बच्चों के लिए घातक शिक्षा व्यवस्था || (2019)

Acharya Prashant

8 min
258 reads
बच्चों के लिए घातक शिक्षा व्यवस्था || (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं जिद्दू कृष्णमूर्ति जी की एक किताब पढ़ रहा हूँ। उसमें वो कई बार वर्णन करते हैं कि अभी का जो करेंट एजुकेशन सिस्टम (वर्तमान शिक्षा व्यवस्था) है, वो ग़लत जा रहा है। तो उनका कहना था कि हमारा एजुकेशन सिस्टम ऐसा होना चाहिए जिससे हम फ्री (आज़ाद) हो सकें। तो वो एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा व्यवस्था) क्या है, जिससे फ्री हुआ जा सके और क्या पढ़ाया जाए?

आचार्य प्रशांत: दुनिया के बारे में तो तुम्हें वर्तमान शिक्षा व्यवस्था ही खूब पढ़ा देती है। तुम कौन हो, कैसे हो, तुम्हारी प्रक्रियाएँ कैसे चलती हैं, मन क्या चीज़ है — इसके बारे में कुछ नहीं बताती। तो इसीलिए अपूर्ण है ये व्यवस्था। ग़लत इसीलिए है क्योंकि अपूर्ण है, इसे पूर्णता चाहिए। पूर्णता इसमें तब आएगी जब इसमें आत्मज्ञान भी शामिल होगा।

प्र२: आचार्य जी, यदि अध्यात्म को शिक्षा व्यवस्था में शामिल करेंगे तो क्या इसमें भी कट्टर पंथिता जैसी खामियाँ नहीं आ जाएँगी? क्योंकि व्यवस्था में सब कुछ बिगड़ ही जाता है धीरे-धीरे, जैसे अभी धर्म में कट्टर पंथिता आ गई है।

आचार्य: कोई भी व्यवस्था रख-रखाव माँगती है। गाड़ी भी लाते हो तो खरीद लेना काफ़ी नहीं होता, उसका रख-रखाव, मेंटेनेंस करना पड़ता है न। तो हर व्यवस्था माँगती है कि उसकी जाँच होती रहे। नियमित रूप से, सावधिक रूप से, उसपर प्रयोग और परीक्षण चलते रहें। उसकी सेहत का जायज़ा लिया जाता रहे। बनाकर छोड़ दोगे तो भ्रष्ट हो ही जाएगी।

समय सबको खा जाता है। कोई भी व्यवस्था बनाओगे, है तो सांसारिक ही, समय उसको खा जाएगा।

प्र३: आचार्य जी, सांसारिक शिक्षा व्यवस्था में तो खुद को तैयार करना बाहरी स्तर पर आसान भी है।

सत्य की शिक्षा के ऊपर तो ओशो चले तो ओशो का साम्राज्य वहीं ख़त्म हो गया। वहाँ पर जिद्दू कृष्णमूर्ति चले तो वो स्कूल भी वहीं पर रुक गया। सत्य की शिक्षा देना बड़ा जटिल काम है।

आचार्य: बहुत मुश्किल है। पर काम जितना मुश्किल है, उस काम का फल उतना ही मीठा भी है। दूसरी बात — काम जितना मुश्किल है उतना ही अपरिहार्य भी है। तो अब ये देखें कि मुश्किल है या ये देखें कि आवश्यक है?

श्रोतागण: आवश्यक है।

आचार्य: तो करना तो पड़ेगा। तमाम उसके साथ कठिनाईयाँ जुड़ी हुई हैं, फिर भी करना तो पड़ेगा।

प्र: आचार्य जी, इसमें ध्यान क्या रखा जा सकता है? जैसे हम अब आकर यह चीज़ समझने की कोशिश कर रहे हैं या अनकण्डीशनिंग (मन के संस्कारों को छोड़ने का कार्य) अब चालू करेंगे जो इतने सालों की थी। तो बचपन में ही वो क्या चीज़ें हैं एक-दो, जो ध्यान में रखी जाएँ बच्चों से बातचीत करते समय, जिससे वो हमारे जैसे ना रहें?

आचार्य: जब भी तुम ये सवाल करते हो तो आमतौर पर आशा ये रखते हो कि तुम्हें बताया जाए कि बच्चों के साथ अतिरिक्त कौन से काम कर दें। जो हो रहे हैं उनके अतिरिक्त, जबकि शुरुआत होनी चाहिए ये देखने से कि बच्चे का मन बन कहाँ से रहा है। एक-दो दिन, चार दिन, हफ्ता भर बच्चे की तरह जी करके देखो, कि बच्चे को उसका सारा मानसिक भोजन कहाँ से मिल रहा है। बच्चा ही बन जाओ। और बिलकुल समझो, प्रयोग करके देखो कि बच्चे की चेतना में जो सामग्री जा रही है, वो कहाँ से आ रही है। फिर तुरंत समझ जाओगे कि ज़हर के रास्ते क्या-क्या हैं।

तुम्हें बच्चे को कुछ नया सिखाने की ज़रूरत तो है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा बड़ी ज़रूरत है उन सब रास्तों को रोकने की, जिनसे ज़हर बच्चे में प्रवेश करता है। नया ना भी सिखाओ तो चल जाएगा। तुम बहुत ज़्यादा नई चीज़ें नहीं सिखा पाए किसी कारणवश, तो नुक़सान होगा पर कम है नुक़सान, ज़्यादा बड़ा नुक़सान होता है जब बच्चा बहुत सारी फालतू की चीज़ें जमा करता रहता है। लेकिन तुम्हें पहले पता होना चाहिए कि वो सब बच्चे तक कहाँ से पहुँच रहा है। अगर तुम्हें पता ही नहीं है तो फिर तो तुम रोक भी नहीं सकते न।

इसके लिए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। तुम्हें ग़ौर से देखना पड़ेगा कि टीवी का एक विज्ञापन आता है तो वो बच्चे की चेतना पर असर क्या डाल देता है। तुम्हें बड़प्पन के अपने दायरे से बाहर आना पड़ेगा, बच्चा ही बन जाना पड़ेगा। टीवी का एक विज्ञापन हो सकता है बड़ों का मानसिक स्वास्थ्य ख़राब ना करे। तुमने बड़ा ही बनकर उस विज्ञापन को देख लिया। यही तो अहंकार है, अपने ही व्यक्तित्व में क़ैद रहना। तुम बड़े हो, बड़े का तुम्हारा व्यक्तित्व है, तुमने उसी के अनुसार विज्ञापन को देख लिया। तुमने ज़रा भी ग़ौर नहीं किया कि तुम्हारे बगल में जो बच्चा बैठा है, उसकी चेतना पर उस विज्ञापन का क्या असर पड़ा क्योंकि बच्चा तुम बन ही नहीं पा रहे। हो सकता है कि बच्चे पर बड़ा घातक, ज़हरीला असर पड़ा हो। हो सकता है क्या, ऐसा ही होता है।

प्र४: जो तेरह से उन्नीस साल के बच्चे होते हैं, किशोर बच्चें, उनपर तो पहले से असर पड़ा ही हुआ है। उनके लिए क्या करना चाहिए?

आचार्य: दो तरफ़ा प्रक्रिया चलानी पड़ेगी — पहले तो धीरे-धीरे करके वो सब हटाओ जो उनके जीवन में आ गया है और आकर बढ़ रहा है। हटाना काफ़ी नहीं होगा क्योंकि उन्हें कुछ तो चाहिए खेलने को, पकड़ने को, विचार करने को। चेतना सूनापन बर्दाश्त नहीं करती। तो साथ-ही-साथ कुछ ऐसा देना पड़ेगा, जो सात्विक भी हो और रसीला भी। जो-जो कर सकते हो, सब कुछ करिए।

प्र: कुछ भी उल्टा-सीधा सब?

आचार्य: यही वास्तविक अध्यात्म है, यही वास्तव में पुण्य का काम है।

प्र: छात्रों को कक्षा के बाद अलग से रोक भी लेता हूँ।

आचार्य: जो-जो कर सकतें है, सब करिए।

प्र: कुछ पेरेंट्स (अभिभावक) ऐसे भी आ जाते हैं, जो कहते हैं, "छोड़ो हमारे बच्चों को।" तो उनके आगे हाथ जोड़ लें?

आचार्य: हाँ हाँ, बिलकुल!

प्र: वो कहते हैं, "ये क्या बता रहे हो हमारे बच्चों को?" एक-दो से तो गालियाँ भी खाता हूँ।

आचार्य: सब करना पड़ेगा। कल हम कह रहे थे न कि जब नज़र में मंज़िल बसी होती है तो रास्ते में जो कुछ भी हो रहा होता है, उसका इस्तेमाल आप मंज़िल की तरफ़ जाने के लिए ही कर लेते हो, कर लेते हो कि नहीं? तो अगर ये बात मन में पक्की है कि भलाई करनी है, तो फिर भलाई के रास्ते में जो भी स्तिथियाँ आएँगी आप उन सब से गुज़र लेंगे। कभी हाथ जोड़कर, कभी सलाम करके, कभी बच्चों को डराकर भी।

एक भरोसा भीतर ये होना चाहिए कि जब सत्य स्वभाव है, शांति स्वभाव है, मुक्ति स्वभाव है तो इनसे कोई बहुत देर तक दूर रहना नहीं चाहेगा। तो अपनी आख़िरी जीत का भरोसा होना चाहिए। आप जिसको शांति देना चाह रहे हैं, आप उसे कोई बाहरी या विदेशी चीज़ नहीं देना चाह रहे हैं। आप उसे वही देना चाह रहे हैं जो उसकी भी भीतरतम कामना है। उसकी भी जो अति केंद्रीय कामना है, आप उसको वही तो देना चाह रहे हो।

प्र: लेकिन किशोरावस्था में बच्चा अपने माँ-बाप के दबाव में ज़्यादा आ जाता है।

आचार्य: हाँ, हाँ मैं समझ रहा हूँ। लेकिन कामनाओं में सबसे गहरी कामना क्या है?

श्रोतागण: शांति।

आचार्य: शांति ही तो है। जब बाकी छोटी, सतही, जो पारिधिक कामनाएँ हैं उनमें इतना दम है कि वो शिक्षकों को नाच नचा देती हैं। तो सोचो कि फिर जो तुम्हारी हृदयंगम कामना है, उसमें कितना दम होगा। उसी के भरोसे डटे रहो।

भई, बच्चे को बर्गर खाना है, ये क्या है एक? कामना। अब ये उसकी उच्चतम कामना तो है नहीं, हार्दिक, आख़िरी कामना तो है नहीं। ये छोटी-मोटी कामना है और इस छोटी-मोटी कामना में ही इतना दम है कि वो नचा दे, सबको नचा दे इस कामना के लिए। है न?

तो मैं तुमसे कह रहा हूँ कि तुम इस बात का भरोसा रखो कि जब छोटी कामना में इतना दम है, तो गहरी हार्दिक कामना में कितना दम होगा और हार्दिक कामना कोनसी है?

प्र: शांति।

आचार्य: शांति की। तो उसी दम का समर्थन लो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories