प्रश्नकर्ता: नमन आचार्य प्रशांत जी, जब भी मैं किसी बच्चे का शोषण होते हुए देखती हूँ; चाहे खबरों में सुनूँ, चाहे सड़क पर देखूँ या किसी दुकान में, मेरा मन बुरी तरह बेचैन हो उठता है। यथासंभव मदद करने की कोशिश भी करती हूँ और यही सोचती हूँ कि इसमें इन बच्चों का क्या कसूर है। जानती हूँ कि ज़्यादा कुछ कर नहीं सकती। बस परमात्मा से प्रार्थना करती हूँ कि सबको सद्बुद्धि मिले। क्या ये उन बच्चों के कर्मों का फल है? मैं उस तड़प से बाहर कैसे निकलूँ?
आचार्य प्रशांत: सब हम जुड़े हुए हैं सारिका। कुछ अलग-अलग नहीं है मामला। उन बच्चों की जो स्थिति है वो समाज की व्यापक स्थिति को दर्शाती है। बच्चों की हालत बिलकुल वही है जो समाज की हालत है। बस बच्चे ज़रा कमज़ोर हैं, तो उनकी दुर्दशा दिख जाती है। समाज बीमार तो है लेकिन साथ-ही-साथ कुटिल भी खूब है, तो वो अपनी खराब हालत को छुपा ले जाता है।
आपको क्या लगता है दुखी सिर्फ़ वो हो रहा है जिसका शोषण हो रहा है? दुखी बराबर का वो भी है जो शोषण कर रहा है। पर जो शोषण कर रहा है वो कुटिल है इसीलिए तो शोषण कर रहा है। चूँकि वो कुटिल है इसीलिए वो शोषण कर रहा है। और चूँकि वो कुटिल है, तो वो ये छुपा भी ले जाएगा कि वो कितना दुखी है।
बच्चे का दुख दिख जाता है। इसमें दोष किसी एक व्यक्ति का नहीं है। इसमें दोष हम सबकी साझी मान्यताओं और धारणाओं का है। दोष उस बुनियाद का ही है जिस पर हमारा समाज खड़ा हुआ है। समाज अच्छा होता तो ये थोड़े ही हो पाता कि अपवाद स्वरूप चार-पाँच बच्चों का शोषण चल रहा है कहीं पर। बच्चों का शोषण होता रहता है पूरे समाज के समर्थन और स्वीकृति से न।
भई! आप जाते हैं, देखते हैं कि किसी ढाबे पर कोई आठ साल का लड़का काम कर रहा है; अब कम हो गया है, पहले और ज़्यादा होता था। पर आप जाते हैं, देखते हैं ढाबे पर एक आठ साल का छोटू काम कर रहा है, उसको चवन्नी-चवन्नी करके बुला रहे हैं।
आप कहते हैं, ‘ढाबे वाले की बड़ी गलती, ढाबे वाले की बड़ी गलती।’ और वो जो छोटू है, वो चाय पिला किसको रहा है? जिनको पिला रहा है वो मज़े में पी भी तो रहे हैं। पी ही नहीं रहे हैं, वो ढाबे वाले को पैसे भी दे रहे हैं चाय के। तो बात सिर्फ़ ढाबे वाले की है क्या? बात सिर्फ़ ढाबे वाले की है क्या?
समाज में इस बात को एक आम सम्मति मिली हुई है कि चलता है, कोई बात नहीं चलता है। न चलता होता तो ढाबे वाले की हिम्मत ही नहीं होती कि वो आठ साल के लड़के को बर्तन धोने पर लगाए। और हम वैसे तो बड़े ममतामयी रहते हैं अपने बच्चों के प्रति। पर घर में काम वाली के साथ उसकी दस साल की लड़की अगर आ जाती है काम कराने तो हमें आपत्ति नहीं होती। बल्कि अगर कभी काम वाली ये कह दे कि अगले तीन दिन नहीं आ पाऊँगी, तीन दिन ये लड़की आकर के झाड़ू-पोछा कर देगी। तो हम कहते हैं, ‘कोई बात नहीं, तू ने अपनी बदली ही तो लगायी है।’ तू नहीं आ सकती थी, तो तूने अपना विकल्प, सब्सीट्यूट लगा दिया, ठीक है, ये लड़की आकर के करेगी।
तब हम ये नहीं कहते कि तीन दिन तू नहीं आएगी, हम ही कर लेंगे, पर इसको, बच्चे को मत भेज। और ये और बता दे कि ये स्कूल जाती है कि नहीं जाती है? और अगर ये स्कूल नहीं जाती, तो सौ-पाँच-सौ हमसे ले-ले, पर स्कूल भेज दिया कर इसको।
मैं नहीं कह रहा ऐसा कोई नहीं कहता। बहुत लोग हैं, बहुत परिवार हैं जहाँ पर ज़रा अब नज़र साफ़ हो रही है, मन बदल रहा है। लेकिन अभी भी ये बातें अगर चलती हैं, तो सर्व समान्य के समर्थन से चलती हैं।
हमें ये बुरा लगता ही नहीं, अजीब लगता ही नहीं कि अगर आप मॉल से खा-पीकर के निकले और बाहर वो दस-बारह साल वाले गुब्बारा इत्यादि बेच रहे हैं।
अब बात को ज़रा और गहरे ले जाओ। ऐसा हो क्यों रहा है कि एक मॉल, जो पूँजी का अड्डा है, उसके आगे कुछ बच्चे इतने गरीब खड़े हैं? कि उनको रात के ग्यारह-बारह बजे भी, ठंड में भी, और कई बार तपती दोपहर में भी गुब्बारे बेचने पड़ रहे हैं? ज़रूर उसका कोई ढाँचागत कारण होगा, कोई स्ट्रक्चरल रीज़न होगा न।
हमारी अर्थव्यवस्था जिस तरीके से बनी है, हमारा समाज जिस आधार पर खड़ा है, ज़रूर उसी में कुछ ऐसी बात है कि एक मॉल जो पूँजी का अड्डा होता है, जो उपभोक्तावाद का गढ़ होता है। जहाँ रोज कई-कई लाख बल्कि करोड़ों का लेन-देन होता है, बड़े ट्रांजेक्शन होते हैं। उसके सामने भी दस-रुपये के लिए एक बच्चा फ़टेहाल गुब्बारे बेच रहा है। ज़रूर कोई बात होगी जिस तरीके से हमने अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है।
पर हम इन बातों में जाना नहीं चाहते। हाँ, हमारा दिल बहुत काँपता है, बहुत पिघलता है, तो हम उस बच्चे को सौ का नोट निकालकर के दे देंगे, कहेंगे, आज हम बड़े विशाल हृदय हैं। बच्चे आज तेरा दिन अच्छा है, गुब्बारा भी नहीं चाहिए, ले ये सौ नोट रख। और बच्चा भी सोचता है बहुत बढ़िया हो गया। हम ये नहीं देख रहे कि एक बच्चे को सौ का नोट देकर के हमने कोई बड़ा काम नहीं कर दिया। क्योंकि हम खुद ज़िम्मेदार हैं ऐसे हज़ारों बच्चे पैदा करने के लिए। ऐसी अर्थव्यवस्था हमने ही रची हैं।
जहाँ कहीं भी पूँजी का केंद्रीयकरण होगा, जहाँ कहीं भी पूँजी का संचय होगा सिर्फ़ कुछ हाथों में, वहाँ एक बहुत बड़ा वर्ग होगा जो सड़क पर गुब्बारा बेचने को बाध्य हो जाएगा। लेकिन हम उस बात का विरोध कैसे कर सकते हैं जब हम खुद ही उन चंद लोगों में शामिल होना चाहते हैं जो पूँजीपति हैं। समझना।
हमारी जो व्यवस्था है उसमें ये आवश्यक हो गया है, उसका ढाँचा ही ऐसा है कि पूँजी का केंद्रीयकरण होगा-ही-होगा। एक कंपनी है, उसमें काम करते हो पाँच-हज़ार कर्मचारी। वो पाँच-हज़ार कर्मचारी मिलकर के जो मुनाफ़ा कमाते हैं, वो मुनाफ़ा किसका है? चंद शेयर होल्डर्स का ही तो है न। उन्हीं शेयर होल्डर्स का है न।
ये बात उस कंपनी के विधान में लिखी होती है, आर्टिकल ऑफ़ एसोसिएशन में लिखी होती है। काम भले ही दस-हज़ार लोग करें, लेकिन जो पूरा मुनाफ़ा है वो अगर चार शेयर होल्डर हैं तो उन्हीं के हाथ में जाना है। लेकिन ये सब कर्मचारी मज़े में काम करते रहते हैं, बल्कि उन कंपनियों में हमारी नौकरी लग जाए, तो हम खुशी मनाते हैं।
आप खुशी वास्तव में उस बात पर माना रहे हो की अब और ज़्यादा पूँजीगत सत्ता चंद हाथों में केंद्रित होने जा रही है। और अगर और ज़्यादा पूँजी चंद हाथों में जा रही है, तो और लोग अगर पूँजी से अनछुए रह जाएँ, और लोग अगर पूँजी के प्यासे ही रह जाएँ, तो इसमें ताज्जुब क्या है?
हम स्वयं भी चाहते हैं कि एक दिन ऐसा आये कि हम खुद शेयर होल्डर कहलाएँ। हम स्वयं भी चाहते हैं कि एक दिन ऐसा आये कि जब हमारे लिए दस-हज़ार लोग काम करें। दस-हज़ार नहीं, तो चलो दस ही सही। पर हमारे लिए काम कर रहें हैं उनकी मेहनत से जो सर्प्लस पैदा हो रहा है वो अब हमारी जेब में आ रहा है।
इस पूरे विज़न में सड़क पर जो बच्चा गुब्बारा बेच रहा है, उसके लिए क्या जगह है? कोई जगह है? है क्या कोई जगह?
मैं नहीं कहता कि जगह हो नहीं सकती, या किसी भी शेयर होल्डर या आंत्रप्रेन्योर के मन में जगह होती नहीं है ऐसी। पर अधिकांशतः मुझे बताओ तो। नहीं तो ये बात ही बड़ी बचकानी है, जो देखे उसी को ताज्जुब होगा कि मॉल से तो एक-एक करके बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ निकल रही हैं, एक-एक करके बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ। और अंदर सब इंटरनेशनल ब्रांड्स के शोरूम हैं।
मान लो दक्षिण दिल्ली की कोई मॉल है, या गुड़गाँव की कोई बड़ी मॉल है। और वहाँ सब क्या हैं? इंटरनेशनल ब्रांड्स हैं। और गाड़ियाँ भी वहाँ से इंटरनेशनल ही निकल रही हैं सब। और वो बाहर गाड़ियाँ निकलती हैं, तो कहाँ जाकर रुकती हैं? फ़टेहाल दस-रुपये का गुब्बारा बेचते बच्चे के बगल में।
ये माज़रा क्या है? इतना पैसा एक तरफ़ और इतनी गरीबी एक तरफ़, आमने-ही-सामने। बिलकुल आमने-सामने खड़े हैं, ऐसा हो कैसे गया? इस प्रश्न पर हम विचार नहीं करना चाहते। बल्कि वो गरीबी हमें दिखे, तो अपना अपराध बोध, अपनी गिल्ट मिटाने के लिए हम उस बच्चे को सौ-रुपये दे देंगे। इतने से काम नहीं चलेगा।
ये पूरी तस्वीर बदलेगी तब बात बनेगी। और ये तस्वीर तब बदलेगी जब आदमी का मन बदलेगा। क्योंकि आदमी के मन में जब तक ये वासना है कि मैं संसार के ऊपर चढ़कर बैठ जाऊँ, मैं भी दुनिया का टॉप व्यापारी, बिजनेसमैन, आंत्रप्रेन्योर कहलाऊँ, तब तक पूँजी का सेंट्रलाइज़ेशन (केंद्रीयकरण) होता ही रहेगा। क्योंकि यही तो सपना हमें बचपन में सिखाया जाता है न कि बेटा! तुम सबसे आगे निकल जाना।
सबसे आगे निकलने का मतलब क्या हुआ? सबसे ज़्यादा बटोरकर के तुम अपने पास कर लेना। और सबसे ज़्यादा बटोरकर के तुमने अपने पास कर लिया, तो दूसरों के लिए बचा क्या? आदमी का मन बदलेगा, ये तस्वीर बदलेगी।
प्र: क्या मन बदलने के लिए किसी धार्मिक क्रांति की ज़रूरत होगी?
आचार्य प्रशांत: बिलकुल-बिलकुल। इट नीड्स ए स्पिरिचुअल रिवोल्यूशन, स्पिरिचुअल रिवोल्यूशन। (इसके लिए एक धार्मिक क्रांति की आवश्यकता है।)
जब तक आम आदमी को ये समझ में नहीं आता कि जिन आधारों पर वो ज़िन्दगी जी रहा है वो घातक हैं दूसरों के लिए ही नहीं, अरे! उसके अपने लिए। तुम्हारे अपने लिए, तुम्हारे बच्चे के लिए घातक है जिन आधारों पर तुम जी रहे हो। तुमने भविष्य के जैसे सपने बनाएँ हैं, वो सपने ज़हरीले हैं, भले ही तुम्हें कितने ही मीठे लगते हों।
जब तक ये आम आदमी को नहीं समझ में आयेगा, तब तक ये सबकुछ रहेगा। गरीबी रहेगी, शोषण रहेगा, जितनी बातों की आप यहाँ चर्चा कर रही हैं, सारिका जी वो सब रहेंगी।
इस समय की बड़ी घातक बात ये है कि धर्म बिलकुल पीछे छूटता जा रहा है। लोगों ने कहना शुरू कर दिया है दैट दिस इज़ पोस्ट रिलिजन एज। (कि ये धर्मोत्तर युग है।) अब हम उस युग में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें कोई धर्म नहीं है, धर्म की बात पुरानी हुयी।
श्रोता: पैसा ही धर्म है।
आचार्य प्रशांत: कल मैं इससे कह रहा था। मैं कह रहा था, ‘धर्म क्या है?' सेल्फ़ी धर्म है। पैसा तो फिर भी आपने बहुत सुसंस्कृत बात कर दी। धर्म वो जिसको तुम धारण करो। तो कल यहाँ आते वक्त रास्ते में एक जगह रुका। वहाँ जितने थे वो सब सेल्फ़ी धारण कर रहे थे।
मैंने कहा, यही धर्म है। जिसको देखो वो यही धारण कर रहा है, तो यही धर्म है। और तो कोई धर्म बचा नहीं है।
पहले कहा गया कि गॉड इज़ डेड (भगवान मर चुका है)। और जब कह दिया गया है कि गॉड इज़ डेड, तो धर्म काहे का? धर्म का तो अर्थ ही था उस तक पहुँचना। जब तुमने उसी को खत्म कर दिया, तो कौनसा धर्म?
तो अब कोई धर्म नहीं है। यही धर्म है कि पैसा खूब कमा लो, सुख ,प्लेजर किसी तरीके से मिल जाये। भले ही उससे भीतर तुम्हारे कितना ज़हर बढ़ता रहे। तो हम खत्म भी हो रहे हैं, दूसरों को भी खत्म कर रहे हैं।