेना ही माया है। प्राकृतिक को आत्मिक मान लेना ही माया है। अपने-पराए का भेद न कर पाना ही माया है।
यह अभ्यास करिएगा आज वापस जा करके। अपनेआप से पूछिएगा — आप जिसको अपना जीवन बोलते हैं, अपनी पूरी पूँजी, अपनी पूरी संपदा बोलते हैं, अपना होना बोलते हैं; उसमें आप कितने हैं और संयोग कितने हैं? पूछिएगा। पूछिएगा।
मुझे फिर वही याद आता है, जब आइआइटी पहुँचा था। तो वहाँ सब आए हुए थे। और हम में से, बैचमेट में से कई लोग थे जो थोड़ा इतरा भी रहे थे कि भाई हम तो टॉप वन पर्सेंटाइल वाले हैं, वन पर्सेंटाइल वाले हैं। तो ऐसे ही बात करते-करते एक दिन मेरे मुँह से निकल गया कि साहब पर्सेंटाइल की बात नहीं है।
मेरे समय मुश्किल से अट्ठारह सौ, दो हज़ार सीटें थीं जेईई के थ्रू (जेईई के माध्यम से)। मैंने कहा, 'तुम यहाँ सिर्फ़ इसलिए हो, क्योंकि परीक्षा देने वाले इस साल मुश्किल से लाख, दो लाख लोग रहे होंगे। तो लाख, दो लाख का वन पर्सेंटाइल बनकर तुम यहाँ पहुँच गये हो।
लेकिन भारत में बारहवीं पास करे लड़के-लड़कियाँ इस साल, जिन्होंने साइंस के विषय ले रखे हों, कुछ नहीं तो दस से बीस लाख होंगे। मेरे पास उन्नीस सौ पंचानवे के आँकड़े नहीं हैं, आप लोग आँकड़े खोज के उसको जाँच भी सकते हो कि पंचानवे में कितने लोगों ने साइंस स्ट्रीम से बारहवीं पास करी थी।
मैंने कहा, 'यार! अगर दस से बीस लाख लोगों ने बारहवीं पास की है, लेकिन जेईई , आइआइटी जेईई का एग्ज़ाम सिर्फ़ एक या दो लाख लोगों ने लिखा है, तो इसका मतलब समझ रहे हो न क्या है? इसका मतलब यह है कि तुम प्रिविलेज्ड (विशिष्ट वर्ग का) हो। वो जो बाक़ी थे, उनके पास इतने संसाधन ही नहीं थे कि वो जेईई का एग्ज़ाम लिख पायें।
और तब इंटरनेट का ज़माना नहीं था। बहुतों को तो पता भी नहीं होता था आइआइटी जैसी कोई चीज़ होती है। बहुतों माने बारहवीं करे हुए आधे छात्रों-छात्राओं को नहीं पता होता था कि आइआइटी भी कुछ होता है। मैंने कहा, 'वो सब-के-सब अगर तुम्हारे जैसे प्रिविलेज्ड होते, सबको पूरे संसाधन मिले होते, सबको पूरी सुविधाएँ मिली होती, पढ़ाई का माहौल मिला होता, कोचिंग के पैसे और सुविधा होती, तो तुम बताओ तुम्हारी रैंक आ जाती जो आयी है अभी?
लेकिन अब आपके साथ जीवनभर के लिए यह जुड़ जाएगा कि आइआइटियन हो! आइआइटियन हो! उसको आप जीवनभर लेकर चलते हो, उसकी खाते हो ख़ूब! और आप यह कभी नहीं समझ पाते कि उसमें संयोग का कितना बड़ा हाथ है। और एक कोई बहुत साधारण सा छात्र हो और उसको भी आप भरपूर कोचिंग की सुविधा दे दीजिए, तो तब हो पाता न हो पाता, आजकल तो ज़रूर सेलेक्ट (चयनित) हो जाएगा।
आजकल मैंने सुना है लगभग बीस हज़ार सीटें हो गयी हैं। और उसको बिलकुल घोंट के, पीस के दो साल, तीन साल कोचिंग कराओ तो बीस हज़ार के अन्दर तो घुस ही जाएगा।
श्रोता: बीस आइआइटी बढ़ गए हैं।
आचार्य: और आइआइटी बहुत सारी हो गयी हैं — दर्जनों — कहीं-न-कहीं तो घुस ही जाएगा। तो आप अपनेआप को जो भी बोलते हों, उसमें आप यह ग़ौर करिएगा, विचार करिएगा कि आपका कितना है। हर चीज़ के पीछे जो कारक हैं वो दूसरे हैं।
यह क्यों बात की जा रही है? इसलिए नहीं कि हमारे अहंकार को ठेस लगे, बुरा लगे, यह बात इसलिए करी जा रही है, ताकि हम उसको पा सकें जो सचमुच हमारा है।
फ्री विल का दावा करने से क्या मिलेगा? कागज़ के फूलों से ख़ुशबू तो नहीं आ जाएगी न कि आ जाएगी? हाँ? और व्यंजनों के चित्र देखकर पेट तो नहीं भर जाता न या भर जाता है? तो फ्री विल का दावा कर रहे हो, जबकि फ्रीडम के साथ जो आनंद उठना चाहिए वो मिला ही नहीं कभी; तो फ्री विल का दावा करने से क्या होगा। अगर फ्री विल सचमुच होती, तो वो जीवन में दिखायी तो देती न — चेहरे पर एक तेज होता, ज़िन्दगी में आनंद होता; छाती में डर नहीं होता — सबसे बड़ी बात।
अब दावा तो कर रहे हैं, 'मैं तो देखिए बहुत इंडिपेंडेंट (स्वावलंबी) आदमी हूँ, फ्री थिंकर (मुक्त विचारक) हूँ, अपने हिसाब से चलता हूँ।' और बिल्ली म्याऊँ कर दे तो भग पड़ते हैं! बिल्ली ने म्याऊँ कर दी तो खट से दूसरे कमरे में जा कर के कुंडी लगा रहे हैं। तो करते रहो दावा कि तुम फ्री विल पर चलते हो! फ्रीडम के साथ तो पहला लक्षण होता है फियरलेसनेस , वो निर्भीकता कहाँ है?
ज़माना थोड़ा-बहुत कुछ करके कभी ललचा देता है, कभी डरा देता है, प्रकृति जैसे चाहे वैसे खींच लेती है, तो कौनसी फ्री विल ? हाँ, दावा करने से कोई किसी को नहीं रोक सकता साहब! फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) तो है ही; फ्री विल हो चाहे न हो। और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन में फ्रीडम ऑफ़ फॉल्स एक्सप्रेशन (स्वतंत्रता की भ्रामक अभिव्यक्ति) भी शामिल है, जो चाहे जो बोल सकता है — 'मैं फ्री हूँ।'
'उसको' पाना है। और कुछ पाना हो तो सबसे पहले यह स्वीकार करना पड़ता है, भले ही ठेस लगे कि फ़िलहाल वो चीज़ मेरे पास नहीं है (अस्वीकारोक्ति में हाथ हिलाते हुए)। जो यही कहते रह जाएँगे कि मेरे पास तो है ही, उनको काहे को कुछ मिलेगा; क्योंकि तुम्हारे पास तो…? है ही! जब है ही, तो काहे को मिलेगा!