बचाओ, बच्चा हुआ बर्बाद! || आचार्य प्रशांत, बालदिवस पर (2019)

Acharya Prashant

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बचाओ, बच्चा हुआ बर्बाद! || आचार्य प्रशांत, बालदिवस पर (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, शत्-शत् नमन। इस बार शिविर में बच्चों को साथ लेकर आया हूँ। वह आपको सुनने और आपकी अनुकंपा के अभिलाषी हैं। इनको और इन जैसे सर्वस्व अन्य बच्चों को दिवाली पर कोई संदेश देने की कृपा करें तथा मार्गदर्शन करें कि छः से बारह वर्ग के बच्चों को किस प्रकार की आध्यात्मिक पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। धन्यवाद!

आचार्य प्रशांत: छः-सात साल की उम्र से पहले बच्चे को आंतरिक रूप से शिक्षित किया नहीं जा सकता। दो वर्ष या चार वर्ष या छः वर्ष की उम्र में आप अधिक-से-अधिक उसको बाह्य क्रिया-कलाप और बाहरी अनुशासन ही सिखा सकते हैं। कुछ शारीरिक क्रियाओं में उसको थोड़ी कुशलता मिल जाए, इसका अभ्यास करा सकते हैं। लेकिन दो वर्ष या पाँच वर्ष की उम्र में अभी बच्चे का मस्तिष्क भौतिक दृष्टि से ही, बिलकुल जैविक दृष्टि से ही इतना परिपक्व हुआ ही नहीं होता कि वो आत्म-अवलोकन कर सकें। जैसे कि भीतर को देखने वाली आँख अभी आयी ही न हो।

अक़ल का दाँत क्या बच्चा जन्म से लेकर पैदा होता है? एक उम्र होती है न जब कहते हो कि अब आया अक़ल का दाँत। हाँ, अक़ल के दाँत का अक्ल से कोई वास्तविक सम्बन्ध है नहीं, पर उदाहरण दे रहा हूँ ये समझाने के लिए कि कुछ काम एक निश्चित उम्र से पहले हो ही नहीं सकते। छः-सात की उम्र से पहले आप बच्चे को अगर आत्मज्ञान की तरफ़ प्रेरित करेंगे तो ये कोशिश व्यर्थ ही जानी है। उससे पहले आप उसको अधिक-से-अधिक कपड़े बदलना सिखा सकते हैं, ‘क-ख-ग’ सिखा सकते हैं, थोड़ी गणित, थोड़ा सामान्य ज्ञान दे सकते हैं। भाषा पर उसकी पकड़ बना सकते हैं। जिसे टॉयलेट ट्रेनिंग कहा जाता है वो हो जाती है एकाध-दो वर्ष की आयु में। तो इस तरह की शिक्षा ही दी जा सकती है एकदम छोटे बच्चे को।

छः-सात साल से पहले जो बच्चा है, वो अभी पशुओं के बहुत समतुल्य है। इसीलिए उसमें पशुओं के बच्चों जैसी एक नादानी और एक मासूमियत भी होती है। वह बिलकुल प्राकृतिक है अभी। प्रकृति माँ की गोद में खेल रहा है। गीता में कहते हैं न कृष्ण, 'प्रकृति माँ है और मैं पुरुषोत्तम, परमात्मा, पिता हूँ।'

बच्चा वो इतना छोटा है कि उसको अभी पिता से कोई बहुत मतलब नहीं। छोटे बच्चों को देखा है न, एक उम्र तक तो वो पिता को पहचानते भी नहीं हैं। आप दो-चार महीने के बच्चे के पास जाएँ, वो माँ को भलीभाँति जानता है, पिता का उसे कुछ पता नहीं। न उसे पिता का कुछ भी ज्ञान होने की आवश्यकता है, वो करेगा क्या पिता का!

तो जो बात अभी छः महीने के बच्चे पर लागू होती है वो समझ लीजिए कि छः साल तक भी थोड़ी-थोड़ी चलती ही रहती है। बच्चे को माँ की गोद में खेलना है। पहले उसे अपनी शरीरी माँ की गोद में खेलना है और फिर छः-सात की आयु तक उसे प्रकृति माँ की गोद में खेलना है। उसको आसमानी ज्ञान वाले पिताजी कुछ समझ में आएँगे नहीं। उसके मस्तिष्क के भीतर अभी इतनी कोशिकाएँ ही विकसित नहीं हुई हैं कि उससे धरती से ऊपर की बात की जा सके। अभी तो आप उससे बात भी करेंगे तो यही — कौनसा खिलौना, कौनसा खाना; क्या खेलना है, क्या खाना है, बस। बच्चा इतने से आगे अभी नहीं बढ़ेगा।

और मैं कह रहा हूँ, सोलह की उम्र के बाद बच्चे को पढ़ाने से बहुत लाभ नहीं है। छः की उम्र से पहले उसे आत्मज्ञान की ओर प्रेरित नहीं किया जा सकता और सोलह की उम्र के बाद उसे आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करना बड़ी मेहनत और बड़े झंझट का काम है। ये जो छः से सोलह की आयु होती है, इसी में जो होना होता है हो जाता है।

ऐसा नहीं है कि इसके बाद कोई संभावना बचती ही नहीं है। बिलकुल बचती है, पर मेहनत बहुत लगती है फिर। मुझसे पूछिए कितनी मेहनत लगती है। और मेहनत बहुत लगती है यह बात फिर उसके शिक्षक को ही नहीं दिखेगी। वो जो किशोर होगा सोलह, सत्रह, अठारह वर्षीय कि बीस वर्षीय, उसे भी दिखायी देगी।

कॉलेजों में हमारे कार्यक्रम चलते हैं। वहाँ पर छात्र प्रथम वर्ष के, द्वितीय वर्ष के, यही अठारह, बीस, बाईस, चौबीस साल के, ये आ-आकर कहते हैं। कहते हैं, बातें जो बताई जा रही हैं वो बिलकुल ठीक हैं। हमे भी समझ में आता है, बिलकुल ठीक हैं। पर अब क्यों बता रहे हो, अब बहुत देर हो गई।

बहुत देर हो गई? यह तो बीस साल का है! ये कह रहा है बहुत देर हो गई! जैसे न जाने कितना समय बीत गया हो। कुल बीस साल के तो हो तुम।

पर वो बीस साल वाला जानता है कि अब नींव खुद गई है। अब एक प्रकार का अभ्यास बहुत पक्का, बहुत सघन हो गया है। अब बदलना बड़ा मुश्किल है। असंभव नहीं, पर बहुत मुश्किल। बड़ी साधना लगती है फिर।

तो ले-देकर के न छः से पहले, न सोलह के बाद। हमारे पास वर्ष बचते हैं यही दस। अधिकांश लोगों का पूरा जीवन, उनका पूरा भाग्य, इन्हीं चंद वर्षों में निर्धारित हो जाता है। छः से सोलह की आयु। इसमें वो जैसा जी गया बच्चा, अब समझ लीजिए वो उम्र भर वैसा ही रहेगा।

बदलाव हो सकता है, निश्चित रूप से। हमारे पास बहुत कहानियाँ हैं। हमारे पास वाल्मीकि हैं, हमारे पास अंगुलिमाल है। न जाने हमारे पास कितनी कहानियाँ हैं जिनमें बदलाव हुआ। पर वो कहानियाँ प्रचलित ही इसीलिए हैं क्योंकि वो कहानियाँ अपवादों की बात करती हैं। चढ़ी उम्र में भी जीवन की गति और दिशा बिलकुल बदल सकते हैं। तीस में भी हो सकता है, चालीस में भी हो सकता है, अरे सौ की उम्र में भी हो सकता है। लेकिन बड़ा ज़ोर लगेगा फिर।

जैसे सूखे काठ को मोड़ने की कोशिश करो। दूब को मोड़ना कितना आसान है! घास की एक पत्ती को मोड़ना कितना कठिन है? बिलकुल भी नहीं न। और पुराना सूखा वृक्ष हो, उसकी लकड़ी लो और मोड़ने की कोशिश करो तो क्या होगा? वो टूट जाएगी, मुड़ेगी नहीं। वो शुष्कता आना, वो अकड़ आना, वो ऐठ आना सोलह के बाद शुरू हो जाता है। बहुत लोग तो अठारह-बीस में ही इतने अकड़ चुके होते हैं कि अब आप उनको न झुका सकते हो न बदल सकते हो। अब तो वो जैसे हैं वैसे ही जलेंगे। जैसे सूखी लकड़ी है उसका और काम क्या होता है? जलना या फर्नीचर बन जाना। तो या तो अब वो घरों की शोभा बनेंगे या चिताओं की राख। पहले घरों की शोभा बनेंगे, फिर चिताओं की राख।

मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि आपके मन का ढाँचा बहुत हद तक सात-आठ की उम्र आते-आते पक्का हो जाता है, जड़ हो जाता है, सिमेन्टेड हो जाता है। मैं तो सोलह कह रहा हूँ, वो और पहले की बात करते हैं। वो कहते हैं सात-आठ में ही आप जम जाते हो। जो करना है उसके पहले कर डालो।

अब हम आते हैं इस छः से सोलह वर्ष के बालक या किशोर या नवयुवक के जीवन पर। कैसा है इसका जीवन, ज़रा बताइएगा। यही वो उम्र है जब उसका पूरा जीवन निर्धारित हो रहा है, उसकी किस्मत लिखी जा रही है, किनके द्वारा? कुछ तो जो उसके शरीर में मौजूद वृत्तियाँ हैं उनके द्वारा और बाक़ी उसके ऊपर जो प्रभाव पड़ रहे हैं उनके द्वारा। ठीक?

जिन वृत्तियों के साथ वो बालक पैदा हुआ है उनका तो कुछ किया नहीं जा सकता। इसलिए उनकी चर्चा ही व्यर्थ है। अब वो वृत्तियाँ उसके शरीर में बैठी हैं तो बैठी हैं। लेकिन प्रभाव तो बदले जा सकते हैं। हम जानना चाहते हैं कि वो किन प्रभावों में रहता है आमतौर पर, और उन प्रभावों के कारण कैसी तक़दीर लिखी जा रही है उसकी। आप सब अपने आसपास छः साल, दस साल, बारह साल, चौदह साल वालों को देखते होंगे; देखते हैं? बताइए इनकी ज़िन्दगी कैसी होती है? ये क्या कर रहे होते हैं?

ये इतने छोटे तो होते नहीं हैं कि दिन रात ये माँ के आँचल में रहें, होते हैं? और ये इतने बड़े भी नहीं होते हैं कि ज़िम्मेदारियाँ समझते हों, या इन पर पढ़ाई का बहुत बोझ आ गया हो। ये क्या करते नज़र आते हैं, कहिए। हम बात कर रहे हैं किस आयु वर्ग की? छः से सोलह। उसमें भी ख़ास तौर पर छः से बारह की बात करिए। ये क्या कर रहे होते हैं? आप देखते होंगे अपने घरों में, पड़ोस में, मोहल्ले में।

ऐसों को हमारी भाषा में कहा जाता है टुर्बा। ये टुर्बे होते हैं। न ये छोटे हैं न ये बड़े हैं। न ये इतने छोटे हैं कि माँ इनके हाथ में कलम पकड़ा करके लिखवा रही हो, न ये इतने बड़े ही हो गए हैं कि इन पर पढ़ाई का बोझ आ गया हो, कि बेटा भविष्य की सोचो तुम्हारा होगा क्या। न!

ये वो आयु वर्ग है जो बाज़ार के हर तरह के प्रभावों के अधीन होता है। विज्ञापनदाता इसको लक्ष्य करके हज़ार तरह के विज्ञापन देते हैं, सत्तर तरह की चीज़ें बाज़ार में उतारते हैं। यह समझता नहीं है कि टीवी में क्या आ रहा है, पर टीवी ख़ूब देखता है। और ऐसा भी नहीं है कि इतना नादान हो कि बिलकुल ही नहीं समझता कि टीवी में क्या आ रहा है। तो थोड़ा-बहुत ये जुगत लगा भी लेता है कि क्या चल रहा है। चपलता इसमें ख़ूब होती है, दौड़-भाग करेगा, यहाँ जाएगा, वहाँ जाएगा। दुनिया भर की बातें करेगा। आदमी के गति क्षेत्र का कोई किनारा नहीं जिसके बारे में ये बच्चा बात न करता हो। ये चुनावों के बारे में भी बात करेगा, राजनीति के बारे में बात करेगा, खेल के बारे में बात करेगा, विज्ञान के बारे में बात करेगा। समझेगा कुछ नहीं, पर बात हर चीज़ के बारे में करेगा।

और दस-बारह का होते-होते आज के समय में ये बालक या ये बालिका शारीरिक रूप से भी वयस्क होने लग जाता है। अब तो पूछो ही मत। अब तो इसकी बातों का फैलाव तथ्यों को पार कर कल्पना की दुनिया में पहुँच जाता है। अब तो कोई सीमा ही नहीं कि ये कहाँ-कहाँ की बातें कर सकते हैं।

इस लड़के की या इस लड़की की आपको सबसे ज़्यादा अगर गतिशीलता देखनी हो तो दिखायी देगी बाज़ार में। इसे ये भी चाहिए, इसे वो भी चाहिए। और इसके पास भाषा आ गई है तो माँग तो कुछ भी कर सकता है न।

जो बात मैं कह रहा हूँ, ऐसा नहीं कि यह बात सिर्फ़ मैं समझता हूँ; ये बात बहुत लोग समझते हैं। दुर्भाग्य यह है कि चूँकि वो यह बात समझते हैं, इसलिए इस बात का दुरुपयोग करके, इस आयु वर्ग के बच्चों का सर्वाधिक शोषण करते हैं। उन्हें पता है कि ये जो सामने है बालक-बालिका, ये इस वक़्त बड़ी नाज़ुक स्थिति में है। वो उस नाज़ुक स्थिति का भरपूर फ़ायदा उठाते हैं। और नतीजा यह होता है कि तेरह, चौदह, सोलह की उम्र का होते-होते इस लड़के का खेल ही ख़त्म हो चुका होता है। दिखायी यही देगा कि यह तो आज की पौध है, अभी आगे बढ़ेगा, जीवन जीएगा, न जाने अभी क्या-क्या होने वाला है। पर अंदर-ही-अंदर उसका किस्सा तमाम हो चुका है। उसने टीवी सोख लिया है बिलकुल भीतर और मन जो था उसका बड़ा ग्राहक था। और विवेक उसके पास था नहीं कि क्या ग्रहण करना है, क्या नहीं। जो कुछ उसे मिलता गया वो उसको सोखता गया।

ये ख़तरा चार साल के बच्चे के साथ नहीं होता। क्यों? क्योंकि वो टीवी के सामने बैठेगा भी तो भी उसे पल्ले ही नहीं पड़ेगा ये चल क्या रहा है टीवी में। पर दस साल वाले को सब पल्ले पड़ता है। और वो सब कुछ सोखता जाता है। और उसके पास कोई छन्नी, कोई फिल्टर नहीं है। वो कुछ नहीं समझ रहा, बस वो भीतर ग्रहण कर रहा है। और सब कुछ उसे उपलब्ध है। उसे अख़बार उपलब्ध है। उसे समाचार उपलब्ध है। स्कूल में संगी-साथी उपलब्ध हैं। उनकी भाँति-भाँति की मसालेदार बातें उपलब्ध हैं।

अभिभावकों का बहुत बड़ा कर्तव्य है कि इस आयु वर्ग को लेकर के अति सतर्क रहें। बहुत ध्यान से आपको देखना होगा कि उसके ऊपर क्या प्रभाव पड़ रहे हैं।

अभी आज मैं कह रहा था, मैंने कहा कि आपकी रसोई से एक चम्मच अगर गुम हो जाए तो आपको साफ़ दिखायी देता है कि कुछ खो गया, कुछ नुक़सान हो गया। क्योंकि चम्मच क्या है? स्थूल है, मटेरियल है। दिखायी देता है कि एक चम्मच का नुक़सान हो गया। लेकिन भीतर-ही-भीतर बहुत कुछ टूट जाए, खो जाए, उसका कुछ पता ही नहीं चलता। हमारे पास आँखें ही नहीं हैं जो सूक्ष्म को देख पाएँ।

छः साल, बारह साल के बच्चे का बहुत नुक़सान हो रहा होता है। रोज़ नुक़सान हो रहा होता है। पर माँ-बाप गिन ही नहीं पाते कि आज फिर इसका कितना नुक़सान हो गया, गिन ही नहीं पाते। चम्मच करछुल नहीं है न नुक़सान। उन्हें पता ही नहीं चलता क्या कर डाला। उन्हें लगता है बाहर-बाहर से ठीक तो है, हष्ट-पुष्ट दिख रहा है, खेल रहा है, कूद रहा है, बातें कर रहा है, बाक़ी सब बच्चों जैसा ही बोल-चाल, ठीक ही होगा बच्चा। ठीक नहीं है।

और माँ-बाप ये समझेंगे कैसे कि ठीक नहीं है? क्योंकि ठीक क्या है ये देख पाने की दृष्टि उन्होंने स्वयं अपने लिए कभी विकसित नहीं करी। सही-ग़लत का भेद जान पाने का विवेक उन्होंने ख़ुद ही में नहीं जगाया कभी। तो बच्चे को भी वो साधारण क्रिया-कलाप करते देखते हैं, उनकी कोई घंटी, कोई अलार्म ही नहीं बजता कि अरे गड़बड़ हो रही है, बहुत गड़बड़ हो गई।

हाँ, बच्चे को दो खरोंच लगी हो तो उन्हें दिख जाएगा कुछ ग़लत हो गया, अरे खरोंच लगी है आज इसके। बच्चा एक जून खाना न खाये तो कह देंगे देखो आज खाना नहीं खाया, कुछ गड़बड़ हुई है। पर भीतर-ही-भीतर बच्चे का मन कलुषित हो रहा हो, उसके चरित्र का ह्रास हो रहा हो, माँ-बाप को भनक ही नहीं पड़ती। क्योंकि उनके पास वो यंत्र, उपकरण, संवेदनशीलता ही नहीं है कि पता चल पाए कि कुछ बहुत अनर्थ घट गया अभी-अभी। उन्हें लगता है ये सब तो सामान्य है, साधारण है।

पम्मी ने चम्मी को आज मार दिया। पम्मी ने चम्मी को आज एक झापड़ मार दिया। क्यों? क्योंकि चम्मी ने पम्मी का स्कार्फ़ छीन लिया। अब ये बात रोज़मर्रा की हो जाती है। इस बात को आयी-गयी में उड़ा दिया जाता है। ऐसा लगता है ये तो सभी बच्चे करते हैं न। पम्मी-चम्मी की लड़ाई हो गयी हेयरबैंड को लेकर के, स्कार्फ़ को लेकर के। आपको नहीं पता कि ये जो बात अभी हेयरबैंड और स्कार्फ़ की है यह आगे चल कर क्या बन जाएगी। कुछ नहीं पता।

गीता का अध्ययन कर रहे थे आप लोग आज। महाभारत बाल-मनोविज्ञान को लेकर के भी कुछ बड़ी महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टियाँ देता है। दुर्योधन अचानक ही नहीं खड़ा हो गया था खलनायक बनकर कुरुक्षेत्र के मैदान में। एकदम बालपन से उसका चरित्र कैसे ग़लत दिशा को मुड़ता गया, हमें पूरी जानकारी मिलती है। एक-एक बात पता चलती है। छोटा था तो ये किया, फिर थोड़ा बड़ा था तो ये किया और फिर थोड़ा और बड़ा हुआ तो ये किया। और जब वो छुटपन से ही कुप्रभावों का शिकार हो कर के ग़लत दिशा में मुड़ रहा था तब किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगी। तब सबको लगा अरे, ये तो बड़ा क्यूट है! माँ-बाप भी जब देखते हैं बच्चों को इधर-उधर की अराजक हरकतें करते हुए, तो मैंने ख़ुद देखा है, ख़ुद सुना है, कह देंगे ये तो इनकी क्यूटनेस है न!

अब दुर्योधन का तो फिर भी ठीक है। पिता अंधे और माँ ने पट्टी बाँध रखी थी। पर यहाँ तो आँखों वाले हैं जिन्हें दिखायी नहीं पड़ता कि यह क्या हो रहा है बच्चों के साथ हमारे।

एक जगह, बिलकुल आपबीती सुना रहा हूँ, बच्चा हाथ में कैंची लेकर के चींटों की कतार जा रही है, चींटों को बीच से काटता जा रहा है। वो बैठा हुआ है। हाथ में कैंची ले रखी है छोटी, और पहला चींटा आया उसको ऐसे करके बीच से कट, काट दिया। फिर दूसरा आया काट दिया।

आपको ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर आपका क्यूटू आगे जेनोसाइड (नरसंहार) करे, बहुत बड़ा जनसंहार कर डाले। अभी तो आपको लग रहा है देखो न, ये तो बड़ा उत्सुक है! माताजी बोलती हैं बड़ी इन्क्विजिटिव टेंडेंसी (जिज्ञासु प्रवृत्ति) का है। वो देखना चाहता है कि चींटे की आँत कैसी है, इसलिए चींटे का पेट काट रहा है।

दीदी किसी दिन उसे आपकी आँत देखने की सुर्र लग गयी तो? काहे कि आँत तो आँत है! चींटे की आँत चाहे माँ की आँत। 'मम्मी आपकी आँत देखनी है। वैसे भी भैया, जिसको देखो उसको बोलते रहते हैं माँ की आँत, माँ की आँत।' अब उसको यही सुनाई दिया।

पर हम इनको छोटा जान कर के इनकी बातों को हल्के में ले लेते हैं। और अक्सर अभिभावक अपनी ही दुनिया में इतने मशग़ूल, इतने व्यस्त, इतने खोए रहते हैं कि उनके स्वार्थ उन्हें इज़ाज़त ही नहीं देते ठहर कर के ग़ौर से देखने की कि उनका बच्चा जा किस दिशा में रहा है।

ठहर कर देखना ख़तरनाक भी है न। निन्यानवे प्रतिशत सम्भावना यही है कि ठहर कर देखोगे तो कुछ गड़बड़ दिखायी देगी और गड़बड़ दिखायी दी तो? फिर ज़िम्मेदारी आ जाएगी न गड़बड़ को ठीक करने की। तो इससे अच्छा यह है कि पिता जी अख़बार के साथ व्यस्त हैं और शेयर मार्केट के साथ व्यस्त हैं और अपने आधिकारिक दौरों के साथ व्यस्त हैं। पाँच दिन के लिए यहाँ गए हैं, दस दिन के लिए वहाँ गए हैं। उनकी अपनी ज़िन्दगी चल रही है। माताजी की अपनी ज़िन्दगी चल रही है और बच्चों के बारे में पूछ लिया स्कूल से कि 'सब ठीक है?' पीटीएम (अभिभावक-शिक्षक सभा) में बताया गया है ठीक है, बस थोड़ा उद्यमी है। 'हाँ ठीक है, ठीक है। नॉर्मल, नॉर्मल (सामान्य)।'

उनको नॉर्मल मानने में अभिभावकों का बड़ा स्वार्थ है। क्योंकि मान लिया अगर जिसको आप नॉर्मल कह रहे हो उसमें बहुत बड़े-बड़े ख़तरे बैठे हैं, तो मेहनत करनी पड़ेगी न; कौन मेहनत करे!

पिताजी को कैरियर संभालना है। माताजी को चेहरा संभालना है। बच्चों पर मेहनत कौन करे? वो तो बस यूँही पैदा हो गए। जैसे दुनिया के तीन-चौथाई, नहीं तो पंचानवे प्रतिशत बच्चे पैदा होते हैं, यूँही हो गए पैदा। इसलिए थोड़ी पैदा करा था कि इन्हें पैदा करके फिर इन पर जीवन लुटाएँगे, इन पर बड़ी मेहनत करेंगे। यह तो सौदा ही नहीं किया है हमने। अब हो गए पैदा, ठीक है। अपनेआप हो जाएँगे बड़े।

मैं फिर कह रहा हूँ आपसे, आदमी बर्बाद होता है इसी उम्र में, छः साल, आठ साल, बारह साल। और इस उम्र में जो वो ढर्रे पकड़ लेता है, उसको बदल पाना बावन की उम्र में भी बहुत मुश्किल हो जाता है।

मेरे पुराने कॉलेज इत्यादि के ग्रुप्स हैं। अलग-अलग जगहों पर हैं। कहीं कोई गूगल पर है, कोई फेसबुक पर है, कोई व्हाट्सएप्प पर है। लोगों ने मिल कर छोटे-छोटे अपने ग्रुप बना रखे हैं। और उस पर लोग अपनी बातें करते रहते हैं। वही पुराने सब यार, कैंपस के। वो बिलकुल वैसे ही हैं अपनी वृत्तियों के तल पर, जैसे वो आज से पच्चीस साल पहले थे। ऊपर-ऊपर से बदल गए हैं। कोई गंजा हो गया है, किसी की तोंद निकल आयी है, किसी ने भाषा बदल ली है अपनी, किसी को ख़ूब पैसा आ गया है। पर ज़रा सा खरोंचो सतह को और वृत्तियों को देखो, वो बिलकुल वैसे ही हैं जैसे वो उस दिन थे जिस दिन उन्होंने आईआईटी में पहला कदम रखा था सत्रह की उम्र में। चालीस-पैंतालीस का यह जो प्रौढ़ इंसान है यह ठीक वैसा है जैसा यह सत्रह की उम्र में था। और सत्रह की उम्र में यह ठीक वैसा ही था जैसा यह बारह की उम्र में था। बारह की उम्र में जैसा बना दिया वो वैसे ही चलता है। कोई बहुत बड़ी अनुकंपा हो ऊपर से तो ही अब वो बदलेगा, नहीं तो नहीं बदलेगा। अब वो वैसे ही चलेगा।

जो ईर्ष्या पर चलते थे तब, वो आज भी ईर्ष्या पर चल रहे हैं। जो संख्याएँ गिनते थे तब, वो आज भी संख्याएँ गिन रहे हैं। तब वो ये गिनते थे कि नंबर किसके कितने आए, आज वो ये गिनते हैं कि पैसे किसके पास कितने हैं। आदमी बदलता ही नहीं।

इन दोनों बातों को एक साथ सुनिए और फिर देखिए ख़तरा कितना बड़ा है। पहली बात, जैसे हो गए आप तेरह-चौदह तक उसके बाद बदलोगे नहीं। और आप जब बन रहे होते हो कुछ छः से चौदह की उम्र में, तब किसी को होश नहीं होता यह देखने का कि आप क्या बने जा रहे हो। जब आप कुछ बने जा रहे होते हो उस उम्र में, तब किसी को होश ही नहीं होता देखने का कि आप क्या बन रहे हो। और जो आप बन जाते हो, वो अब बदलेगा नहीं।

इन दोनों बातों को मिलाकर के बताओ, क्या दिखायी दिया? 'अनर्थ।' हँसी में मत उड़ा दो। हल्के में मत ले लो कुछ चीज़ों को।

आप रेस्ट्रॉ में जाइए। वहाँ पर परिवार एक बैठा होगा। वहाँ बहुत सारे लोग इकट्ठा हुए हैं। संयुक्त परिवार बने हैं, खाना खाने के लिए। तो उनके इसी आयु वर्ग के छ:-सात होंगे टुर्बे। वो सब पूरे रेस्ट्रॉ में दौड़ लगा रहे हैं। किसी की कुर्सी से टकरा रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। और जिसके पास ज़रा सी देखने वाली आँख हो, उसे दिख जाएगा कि ये बच्चे तो गए। पर माँ-बाप को यह दिखायी ही नहीं पड़ रहा होता।

आठ-आठ, दस-दस साल की बच्चियाँ मेकअप कर रही होती हैं। अभी त्यौहार का मौसम है, बाहर निकलिए, देखिए न। मैं जब देखता हूँ किसी आठ-दस साल की लड़की को मेकअप करे हुए तो मुझे लाश दिखायी देती है। कहता हूँ यह मर गई है, ख़त्म हो गई। अब यह ज़िन्दगी में बच नहीं सकती। और घरों में चल रहे होते हैं ये टैलेंट शो जिसमें कोई तीन साल, पाँच साल की लड़की आ करके नाच रही है। किस गाने पर? ऐसा गाना जो वयस्कों से भी ऊपर का है। 'तू मेरा राजा, मैं तेरी रानी, बोल कहाँ मिले अब जानी।' और उस पर वह चार साल की नाच रही है। और बहुत सारे वहाँ पर उम्रदराज़ लोग बैठ कर तालियाँ बजा रहे हैं। और कह रहे हैं, 'वाह! क्या टैलेंट (प्रतिभा) है!' वह गई। अब नहीं बचेगी। तुमने मार डाला उसको।

ये सब देखकर के क्षोभ से भर जाता हूँ। पहले क्रोध भी बहुत आता था, अब क्रोध तो उतना नहीं आता पर दुख ज़रूर उठता है। तुमने क्यों बच्चे पैदा किये? बदला निकालने के लिए उनसे? तुम्हारी कोई दुश्मनी थी इन नन्हों से जो तुमने इनको पैदा किया? यह पैदा करके क्या कर रहे हो इनके साथ?

बच्चे का शारीरिक शोषण हो तो ख़बर बन जाती है। हम कह देते हैं मोलेस्टेशन (शोषण) हो गया। हम कह देते हैं पीडोफिलिया (बाल यौन शोषण) है। और जो उसके दिमाग का बलात्कार किया जा रहा है वो कभी ख़बर ही नहीं बनती। बल्कि उस बात को तो नेशनल टीवी पर प्राइम-टाइम (मुख्य समय) में प्रसारित किया जाता है, टैलेंट बता कर के।

और बच्चे के साथ दुराचार यही नहीं है कि तुम उसे नग्न और अश्लील गानों पर नचाओ। बच्चे के साथ दुराचार एक दूसरा भी है। आजकल नया चलन चला है। छोटी-छोटी बच्चियाँ पकड़ लेंगे, उनको सफ़ेद साड़ियाँ पहना देंगे। छः साल की होगी वो, आठ साल की होगी और कहेंगे ये माँ है और माँ अब आपको धार्मिक प्रवचन सुनाएँगी। और लोगों को यह बात बड़ी क्यूट लगती है। आ हा हा!

वह बैठ जाएगी और बताएगी कि जीवन में वैराग्य का क्या महत्व है, और फिर शंकर बाबा ने पार्वती माई से क्या कहा। ये सब काम किससे कराये जा रहे हैं? एक छः साल, दस साल की लड़की से। उसको न जाने क्या बना दिया; कुमारी, देवी, कथावाचिका, कुछ बना दिया।

यह भी एक बहुत बड़ा दुराचार है बच्चों के साथ। और ये दो छोर हैं। हमें ये दोनों ही छोर बहुत पसंद हैं। हम बहुत हर्षित होते हैं अगर हमारा बच्चा टीवी पर पहुँच जाए। कि देखो इसमें कितनी प्रतिभा है, यह गाना गा रहा है! और गाना क्या गा रहा है? आठ साल का है इनका सोनू और पहुँच गया टीवी पर। कौनसा गाना गा रहा है? वो टीवी पर गा रहा है 'मुन्नी बदनाम हुई...।' यह हो सकता है कि थोड़ा सा अति का उदाहरण हो। लेकिन मुझे बताओ कौनसा फ़िल्मी गाना है जो एक आठ साल के बच्चे के लिए उपयुक्त है? बता दो न कौनसा है? कौनसा है?

और वहाँ बैठे हुए हैं एक से एक संगीत शिरोमणी! वो दाद दे रहे हैं कि 'वाह, वाह, वाह! यह लड़का कल भारत का नाम रोशन करेगा। वाह!' वह बिलकुल सिर झुकाकर कह रहा है 'बस आपकी कृपा रहे, अगली बार मैं 'चोली के पीछे क्या है...' तैयार करके आऊँगा।'

या नचा रहे हैं उसको, मान लो सिर्फ़ नचा रहे हैं। अब बच्ची है छोटी सी, उसको नचा रहे हैं। और नाचने में वो कौन सी अदाएँ ले रही है? कौन से स्टेप्स ? कूल्हे मटकाना, छाती हिलाना। यह बलात्कार नहीं है तो क्या है? वह आठ साल की है। और तुम उसे नचा रहे हो 'धक-धक करने लगा…' और ऑडियंस (दर्शक) में उसके माताजी-पिताजी बैठे ताली बजा रहे हैं। कैमरा जब उनकी ओर जा रहा है तो वे वेव (हाथ हिलाकर अभिवादन) कर रहे हैं, 'हमीं हैं, हमीं हैं, हमने पैदा करी है।'

ये काम सिर्फ़ टैलेंट शोज़ पर नहीं हो रहा है। ये काम मध्यम वर्ग के क़रीब-क़रीब हर घर में, हर ड्राइंग रूम में हो रहा है। 'बेटा आना अंकल को ज़रा टैलेंट दिखाना।' अब बेटा आती है और टैलेंट दिखाकर चली जाती है अंकल को। और अंकल टैलेंट देख कर काफ़ी उत्तेजित हो जाते हैं। और फिर हमें ताज्जुब होता है कि बच्चों के यौन शोषण की घटनाएँ इतनी बढ़ क्यों गई हैं। 'क्योंकि वो टैलेंटेड हैं न! माँ-बाप ने उनमें कूट-कूट कर टैलेंट भरा है न, इसलिए बढ़ गई हैं।'

आठ साल की बच्ची, सोलह साल की दीदी से प्रेरणा ले रही होगी, सीख ले रही होगी। सोलह साल की दीदी उसके दिमाग को कचरे से भरे दे रही होंगी। और सबसे ज़्यादा कचरा भरा जाता है शादी-विवाह आदि उत्सवों में। वो जो शादी का एक महीना होगा, वो लड़के और लड़की को बर्बाद करने के लिए बहुत है। अगर कोई आठ-दस साल का बच्चा एक महीने शादी वाले घर में रह ले, वो बर्बाद हो गया। शादी वाले घर में भगवद्गीता का पाठ तो होता नहीं, पर 'पाठ' वहाँ बहुत होते हैं। और एक-एक पाठ, वो बच्ची, वो बच्चा, सोख रहे होंगे बिलकुल। कोक-शास्त्र में स्नातक हो गए वो इस एक महीने में।

फिर अब तो घर-घर में नेटफ्लिक्स है। उसमें तो यह भी नहीं कि सेंसर बोर्ड बेचारा कुछ कर सकता है। या कुछ कर सकता है? अब तो सीधे घर में होती है स्ट्रीमिंग भाई। स्ट्रीम माने नदी। न जाने यह कौन सी नदी है जो हर घर में खुल रही है अब। देख तो लो उस नदी के माध्यम से आ क्या रहा है तुम्हारे घर में। और होगा क्या तुम्हारे घर का।

जो चीज़ें खुलेआम थिएटर में नहीं दिखायी जा सकतीं, वो मुझे बताया गया, मैंने देखा नहीं है — न मेरे पास अमेजन प्राइम है न नेटफ्लिक्स है, कुछ नहीं — पर मुझे बताया गया है कि वो सब कुछ चलती हैं इन सब माध्यमों पर, जो ये नये-नये आए हैं। कौन देख रहा है? आप जब देखते हैं तो क्या आप बच्चों को घर से निकाल देते हैं या किसी और कमरे में बंद कर देते हैं, कहिए? और आप तो जब देख रहे होते हैं तो आप टीवी के साथ इतने एक हो जाते हैं कि आपको पता ही नहीं होता कि आप टीवी को देख रहे हैं, आपके बगल में आपका बच्चा भी है, वह भी वही सबकुछ देख रहा है। आप बच्चों को न भी नचाएँ अश्लील गानों पर, तो भी वो गाने आप तो सुन ही रहे हैं न अपने घरों में। सुन तो रहे ही हैं।

वो जो स्पीकर से आवाज़ निकल रही है वो बस आपके कानों तक जा रही है? घर में बच्चे भी हैं। वो नहीं सुन रहे हैं?

आपको तो बड़ा आनंद आ रहा है सुनने में, 'जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने।' वो बच्चा भी कुछ सीख ग्रहण कर रहा है। और सीख से पूरा भर जाएगा, पूरा। उसके बाद किसी दिन उसके कॉलेज में फाउंडेशन (प्रशांत अद्वैत फाउंडेशन) की एचआईडीपी क्लास होगी और वो आ कर के कहेगा ये सब बातें बतानी ही थी, पहले क्यों नहीं बतायी? 'का बरसा जब कृषि सुखाने।'

मैं विदेशों की बात नहीं कर रहा, भारत में ये स्थिति है कि पाँचवी के, छठी के, आठवीं के बच्चों को देवनागरी पढ़नी नहीं आती। न जाने कितने ऐसे स्कूल हैं — मुझे लगता है ख़ासतौर पर ये जो तथाकथित इंटरनेशनल स्कूल हैं जो शायद पाँचवीं-छठी के बाद हिंदी पढ़ाते ही नहीं हैं।

धर्म का गहरा रिश्ता होता है संस्कृति से। और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण स्तंभ होती है भाषा। धर्म मिटाना हो, भाषा मिटानी शुरू कर दो। धीरे-धीरे धर्म भी बचेगा नहीं। जब भाषा की बात मैं कह रहा हूँ तो दो चीज़ें — लिपि और बोली। हिन्दी बोली भर बची है। लिपि तो हम खा गए। और ये सब अनर्थ घरों में हो रहा है। माँ-बाप को आती होगी देवनागरी लिपि, बच्चे को नहीं आती होगी। वो हिंदी बोल तो लेगा, सुन तो लेगा; लिख नहीं पाएगा, पढ़ नहीं पाएगा; क्यों? क्योंकि हिंदी लिखने की अब ज़रूरत ही नहीं पड़ती। न लिखाई जाती है न उसे हिन्दी की किताबें दी जाती हैं, टीवी किसलिए है! और अगर उसे किताबें देनी भी है तो हैरी पॉटर दो न, पंचतंत्र क्या करेगी! और पंचतंत्र भी देनी है तो अंग्रेज़ी में दो भई। अंग्रेज़ी में पंचतंत्र पढ़ाई जा रही है और आप समझ ही नहीं रहे कि आप बच्चों के जीवन से धर्म को ही हटाए दे रहे हैं। नहीं बचेगा।

भाषा जानते हो न ऐसे ही मरती है। पहले लिपि जाती है बोली बची रहती है। लिपि गई, उसके कुछ सालों, कुछ दशकों बाद जान लो कि भाषा भी चली जाएगी।

आप ही लोग यहाँ पर बैठे हैं। हिंदी को देवनागरी में लिखते हैं या रोमन में? मेरे पास तो सवाल आते हैं यहाँ पर। सब कुछ हिंदी में लिखा होगा, रोमन में।

कि 'ए बी, एम यू जे एच इ, बी ए टी ए आई वाई ए कि, एम ए आई एन, के वाई ए, के ए आर डबल ओ एन?' (अब मुझे बताइए कि मैं क्या करूँ) ये सवाल है! और मेरा जवाब यह कि जाओ, पहले लिखना सीख कर आओ।

कोई बाहरी, कोई विदेशी ताक़त आ करके आपकी अगली पीढ़ी बर्बाद कर रही हो, आपका धर्म मिटा रही हो, आप चौकन्ने हो जाएँगे। आप कहेंगे, 'धर्मयुद्ध! हम पर विदेशी आतंकियों ने हमला बोल दिया है, अब हम धर्मयुद्ध लड़ेंगे। बाहर की ताक़तें हमारी प्राचीन संस्कृति मिटा देना चाहती हैं, हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।'

पर वही काम एक-एक घर में हो रहा है। उन घरों के ख़िलाफ़ कौन लड़े धर्मयुद्ध, बोलिए! धर्म को मिटाने के लिए उस धर्म के अवलंबियों का क़त्ल ही करने की ज़रूरत थोड़ी होती है। भई मारना क्यों है, लोग तो अपने मरते हैं।

आप कहीं जाओ और वहाँ की आबादी हो पाँच हज़ार। पाँच हज़ार में से चार हज़ार व्यस्क हैं, हज़ार मान लो बच्चे हैं। और तुम चाहते हो कि उन पाँच हज़ार लोगों के क्षेत्र से, उनके जीवन से धर्म को पूरी तरह मिटा दो। तो एक फूहड़ तरीक़ा तो यह है कि तलवार लेकर के आधों की गर्दन काट दो और बाक़ी आधों से कहो कि चलो तुम धर्म परिवर्तन करो नहीं तो तुम्हारी भी गर्दन काट देंगे। यह बड़ा गँवार तरीक़ा है न। बड़ा स्थूल तरीका है। इसमें साफ़-साफ़ दिख जाती है हिंसा। इसमें दिख जाता है कि धर्म का नाश ज़बरदस्ती के द्वारा हुआ है। बल प्रयोग के द्वारा हुआ है, है न? दिख जाता है?

इतना हिंसात्मक और इतना प्रकट तरीक़ा अपनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। आसान तरीक़ा बताए देता हूँ। ये जो चार हज़ार बड़े हैं ये तो अपनेआप ही मर जाएँगे दस बीस साल में। ठीक? ये जो एक हज़ार छोटे हैं आगे की सारी पौध इनसे निकलनी है। ये जो एक हज़ार हैं इनके भीतर धर्म आने मत दो और उन चार हज़ार को मर जाने दो। हो गया न साफ़ सब कुछ। धर्म साफ़ हो गया कि नहीं हो गया? भई जो ख़ुद ही मरने वाला है उसका क़त्ल क्यों करना? उसके तो बस प्रस्थान का इंतज़ार करो कि आप तो ख़ुद ही जाएँगे। और ये जो नये-नये हैं, इनको बना दो।

अनिता हो जाएगी 'एनी' और माँ उसको बोल रही है 'एनी एनी।' ये 'एनी' क्या होता है? पिताजी को बड़ा क्यूट लगता है कि अनिता को बोल रहे हैं 'एनी'। सुनील हो जाएगा 'सनी'। अरे सुनील समझते हो क्या होता है? सुंदर और नीला। जब तुम बोलते हो सुनील, तो छवि आती है कृष्ण की। और तुमने सुनील को क्या बना दिया? कुछ भी — सनी, सुनी, सेंस। पिताजी हो गए हैं पैप्स। यह पैप्स क्या है? अर्चना आरची है। 'आपका क्या नाम है?' 'हाय बेब्स!'

और ये काम हर घर में चल रहा है। नाम का मतलब समझते हो? जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा कि हर नाम 'उसका' नाम होना चाहिए। हर नाम 'उसका' नाम होना चाहिए। तो नामकरण जब होता है शुद्ध शब्दों के साथ तो वास्तव में हर नाम उसी की ओर इशारा कर रहा होता है, कोई भी नाम हो। आप बर्दाश्त कैसे कर लेते हैं जब आपका बच्चा अपनेआप को 'एनी' बुलाता है? आप बर्दाश्त क्या करेंगे, आप तो ख़ुद पूछते हैं ऐनी से, 'सूजी और बिप्स नहीं आए?' बिप्स माने? बिपासा। सूजी माने? सुजाता, सुशांति, कुछ भी। वो सूजी हो गई है।

इतना सुजाएँगे न ये आगे चल कर के इन्हीं माँ-बापों को, याद रखेंगे। तुम बनाओ उसको सूजी, सूजने तुम ही वाली हो। ये आनंदिता है, ये एंडी है। यह नाम है! एंडी! सुंदर नाम है आनंदिता। आनंद, और आनंद सिर्फ़ आत्मा में है। जो आत्मा की ओर ले जाए सो आनंदिता। उसको क्या बना दिया? एंडी! और मजाल फिर आनंदिता की वो कह दे कि ख़बरदार मुझे एंडी-पंडी बोला तो। गाली दे रहे हो क्या? 'इट्स कूल। आनंदिता इज़ सो यक। एंडी इज़ कूल।'

देखो पीछे तीन बैठे हैं, अब हँसने लगे इस बात पर। अभी तक कुछ नहीं। जहाँ मैंने एक्सेंट (उच्चारण का तरीक़ा) बदला, उन्हें भी समझ में आ गया हमारे मतलब की बात हो रही है कुछ।

ये माँएँ हैं! आप चले जाइएगा, आप किसी साल दो साल के बच्चे की माँ को उससे बात करते देखिए, किसी सार्वजनिक स्थान पर। शौपिंग मॉल हो, रेस्तरा हो, कुछ हो। कई बार तो जो बच्चा होता है, वो साल भर का होता है। उसने अभी बोलना नहीं सीखा होता। और माँ उससे कह रही होती है, 'केटू केटू कम बैक केटू।'

अरे अभी उसे जानवरों वाली भाषा भी नहीं आती है; मातृभाषा भी नहीं आती है और तुम उससे बात कर रही हो अंग्रेजी में! कुछ भी नहीं है। तुम्हारे भीतर गहरी हीनभावना भरी हुई है। तुम्हारी मानसिकता महा-गुलामी की है। तो तुम अपने साल-दो साल के बच्चों से भी बात करती हो अंग्रेज़ी में, 'हे डार्लिंग व्हाट आर यू डूइंग?'

और ऐसा नहीं कि तुम अंग्रेजी में बड़े पारंगत हो। मैं कह दूँ अंग्रेज़ी में एक पैराग्राफ लिख दो साफ़-शुद्ध, तो लिख नहीं पाओगे। ये हिंदुस्तान है। हमारा एक अंग्रेज़ी चैनल भी है, हिन्दी चैनल भी है। जिन्हें अंग्रेज़ी आती भी है वो देखते हिंदी ही चैनल हैं क्योंकि उन्हें मेरी अंग्रेज़ी समझ में नहीं आती। लेकिन बच्ची का नाम होगा कृष्णा तो उसको बोलेंगे, हे केटी डार्लिंग कम हियर। केटी केटी बोल रही हो, कैट की स्पेलिंग आती है? कैट लिखना ज़रा। कैट की स्पेलिंग नहीं आती होगी और कृष्णा को केटी बना दिया। ये माँ है?

हमारे यहाँ चलन रहा है चरण स्पर्श का। और उसका सांकेतिक महत्व गहरा है। बात किसी के अहंकार को बढ़ाने की नहीं है, बात सिर को झुकाने की है। उसकी जगह आज कल चलती है पाउटिंग। डैडी डार्लिंग यूँ थूथुन निकालेंगे। पाउट माने थुथुन, जैसे सुअर का होता है। तो डैडी डार्लिंग यूँ निकालेंगे और केटी डार्लिंग यूँ निकालेगी। और केटी डार्लिंग है अभी डेढ़ साल की, और दोनों फिर थूथुन से थूथुन मिलाएँगे और कांटेस्ट होगा। पाँच-सात इसी उम्र के बच्चे ले लिये जाएँगे, हू हैज द बेस्ट पाउट ?

मार ही दो न इससे अच्छा उनको। चलन है भाई। आजकल आप ऐसे सीधे अपनी तस्वीर खिंचा दें तो कहा जाएगा कि 'यू हैव सम प्रॉब्लम इन योर फेशियल कंटूर्स। दिस फेशियल कैविटी मस्ट हैव अ कन्वेक्सिटी टू ईट'। अर्थात मुँह में जो ये छिद्र है इसको सदा बहिर्गामी होना चाहिए।

तो साधारण भी फोटो, लोगों के पासपोर्ट रद्द हो जाते हैं, एअरपोर्ट पर रोक दिये जाते हैं। क्यों? क्योंकि मुँह है ऐसा (सीधा) और फोटो में ऐसा (टेढ़ा किया हुआ)। फोटो तो ऐसे ही खिंचेगी, पाउट तो होना चाहिए और नहीं है तो अदाकाराएँ सिखा रही हैं। वो अपने होंठ यहाँ पर मोटा करवाती है इतना। क्या होगा इस होंठ का? पिटी हो? मुँह सूज गया है? क्या है? हम तो जब छोटे थे तो हमारा होंठ तभी सूजता था जब होंठ पर कुछ पड़ जाए बढ़िया वाला। तुम्हारा होंठ क्यों सूजा रहता है इतना मोटा यहाँ पर? और हर समय यह पाउट क्या निकला रहता है? बीमारी है कोई?

और तुम जाओ भाड़ में, देखो अपनी ज़िन्दगी। ये तुम नयी नस्ल, नयी पौध को क्यों बर्बाद कर रही हो?

खिलौने देखिए जो बच्चों के आते हैं। अगर समझना चाहते हैं बाल मनोविज्ञान तो बस इतना देख लीजिए कि आज की बच्चियों के हाथ में डॉल्स कौन सी आ रही हैं। इतना बता देता हूँ कि छोटी बच्चियाँ जो डॉल्स लेकर आती हैं वो बाद में उनके बड़े भाइयों के काम आती हैं। बड़े भाई इंतज़ार ही कर रहे होते हैं ख़ासतौर पर अगर पंद्रह-सोलह से ज़्यादा उम्र के हों तो। कि ये छोटी जाए अगली डॉल लेकर के आए, बड़ा रस आने वाला है।

देखिए कि ये कॉमिक स्ट्रिप्स कौन सी पढ़ रहे हैं। देखिए कि इनके कार्टून चैनल्स भी कैसे हैं। हत्या की जा रही है सीधे-सीधे। हत्या हमेशा शारीरिक ही थोड़े होती है कि गला काट दिया तभी कहोगे हत्या है। तुमने गला घोंट दिया उसके अंतर्जगत का।

ऐसा तो नहीं है कि दस-बारह साल के बच्चे को अगर आप रामकृष्ण की बोध कथाएँ पढ़ाएँगे तो उसे समझ में नहीं आने वाली। आएँगी न? बहुत सरल भाषा में कहते थे। जैसे वो सरल थे वैसे ही उनकी भाषा, वैसे ही उनका संदेश। आपके घरों में क्यों नहीं है रामकृष्ण परमहंस की सरल साधारण कथाओं की किताब हिंदी में? या जो भी आपकी मातृभाषा है बंगाली, कन्नड़, तमिल जो भी, क्यों नहीं है?

कृष्णमूर्ति साहब का साहित्य आता है। अलग से उनकी संस्था ने किताबें निकाली हैं कृष्णमूर्ति फॉर द यंग। वो किताबें हैं ही कम आयु वर्ग के पाठकों के लिए। वो किताबें आपके घरों में क्यों नहीं हैं? औपनिषदिक-पौराणिक बोध कथाएँ आपके घरों में क्यों नहीं हैं?

और ये सब उपलब्ध हैं। बस आपकी आँख ज़रा खुले तो। जातक कथाएँ क्यों नहीं हैं घरों में? संत-साहित्य से आठ-दस साल की उम्र में ही बच्चों का परिचय क्यों नहीं कराया जा सकता? संत बड़े दूरदृष्टा थे। उनके दोहे एक तरफ़ तो ऐसे हैं कि अस्सी साल वालों को भी समझ में न आए। दूसरी ओर, उन्होंने बहुत सारे ऐसे गीत लिखे, ऐसे दोहे कहे, जो आठ साल, दस साल के बच्चे भी एक तल पर समझ जाएँ, कुछ-कुछ अर्थ निकाल लेंगे अपने तल का। वो दोहे, वो गीत आपके घरों में क्यों नहीं गाये जाते? वो किताबें क्यों नहीं मौजूद हैं आपके घरों में? उन गीतों की सीडीज क्यों नहीं मौजूद हैं आपके घरों में? आपके घर में अगर टीवी चलता है तो वो संगीत क्यों नहीं चलता? क्यों जान लिये ले रहे हो उनकी जिनको तुम्हीं ने पैदा किया है?

मैं मिलने गया मेरे एक कैंपस के ज़माने के मित्र से। उसका बच्चा आता है घर में और उसको बोल रहा है, 'हाय पप्स।' बात संबोधन मात्र की नहीं है। तुम समझ रहे हो न कि उस घर में संस्कृति फिर कैसी है? कल्चर कैसा होगा?

और ये एक और नया चलन है कि देखिए साहब हम तो फ्रेंडली हैं। मैं और केटी फ्रेंड्स हैं! केटी की महतारी कह रही है कि मैं केटी से फ्रेंड्स हूँ। वाह!

तुम्हें अपनी पूरी ज़िन्दगी में मित्रता का अर्थ कभी पता चला है कि तुम केटी बिटिया से ही फ्रेंड्स हो जाओगी? पर कितना लिबरल और ब्रॉड माइंडेड (उदार और व्यापक सोच वाले) लगता है न, 'वी आर नॉट मदर-डॉटर। वी आर फ्रेंड्स!' (हम माँ-बेटी नहीं बल्कि मित्र हैं)।

तुम्हारी मजबूरी है फ्रेंड होना। फ्रेंड होने का मतलब होता है दो, एक ही तल के लोग। तुम्हारी मजबूरी है केटी के साथ फ्रेंड होना। केटी आठ साल की है। महतारी चालीस साल की है। पर जो महतारी है ये बोल रही है कि मैं आठ साल की कृष्णा के साथ फ्रेंड्स हूँ। उसकी मजबूरी है, क्यों? क्योंकि दिमाग से वो भी आठ ही साल की है, अम्मा। उसे फ्रेंड तो होना ही पड़ेगा भई। माँ तो वो तब हो पाती न जब वो चालीस की होती। चालीस की हुई ही नहीं। उसका अपना मानसिक विकास आठ पर ही रुक गया था। न रुका होता तो कृष्णा को केटी क्यों बनाती?

वैसे ही पप्स और डिक्स फ्रेंड्स हैं। डिक्स कौन है? बिटिया का नाम था दीक्षा, उसको पप्स ने डिक्स बना दिया। करना ही पड़ेगा। तुम दोनों का मानसिक स्तर एक जैसा है, बातें भी एक जैसी ही करते हो। पिता तो तब हो न जब तुम्हारे पास देने के लिए कुछ हो, जब तुम बच्चे से ऊपर के तल के हो; तब तुम कह पाओ कि मैं पिता हूँ। जब तुम और बच्चे हो वास्तव में एक ही मानसिक तल के तो फिर तो फ्रेंड्स और क्या।

कल मैं 'शिंडलर्स लिस्ट' देख रहा था। बड़ी मार्मिक कहानी, जानते ही होंगे, होलोकास्ट (प्रलय), साठ लाख से ज़्यादा यहूदियों की निर्मम हत्या, वो भी तमाम तरह की यातना के बाद। लेकिन फिर भी एक बात समझिए। वहाँ साठ लाख ही मारे गए। अभी न जाने कितने करोड़ मारे जा रहे हैं। वहाँ कंसंट्रेशन कैम्प्स में मारे गए। अब मारे जा रहे हैं घरों में और स्कूलों में। वहाँ मारे गए तो हल्ला मच गया। मचना ही चाहिए था, अति क्रूर और अमानवीय कृत्य है, राक्षसी बिलकुल।

लेकिन आज जिस तरीक़े से बच्चों की हत्या हो रही है, उस पर कोई हल्ला नहीं मच रहा। हल्ला मचना तो दूर की बात है, इन हत्याओं को प्रगति का द्योतक माना जा रहा है। कहा जा रहा यह तो मॉडर्निटी (आधुनिकता) है। तरक़्क़ी हो रही है भई देश की। दीक्षा डिक्स बन गई, इसी का तो नाम तरक़्क़ी है, इंडिया इज डेवलपिंग। दीक्षा इज़ डिक्स , दीक्षा डिक्स हो गई। बलदेव बॉल्स हो गया।

प्रार्थना करता हूँ कि ये जो बाल-संहार चल रहा है, इसके प्रति सचेत हो जाएँ। मानवता के इतिहास में आज तक न जाने कितने नरसंहार हुए हैं उसमें नर-नारी मारे गए, वो बड़े थे, वयस्क। अभी जो हो रहा है, ये बाल संहार है। थोड़ा आँखें खोलें।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=87Si1CZaI_U

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