बच्चों को दें आज़ादी कितनी, और अनुशासन कितना? || आचार्य प्रशांत (2021)

Acharya Prashant

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बच्चों को दें आज़ादी कितनी, और अनुशासन कितना? || आचार्य प्रशांत (2021)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। जो मैं कहना चाहती हूँ, यह मेरी अपनी कहानी है। तो हम और आप एक तरह से हमउम्र ही हैं। तो उस ज़माने में सोशल मीडिया उपलब्ध नहीं था। तो मेरे पिता फ़िल्में नहीं देखने देते थे और यहाँ तक कि गाने भी नहीं सुन सकते थे। काफ़ी स्ट्रिक्ट (सख़्त) माहौल था। पर उस वजह से लड़कियाँ मेरा मजाक बनाती थी। उनके अनुसार सफलता का मापदंड पढ़-लिखकर इंजीनियर बनना था। तो वो सब तो हो गया क्योंकि उनके अंडर रहकर मैं अनुशासन में थी।

अब समय चक्र बदला और अब मेरी ख़ुद की एक बेटी है। तो हुआ ये कि जो-जो चीज़ वो मना करते थे, मैंने वही चीज़ ज़्यादा की। ज़्यादा फिल्में देखी, खूब पैसा खर्चा किया। अब जब मेरी बेटी हुई तो मैंने सोचा मैं उसको वैसे नहीं रखूँगी। मैं उसे पूरी फ्रीडम (आज़ादी) दूँगी। वो जो देखना चाहे, देखे। बस मुझे बताकर देखे। काफ़ी ओपन (खुला) है हमारा रिलेशनशिप (सम्बन्ध)।

पर साथ ही मैं ये भी देख रही हूँ कि इसका भी थोड़ा गलत प्रभाव तो पड़ता ही है। तो मुझे ये कभी समझ ही नहीं आया क्योंकि मुझे अब ऐसा लगता है कि जिस चीज़ को आप दबाते हो, फिल्में, मनोरंजन — अब मैं सोचती हूँ कि मेरे पिता जी शायद सही कहते थे कि नहीं देखना चाहिए था। पर उन्होंने ऐसा किया तो मैंने फिर उसका उल्टा ही किया। तो मुझे कुछ सही समझ नहीं आया कि किस तरह से बच्चों को बड़ा करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: धन्यवाद! अच्छा सवाल है यह, इस पर बात करते हैं। दमन, सप्रेशन ! परिवार हो, समाज हो, चाहे अध्यात्म हो, वहाँ पर यह एक महत्वपूर्ण शब्द रहा है। बहस का मुद्दा रहा है, हॉटली कंटेस्टेड (विवादित) शब्द है यह।

तो दो पक्ष बन जाते हैं, एक कहता है कि भाई साहब, दमन ज़रूरी है, कम-से-कम कुछ हद तक ज़रूरी है सप्रेशन। और दूसरा कहता है, 'नहीं उन्मुक्तता चाहिए, खुली आज़ादी चाहिए, पूरी छूट चाहिए।'

बात न इधर की है, न बात उधर की है। एकदम जो मूल सिद्धांत हैं, बेसिक्स (मूल बातें), उन पर वापिस आइएगा। कभी भी, किसी भी परिस्थिति में क्या ठीक होता है और क्या गलत होता है? आप सब लोग तो वीडियो देखते ही रहते हो न (श्रोतागण से पूछते हुए), एकदम बात गणित जैसी है, मैथेमेटिक्ल है।

ज़िन्दगी में कुछ भी कर रहे हो, कुछ भी सोच रहे हो, किधर को भी जा रहे हो — कल बात हो रही थी। मैंने कहा था, 'न-न-न, यह मत कह दीजिएगा कि सबकुछ ठीक है। हम जैसे हैं, हमारे लिए हमेशा कुछ ठीक होता है और कुछ गलत होता है।' तो क्या ठीक होता है और क्या गलत होता है?

प्र: चेतना को जो ऊपर उठाए, वो काम सही है।

आचार्य: बढ़िया! जो चीज़ मन को साफ़ करने में प्रभावी हो, वह बेहतर है। जो कुछ भी आपकी कॉन्शियसनेस (चेतना) को बढ़ाए, उठाए, वो अच्छा है। और जो कुछ भी उसको ख़राब करे, वो बुरा है।

तो इस बहस के केंद्र में दमन को नहीं रखिए, चेतना को रखिए। सवाल यह नहीं होना चाहिए कि दमन अच्छा है या दमन बुरा है, जैसे आपके पास करने के लिए बहुत सारे उपकरण हैं, संसाधन हैं, टूल्स (उपकरण) हैं, उन्हीं में से एक टूल दमन भी है।

बेहतर जीवन जीने के लिए आपके पास बहुत सारे संसाधन हैं न? क्या-क्या संसाधन होते हैं? हम इतनी बार उसकी बात करते रहते हैं, हमेशा ही कहता हूँ मैं, 'प्रकृति से आपको जो भी कुछ मिला है वो संसाधन है। पूरी दुनिया एक संसाधन है, आपका शरीर एक संसाधन है, आपकी बुद्धि, विचार, स्मृति सबकुछ क्या है? संसाधन है। ये पूरी उम्र ही हमारी, पूरा जीवन ही क्या है? संसाधन है।

इसका इस्तेमाल काहे के लिए होना है? ऊपर उठने के लिए करना है न। यह जो भीतर तनाव मचा रहता है, नर्क मचा रहता है; इससे ऊपर उठने के लिए। यही जीवन का उद्देश्य है, सीधी-सरल बात।

तो दमन भी क्या है? हमने कहा अभी-अभी, एक रिसोर्स (संसाधन) है, एक टूल (उपकरण) है। टू बी यूज्ड टू वॉट इफैक्ट , काहे के लिए इस्तेमाल करना है उसका? चेतना को उठाने के लिए। तो जीवन में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ होंगी जब दमन का इस्तेमाल निश्चित रूप से किया जाना चाहिए; अगर वो चेतना को उठाता है।

और वो दमन ज़रूरी नहीं है कि कोई दूसरा आदमी आपके ऊपर आरोपित करे, इम्प्लीमेंट (अमल में लाना) करे, इम्पोज़ (आरोपित करना) करे। आपमें इतना आत्म-अनुशासन होना चाहिए कि आप ख़ुद ही दमन कर लो। आपको पता होना चाहिए कि अगर अभी इस बात का दमन नहीं किया, दबाया नहीं तो ये चीज़ मुझे ऐसी राहों पर धकेल देगी जहाँ से वापिस लौटना मुश्किल होगा।

अभी भीतर से उठ रही है एक वृत्ति, एक चाहत उठ रही है या क्रोध उठ रहा है, कुछ भी उठ रहा है, आवश्यक है कि अभी इसका दमन कर दो क्योंकि बोध कह रहा है नहीं करना है और शरीर कह रहा है करना है। शरीर जो कह रहा है, उसका दमन होना होगा क्योंकि शरीर बोध के ख़िलाफ़ जा रहा है। बोध माने चेतना। समझ में आ रही बात?

तो कभी-कभार दमन आवश्यक होता है, लेकिन अति नहीं कर सकते। अति से मेरा क्या अर्थ है? कि दमन इतना कर दिया कि वो चेतना को उठाने की जगह चेतना को गिराने लग गया, कि दमन दूसरे के दिमाग में भय बनकर बैठ गया। और आप जिसका भला करना चाहते हैं, आप ख़ुद उसके दिमाग में एक डरावनी तस्वीर बनकर बैठ गए तो कर चुके भला। बात समझ रहे हो?

पिता जी हैं, वो बेटी को इतने सख़्त अनुशासन में रखने लगे कि बेटी के दिमाग में पिताजी की तस्वीर के साथ ही यह विचार जुड़ गया कि ये ख़तरनाक हैं, इनसे डरो; तो वो क्या सीखेगी उनसे। उस हद तक दमन नहीं करना है।

तो दमन का इस्तेमाल एक आंतरिक कुशलता, बोध, या कह लो आंतरिक चतुराई के साथ करना होता है कि कितना करें। उत्तर बाइनरी (द्विआधारी) में नहीं दिया जा सकता कि सप्रेशन अच्छा है या बुरा है। कभी अच्छा भी है और कभी बुरा भी है। जब वह मन को साफ़ करने के लिए काम कर पाए तो बहुत अच्छा है और जब दमन मन में कुंठा और भय बनकर बैठ जाए तो बुरा है।

समझ रहे हो बात को?

तो किसी भी टूल का, उपकरण का इस्तेमाल करने के लिए क्या चाहिए होती है? कला, कौशल, कारीगिरी। यह अच्छा है कि बुरा है (अपने हाथ में लिए हुए पेन को दिखाते हुए)? ये अच्छा है या बुरा है? न अच्छा है न बुरा है, यह तो मेरे हाथ पर निर्भर है कि यह क्या है। समझ रहे हो न बात को?

तो वैसे ही दमन है। इसका (पेन का) इस्तेमाल प्रेम पत्र लिखने के लिए भी कर सकते हो और इसका इस्तेमाल किसी को सज़ा-ए-मौत देने के लिए भी कर सकते हो। अच्छा है कि बुरा है? पता नहीं क्या है। आपकी नीयत पर है, आपकी कुशलता पर है।

एक ज़माना वो था जब ये चीज़ बहुत प्रचलित थी कि जो कुछ भी चल रहा है उसको दबा दो, दबा दो। और बच्चे आमतौर पर व्यर्थ ही डरे हुए भी रहते थे। यह बात सही है आपकी, आज से पैंतीस-चालीस साल पहले ऐसा बहुत घरों में होता था। सब घरों में नहीं पर बहुत होता था ऐसा।

हवा ही कुछ ऐसी थी कि अच्छे माँ-बाप वो होते हैं जो बच्चों को डाँट-डपट के रखते हैं। ठीक है? तो घर में मेहमान आएँ नहीं कि बच्चे तुरन्त एकदम अंकल जी नमस्ते, ऐसे हो जाते थे। आपने भी करा होगा। फट से एकदम नर्सरी राइम्स (कविताएँ) सुनानी शुरू कर दी, और कपड़े गंदे नहीं होने चाहिए। और कहीं जा रहे हो तो कुछ दिया जाए तो खा-पी नहीं लेना।

और फिर जब बड़े होते जा रहे हो तो इस तरह की कोई बातें नहीं करनी, उस तरह का कुछ नहीं करना है। गाने-वाने भी सुनने हैं तो इधर-उधर छुप-छुपा के सुन लिये दो-चार, नहीं तो घरों में यह सब नहीं बजेगा।

तो एक वो माहौल था, उसमें एक अति निहित थी। लेकिन अभी जो हो रहा है, पता नहीं वो पहले से कम ख़तरनाक है या ज़्यादा। अभी जो हो रहा है, मुझे तो लगता ऐसा ही है कि यह ज़्यादा ख़तरनाक है।

क्यों ज़्यादा ख़तरनाक हैं ?

इसके पीछे भी एक बिलकुल गणितीय सूत्र है, एकदम लॉजिकल (तार्किक) बात कहूँगा। अगर मैं शून्य से शुरुआत करूँ, अगर मेरी डिफॉल्ट स्टेट (पूर्व अवस्था) ज़ीरो हो, तो हम कह सकते हैं — अगर मेरी गाड़ी है और उसका व्हील एलाइनमेंट बैलेंसिंग (गाड़ी के पहियों को सीधा चलाने का संतुलन) बिलकुल सही है। व्हील एलाइनमेंट बैलेंसिंग समझते हैं क्या होता है? एलाइनमेंट क्या होता है? गाड़ी के चक्कों का एलाइनमेंट क्या होता है? एलाइनमेंट माने क्या?

प्र: सीधा चलेगा।

आचार्य: सीधा चलेगा, ठीक है। अगर मेरी गाड़ी वेल एलाइंड है, तो मैं कहूँगा, 'कभी दमन करो और कभी दमन नहीं करो'। क्योंकि डिफॉल्ट स्टेट यह है कि मेरी गाड़ी तो हाइवे (राजमार्ग) पर सीधी अपनेआप चल ही लेगी। मान लीजिए मैं स्टीयरिंग छोड़ दूँ और बैठ जाऊँ, और बस एक्सीलरेटर (गतिवर्धक) पर पाँव रखा हुआ है, तो भी गाड़ी सीधी चलती जाएगी।

लेकिन जो बच्चा पैदा होता है, जैसे हम होते हैं न, हम एलाइंड (संरेखित) नहीं होते। हमारी गाड़ी एलाइंड है नहीं, हमारी गाड़ी किधर को भाग रही है? वो अपनेआप ही एक दिशा को भाग रही है। किधर को भाग रही है? बाएँ को भाग रही है। जब वो बाएँ को भाग ही रही है तो में कैसे कह दूँ कि माँ-बाप को न्यूट्रल (तटस्थ) रहना चाहिए? तुम न्यूट्रल रहोगे तो गाड़ी अपनेआप एक दिशा में भाग ही जाएगी।

समझ रहे हो बात को?

तुमने गाड़ी को पूरी आज़ादी दे दी, एक दिशा है सप्रेशन (दमन) की, एक दिशा है फ्रीडम की, तुमने फ्रीडम (आज़ादी) दे दी, तो ऐसा भी नहीं है कि वो सीधी चल लेगी, वो क्या करेगी? वो बाएँ को जाएगी, वहाँ खड्डे में गिर जाएगी।

तो सप्रेशन ख़तरनाक था जब उसके पीछे गहराई नहीं थी, कॉन्शियसनेस , चेतना नहीं थी। और उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है वो फ्रीडम जो आज आप अपने बच्चों को दे रहे हो। क्योंकि ज़बरदस्ती दमन करने का मतलब होता था कि आप तब भी उसको पकड़े हुए हो जब उसे पकड़ने की ज़रूरत नहीं है। आप तब भी उसे डिसिप्लिन्ड (अनुशासित) कर रहे हो, जब वो फ्रीडम से काम चला लेगा।

लेकिन जब आपने कह दिया कि मैं तो इसको फ्री (मुक्त) ही छोड़ दूँगा, तो उसका सीधा एक ही मतलब है, क्या? गाड़ी गड्ढे में गयी, क्योंकि हम एलाइंड नहीं हैं। बच्चा मिस एलाइंड पैदा होता है। कोई चाहिए जो उसकी स्टीयरिंग पकड़ा रहे और उसको लगातार सीधा चलाता रहे।

तो यह बात फिफ्टी-फिफ्टी (आधे-आधे) की भी नहीं है कि इट्स ए डिबेट बिटवीन सप्रेशन एंड फ्रीडम, एंड द बेस्ट प्वाइंट इज़ द सेंटर (कि यह दमन और स्वतंत्रता के बीच की बहस है और सबसे अच्छा बिंदु है केंद्र)। नहीं, सेंटर भी बेस्ट प्वाइंट नहीं है। इन दिस डिबेट वी प्रोबेबली नीड टू बी इनक्लाइंड ए लिटल मोर टुवर्डस सप्रेशन (इस बहस में हमें शायद दमन की ओर अधिक झुकाव की ज़रूरत है)।

बात समझ रहे हो?

द आर्क ऑफ कॉन्शियसनेस मस्ट बेंड टुवर्डस सप्रेशन रादर देन फ्रीडम, इफ यू रियली लव फ्रीडम (अगर आपको सच में आज़ादी प्रिय है तो चेतना का झुकाव आज़ादी की बजाय दमन की ओर होना चाहिए)।

इफ यू लव फ्रीडम — विच कॉन्शियसनेस डस — देन इट्स आर्क मस्ट बेंड टुवर्डस सप्रेशन। (अगर आप सच में आज़ादी चाहते हैं — जो कि चेतना को चाहिए — तो उसका झुकाव दमन की ओर होना ही चाहिए)।

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अंधाधुंध दमन करना शुरू कर दो, कृपया यह अर्थ नहीं निकालना है। लेकिन अंधाधुंध दमन जितना बुरा है, उससे ज़्यादा बुरी है अंधाधुंध आज़ादी। क्योंकि आज़ादी कोई जन्मजात चीज़ नहीं होती। जो बच्चा पैदा हुआ है वो आज़ादी के लायक़ ही नहीं है। उसे आज़ादी सिखानी पड़ती है, उसे इस क़ाबिल बनाना पड़ता है कि वो आज़ाद हो पाए। और क़ाबिल बनाने के लिए ही दमन करना पड़ता है, सप्रेशन करना पड़ता है।

द रोड टू फ्रीडम गोज़ थ्रू सप्रेशन (आज़ादी का रास्ता दमन से होकर जाता है)। जो सप्रेशन के लिए तैयार नहीं है, उसे फ्रीडम कभी मिलेगी ही नहीं। जो आत्म-दमन और आत्म-अनुशासन के लिए तैयार नहीं है, उसे आत्मज्ञान या मुक्ति कहाँ से मिल जाने हैं?

तो इन दोनों ही अतियों से बचिए कि अंधाधुंध उसको दबाए हुए हैं, दबाए हुए हैं कि घर में देखो साहब, बड़े सख़्त डिसिप्लिन का माहौल है। ये बेकार की बात है, आप बच्चे को डरपोक बना दोगे, उसके भीतर डर बैठा दोगे।

और उतनी ही बेकार बात है या उससे ज़्यादा बेकार बात है कि हमने तो साहब, बच्चों को पूरी फ्रीडम दे रखी है। हम तो बड़े प्रगतिशील, उदारवादी, लिबरल, प्रोग्रेसिव (उदारवादी, प्रगतिशील) माँ-बाप हैं। आपका ये उदारवाद बच्चे को बर्बाद कर देगा। अब वो छोटू है, उसको कुछ पता नहीं, तुम उसे फ्रीडम काहे की दे रहे हो? किस चीज़ की फ्रीडम दे रहे हो, वो जानता क्या है, वो करेगा क्या?

उसके पास तो बस शरीर है, और उस शरीर में उसकी वृतियाँ हैं, वो वही करेगा फ्रीडम के नाम पर। और तुम कह रहे हो, 'नहीं, यू सी, एवरीबॉडी मस्ट बी फ्री टू डू एज़ देय प्लीज़ ' ( देखिए, हर किसी को आज़ादी होनी ही चाहिए वो करने की, जो वो करना चाहे)। यह बहुत बेवकूफ़ी की बात है न। ये बात वही कह सकते हैं जो इंसान को समझते ही नहीं।

अभी हम टेनिस खेलने गए, यहाँ आने से दो-तीन दिन पहले की बात है, बहुत दिनों बाद गए। तो मेरे सामने थे ये अनुपम और संजय, मेरे साथ कुणाल था। अब ये दोनों खेले-खिलाए अच्छे खिलाड़ी हैं, लेकिन ये हारे, बढ़िया वाले हारे। क्यों हारे?

ये इसलिए हारे क्योंकि ये बहुत फ्रीडम के साथ खेल रहे थे। और मेरे साथ कुणाल था, मैं उस पर चढ़ के बैठा हुआ था, जस्ट कंट्रोल (बस नियंत्रण रखो)। मैंने कहा, 'तुम इतने दिनों बाद खेल रहे हो, तुम पावर के साथ अभी मार ही नहीं सकते, मारोगे तो वही होगा जो पहाड़ी मारता है तो होता है'। वो नेट में डाल रहा था सब, ये लंबी-लंबी मार रहा था दूसरे कोर्ट में।

फ्रीडम उसे ही शोभा देती है न, जिसने पहले अपनेआप को अनुशासन से जीत लिया हो। जब आप अपनेआप को अनुशासन से और अभ्यास से, प्रैक्टिस से जीत लेते हो, तब आपको हक़ मिलता है कि आप पूरी जान लगा के पूरी फ्रीडम से खेलो। नहीं तो आप हारोगे, अनफोर्स्ड एररस (अप्रत्याशित त्रुटियाँ) करोगे।

और यही कर रहे थे ये, खूब हारे, अन्फोर्स्ड कर-कर के हारे। मैं उसको (कुणाल को) बोल रहा था, 'अभी नहीं, अभी दस दिन खेल लो उसके बाद हाथ खोलना। अभी सर्विस भी बस हल्की से कर दो, डबल फॉल्ट नहीं देनी है, नहीं देनी। बस उधर पहुँचाते चलो, जस्ट कीप रिटर्निंग, जस्ट कीप रिट्रिविंग , हम जीते, मस्त जीते।

फ्रीडम बहुत प्यारी चीज़ है, लेकिन मुफ़्त चीज़ नहीं है, अर्जित करनी पड़ती है। फ्रीडम का मतलब ये नहीं होता है कि कोर्ट पर पहुँच गए और अंधाधुंध हाथ चलाने लग गए। आगे निकल कर छक्का मारने का हक़ किसको है? ये बल्लेबाज़ बैठे हैं, बताओ? जो जम गया है न बाबा!

पहली बात — आपके पास वो कौशल होना चाहिए, आपने बहुत लंबी प्रैक्टिस करी, नेट में अभ्यास किया है। और दूसरी बात — कम-से-कम दस-बीस गेंदे खेल लो, फिर आगे निकलना। नहीं तो अफ़रीदी, बूम-बूम बोल्ड! पच्चीस साल खेले, औसत पच्चीस का भी नहीं। समझ में आ रही है बात?

तो बच्चों को अफ़रीदी थोड़ी बना देना है, कि बूम-बूम बोल्ड। 'क्या! नहीं, फ्रीडम होनी चाहिए साहब, फ्रीडम होनी चाहिए, छक्के मारो बेटा, जाओ छक्के मारो।' और वहाँ वो मोटिवेशन की किताबें पढ़ रहें है। और आपने कहा यूट्यूब देख रहे हैं। उसमें वो यही देख रहे हैं, ये कर दोगे तुम, वो कर दोगे। और जो करने के लिए जो मेहनत करनी पड़ती है उसकी कोई बात ही नहीं करेगा। क्योंकि उसकी बात करना शुरू की तो वीडियो पिट जाएगा, जैसे मेरे पिटते हैं।

मेहनत मत बताना, श्रम मत बताना, अनुशासन मत बताना; बस ये बताना कि हो जाएगा, बहुत आसान है कर लोगे, तुम भी कर लोगे। और ये भी मत बताना कि कौनसी चीज़ करने लायक़ है।

अंधाधुंध आज़ादी का पहला दुष्परिणाम तो ये होता है कि आपको पता ही नहीं होता कि आज़ाद होकर करना क्या है। आपको आज़ादी दे दी गई है, आप करोगे क्या? क्या आप जानते भी हो कि आज़ादी का सदुपयोग क्या करना है? इस पृथ्वी की दुर्दशा आज ज़्यादा आज़ादी से है, कम आज़ादी से नहीं है। ये बात अच्छे से समझ लीजिए।

बहुत मूर्ख लोगों को बहुत ज़्यादा आज़ादी मिली हुई है, अपनी मूर्खता को अमल में लाने की। इसलिए ये पृथ्वी बर्बाद हो रही है। और जो जितना मूर्ख है, वो उतनी ज़्यादा आज़ादी की बात करता है। आई विल डू एज़ आई प्लीज़ (मैं जैसा चाहूँगा वैसा करूँगा)।

मैं कोई बात बोलूँ, उसके ख़िलाफ़ सबसे बड़ा तर्क यही आता है — आपको क्या पड़ी है, जो जैसा करना चाहता है उसे करने दो न। आपको माँस नहीं खाना, आप मत खाओ। जो खा रहा है, उसको बुरा क्यों बोलते हो? दुनिया को बर्बाद करने के लिए जो सबसे बड़ा तर्क दिया जा रहा है, वो यही है — आज़ादी।

कभी रहा होगा ज़माना जब दमन ने दुनिया को बर्बाद किया होगा; आज आज़ादी कर रही है दुनिया को बर्बाद। आज़ादी बुरी नहीं है, गलत हाथों में आज़ादी बुरी है। आज़ादी वाक़ई में किसी को देना चाहते हो, तो पहले उसे आज़ादी के क़ाबिल बनाओ।

समझ रहे हैं?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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