बचपन का वो अनोखा आनंद || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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बचपन का वो अनोखा आनंद || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। मैं एक आइटी कम्पनी में काम करता हूँ। बचपन में जब मैं कुछ भी काम करता था तो मुझे बहुत ही मज़ा आता था, चाहे क्रिकेट खेलने में, कॉलेज में थिएटर करने में, वगैरह-वगैरह। मैं आइटी में काम अच्छा कर रहा हूँ, लेकिन वो बचपन वाला आनन्द नहीं आ पा रहा।

आचार्य प्रशांत: बचपन वाले आनन्द के लिए तो तुम्हें फिर चार साल का होना पड़ेगा। बचपन वाले आनन्द का तो सीधा सम्बन्ध चार साल वाली देह से था। ताऊजी आये, उन्होंने उठाया तुमको और चूम लिया, बड़ा आनन्द आया। इन्हीं सब बातों को तो बचपन का आनन्द बोलते हैं न हम। तब तुम चार के थे, ताऊजी चालीस के थे। अब तुमको वही बचपन वाला आनन्द चाहिए, तो फिर ताऊजी आयें, तुमको उठायें और चूम लें। पर अब तुम तीस के हो, ताऊजी छियासठ के हैं। उनकी रीढ़ सरक जाएगी तुमको उठाकर चूमने में।

कोई आनन्द नहीं होता बचपन में। हर उम्र के अपने खेल होते हैं। बचपन के भी खेल होते हैं, जवानी के भी खेल होते हैं, प्रौढ़ता के भी, बुढ़ापे के भी। और बहुत बच्चे ऐसे होते हैं जिनको अफ़सोस ही यही होता है कि वो बच्चे क्यों हैं। उनसे पूछो, ‘क्या चाहिए?’ वो कहेंगे, ‘बड़ा होना है जल्दी और उस गुल्लू की पिटाई लगानी है।’ तो बड़े होकर क्यों लगानी है? ‘नहीं, अभी हम पाँच के हैं, वो आठ का है। तो हम चाहते हैं कि हम पन्द्रह के हो जाएँ जल्दी से, फिर हम उससे बड़े हो जाएँगे न। तब हम पन्द्रह के हो जाएँगे, वो आठ का रहेगा, बहुत मारेंगे उसको।’

ये बड़ी रूमानी कल्पना है — बचपन का आनन्द। जिन्होंने जाना है, उन्होंने तो कहा है कि बड़े होओ जल्दी। और छुटपन जैसी परतन्त्रता जीवन की और किसी अवस्था में होती नहीं। न कुछ जानते हो, न कुछ समझते हो। क्या खा रहे हो, क्या पी रहे हो, इस पर तुम्हारा बस नहीं। बड़े होकर जितनी बीमारियाँ प्रकट होती हैं, उन सब के बीज बचपन में ही विद्यमान होते हैं।

जो भी धर्म पकड़ रखा है तुमने, वो तुम्हें बचपन में ही दे दिया गया था न। तुम्हारी सहमति से दिया गया था? तो ये बड़े आनन्द की बात है कि तुम्हें जीवन भर के लिए एक धर्म दे दिया गया है बिना तुमसे पूछे? ये आनन्द की बात है? ये काम तुम्हारे साथ आज हो तो तुम कहोगे कि तुम्हारे मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है। आज कोई पकड़कर तुम्हें किसी धर्म में दीक्षित कर दे, बड़ा आनन्द आएगा? आएगा? तब तो चीत्कार करोगे, विद्रोह करोगे, करोगे या नहीं? और यही काम तुम्हारे साथ बचपन में हुआ था, बड़ा आनन्द आया था तब।

कह रहे हैं बचपन का आनन्द! ग़ज़लें सुन ली हैं और परी कथाएँ पढ़ ली हैं जिसमें सब छोटे-छोटे बच्चे बड़े खुश हैं। छोटे बच्चों से जाकर पूछो। जीवन के किस काल में तुम सबसे ज़्यादा रोते हो?

श्रोता: बचपन में।

आचार्य: बड़ा आनन्द है! तो हर समय फिर नाक काहे बहती रहती है, और हर समय गला फाड़कर रोते क्यों रहते हो, तुम तो आनन्द बता रहे हो!

और दोष इसमें ये है कि आनन्द को बचपन से सम्बन्धित करके तुम वर्तमान जीवन को आनन्द से बिलकुल हीन कर देते हो, वास्तविक आनन्द की सम्भावना ही अपने लिए समाप्त कर देते हो। तुम कहना शुरू कर देते हो कि आनन्द तो वो था जो तीन साल की उम्र में मिला। जब तीन की उम्र में मिला तो फिर तो तुम्हारा अवसर ही समाप्त हुआ न, क्योंकि तीन की अवस्था तो अब लौटकर आनी नहीं है।

ये बढ़िया धन्धा है हमारा! जब तीन के होते हैं तो कहते हैं कि तीस का होना है, जब तीस के होते हैं तो कहते हैं कि आनन्द तो तीन में था। कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि आनन्द मुक्ति के साथ आता है और मुक्ति हमें डरावनी लगती है, तो आनन्द हमें चाहिए ही नहीं। तो आनन्द को हम कभी आगे, कभी पीछे ढकेलते रहते हैं। जब तीन के होते हैं तो तीस पर ढकेल देते हैं, जब तीस के हो जाते हैं तो कहते हैं कि वो तीन पर बैठा हुआ है, क्योंकि आनन्द सस्ती चीज़ नहीं है। वास्तविक आनन्द क़ीमत माँगता है। वो क़ीमत देने को हम तैयार नहीं, तो झूठे आनन्द के खेल खेलते रहते हैं।

आनन्द है बन्धनों से मुक्ति में। एक छोटे बच्चे के पास बेहोशी होती है, मुक्ति नहीं। आनन्द है बोध में। छोटे बच्चे के पास अज्ञान होता है, बोध नहीं। उसमें आनन्द नहीं है। हाँ, बेहोशी में भी एक मज़ा है, उस मज़े को आनन्द नहीं बोलते। किसी पियक्कड़ के पास जाओ, आधी बोतल गटकने के बाद बड़ा आनन्दित दिखेगा। वो बचपन जैसा ही आनन्द है कि अब कुछ पता ही नहीं कि दिन क्या, दुनिया क्या, मज़े-ही-मज़े। वो बच्चे वाला आनन्द है। उसे आनन्द नहीं कहते, वो बेहोशी है। और वो बेहोशी अब तुम्हारे लिए सम्भव नहीं, क्योंकि बहुत बातें अब तुम जान चुके हो।

बचपन में, जिसको तुम आनन्द कह रहे हो, उसका तुम्हें अनुभव ही इसलिए होता था क्योंकि तुम निरे अज्ञानी थे। समस्याओं के बीज थे तब, समस्याएँ पल्लवित नहीं हुई थीं। आज वो सब समस्याएँ तुम्हारे सामने खड़ी हैं। बीज जो बचपन में ही डले थे, अब वो वृक्ष बन चुके हैं, तो आज तुमको तकलीफ़ होती है। पर भूलना नहीं कि बीज तो बचपन में ही था, बस तुमको पता नहीं था कि विषवृक्ष का बीज तुममें पड़ा ही हुआ है, तो तुम्हें लग रहा था कि आनन्द है, आनन्द है।

लालच, जो इतने दुखों का कारण है, क्या वयस्कता में अचानक पैदा हो जाता है तुममें? उस लालच का बीज क्या बचपन में ही नहीं पड़ा होता? क्या गर्भ में ही नहीं विद्यमान होता? बोलो! जिनके घरों में छोटे बच्चे हों, वो जानते होंगे भलीभाँति कि इतना सा बच्चा भी लालची होता है (हाथ से छोटे से बच्चे का इशारा करते हुए)। जो चीज़ पकड़ में आ गयी, तुरन्त मुट्ठी बाँधकर उसको जकड़ लेता है। तुमने गोद में उठाया, तुम्हारे बाल उसको पसन्द आ गये, तो वो बाल ही पकड़ लेगा। अब छुड़ाकर दिखाओ!

और घर में दो छोटे बच्चे हों, एक खिलौना एक को भा जाए, तो दोनों फिर उसको पकड़ेंगे, और ईर्ष्या भी तब देखना और क्रोध भी देखना। आज ईर्ष्या और क्रोध तुम्हारे लिए बड़े दुख के कारण हैं। ये ईर्ष्या और क्रोध क्या बचपन में नहीं थे? हाँ, बचपन में चूँकि तुम्हारा आकार छोटा था, इसलिए तुम्हारे क्रोध का विस्तार भी छोटा था। सामर्थ्य ही नहीं थी ज़्यादा क्रोध करने की। बड़े हो जाते हो, क्रोध बढ़ता है, तो तुम बम चला सकते हो, गोली चला सकते हो, पूरा देश तबाह कर सकते हो।

क्रोध की गहराई उतनी ही बचपन में थी, पर तब क्रोध को तुम बहुत मूर्त रूप नहीं दे सकते थे, क्योंकि तुम्हारे पास न ज्ञान की ताक़त थी, न बाहुबल था। छोटे बच्चों को कभी दाँत किटकिटाते देखना, गुस्साते हैं तो उनका क्रोध भी उतना ही होता है जितना किसी वयस्क का। पर वयस्क के पास ताक़त है, तो उसे जब क्रोध चढ़ता है तो वो गोली चला देता है। छोटे बच्चे के पास ताक़त नहीं है बस अभी, क्रोध भरपूर है उसके पास भी।

तभी तो जब तुम बड़े हो जाते हो तो तुम्हें सिखाना पड़ता है कि ईर्ष्या बुरी बात है। ये ईर्ष्या आयी कहाँ से? तुम्हें सिखाना पड़ता है कि अपनी रोटी बाँटकर खाओ। छोटे बच्चे को देखा है, वो रोटी बाँटकर खाता है? उसे भूख लगी है, वो चिल्लाएगा, आधी रात को चिल्लाएगा। तुम सो रहे हो, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। उसमें कोई सहानुभूति, कोई संवेदना, कोई करुणा होती है क्या?

माँ को एक-सौ-तीन बुखार चढ़ा हो, बच्चा तो चिल्लाएगा, उसको दूध चाहिए। उसमें कौनसा प्रेम है, कौनसी करुणा है माँ के लिए, कि है? वो दस बार बिस्तर ख़राब करेगा। उसमें ये भाव आता है क्या कि अब माँ को आकर फिर साफ़ करना पड़ेगा? जहाँ नहीं रोना चाहिए, ठीक वहीं रोएगा। माँ गयी है पिक्चर देखने, बच्चा साथ में है, वो लगेगा रोने, अब माँ की पिक्चर छूटे तो छूटे!

तो फिर जब वो आगे बढ़ता है, शिक्षा ग्रहण करता है, तो शिक्षा में ये सब सिखाना पड़ता है कि भाई, दूसरों के दुख-दर्द का भी कुछ ख़याल कर लो, या तुम्हें हर समय अपनी ही लगी रहती है कि मुझे तो मेरी ख़ुराक और मेरा मनोरंजन मिलना चाहिए। और छोटा बच्चा बिलकुल ऐसा होता है कि नहीं? मुझे तो मेरी ख़ुराक दो, मेरा मनोरंजन दो। बाक़ी सब अर्थहीन है, दुनिया जाए भाड़ में!

तो फिर जब वो पाँच साल, सात साल का होता है, विद्यालय में आता है, तो वहाँ सिखाया जाता है कि नहीं, इतने स्वार्थी नहीं बनते। बच्चा तो महास्वार्थी होता है, और तुम बता रहे हो आनन्द! कौनसा आनन्द भाई!

एक चार-पाँच साल के बच्चे को भी ये शिक्षा क्यों देनी पड़ती है कि छोटी बहन के साथ अपना सेब बाँटकर खाया करो, ये क्यों सिखाना पड़ता है? बोलो। पाँच साल का भाई, दो साल की बहन, और भाई को सिखाना पड़ता है कि सेब कटे तो बहन के साथ भी बाँट लेना। ये सिखाना क्यों पड़ता है? क्योंकि वो जन्मजात स्वार्थी होता है, वो नही बाँटेगा। और बाँटेगा भी तब जब बहन पसन्द आ गयी हो। तब बाँट देगा कि ले, तू भी ले ले।

बेशर्त प्रेम नहीं कर सकता वो, बहन से दोस्ती है तो बहन को सेब उठाकर दे देगा। नहीं है तो बिलकुल भी नहीं देगा, रोएगा, चिल्लाएगा, मुट्ठी भींचेगा। तो फिर सिखाना पड़ता है। इतने स्वार्थ में आनन्द कहाँ है? इतनी अज्ञानता में, इतने अप्रेम में आनन्द कहाँ है?

आज तुम्हें जितने भी दुख मिल रहे हैं, अगर पीछे जाओगे तो पाओगे कि उन सब की शुरुआत बचपन में ही है। आनन्द चाहिए तो वो सब चीज़ें छोड़नी पड़ेंगी जिनकी शुरुआत बचपन में हुई थी। तुम उल्टी बात कर रहे हो, तुम कह रहे हो कि मुझे बचपन दोबारा चाहिए। मैं कह रहा हूँ कि जिन्हें आनन्द चाहिए हो, उन्हें अपना बचपन पूरी तरह छोड़ना पड़ेगा। हम बड़े ही नहीं हो पाते, हम बच्चे ही रह जाते हैं। हम जिसको अपना बड़प्पन कहते हैं, वो हमारे बचपन का ही विस्तार है।

हम जैसे चार की अवस्था में थे, हम वैसे ही चालीस की अवस्था में भी रह जाते हैं। स्वार्थ चार की उम्र में था, स्वार्थ चालीस में भी है। मोह और भय चार की उम्र में थे, मोह और भय चालीस में भी है। अज्ञान चार में था, अज्ञान चालीस में भी है। आनन्द चाहिए तो ये चार और चालीस का खेल ख़त्म करना पड़ेगा। जीवन में कुछ ऐसा लेकर आना पड़ेगा जो चार की उम्र में था ही नहीं, तब आनन्द मिलेगा।

आनन्द जिन्हें चाहिए, वो बड़े हो जाएँ, अपने बचपने को बिलकुल छोड़ दें। हम बड़े ही नहीं होने पाते, आदमी मरते-मरते भी बच्चा ही रह जाता है, अब कैसा आनन्द? और इतना ही नहीं कि वो बड़ा होकर भी बच्चा रह जाता है, कुछ बड़प्पन अगर उसमें संयोगवश उतरने भी लगता है, तो वो कहता है, ‘बुरी बात! मुझे तो दोबारा बच्चा बनना है।’ और जानते हो, जो दोबारा बच्चा बनने की ख़्वाहिश रखते हैं, वो क्या करते हैं फिर? वो कई बच्चे पैदा करते हैं।

दोबारा बच्चा बनने की ख़्वाहिश ही नादानी है, और उसी नादानी में फिर और-और-और बच्चे पैदा होते जाते हैं। व्यक्ति बोलता है कि देखो, लौट आया मेरा बीता बचपन! बड़ा अच्छा लगता है कि मेरा बचपन तो अब नहीं लौट सकता था, इस नन्हीं के माध्यम से लौट आया। ये कर दिया न तुमने बचपना! बड़प्पन इसी में है कि अब दोबारा बच्चे मत बन जाना। न बच्चे बन जाना, न बच्चे बनाना। बड़े हो जाओ भाई!

राम, कृष्ण, कबीर — ये उनके नाम हैं जो बड़े हो गये, जिनको अब कभी बचपन दोबारा नहीं मिलेगा।

बचपन से मुक्त हो जाने को ही कहते हैं जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना।

जो बड़ा हो गया, अब उसे कभी दोबारा बच्चा बनकर गर्भ में नहीं आना पड़ेगा। और तुम कह रहे हो कि मुझे दोबारा बच्चा बनना है! ये तो गर्भ के लक्षण हैं।

दादा-दादी घूम रहे हैं, और उनको बड़ा विशेष प्रेम होता है बच्चों से। अब ये तय है कि दादी मरकर चिंकी ही बनेगी। इधर गोद में दादी ने उठा रखा है रिंकू को, इधर उठा रखा है चिंकी को, और दादी बिलकुल अघायी घूम रही है कि अरे रे रे! मिल गये। इसी बात को हिन्दुस्तान ने ऐसे कहा है कि अब ये दादी मरेगी और अब ये फिर या तो रिंकू बनकर पैदा होगी या चिंकी बनकर पैदा होगी, क्योंकि इसमें मोह अभी गया नहीं। गर्भ और जन्म के साथ इसका जुड़ाव मिटा नहीं, तो इसे मुक्ति मिलेगी नहीं। इसका अभी रिंकू-चिंकी, रिंकू-चिंकी, यही चलता रहेगा।

और यही वजह है कि छोटे बच्चे अधिकांश लोगों को इतने प्यारे लगते हैं। प्रकृति की बात है! देखना कि तुम्हें छोटा बच्चा इंसान का ही नहीं, किसी भी प्रजाति का प्यारा ही लगेगा। देखा है, छोटा सा साँप भी लगता है कि हथेली पर रख लें। सूअर का बच्चा भी हो छोटा सा तो गोद में उठा लो, प्यारा लगता है। ये प्रकृति ने व्यवस्था कर रखी है ताकि तुम और बच्चे पैदा करते चलो।

याद आता होगा कि छोटे थे तो सब इधर-उधर वाले आकर खूब चूमा करते थे, आंटियाँ कहती थीं कि कितना क्यूट है! पुच्ची! अब कोई मिलता नहीं जो कहे कितना क्यूट है! पुच्ची! तो बचपन याद आता है कि तब तो अंकल-आंटी, दीदियाँ, सब तुरन्त गोद में उठा लेती थीं, चढ़े रहते थे।

हमारी संस्कृति में ये सब बड़े दोषपूर्ण वक्तव्य हैं, इनसे बचना। जैसे कहते हैं न, ‘बच्चे जैसी मासूमियत! बच्चे जैसी निर्मलता!’ नहीं, मासूमियत बच्चे में नहीं होती, निर्मलता बच्चे में नहीं होती, मासूमियत होती है किसी सन्त में। मासूमियत प्राप्त करनी पड़ती है, ये गर्भ से नहीं मिलती। मासूमियत बड़ी साधना से अर्जित करनी पड़ती है। इतनी आसान नहीं होती मासूमियत कि पैदा हुए और मासूम थे। जो पैदा हुआ है, वो मासूम नहीं है; अज्ञानी है, बेहोश है। नादान है, निर्मल नहीं है। नादानी और निर्मलता में अन्तर होता है। छोटा बच्चा इग्नोरेंट (अज्ञानी) है, इनोसेंट (मासूम) नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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