बच्चों के ग़लत राह पर निकलने का डर || (2018)

Acharya Prashant

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बच्चों के ग़लत राह पर निकलने का डर || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, अभी तो मनोस्थिति मेरी शांत है। हमने कोशिश करके दूसरों में परिवर्तन ढूँढना बंद कर दिया है। चिंता बस यह है कि कहीं बहुत ढील दे दूँ तो बच्चे ग़लत मार्ग पर ना निकल जाएँ, अकेले ना हो जाएँ।

आचार्य प्रशांत: यह जितने बच्चे तुम्हें बिगड़े हुए दिख रहे हैं, यह इसलिए बिगड़े हैं कि माँ-बाप ने इन्हें ढील दे दी थी? जितने आज बच्चे देखती हो दुनिया में बिगड़े हुए, और जितने तुम बड़े देखती हो बहुत बिगड़े हुए, यह सब क्या ढील के कारण बिगड़े हैं?

सारे ही तो माँ-बाप लगे हुए हैं बच्चों का कल्याण करने में, ढील कौन देना चाहता है। ढील तो दो-चार प्रतिशत देते हैं, जो या तो बहुत ज्ञानी होते हैं या बहुत आलसी। पिचानवे-प्रतिशत लोग तो लगाम कसकर ही रखते हैं बच्चों पर। पूरा ख्याल रखते हैं, डूब कर ध्यान रखते हैं बच्चों का, और नतीजा क्या है? बड़े बच्चे सब कैसे दिख रहे हैं अपने चारों ओर? अगर ढील के कारण लोग बिगड़ने होते तो दुनिया में तुम्हें दो ही चार प्रतिशत लोग बिगड़े नज़र आते क्योंकि ढील कितनों को मिलती है? दो ही चार प्रतिशत को मिलती है। तो बिगड़े हुए दो ही चार प्रतिशत होने चाहिए थे, यहाँ बिगड़े हुए कितने हैं? यहाँ तो सब बिगड़े हुए हैं। तो ढील का बिगड़ने से कोई लेना-देना नहीं। बल्कि संभावना यही है कि तुम ढील दे दो तो पेड़ अपने अनुसार उगेगा।

जंगल में बीज गिर जाए तो बहुत संभावना है कि सुंदर पेड़ खड़ा हो जाएगा। पर अनाड़ी माली के हाथों पौधा पड़ जाए, तो उसका दुर्भाग्य है। जंगल के पौधों को, पेड़ों को ना कोई पानी देने जाता है ना खाद। उनमें से कुछ मरते हैं तो कुछ जी भी जाते हैं। पूरा जंगल यूँ ही नहीं खड़ा है। पर अनाड़ी माली के हाथों अगर कोई पौधा पड़ गया तो? बोलो। गुरु ना बन पाओ तो कम-से-कम बच्चे के जीवन में ज़रा तटस्थ हो जाना।

तो तीन कोटि के माँ-बाप हो गए। एक तो वो जो इस श्रेणी के हैं कि वो बच्चों के लिए ना माँ रहे ना बाप रहे वो सीधे गुरु ही हो गए। ऐसी पात्रता तो बहुत कम अभिभावकों में होती है। उससे ज़रा नीचे की श्रेणी के वो हुए जो जान गए कि हममें गुरु होने की पात्रता तो है नहीं तो हम ज़्यादा छेड़खानी करें ही ना बच्चे के जीवन से। हम ज़रा अलग खडे़ हो जाएँ, जैसा वो आगे बढ़ता है बढ़ लेगा। जो मूलभूत सुविधाएँ होती हैं वह हम मुहैया करा दें। उससे ज़्यादा हम हस्तक्षेप ना करें।

और जो निम्नतम कोटि होती है जिसमें दुनिया के निन्यानवे प्रतिशत माँ-बाप होते हैं वो, वो होते हैं जो ख़ुद तो महा अनाड़ी हैं, पर संकल्प पूरा है, अहंकार पूरा है, ढिठाई पूरी है कि बच्चे की ज़िंदगी हम ही सँवारेंगे। लगे हुए हैं कि, "हम बताएँगे बेटा तुझे क्या करना है जिंदगी में, हमारे अनुसार चल।" और एक पल को भी वो मुड़कर अपनी ओर नहीं देखते कि तुम भी तो चले थे अपने अनुसार, अपना तुमने क्या बना लिया जो उसका बना दोगे अब? पर बड़ा रुतबा लगता है कि कोई तो मिला न कि जिसको दबा सकते हैं। बाकी तो दुनिया भर में मार खाते हैं, दबाए जाते हैं, दौड़ाए जाते हैं। घर आए तो लंगू मिल गया। दुनिया भर से जितनी मार खाई थी वह सारा आक्रोश लंगू पर निकाल दिया। अब मारपीट तो ज़्यादा सकते नहीं लंगू को, लंगू की माँ मारेगी। तो कहते हैं, "हम लंगू के मददगार हैं", सारी हिंसा मदद के नाम पर निकाल देते हैं फिर। खुली हिंसा तो निकाल नहीं सकते। लंगू में भी उन्हीं का खून है, भग जाएगा।

तो फिर मदद की जाती है बच्चे की, और इस मदद से ज़्यादा बड़ी हिंसा शायद ही कोई होती हो। इसलिए बहुत होता है कि बच्चा घर में अकेला हो मौज में है, घंटी बजती है, मम्मी-पापा शॉपिंग करके आ गए उसका दिल दहल जाता है। उसकी सूरत उतर जाती है। "सुख भरे दिन बीते रे भैया। ये आ गए दोनों फिर!"

रहने दो मदद वगैरह। अपनी मदद कर लो पहले। अपनी भी मदद कर लो और जहाँ से तुम्हें मदद मिलती हो, अगर बच्चे से वास्तव में प्रेम हो तो बच्चे को वहीं ले जाना।

बच्चे के शरीर को पोषण देने के लिए माँ-बाप की ज़रूरत होती है, उसमें भी बाप की नहीं माँ की, बाप तो व्यर्थ ही सोचता रहता है कि उसकी कोई आवश्यकता है। बाप का जो काम होता है वह बच्चे के जन्म से नौ महीने पहले पूरा हो जाता है। उसके बाद बाप बिलकुल व्यर्थ होता है। शारीरिक पोषण के लिए बच्चे को कुछ दिन तक माँ की ज़रूरत होती है, और अब चूँकि आदमी बहुत सामाजिक है तो उसके बाद शिक्षा इत्यादि के लिए उसे सामाजिक सहारे की, धन की ज़रूरत होती है।

लेकिन सबसे ज़्यादा बच्चे को ज़रूरत होती है मानसिक विकास की। वह ना कोई माँ दे सकती है ना कोई बाप दे सकता है। और माँ-बाप वास्तव में बच्चे से प्यार करते हों तो उन्हें यह अहंकार छोड़ देना चाहिए कि वो बच्चे के कर्ता-धर्ता सर्वे सर्वा बन जाएँगे। बच्चे की उँगली पकड़ो और उसे सप्रेम किसी उचित गुरुकुल में छोड़ आओ। यह तुम बच्चे के साथ बड़े-से-बड़ा प्रेम का प्रदर्शन करोगे, कि तुम उसे छोड़ आओ। फिर जब वो परिपक्व हो जाए तो मिलने चले जाना उससे। एक बार बच्चा शारीरिक रूप से माँ के ऊपर निर्भर ना रहे, पाँच-सात साल का हो जाए उसके बाद उसे घर में रखना कहीं से भी स्वास्थ्यप्रद नहीं है। सही जगह छोड़ो जहाँ पर अब उसके मन को पोषण मिल सके। जहाँ उसका पूर्णरूपेण विकास हो सके और उसे छोड़ आओ।

हाँ, तुम ही इस काबिल हो गए हो कि अपने आप को गुरु कह सको तो उसे घर में रख लो। अब यह मैं तुम्हारी ईमानदारी पर छोड़ता हूँ। तुमको यदि लगता है कि इस काबिल हो कि तुम ही बच्चे के गुरु बन जाओगे तो रख लो अपने पास। मोह को प्रेम का नाम नहीं देना चाहिए, ममत्व रखकर बच्चे का हित नहीं कर पाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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