बच्चों की तरक्की कैसे हो? || (2016)

Acharya Prashant

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बच्चों की तरक्की कैसे हो? || (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक चीज़ है जो मुझे बहुत परेशान करती है। मैं इसे एक धारणा के रूप में साझा करना चाहता हूँ और इसपर आपके विचार जानना चाहता हूँ — जैसे-जैसे आप जीवन में आगे बढ़ते हैं, जीवन आपको बढ़ने में मदद करता है। जीवन विकास के बारे में है। लेकिन जब आप दुनिया को देखते हैं, न केवल भारत में, हर जगह, आप देखते हैं कि तकनीक बढ़ रही है, बहुत कुछ भौतिक रूप से बढ़ रहा है। बहुत सारे नए विचार आ रहे हैं। लेकिन जब आप मूल्यों को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि इंसान के चरित्र में गिरावट आ रही है, चाहे वह बच्चा हो या उसके माता-पिता या वह कोई भी हो। आपको क्या लगता है कि यह भविष्य हमें कहाँ ले जाएगा?

आचार्य प्रशांत: वो इसलिए हो रहा है क्योंकि जैसे आपने अपनी बात की शुरुआत ही यह कह कर करी कि जीवन का उद्देश्य प्रगति, तरक्की है, वैसे ही हर कोई तरक्की करना चाहता है। आपने कहा कि वैल्यूज़ , मूल्य गिर रहे हैं। गिर नहीं रहे। सबके पास एक ही सर्वोपरि मूल्य है, और वो है *ग्रोथ*। और वो तो आप भी मान रहे हैं। आप कह रहे हैं जीवन में तरक्की होनी चाहिए। हर कोई तरक्की करना चाहता है, और यदि तरक्की ही सबसे प्रथम मूल्य है, तो फिर उसके लिए जो भी करना पड़े कम है। बाकी सारे मूल्य अब उसके सामने कोई हैसियत नहीं रखते।

निश्चित रूप से शुरुआत में ही कहीं ग़लती हो रही है। निश्चित रूप से ग्रोथ , तरक्की कोई मूल्य हो ही नहीं सकता। जीवन का उद्देश्य हो ही नहीं सकता। आप ग्रोथ की बात ही कब करते हैं? मैं वापस आता हूँ स्थिति पर, वर्तमान पर। आप तरक्की कब चाहते हैं? आप तरक्की सिर्फ़ तब चाहते हैं जब पहले आपको ये एहसास करा दिया गया हो कि आप अभी पिछड़े हुए हैं। जो अपने-आपको दुर्गति में मानता है, जिसने अपने-आपको दुर्गति में जाना है, वही तो कहेगा कि, "अब मुझे प्रगति चाहिए।" प्रगति हम सब को चाहिए। प्रगति चाहने वाले कभी अपने-आपसे नहीं पूछ रहे हैं कि, "ऐसी क्या दुर्गति है हमारी जो हमें प्रगति चाहिए?"

और चूँकि मुझे पता है कि हममें से बहुत सारे अभिभावक हैं तो इसीलिए मैं दोबारा बच्चों पर आता हूँ। बच्चों को लगातार यही सिखाते रहते हैं तरक्की करना। आप ये नहीं देख रहे कि ऊपर-ऊपर से तो आप उनसे ये बोल रहे हो तरक्की करना और आगे बढ़ना, और भीतर-ही-भीतर आप उनके अंदर ये धारणा मज़बूत किए दे रहे हो कि तुममें अभी कोई खोट है। अगर मुझमें कोई खोट नहीं तो मुझे प्रगति की नहीं सिर्फ़ अभिव्यक्ति की ज़रूरत है।

ऐसे समझिएगा कि मेरे पास कोई वाद्य यंत्र हो, कोई गिटार हो, कोई वीणा हो। अगर उसमें कोई खोट है तो मैं क्या करूंँगा? उसे ठीक करूंँगा। और यदि वो ठीक ही है, पूर्ण ही है तो फिर मैं क्या करूंँगा? मैं उसे बजने का मौका दूँगा। मैं कहूंँगा, "तरक्की नहीं, संगीत", मैं कहूंँगा, "प्रगति नहीं, अभिव्यक्ति"। मैं कहूँगा — अब तो अपने-आपको अभिव्यक्त कर। तुझे आगे नहीं बढ़ना है। आत्म-विकास नहीं चाहिए, आत्म-अभिव्यक्ति चाहिए। पर हम आत्म-अभिव्यक्ति की बात नहीं करते। हम कहते हैं विकास करो विकास करो, कुछ बेहतर बन जाओ। और ये जुर्म है, पाप है।

ग्रोथ कोई वैल्यू नहीं है, ग्रोथ अभिशाप है। ये जो पूरी अवधारणा है प्रगति की ये इस ज़माने का बोझ है। और यदि आप ज़रा सा समाजशास्त्र और इतिहास में रुचि रखते हों तो आपको पता चलेगा कि ये सारी बातें औद्योगिक क्रांति के बाद की हैं। आप उपनिषदों के पास जाएँगे तो कोई उपनिषद आप से ये नहीं कहेगा कि तरक्की करो। वे हँसेंगे। वो कहेंगे, "पूर्ण तुम हो ही। सुंदर तुम हो ही। अरे! तुम्हें कौन सी तरक्की करनी है, तुम जैसे हो वैसे दैवीय हो।"

पर जब से मशीन आई है, जब से ये इंसान के लालच ने पंख पकड़े हैं, तब से ये तरक्की की बात बिलकुल गहरी घुस गई है। और ये बात सौ, दो-सौ साल से ज़्यादा पुरानी नहीं है। दिक़्क़त सिर्फ़ ये है कि आज अनेकों वक्ता हैं, अनेकों लेखक हैं जो आपको लगातार तरक्की करने का और जीतने का पाठ पढ़ा रहे हैं। उन्होंने हमारे मन में ये कूट-कूट कर भर दिया है कि जीवन का उद्देश्य ही यही है कि कुछ और बनकर दिखाओ। वो ये नहीं कहते कि तुम जो हो वैसे ही खिल जाओ। वैसे ही प्रकट और अभिव्यक्त हो जाओ। वो कहते हैं 'ना', जैसे तुम हो वो तो दरिद्र है वो तो देखने योग्य नहीं है, लीचड़ हो तुम, तुम प्रेम के क़ाबिल ही नहीं, तुम जीने के भी क़ाबिल नहीं। तुम पहले कुछ बनकर सिद्ध करो कि तुम्हें जीने का हक़ है, और अगर तुम कुछ बने नहीं तो हम तुमसे कहे देते हैं तुम हमारी नज़रों में कुछ नहीं। ये बहुत बड़ा अन्याय है जो हम किसी के साथ भी करते हैं। बच्चे के साथ भी बाद में करते हैं, सबसे पहले तो अपने साथ करते हैं। मैं देखता हूंँ कि वो लोग जो ज़िंदगी की इस चूहा दौड़ में पीछे रह जाते हैं वो अपनी नज़रों में गिर जाते हैं। यह महामूर्खता है।

ये आपको किसने सिखा दिया कि आपमें कोई कमी है, ये आपको किसने सिखा दिया कि आपको मुस्कुराने और हँसने का हक़ तभी है जब आप कोई मंज़िल पा लें? मंज़िलें आती रहेंगी, मंज़िलें जाती रहेंगी, लेकिन जो आख़िरी मंज़िल है ध्यान रखिएगा कि वो आपको अभी उपलब्ध है। आख़िरी मंज़िल पर आप अभी विराजमान हैं; ये जानते हुए आपको जिस दौड़ में दौड़ना है दौड़िए। अब जिस मंज़िल को तलाश करना हो करिए।

आख़िरी मंज़िल क्या होती है? आख़िरी मंज़िल होती है शांति, मौज। मौज में रहकर दौड़ना हो तो दौड़िए। हम मौज में नहीं दौड़ते, हम खीझ में दौड़ते हैं। पहले ही जान लीजिए कि आप जीते हुए हैं। अब जिससे प्रतिस्पर्धा करनी हो करिए। अब कहिए कि, "देखो अब हम जीत गए तो जीत गए, पर अगर हम हार भी गए तो जीते हम ही हैं क्योंकि जीते तो हम सदा से हैं।" ग्रोथ कुछ नहीं है, अस्तित्व में सबकुछ सदा से पूर्ण है। बीज के भीतर पूर्ण वृक्ष मौजूद है। उसे कहीं जाकर के पूर्णता की शिक्षा नहीं लेनी है। हांँ, पूर्ण होने के लिए बीज कुछ करने लग गया तो अपूर्ण रह जाएगा। आप पूरा होने की चाहत में जो कुछ करते हैं वही आपको अधूरा बना देता है।

पूर्णता की जो हमारी हवस है, वो शुरू भी अपूर्णता से होती है और उसमें आगे भी लगातार अपूर्णता ही है। इसीलिए जो लोग ग्रोथ के मारे हुए हैं, उनसे ज़्यादा बेचैन और खिसियाया हुआ आप किसी को नहीं पाएँगे। ऊपर-ऊपर हो सकता है वो मुस्कुराने का स्वांग कर रहे हों, पर अंदर लगातार वो चिड़चिड़े रहेंगे। ग्रोथ तो कभी भी पूरी हो ही नहीं सकती, कितना भी बढ़ते जाओ, और बढ़ो। ग्रोथ तो आँकड़ा है, कोई भी आँकड़ा आख़िरी तो होता नहीं।

मंज़िल आगे नहीं है। मंज़िल अभी है और आप वहांँ पर हैं। वहांँ जाने के लिए आपको कुछ करना नहीं है। समझ लीजिए आपको उपहार मिला हुआ है, *फ्री गिफ्ट*। जो ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है वो आपको मुफ़्त ही मिला हुआ है। अब बाकी छोटी-मोटी चीज़ें आप ख़ुद ही से हाँसिल करते रहिए। जो सबसे कीमती है वो दे दिया गया मुफ़्त। अब आपको लगता है जुटाना है कंघी, बालों का तेल, चप्पलें, कूड़ा इकट्ठा करने की टोकरी तो ये आप हाँसिल करिए, इससे ज़्यादा आप हाँसिल कर भी नहीं सकते। ये हो सकता है कि आप सोने की टोकरी इकट्ठा कर लें कूड़ा डालने के लिए पर डालोगे तो अब भी उसमें कूड़ा ही न। तो ये सब छोटी-मोटी बातें आप हाँसिल करते रहिएगा पर ये मत बोलिएगा कि आनंद हाँसिल करना है। वो हाँसिल नहीं कर पाओगे।

प्र: इसका मतलब ये है कि जैसे जो घटता जा रहा है, चाहे किसी का नुक़सान हो रहा है व्यापार में, नौकरी में, बच्चे की शिक्षा में उसको होने दें और सोचें जो हो रहा है सही है?

आचार्य: आप जो भी सोचेंगे वो आपको अपूर्णता की ओर ही ले जाएगा। ये सोचा नहीं जाता इसमें मौजूद रहा जाता है। इसे जाना जाता है। मैं जो बातें आप से कह रहा हूंँ, ना वो सोचने से उठी हैं, ना वो सोचने की हैं। आप सोचते भी रह जाएंँ कि मैं पूर्ण हूंँ, मैं पूर्ण हूंँ तो क्या हो जाएगा? पूर्णता कोई ज़बानी बात है कि उसे दोहरा रहे हैं, यह कोई मानसिक बात है कि उसे याद कर रहे हैं? पूर्णता है। व्यापार में नुक़सान हो गया तो कहिए, "व्यापार का नुक़सान हो गया, मेरा नहीं हो गया। मैं कोई व्यापार हूंँ? व्यापार आते-जाते रहेंगे, व्यापार घटते-बढ़ते रहेंगे। व्यापार बढ़ जाएगा तो मैं नहीं बढ़ जाऊंँगा और व्यापार घटेगा तो मैं नहीं घट गया।" और ये बात सोचने की नहीं। घट गया व्यापार, हांँ घट गया व्यापार, हम जैसे थे वैसे ही हैं।

प्र२: कर्म के सिद्धांत के बारे में बताइए।

आचार्य: कर्म का सिद्धांत सिर्फ़ उनपर लागू होता है जो अपने-आपको कर्ता मानते हैं। इसीलिए बड़ा गौड़, बड़ा छोटा सिद्धांत है वो। आप कर्म में यक़ीन करेंगे तो फिर कर्मफल में भी करेंगे। फिर आप कहेंगे कि, "जो कुछ मुझे मिलना है वो मुझे कर्म कर कर के मिलना है।" आप को जो मिलना है वो कर्मफल का मोहताज नहीं है। आपको उसे हाँसिल नहीं करना है। आपका प्रयत्न कोई कीमत नहीं रखता। आपका कर्मफल आपको जो वो ऊंँचे-से-ऊंँचा फल है वो नहीं दे पाएगा। कर्ता भी छोटा, कर्म भी छोटा, कर्म फल भी छोटा, तो इन सब की प्रयुक्ति, इन सब की उपयोगिता सिर्फ़ छोटे मसलों में है। आपको पानी पीना है तो आप हाथ बढ़ा करके गिलास उठा सकते हैं। कर्म हुआ कर्मफल मिला। इन बातों में कर्म, कर्मफल चलता है, पर कर्म और कर्मफल आपको आत्मिक शांति तक, आपको नियति तक नहीं ले जा सकते।

वास्तव में जो कर्म में यक़ीन करते हैं उनका कर्म से पहले कर्ता में यक़ीन होता है। कर्ता समझते हैं? करने वाला और करने वाला अहंकार है। तो जो जितना अहंकारी होगा उसकी कर्म और कर्मफल में उतनी निष्ठा होगी। "मैं करके दिखाऊँगा, मेरा पुरुषार्थ, हम हाँसिल करेंगे।" ना कर्म ना कर्मफल, सारा कर्म होने दीजिए, होगा, आप ही करिए। पर भीतर निष्कर्म में बैठिए। कृष्ण ने उसी को निष्काम कर्म कहा है। निष्कामता में रहिए। ठीक है, बड़ी मेहनत कर रहे हैं, बड़ी मेहनत कर रहे हैं, मगर सारी मेहनत अगर फ़िजूल भी हो गई तो कहीं कोने में बैठ कर हँस लेंगे। बहुत दौड़ रहे हैं, बहुत दौड़ रहे हैं पर जीतने के लिए कौन दौड़ता है, मज़ा आ रहा है इसलिए दौड़ रहे हैं। पूरी जान लगा दी व्यवसाय में, पर इसलिए थोड़े ही लगा दी कि इससे कुछ मिल जाएगा। मिल क्या सकता है? हम तो पहले से ही बादशाह हैं। अपनी आंतरिक बादशाहत में जीना बहुत सरल है। पर हम यह सोचते हैं बादशाहत कोई दूर की बात है। फिर इसीलिए वो कभी मिलती ही नहीं। क्योंकि दूर है नहीं।

प्र३: हम एक मनुष्य के बनाए हुए समाज में रहते हैं और हमें अपनी आधारभूत ज़रूरतें जैसे खाना, पानी, सर पर छत इन सबके लिए कर्म तो करना पड़ेगा। बिना कर्म के अपने आप नहीं होगा। और कर्म करने में बड़ी दुविधा आती है। कभी मन कोई दिशा जाता है, कभी दूसरी दिशा। कभी किए हुए कर्म का बड़ा पछतावा होता है।

आचार्य: अभी आप ये सवाल पूछ रहे हैं ये कर्म है या नहीं है? कहिए, आपके द्वारा सवाल पूछा जाना कर्म की श्रेणी में है या नहीं? कर्म की श्रेणी में है। आप सवाल केंद्रित होकर के और शांत होकर के पूछ सकते हैं या नहीं? बोलिए, और सवाल आप अशांत होकर के भी पूछ सकते हैं या नहीं? ज़्यादा सुंदर, सुगढ़ और बेहतर कर्म कब होगा?

प्र: शांत मन से।

आचार्य: तो हमें ऐसा क्यों लगता है कि कर्म की ज़रूरत है इसका मतलब अशांत होना ही पड़ेगा। आपको जो करना है करिए पर क्या आप मौन होकर के, शांत होकर के नहीं कर सकते? मज़ेदार बात यह है कि जब आप शांत होकर के करते हैं तो कर्म का पूरा स्वरूप बदल जाता है।

प्र: इसका मतलब ये हुआ कि कोई भी काम हम शांत होकर के कर सकते हैं?

आचार्य: बिलकुल कर सकते हैं। जैसे अभी आप शांत होकर के सवाल पूछ रहे हैं। ठीक उसी तरीके से शांत होकर के कुछ भी कर सकते हैं। बल्कि यदि अशांत होकर करेंगे तो इतना तो आप भी जानते हैं जो करने निकले हैं वो बिगड़ेगा ही। अशांत होकर के आप रोटी बेलकर दिखा दें। और जिस दिन घर में अशांति में रोटियांँ बनती हैं, उस दिन आपको पता है कि क्या स्वाद आता है। मैं आपसे यहांँ तक कह रहा हूंँ कि आप अशांत भी हो सकते हैं शांत रहकर के। रह लीजिए, ऊपर-ऊपर से अशांत हो जाइए भीतर-भीतर से शांत बने रहिए। जीवन में हो सकता है कोई परिस्थिति ऐसी आए कि ऊपर-ऊपर से अशांति प्रदर्शित करनी पड़े, दिखा दीजिए अशांति। भीतर तब भी शांत बने रहिए।

प्र: इसका अर्थ है हम शांत रहकर अपने कर्मेन्द्रियों से कर्म कर सकते हैं?

आचार्य: आप कर्मेन्द्रियों को कर्म करने की छूट दे सकते हैं। आप शांत बने रहिए कर्मेंद्रियांँ स्वयं जानती हैं उन्हें क्या करना है। अंतःकरण कोई मूर्ख नहीं है। बुद्धि स्वयं जानती है उसे क्या करना है जब बुद्धि आत्मा के संरक्षण में रहती है। जब आत्मा को समर्पित रहती है, तो बुद्धि सद्बुद्धि कहलाती है। फ़िर बुद्धि ख़ुद जानेगी कि उसे क्या करना है।

प्र: बुद्धि और मन में अंतर है?

आचार्य: एक ही हैं।

मन जब संसार से हार्मनी में रहता है, एकता में रहता है, तो उसे बुद्धि कहते हैं।

प्र: क्या इच्छाशक्ति के साथ परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं?

आचार्य: विलपावर की कोई ज़रूरत नहीं है। यह भी पिछले सौ-दो-सौ सालों की बात है कि आपको कहा गया है कि इच्छाशक्ति जागृत होनी चाहिए। आपको इच्छाशक्ति की क्या ज़रूरत है, आत्मा स्वयं परम बलशाली है। आत्मबल काफ़ी होता है। विलपावर चाहिए क्यों? मुझे सुन रहे हैं तो क्या विलपावर लगा लगा कर सुन रहे हैं। आत्मबल अपने आप है उसमें कुछ करना नहीं है। पर इच्छाशक्ति में आपको धक्का देना पड़ता है। इच्छाशक्ति बिलकुल व्यर्थ बात है।

आपकी इच्छा में जितनी शक्ति होगी, वो आपको उतना परेशान करेगी, देख लीजिए। इच्छाशक्ति तो इतनी तगड़ी हो सकती है कि वो रात भर आपको सोने ना दे। अब वो इच्छा की शक्ति है, आप सोए हुए हैं, और वासना की इच्छा जग रही है और उसमें बड़ी शक्ति है। तो वो आपसे जितने निकृष्ट काम होंगे सब कराएगी। इच्छाएँ उठती ही कहांँ से हैं? मन की अपूर्णताओं से इच्छाएंँ उठती हैं। उनमें जितनी भी शक्ति है उतना आपके लिए खतरा है। पर आपसे कहा गया है, "नहीं इच्छाशक्ति बड़ी बात है।" और आप बच्चों में भी कहते हैं विलपावर जगाओ, पागलपन है।

जब आप शांत हैं तब आपके भीतर से अपने आप शक्ति फूटती है, अपने आप। आप को इच्छाशक्ति जागृत नहीं करनी पड़ती। शांति से बड़ी ताक़त दूसरी नहीं होती। शांति में समझ है और समझ सब कुछ होने देती है। वही समझ का कृतृत्व है। बहुत बड़ा बड़ा काम समझ में हो जाता है अपने आप। जब आप ठीक-ठीक जानते हो कि क्या उचित है तब आपकी पूरी ताक़त और आपसे बाहर की भी ताक़त उस कार्य में जुट जाती है। वह इच्छाशक्ति नहीं है। पर पहले आपको समझ में आना चाहिए। और समझ आपको सिर्फ़ शांति में आ सकता है। आप जब चुप होकर के, मौन होकर के, केंद्रित होकर के किसी भी स्थिति में होते हो तो आप बिलकुल समझ जाते हो कि अब क्या किया जाना चाहिए। और फिर आप पूरी ताक़त से उसमें प्रयुक्त हो सकते हो। और मैं कह रहा हूंँ मात्र अपनी ताक़त से नहीं, आपसे बाहर की भी कोई ताक़त फिर आपका साथ देती है। इच्छाशक्ति तो आपकी अपनी व्यक्तिगत ताक़त है। वह बहुत छोटी होती है। छोटी होती है और उलझन भरी होती है।

प्र३: शान्ति कैसे प्राप्त करें?

आचार्य: प्राप्त क्या करनी है, अशांति को प्रश्रय देना छोड़ दें शांति प्राप्त नहीं करनी है। जिन-जिन तरीकों से ज़िंदगी में आप अशांति को महत्व देते हैं, वो तरीके बंद करने हैं, शांति हाँसिल नहीं करनी। जीवन में हम अशांति को आमंत्रित करते हैं, गला पकड़ कर घुसेड़ते हैं कि, "तू आ!" फिर हम पूछते हैं, "शांति कैसे पाएंँ?" शांति पाने की बात ही नहीं है। शांति तो स्वभाव है, मिली हुई है। सहज अर्जित है। सहज प्राप्त है।

प्र३: मेरी एक बेटी है। वह अभी दसवीं में है। वह पढ़ाई को लेकर बहुत तनाव में रहती है। मैं उसे कोई दबाव नहीं डालता कि अच्छे नम्बर ही लाओ लेकिन वो स्वयं परेशान रहती है और स्वयं लक्ष्य निर्धारित करते रहती है कि ज़्यादा अंक लाने हैं और गणित लेकर ही पढ़ना है। ऐसी स्थिति में मैं उसकी क्या मदद कर सकता हूँ?

आचार्य: जीवन बहुत बड़ा है। ये जो हमारी आयोजित पढ़ाई होती है दसवीं, बारहवीं फिर स्नातक, स्नातकोत्तर, ये सब बहुत छोटे-छोटे हैं। इनको ज़िंदगी मत बनने दीजिए। बच्चे को विक्षिप्त होना, डिस्ट्रैक्ट होना परिस्थितियों ने सिखाया। और ये भी उसने आसपास से ही सीखा कि यदि परिणाम, अंक, नंबर कम आ गए हैं तो ये परेशानी की बात है। ये सब कुछ उसने इधर-उधर से सीखा है। ये उसे पता चला है कि ये जीवन की बड़ी कीमती चीज़ है। जीवन बहुत बड़ी बात है। आज किसी के पचास आ रहे हैं या अस्सी आ रहे हैं, इससे कुछ भी तय नहीं हो जाता जीवन के बारे में, मान कर चलिए। ऊंँचे-से-ऊंँचे जिनके नंबर थे, जिनकी श्रेणियाँ थीं, जिनकी पात्रताएंँ थीं, उन्हीं के साथ रहा हूंँ, उन्हीं के साथ जिया हूंँ, उन्हें ही देखा है, और इससे और ज़्यादा प्रमाणित हो गया है कि उससे कुछ भी हाँसिल नहीं हो जाता। कुछ भी माने कुछ भी।

हमारी जो पूरी व्यवस्था है वो मन की कुछ प्रवृत्तियों को — मैं उन्हें गुण भी नहीं कहूँगा, सिर्फ़ प्रवृत्ति कह रहा हूंँ — मन की कुछ, कह लीजिए कुशलताओं को बहुत ज़्यादा वज़न देती है। उदाहरण के लिए बौद्धिक स्तर, किसी का बौद्धिक स्तर ऊँचा है तो काफ़ी सम्भावना है कि उसके बोर्ड में या प्रतियोगी परीक्षाओं में नंबर अच्छे ही आएँगे। पर बौद्धिक स्तर से जीवन का क्या संबंध है? मैंने देखे हैं डेढ़-सौ बुद्धिमत्ता स्तर है और आदमी है परम् मूर्ख, साँस लेने तक की भी उनमें पात्रता नहीं। वहाँ भी वो जिरह करते हैं, कोशिश करते हैं।

तो शिक्षा व्यवस्था बच्चे को किस पैमाने पर ही तोल रही है या नाप रही है, वो पैमाना ही आप क्यों मान रहे हैं कि उचित है और सही है? वो लोग उसे एक तरीके से जांँच रहे हैं, नापे ले रहे हैं। जीवन वैसे नहीं देखता। परीक्षा में जो परीक्षक बैठा है, जीवन उसकी दृष्टि से किसी को नहीं देखता। हांँ, बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है अगर उसने अपनी कीमत इन परिणाम के आधारों पर लगानी शुरू कर दी तो। किसी के दसवीं में, बारहवीं में नंबर कम आ गए, बहुत कम नुक़सान हुआ। पर बहुत बड़ा नुक़सान हो गया अगर इन कम नंबरों के कारण वह बच्चा, वह किशोर यदि हीन-भावना में चला गया। बहुत बड़ा नुक़सान हो गया। ज़िंदगी छिन गई। जो जैसा चल रहा है चलने दीजिए। बहुत रास्ते खुलते हैं, बहुत दरवाज़े हैं, जैसे हम पैदा होते हैं, ठीक उसी तरीके से हम पल भी जाएंँगे, हमें प्रश्रय भी मिल जाना है, सारी प्राप्तियांँ भी हो जानी हैं। बस उसके भीतर ये भावना मत आने दीजिएगा कि उसके अंदर कोई खोट है क्योंकि उसके अच्छे नंबर नहीं आते।

और जब मैं ये कह रहा हूँ तो इस बात का आश्वासन नहीं है कि ये करने से उसके नब्बे-प्रतिशत आ जाएँगे। नब्बे-प्रतिशत आने के लिए तो मन की पूरी संरचना वैसी होनी चाहिए कि नब्बे-प्रतिशत आएंँ। मेरे आते थे, नब्बे भी आते थे पिचानवे भी आते थे। तब भी कई मायनों में मैं महामूर्ख था। मैं जानता था, ये ईमानदारी की बात थी, जिनके मुझसे कहीं कम नंबर आते हैं वो कई मायनों में मुझसे कहीं बेहतर थे। तो क्या हो गया।

उसको शांत रहने दीजिएगा। उसके भीतर इस विचार को जड़ मत जमा लेने दीजिएगा कि तुम्हारे अंक तय करेंगे कि तुम्हारी योग्यता क्या है, तुम्हारी कीमत क्या है, तुम्हारा मूल्य क्या है। और एक ग़लती तो कर ही मत दीजिएगा कि आप अपने प्रेम को नंबरों पर आधारित कर दें। ये तो बिलकुल ही मत कर दीजिएगा। प्रेम बेशर्त होता है, उसे बेशर्त रहने दीजिएगा। उसके अस्सी आ गए तो प्रेम बढ़ नहीं जाना चाहिए और चालीस आ गए तो घट नहीं जाना चाहिए। फिर वहांँ से अपना एक सुंदर फूल खिलता है और फूलों के खिलने के अपने एक तरीके होते हैं।

जो उसकी परीक्षा ले रहे हैं। जिन्होंने पूरा पाठ्यक्रम तय किया है वो कोई भगवान हो गए? उन्हें पता क्या है। उनकी अपनी ज़िंदगियाँ कैसी हैं। वो किसी दूसरे को क्या नाप-तोल-जाँच रहे हैं? उनके अपने बच्चे कैसे हैं? पर नहीं व्यवस्था में इतनी अकड़ होती है कि वो सब पर निर्देश सुना देती है। वो सबका निर्णायक बन जाती है। वो सबका निर्णय करेगी, "तुम अ, तुम ब और तुम द।" अस्तित्व वैसे नहीं देखता। जीवन सीबीएसई नहीं है, ना जीवन आईआईटी है। उसे जीने दीजिए। ये सब ज्ञान इकट्ठा करके वैसे भी कुछ मिल जाता नहीं है। पहले तो इकट्ठा करना पड़ता है फिर साफ़ करना पड़ता है, धोना पड़ता है कि ये सब क्या इकट्ठा हो गया। अच्छा है झंझट से बचेगी। इकट्ठा ही नहीं होगा।

प्र४: इसका मतलब ये है कि हम जैसे हैं वैसे ही अपने को स्वीकार कर लें।

आचार्य: आप जैसे हैं स्वीकार करने से पहले जानें कि आप हैं क्या। नहीं तो पता नहीं आप क्या स्वीकार कर लेंगे।

प्र४: तो हम कौन हैं? जो हम स्वीकार करें।

आचार्य: हम कौन हैं ये बताइए न?

प्र४: हम ये समझते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं।

आचार्य: 'मैं आत्मा हूंँ' ये कोई शब्द नहीं है।

प्र४: तो इसलिए तो आप से पूछ रहे हैं।

आचार्य: ये शब्दों का अभाव है, ये वो ताक़त है कि बिना बोले भी जानता हूँ, बिना बोले भी समझता हूंँ, बिना विचारे भी बोध है। बार-बार आत्मा-आत्मा करने से आत्मा की प्राप्ति थोड़े ही हो जानी है। उपनिषद् कहते हैं — "न अयम् आत्मा प्रवचनेन लभ्यः", प्रवचन में बैठने से आत्मा का लाभ थोड़े ही हो जाता है।

प्र: आत्मा एक निःस्वार्थ मन है।

आचार्य: बस हो गया बढ़िया। ऐसे रखा करिए हल्का। बातें बिलकुल सीधी हैं। शांत मन आत्मा। निस्वार्थ मन आत्मा। प्रेम में डूबा हुआ मन आत्मा। मौन मन आत्मा, आनंदित मन आत्मा।

प्र२: खुशी?

आचार्य: खुशी नहीं। खुशी तो आपको पता नहीं कहांँ-कहांँ मिलती है, अब कहेंगे यही आत्मा।

प्र२: आपने कहा कि शिक्षा व्यवस्था जो निर्णय करती है वह ठीक नहीं है। इसका अर्थ क्या ये है कि ये व्यवस्था ही नकारा है, ये होना ही नहीं चाहिए थी?

आचार्य: व्यवस्था कोई अपनी टाँगों पर तो चलती नहीं। व्यवस्था के पीछे तो आदमी का मन बैठा है। आदमी माने कौन? आदमी माने कोई दूर के लोग? कोई स्वर्ग से उतरे हैं? सब यहीं के तो हैं, इधर-उधर ही रहने वाले लोग हैं। उन्हीं में से तुम्हारा कोई परीक्षक है। उन्हीं में से कोई तुम्हारा पेपर सेट कर रहा है, कोई सिलेबस सेट कर रहा है। उनमें से कोई सीबीएसई के बोर्ड में बैठा होगा। वो कौन लोग हैं? वो कहांँ के देवदूत हो गए। पर वो जो निर्णय जारी कर देते हैं, तुम उसको बिलकुल दिल से लगाकर बैठ जाते हो कि, "ये देखो ये हमारी हैसियत का प्रमाणपत्र आ गया। अब ये तय करेगा कि हमारा जीवन कैसे बीतेगा।" और वो लोग कौन हैं? वो, वो लोग हैं जो दाल खा रहे हैं और दाल कुर्ते पर गिर रही है।

प्र२: तो मतलब ये व्यवस्थाएंँ होनी नहीं चाहिए?

आचार्य: तुम इसमें साझेदार मत बनना, तुम इसे आगे मत बढ़ाना, बस। ये क्यों कहते हो कि पहले से नहीं होनी चाहिए? अब जो है सो है। तुम मत होना शामिल उसमें।

प्र२: एक अच्छी शिक्षा व्यवस्था के लिए उसमें शामिल तो होना पड़ेगा।

आचार्य: अच्छी शिक्षा माने क्या? अच्छी शिक्षा माने अच्छे नंबर?

प्र२: जैसे मैं एक उदाहरण देता हूंँ कि मैं एक आर्टिस्ट हूंँ तो मुझे एनआईटी जाना होगा। वहाँ पर मुझे एंट्रेंस एग्ज़ाम देना होगा। वहांँ अच्छे टीचर्स मिलेंगे जहाँ मुझे और सारा नॉलेज (ज्ञान) होएगा।

आचार्य: तुम जितने ऊंँचे-से-ऊंँचे आर्टिस्ट को जानते हो, जिनके नाम की कसमें खा सको उसमें से कितने ऐसे थे जिन्होंने किसी संस्था से सीखा था? उनके तो भीतर से निकला था। फिर उनके नाम पर संस्थान चलने लग गए बाद में, और संस्थान कहते हैं, "हम सिखाएँगे।" वास्तविक कला कोई संस्था से सीखी हुई थोड़े ही हो सकती है। तो संस्था में तुम्हें मिल गया प्रवेश, बहुत अच्छी बात है। देख लो क्या बोल रहे हैं, सुन लो, भाई लोग कुछ बताना चाहते हैं। बहुत उत्सुक हैं बताने के लिए किताब-विताब छाप दिए, सुन लो क्या कह रहे हैं। पर कला वह थोड़े ही तुम्हें दे देंगे। कला तो आत्मा से उपजती है, जब आत्मा नाचती है तो कला है। ज्ञान थोड़े ही कला बन जाएगा।

प्र४: आप जो समझते हैं ऐसी समझ हमारे अंदर भी नहीं रहती। उसके लिए हमारी ओर से क्या करना चाहिए? क्योंकि हमें भी आप जैसा ही बनना है। आप आईआईटी में थे। हमनें आपके बारे में थोड़ा पढ़ा। हम भी आपके जैसे बनना चाहते हैं। आप से मिल कर ऐसी कुछ हमें भी उम्मीद है।

आचार्य: आईआईटी में जाकर के फिर आईआईटी से बाहर आना पड़ता है। सिर्फ़ दरवाज़े भर से नहीं, मानसिक तौर पर भी। कोई आईआईटियन बैठेगा आपके सामने यह सब बात करने? आईआईएम जाकर के आईआईएम से बाहर आना पड़ता है। सिर्फ़ दरवाज़े भर से नहीं। कोई देखा है कि कोई आईआईएम से एमबीए करके फिर आपके सामने बैठकर के कहे कि, "बस मन शांत रहे, बस सब ठीक है"?

तो मैं उन सबसे जब गुज़रा तो कदमों के निशान मिटाने पड़े। उनके कदमों के निशान अपने ऊपर से मिटाने पड़े, सफाई करनी पड़ी। जब आप कहते हैं आपको मेरे जैसा बनना है तो उन स्थितियों की बात मत करिए जिनसे होकर के मैं गुज़र चुका हूंँ। उसकी बात करिए जो मिटाया गया। मन को मिटने दीजिए न। चिंताओं को, बीमारियों को, अहंकार को मिटने दीजिए न। और वो मिटने को तैयार हैं। इसका प्रमाण क्या है? कि आप चिंतित नहीं रहना चाहते। इसका मतलब आप भी चाहते हो कि चिंता मिट जाए। जो मिटने को तैयार है बस आप कोशिश कर-कर के उसे पकड़ो मत। और ग़ौर करो कि कैसे ये सब बातें अपने दम पर आपके साथ नहीं टिकी हैं आपकी कोशिशों के कारण आपके साथ हैं। उन्हें छोड़ो, उन्हें जाने दो। और ये यक़ीन रखो कि उन सब को छोड़ कर आपका कोई नुक़सान नहीं हो जाएगा।

आप कहते हो न कि, "देखो चिंता नहीं करेंगे तो उस तरीके का नुक़सान हो जाएगा।" आप देखो कि क्या बिना चिंता किए भी आप चल नहीं सकते। क्या शांत रहकर भी जीवन आगे नहीं बढ़ सकता? बिलकुल बढ़ सकता है और जितना आप इसमें प्रयोग करोगे, जितना आप इनमें श्रद्धा रखोगे उतना आप गहराते जाओगे। कुछ करना नहीं है। फिर से कह रहा हूँ — बहुत कुछ जो रोज़-रोज़ आप करते हो उसकी व्यर्थता देखनी है, कि, "व्यर्थ ही रोज़ ये करते हैं, छोड़ो न क्यों करें।" उसे जाने दीजिए। जब वो सब जाएगा तो जो सुंदर है वह अपने-आप अभिव्यक्त होगा भीतर से, जगह बनेगी उसके लिए आपने आप।

प्र: संतुलन?

आचार्य: नहीं संतुलन नहीं, ये संतुलन की बात नहीं है। रौशनी और अंधेरे में कोई संतुलन नहीं होता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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