प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बच्चों को माँसाहार से कैसे दूर रखें?
आचार्य प्रशांत: बच्चे को बोलिए कि ऐसा करते हैं कि जो भी खाएँगे, शुरू से खाएँगे — सेब खाना है या भाजी खानी है तो चलो वहाँ से लेकर आते हैं जहाँ वो उगता है — भाजी ज़मीन से तोड़ी जा सकती है, सेब पेड़ से लिया जा सकता है। फिर उसको कहिए कि अब यह बकरा है, यह ज़िंदा बकरा घूम रहा है तो इसे खा जाओ — वो समझ जाएगा। आप जब ताज़ा सेब खाते हो तो और आनंद आता है न कि नहीं आता है? ख़ुद पेड़ से तोड़ा और ख़ुद खाया तो उसी तरीके से बकरा भी ताज़ा खाओ न, ख़ुद अपने हाथों से मारो और फिर खाओ — अगर खाना ही है तो खाओ, डब्बाबंद माल नहीं चलेगा। डब्बाबंद माल तो झूठ है, वह सारी बर्बरता और क्रूरता छुपा जाता है। वहाँ तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कि पीछे कितनी खून भरी कहानी है। अपने हाथों से मारो, अपनी आँखों से देखो और अपनी आँखों से देखना काफ़ी नहीं है, मैं कह रहा हूँ अपने हाथों से उसकी गर्दन दबाओ, फाड़ो इसको और फ़िर खाओ।
वास्तव में हमारे पास तो वह नाखून और उंगलियाँ भी नहीं हैं कि हम खा सकें और इसी से साबित हो जाता है कि — माँस खाना स्वभाव तो नहीं ही है हमारा, प्रकृति भी नहीं हो सकती हमारी। शेर माँस खाता है तो उसके पंजों में इतनी जान होती है कि वो भैसे को फाड़ डालता है और फिर उसके दाँतों में इतनी जान होती है कि वह माँस को उखाड़ डालता है, चबा डालता है। आप को दे दिया जाए भैसा, कि भाई, भैसा खाओ। आपको और एक भैसे को एक कमरे में बंद कर दिया जाए कि लो खाओ और दूसरे कमरे में शेर और भैसे को बंद कर दिया गया है। आधे घण्टे बाद दोनों कमरे के दरवाज़े खुलते हैं, एक से शेर निकलेगा, एक से भैसा निकलेगा। क्योंकि शेर तो खा जाएगा भैसे को और भैसा आपकी ऐसी मरम्मत करेगा, कहेगा कि “आ खा!” लेकिन वही भैसे का माँस जब डब्बे में आता है तो आप कहते हो, “लाओ भाई, इधर लाओ। यह तो बीफ है, कुछ नहीं है, इससे तो अभी हम बर्गर बनाएँगे।” जाओ, उसको मारकर दिखाओ न। प्रकृति में तो कोई जानवर डब्बा बंद माँस नहीं खाता, जिसको खाना है वह शिकार करे, तुम भी करो न शिकार, करके दिखाओ।
गेहूँ तुम पौधे से तोड़कर खा सकते हो, खा सकते हो कि नहीं खा सकते हो?
सेब भी खा सकते हो, चावल भी खा सकते हो, सारे फल, सारी भाजियाँ खा सकते हो लेकिन एक छोटा सा मुर्गा भी अपने हाथ से मारकर खाना बड़ा मुश्किल पड़ेगा। बच्चा समझ जाएगा।
प्र: बच्चे नहीं समझते, उन्हें समझाने के लिए क्या करूँ?
आचार्य: समझाना होगा धीरे-धीरे। देखिए, *टीनएजर्स* में अलग दिखने की भी तो प्रवृत्ति बहुत होती है न। ठीक है, अच्छी बात है, आप वीगन हो जाइए — अब आप बिलकुल ही अलग हो। उनको तो बस यह बताना है कि कूल क्या है, जो कुछ भी कूल है वो पकड़ लेंगे। आप यह बताएँगे कि कुछ ग़लत है या अनैतिक है तो आपकी बात नहीं सुनेंगे, आप उनको बताइए ‘वीगन ’ कूल है, माँस ‘अन-कूल’ है, वो फ़िर कहेंगे, “बिलकुल ठीक! जो माँस खाए, वो अन-कूल।”
प्र: वीगन होना नया ट्रेंड (चलन) है।
आचार्य: *न्यू ट्रेंड, इट्स ट्रेंडिंग — #वीगन*।
जानवरों की जान बचानी हो तो ‘#वीगन ’, बस यही बचा सकता है। आप उनको अहिंसा पढ़ाएँगे तो वे नहीं सुनेने वाले, वो कहेंगे कि यह पुराने ज़माने की बात है। अहिंसा वगैरह क्या होता है, हटाओ! #वीगन — बस इससे चलेगा काम और इतना ही नहीं फ़िर आपको बिना दूध की अच्छी मिठाइयाँ बनाना सीखना होगा क्योंकि आप उनके मुँह से रसगुल्ला छुड़ा रहे हो, गुलाब-जामुन छुड़ा रहे हो, जितनी मिठाइयाँ होती हैं छुड़ा रहे हो, और बदले में क्या दे रहे हो? तो फ़िर आप सीखिए कि बिना दूध की बढ़िया स्वादिष्ट मिठाइयाँ कैसे बनेंगी, खीर कैसे बनेगी बिना दूध के। बन सकती है और बहुत सुन्दर बनेगी पर वह आपको बनानी सीखनी होगी। और फ़िर जब उनको स्वाद लगेगा तो कहेंगे कि दूध वाली तो बेकार है, यह अच्छी है, और इसमें कुछ धांधली कर लीजिए, जो दूध वाली है वो जानबूझकर ख़राब बना दीजिए, जो बिना दूध की है उसमें और आप काजू, किशमिश, जितने अखरोट हैं सब डाल दीजिए। कहो कि देखो जो बिना दूध की है वो ज़्यादा अच्छी होती है। ऐसा ही चलेगा बेवक़ूफ़ों के साथ, थोड़ी तो युक्ति लगानी पड़ती है।
प्र: तब तो दूध पूरी तरह छोड़ना पड़ेगा, खीर भी छोड़नी पड़ेगी।
आचार्य: तो?
प्र: तब तो सब कुछ छोड़ना पड़ेगा।
आचार्य: तो? यह सब कुछ खाना भी तो तुमने कहीं सीखा था न, बेटा। ऐसा थोड़े ही है कि अवॉयड (वर्जित) करके जिओगे नहीं या कुछ कमी आ जाएगी।
प्र: छोटे बच्चे को पसंद नहीं आएगा।
आचार्य: जाकर गाय से पूछो।
प्र: आचार्य जी, एक कंडीशनिंग संस्कारों के कारण है और दूसरी आपको और ओशो को सुनकर या पढ़कर हो रही है। दोनों ही कंडीशनिंग एक दूसरे की काट करती रहती हैं। इस द्वंद्व के बीच में मन फँस गया है।
आचार्य: नहीं, अगर पूरी तरह काट ही हो रही है तो कुछ नहीं बचेगा, सुन्दर है।
प्र: नहीं, संस्कारों वाली ख़त्म नहीं हो रही है।
आचार्य: तो फ़िर इधर वाली बढ़ाओ। जब उद्देश्य यह है कि ये इसको ख़त्म कर दे और ये इसको ख़त्म कर दे और मैं आज़ाद हो जाऊँ, तो जिसका पलड़ा कमज़ोर पड़ रहा हो, हल्का पड़ रहा हो, उसका साथ दो।
जब पदार्थ की दुनिया बहुत ललचाने लगे तो अध्यात्म याद कर लो और जब अध्यात्म के सिद्धांत और श्लोक बिलकुल दिमाग में घुनघुन-घुनघुन करने लगें तो थोड़ा पदार्थ याद कर लो। दोनों एक दूसरे को काट देंगे, तुम उड़ जाना, क्योंकि बेटा, आदमी तो दोनों ही है न।
अभी इन्होंने ही तो पूछा था कि क्या यह संभव है कि बुद्ध और बुद्धू, वही बन्दर, एक साथ पाए जाते हों। तो मैंने क्या कहा था? हम हैं तो प्रमाण, हम दोनों हैं — हम धरती भी हैं और आकाश भी हैं, हम पदार्थ भी हैं, आत्मा भी हैं। और कोई एक बनकर तुम नहीं जी सकते, तुम कहोगे, "मैं आत्मा मात्र हूँ" तो झूठ बोल रहे हो; तुम कहोगे कि, "मैं पदार्थ मात्र हूँ" तो नर्क खड़ा कर रहे हो — तुम दोनों हो, किसी का भी पलड़ा हावी ना होने दो।
प्र: आध्यात्मिक कंडीशनिंग अच्छी लगती है क्योंकि वो भी शायद कंडीशनिंग ही है।
आचार्य: अरे, इज़्ज़त मिलती है उसमें, उसमें बेइज़्ज़ती होने लगे तो बुरी लगेगी। बाबाजी बनकर खड़े हो जाते हो कहीं ऐसे (हाथ को उठाकर इशारा करते हुए), लोग नमस्कार करते होंगे। यही सब बाबा जी लोगों की चप्पल से धुलाई होने लगे तो सारी आध्यात्मिक कंडीशनिंग उतर जाएगी।