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बच्चों को कुविचारों से कैसे बचाएँ || आचार्य प्रशांत (2016)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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बच्चों को कुविचारों से कैसे बचाएँ || आचार्य प्रशांत (2016)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या विचारों का आना असहज है?

आचार्य प्रशांत: आप कहिए न! अभी आप यहाँ बैठे हुए हैं, तल्लीनता से सुन रहे हैं, कितने विचार उठ रहे हैं? कुछ ही समय पूर्व, करीब एक-डेढ़ घण्टे का सत्र हुआ था, विचार-मग्न थे क्या? या ध्यान-मग्न थे? दोनों का अंतर जानिए। विचार-मग्न थे, या ध्यान-मग्न थे?

श्रोतागण: ध्यान-मग्न।

आचार्य: तो अब आप बताइए कि विचारों का होना सहज है? या असहजता का लक्षण है? कहिए, आप कहिए!

प्र: असहजता का।

आचार्य: अभी आप के चेहरे पर लिखा है कि सोचने की कोई ख़ास ज़रुरत नहीं। समस्या तब खड़ी हो जाती है, जब ज़रा दूरी बनती है। जब सामने हों, तब कहाँ हैं विचार? जब पीठ कर लेते हैं, तब भीतर संघर्ष चालू हो जाता है! उसमें, जिसमें आपका विश्वास है, और उसमें जो आपके सम्मुख है।

प्र: विचारों का आना, रोका जा सकता है?

जब बच्चा होता है, और घुटने चलना सीखता है, तो उसकी जान पहचान सबसे पहले अपने माता-पिता से हो जाती है, वो जानता नहीं है, ये मेरे माता-पिता हैं। वो केवल ये जानता है, कि ये दो लोग हैं जिनको वो पहचानने लगता है। अब वो भागता है घुटनों के बल अपने! कभी कोई खिलौना तोड़ देता है, कभी घर का कोई सामान गिरा देता है, कभी गमला फेंकता है हिला कर, कभी फूल तोड़ देता है उसका। तो हम उसको एक संदेश देते हैं कि, "ना, ऐसा ना कर बेटा! ना, ये गंदी बात है।" तो वो सन्देश तो बाद में दिया हमने उसे, उससे पहले घुटने चलने, खिलौना पकड़ने की जो प्रक्रिया है, बच्चे ने देखा कि कोई खिलौना पड़ा हुआ है मेरे आगे; और जा कर वो खेला उससे, और खेल कर उसने तोड़ दिया। तो विचार तो उसके मन में आता ही होगा, कि, "मुझे ये चीज़ पकड़नी है, इससे खेलना है या तोड़ना है।" तो फिर जब इतने छोटे बच्चे में, जो दो-चार-पाँच महीने का है, आठ महीने का घुटना चलना सीखा हो; इतनी सहजता से विचार उसके मन में प्रवेश कर जाता है, और वो कंबल विचारों के, फिर जैसे-जैसे बड़ा होता है, वो कंबलों के रूप में बदल जाते हैं उसके।

फिर उसको हटाना, क्या जीवन में इतना सहज है कि हम उसको हटा पाएँ, जो होते ही उसके संग लग गए हों? जो होते ही उसको जकड़ लिया है उन्होंने?

क्या वो कंबल बहुत आसानी से क्या हटाए जा सकते हैं?

आचार्य प्रशांत: पहली बात तो, ये शुभ लक्षण है कि आप मान रहे हैं कि वो कंबल है, आप मान रहे हैं कि उसकी जकड़ है। आप मान रहे हैं कि कुछ ऐसा है कि जो बाहरी है और उसने जकड़ रखा है। ठीक है न? इतना मान लेते ही रास्ता साफ़ हो जाता है। अब सिर्फ आपका प्रश्न ये है कि, आसानी है क्या इस प्रक्रिया में? जिसको आप सहज कह रहे हैं, वहाँ पर वास्तव में आप पूछना चाहते हैं कि, "आसान कितना है?" आप कह रहे हैं कि, "जो चीज़ बच्चे के पैदा होने के साथ ही उसके साथ लग जाती है, उससे मुक्ति कितनी सरल है?" आप सहजता की नहीं, आप सरलता की बात कर रहे हैं।

क्या फ़र्क़ पड़ता है? आप ये देखिए न, कि उसका फल कितना क़ीमती है। किसी भी प्रक्रिया में आप क्या निवेश कर रहे हैं, उसको सिर्फ़ इस पैमाने पर तोला जा सकता है, कि उसका आदि और अंत क्या है। अगर बच्चे को जो जकड़ मिलती है, उस जकड़ से मुक्त होने का फल हो अमरता और अमरता से ऊँचा, भय-मुक्ति से ऊँचा कोई फल तो हो नहीं सकता न! अगर उस जकड़ से मुक्त होने का फल अमरता हो, तो क्या आप उस फल के लिए अपने पूरे जीवन का, अपनी पूरी शक्ति का, निवेश करना चाहेंगे या नहीं?

कहिए, बोलिए? करना चाहेंगे या नहीं? आसान है या नहीं मैं ये नहीं जानता, पर मैं ये जानता हूँ, कि उसका परिणाम क्या है, उसका फल क्या है। और मैं ये भी जानता हूँ, कि वो नहीं मिला, तो फिर जीवन कैसा है। फिर जीवन ऐसा ही है, कि लगातार संदेह में, दुविधा में, भय में, डूबा रहेगा, समस्त संसार से आक्रान्त रहेगा, तो उसका परिणाम भी देख लें कि पा लिया तो क्या पाया। और ना पाने का अंजाम भी देख लें, कि ना पाया तो क्या गँवाया।

अब आप कहिए, कि आसान हो या कठिन, उसको पाने की राह निकलना चाहिए या नहीं। ये हम बाद में देख लेंगे कि बच्चा जिस गिरफ्त में पैदा होता है उस गिरफ्त से छूटना कितना आसान है, और कितना मुश्किल। वो देख लेंगे, बाद में देख लेंगे। पर पहले अपनी नियत तो तय कर लीजिए। गिरफ्त से छूटना भी है या नहीं? मन पक्का कर के हामी भरिए कि, "हाँ, छूटना ज़रूरी है।" क्योंकि छूटे, तो अमरता पाई, और ना छूटे, तो जीवन गँवाया। ये पक्का कर लीजिए। ये पक्का नहीं किया, तो आसान भी मुश्किल है, और मुश्किल तो मुश्किल है ही। फिर अगर मैं कह भी दूँ कि बहुत आसान है, तो आप के लिए आसान नहीं है क्योंकि आपने तो अभी मन ही नहीं बनाया, क्योंकि आपको तो अभी यही लग रहा है, कि जैसा है चलने दो। आप तो अभ्यस्त हो गए दुःख के, गिरफ्त के।

सहजता, वो शब्द नहीं है जो किसी बच्चे के साथ आप संबंधित कर सकें। बच्चा तो पैदा होते ही रोता है। बच्चा तो पैदा होते ही असहज अनुभव करता है। गर्भ में था, अँधेरे में था, एक गीला सा सुरक्षित माहौल था। ये अचानक बाहर कहाँ आ गया? रोशनियाँ उसकी आँखों पर पड़ती हैं, उसकी आँखें चुंधिया जाती हैं। उसकी आँखें अभी कुछ नहीं देख सकती, खुली ही नहीं हैं, और रौशनी पड़ जाती है। तापमान बदल जाता है। गर्भ में उसको ठीक वही तापमान मिल रहा था जो शरीर का होता है। बाहर निकलते ही कुछ-न-कुछ बदल जाता है। बाहर निकलता है, पहली बार उसको हवा का थपेड़ा लगता है। आप के अनुसार अभी इस जगह पर ज़रा भी हवा नहीं चल रही है। यहाँ पर किसी नवजात को लाएँ, तो उसके लिए बहुत हवा चल रही है, उसके लिए यहाँ चक्रवात है। क्योंकि नौ महीने तक गर्भ में उसने हवा का तनिक भी दबाव अनुभव नहीं करा है! आपको क्या लगता है? बच्चा पैदा सहजता में होता है?

गर्भाधान और जन्म की पूरी प्रक्रिया में जो कष्ट है, उसको तो आप जानते ही हैं, वयस्क हैं। यूँ ही नहीं जानने वालों ने कह दिया है, कि जन्म दुःख है, जीवन दुःख है, जरा दुःख है, और मृत्यु दुःख है। अगर हमें अपने जन्म के क्षण की स्मृति रह पाती, तो आप पाते कि जन्म के क्षण में, कदाचित उतना ही कष्ट है जितना मृत्यु के क्षण में। वास्तव में बच्चे का जन्म उसके लिए मृत्यु समान ही होता है। वो एक लोक से दूसरे लोक में जा रहा होता है। इसी को तो मृत्यु कहते हैं न? कैसी सहजता?

फिर, माँस का जो पिंड पैदा होता है, आपको क्या लगता है, वो चैतन्य होता है? माता की, पिता की, इच्छाएँ मिल कर के, शिशु बन जाती हैं। जो कुछ आपका है, जैसा जीवन आपने जिया है, वो सब कुछ शिशु में प्रवेश कर जाता है। आम-तौर पर कुछ बातें समझाने के लिए, ये कह ज़रूर दिया जाता है कि बच्चा सरल होता है, और भोला होता है। और ये भी कह दिया जाता है कि बच्चे जैसे बनो, पर बच्चे में तो हज़ार तरह के संस्कार, जन्म-पूर्व ही विद्यमान होते हैं। बच्चे जैसे बनकर भी क्या कर लोगे?

मैं कह चुका हूँ, और बार-बार कहता हूँ कि बच्चों में विद्यमान हिंसा से परिचित नहीं हो क्या? तुम्हें अगर बच्चा सुंदर लगता है तो उसका कारण यह है कि हम बहुत कुरूप हो गए हैं, हमारी तुलना में अभी बच्चा सुन्दर है। हमारे मन पर, हमारे शारीरिक और जैविक संस्कार तो हैं ही, हमने सामाजिक संस्कार भी ओढ़ लिए हैं। तो हम अतिशय कुरूप हो गए हैं। बच्चा यदि सुंदर है तो मात्र तुलनात्मक रूप से। हमसे सुन्दर है, पर वास्तव में सुन्दर नहीं है। कोई बच्चा उतना सुन्दर नहीं होता जितना कि एक बुद्ध सुन्दर है। कोई बच्चा उतना भी सुन्दर नहीं होता, जितने सुन्दर अभी आप हैं।

अब मैं क्या करूँ? मैं तो वही बोलता हूँ जो मेरे सम्मुख है, आपको देखता हूँ तो आप पर ही बोलूँगा।

थोड़ी देर पहले, आप प्रश्न में और विचार में डूबे हुए थे, तब आप ऐसे नहीं थे। जब आप ऐसे होते हैं तो आप दुनिया के सुंदरतम शिशु से सुन्दर हैं। शिशु तो बहुत बूढ़ा हो गया है। नौ महीने! नौ महीने जानते हो कितना होता है? युग-युगांतर, शताब्दियों पर शताब्दियाँ, नौ महीने इतना होता है। आप अभी वहाँ हैं, जैसा कोई शिशु जन्म से पहले होता है। आप अभी वहाँ बैठे हुए हैं। आपकी सुंदरता, अति-आदिम है। ये सुंदरता किसी शिशु को उपलब्ध नहीं, क्योंकि शिशु तो बूढ़ा पैदा होता है। नौ महीने का तो होता है जब वो पैदा होता है। आप की गिनती शुरू ही ग़लत बिंदु से होती है। आप कहते हो जब गर्भ से बाहर आया, तब जन्म। नौ महीने जानते हो कितना होता है? खंखारता-खाँसता बूढ़ा, लाठी टेकता शिशु पैदा होता है।

सब कुछ तो उसके साथ हो चुका होता है। माँ के, बाप के, पूरी मानवता के जितने अनुभव होते हैं, सब उसमें दो कोशिकाओं के माध्यम से प्रवेश कर चुके होते हैं। अब बताइए, कहाँ है उसमें कुछ नयापन? पूरी मानवता का आज तक का जो अनुभव है, वो दो कोशिकाओं के माध्यम से शिशु में चला गया! अब उसमें नया क्या बचा? सब पुराना, पुराना है शिशु में। वही पुराने डर, वही पुरानी भूख, वही पुरानी प्यास, वही पुरानी तृष्णा, वही पुरानी ईर्ष्या। किसी शिशु में कुछ नया देखा कभी? कुछ अनूठा देखा कभी? कुछ ऐसा देखा, जो कभी ना देखा हो? तीन बच्चे हैं आपके, दूसरे में, तीसरे में कुछ नया देखा था क्या? कुछ ऐसा देखा था क्या जो पहले में ना हो? दुनिया के किसी बच्चे में कुछ नया होता है? दुनिया का हर बच्चा वैसा ही होता है, जैसा पाँच-सौ साल के पहले का बच्चा था। बहुत पुराना है, परम्परा है बच्चा। हाँ, हमसे नया है। तो हमें लगता है ज्यों बिलकुल नया है। बिलकुल नया नहीं है। बिलकुल नया हो जाना तो दूसरी बात है। बच्चा पैदा होता है बूढ़ा, और उसे हो जाना होता है शिशुवत, पर आँखें हमारी ये देख नहीं पाती, हमें लगता है शिशु पैदा हुआ है, और शनैः शनैः वो बूढ़ा हो रहा है। बात उल्टी है। बूढ़े तो हम पैदा होते हैं। समय का, संस्कारों का, पूरा बोझ लेकर तो हम पैदा होते हैं। फिर हमें उम्र को उल्टा चलाना होता है, फिर हमें अपना शैशव वापस पाना होता है।

यही जीवन का उद्देश्य है। बूढ़े पैदा हुए थे, बच्चे मरो।

तो बच्चे की क्यों दुहाई देते हैं? बच्चे में क्या ख़ास है? हमसे ज़रा कम कलुषित है, बस इतना ही है। हमारी तुलना में! अन्धे हैं हम, बच्चा काना है। बस यही ख़ास है उसमें। हमारी दोनों आँखें गईं। हमें दो परदे मिल गए हैं, दो आँखों के लिए, एक शारीरिक, दूसरा? सामाजिक। बच्चे को एक ही मिला है, वो काना है। बच्चे को एक कौन सा मिला है?

श्रोतागण: शारीरिक।

आचार्य: शारीरिक! दूसरी आँख अभी उसकी खुली है। वो आप जल्दी ही बंद कर देंगे। काणे का, ऐसा महिमा-गान? बड़ा अंधापन है!

आप जो कुछ चारों ओर देखें, उसको ही सामान्य मत समझ लीजिएगा। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने चारों ओर वास्तविक सहजता नहीं दिखाई देती तो इसलिए सहजता को इतना हल्का मत समझ लीजिएगा कि कहना शुरू करे दें कि बच्चा सहज होता है। बच्चे की बात, उदाहरण वगैरह देने के लिए ठीक है, पर उन उदाहरणों को कहीं वास्तविक मत मान लीजिएगा। तुलनात्मक तौर पर कई बार कह दिया जाता है, बच्चे जैसे निर्दोष हो जाओ, बच्चे जैसे भोले और निर्मल हो जाओ; ये बात सिर्फ समझाने के लिए कह दी जाती है। इसमें कहीं आप ये ना समझ लीजिएगा कि निर्मलता की पराकाष्ठा बच्चा ही है। बच्चा नहीं है!

बच्चा तो हज़ार दोषों के साथ पैदा होता है। जो माँ पोषण देती है उसे, माँओं से पूछिए कैसा काटते हैं बच्चे। पूछिए माँओं से, वो बताएँगी। और बच्चों से ज़्यादा स्वार्थी कोई होता है? माँ बगल में बुखार में पड़ी हो, बच्चे को अगर भोजन चाहिए तो चाहिए! वो रो- रोकर के उठा लेगा घर सर पर। माँ मर रही होगी, बच्चे को तो दूध चाहिए। कहिए, हाँ या ना? कोई माँ ऐसी नहीं होगी जिसने कभी-न-कभी अपना सर ना पकड़ लिया हो, कि, "ये क्या आ गया!" ममता अपनी जगह है, ठीक। पर कोई माँ यहाँ ऐसी नहीं बैठी होगी, जो कभी-न-कभी अपना सर पकड़ कर ना बैठती हो, कि, "ये क्या!"

मैं बच्चे की सुंदरता से इंकार नहीं कर रहा! उसको अभी ज़माने ने गन्दा नहीं किया है। ज़माने ने नहीं किया, पर जींस ने तो कर ही दिया है न! बच्चा अभी जात, धर्म, शिक्षा, इन सब से गन्दा नहीं हुआ है पर मन तो ले कर आया है, शरीर तो ले कर आया है और शरीरगत संस्कार भी ले कर आया है। मछली का बच्चा पैदा होते ही जानता है तैरना। चिड़िया का बच्चा भी जानता है उसे क्या करना है, इंसान का बच्चा भी जानता है। लड़की पैदा होते ही अलग होती है। ज़रा ‘लड़की’ होती है। और लड़का पैदा होते अलग होता है, ज़रा ‘लड़का’ होता है। ये सब उसे किसने सिखाया? दोष तो वो लेकर के आया है। विकार के साथ ही पैदा हुआ है। माँएँ यहाँ बैठी हैं, वो बता देंगी। लड़का गर्भ में होता है, लड़की गर्भ में होती है, अंतर वहीं से शुरू हो जाता है। जिनको आप कहते हैं, कि ये तो उनके विशिष्टात्मक गुण हैं, ये तो उनकी चरित्रगत विशेषताएँ हैं; उन्हीं को वास्तव में देखें तो विकार हैं। पर ये बात आपको सामान्य नैतिकता नहीं बताएगी, ये बात आपको फ़िल्मी गाने नहीं बताएँगे। अगर जीवन से आपका परिचय, प्रचलित किस्से-कहानियों और फिल्मों और लोकप्रिय गुरुओं जितना ही है, तो आप यही कहेंगे कि, "बच्चे से ज़्यादा सुन्दर तो कुछ होता नहीं। भगवान् स्वयं उतरता है बच्चे के रूप में!"

क्या इस पर आप अडिग हैं, कि हाँ, जिस गिरफ़्त में, जिस जकड़ में, और आपके शब्दों में जिस कंबल को ओढ़े बच्चा पैदा होता है, उस कंबल से आज़ादी आवश्यक है? क्या पहले आप इस पर एकमत हैं? पहले मन को इस पर एकजुट करिए।

प्र: कम्बल है, तो आज़ादी आवश्यक है! ये बात बिलकुल स्पष्ट है!

आचार्य: बस, यहीं पर ठहर जाइए, कि आवश्यक है। अगर यहाँ ठहर गए हैं, तो आज़ादी मिल जाएगी। आगे का काम आज़ादी स्वयं करेगी। आपका काम नहीं है आज़ादी हासिल करना। आपका काम है आज़ादी के प्रति एकनिष्ठ हो जाना। इसलिए बार-बार कह रहा हूँ, कि आप इस बात पर मुस्तैद रहें, कि हाँ, गिरफ़्त तो है, हाँ, बंधन तो हैं, हाँ, कष्ट तो हैं! आप लगातार इस पर अडिग रहिए, कि ये ठीक नहीं, ये नहीं चाहिए, ये स्वभाव नहीं। उसके आगे का काम, आज़ादी स्वयं करेगी। जिसने आज़ादी का वरण कर लिया, उसको आगे की राह आज़ादी स्वयं दिखाती है। इसलिए कहा गया है, कि आप एक कदम रखें बस, आगे के कदम, ना रखने की ज़रुरत है, ना सोचने की। “पहला कदम ही आख़िरी कदम है!” आप बस एक कदम उठाएँ। और आगे का ज़रा भी विचार ना करें। और आपका जो एक कदम है वो यही है, कि, "हाँ, मैं गिरफ़्त में हूँ। और ये गिरफ़्त मुझे कुछ सुहा नहीं रही।" हम तो कभी इसी बात पर अडिग नहीं हो पाते। हमें कभी लगता है, “नहीं यार, बंधन है”। कभी हम कहते हैं, “नहीं ये बंधन थोड़े ही है, ये तो वरमाला है”। कभी हम कहते हैं, “बेड़ियाँ हैं”। कभी हम कहते हैं, “ना ये बेड़ियाँ थोड़े ही हैं, ये तो चूड़ियाँ हैं”।

आप पहले ज़रा स्थिर हो जाएँ, ज़रा ठहर जाएँ। आप कम्पित होते रहेंगे, कभी हाँ, कभी ना बोलेंगे, तो कौन सा रास्ता खुले आपके लिए? हाँ बोलें, तो एक रास्ता है, ना बोलें तो दूसरा रास्ता है। आप पहले कहिए तो! और कह करके रुक जाइए। "गिरफ़्त है, गिरफ़्त है, गिरफ्त है। झंझंट है, झंझंट है, बेड़ियाँ हैं।" आप कहकर के रुक जाइए, इस रुकने को श्रद्धा कहते हैं कि “मैंने अपना काम कर डाला। मेरा अपना काम था स्वीकार कर लेना, कि फँस गया। अब मुक्ति कैसे मिलेगी, ये मुक्ति जाने! मुक्ति मुझसे कहीं आगे की, और बहुत बड़ी बात है। मैं उसे नहीं पा सकता। वो मुझे पाएगी। मैंने तो अर्ज़ी भेज दी, दरख़्वास्त कर दी। मैंने कह दिया, मैं फँस गया, मैं बंधन में हूँ। अब वो छुड़ाएगा”। इसी को समर्पण कहते हैं।

पर हम दोनों हाथों में लड्डू चाहते हैं। हम कहते हैं, मुक्ति भी मिल जाए, बिना ये स्वीकार किए, कि हम बंधन में हैं। हम कहते हैं, मुक्ति तो मिल जाए, पर मानेंगे नहीं कि बंधन में हैं। तुम बंधन में हो ही नहीं, तो मुक्ति का करोगे क्या? ये बताओ? ये मानने में ज़रा शर्म सी आती है कि झंझट है, बंधन है, जीवन व्यर्थ जा रहा है। बड़ी लाज आती है, बड़ा बुरा लगता है जब कोई ये कह दे तो।

अगर कष्ट नहीं है, तो आनंद क्यों चाहिए भाई? अगर बंधन नहीं है, तो मुक्ति क्यों चाहिए भाई? अगर अँधेरा नहीं है तो रौशनी क्यों चाहिए? पहले मानो तो, कि अँधेरा है। फिर रौशनी अपना काम खुद करेगी।

YouTube Link: https://youtu.be/jSw1I45CSrg

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