प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम। मेरा सवाल ये है कि मेरी दो बेटियाँ हैं, एक तेरह वर्ष की है और एक ग्यारह वर्ष की है। आचार्य जी, अभी तो मुझे ही चीज़ें स्पष्ट नहीं हुई हैं, न ही अपने बारे में, और न ही समाज से सम्बन्धित चीज़ों के बारे में। जब वो प्रश्न पूछती हैं, तो मैं उन्हें जवाब कैसे दूँ? मैं नौकरी करती हूँ और मैं उन्हें वक़्त नहीं दे पाती हूँ। आचार्य जी, जब से मैंने आपको सुनना शुरू किया है, तो मैं उन्हें आपके वीडियोज़ दे देती हूँ और कुछ पुस्तकें खरीदकर मैंने उन्हें दिया है। आप मेरा मार्गदर्शन करें, धन्यवाद।
आचार्य प्रशांत: हल करना ज़रूरी ही नहीं है! बच्चियाँ कोई सवाल पूछ रही हैं, तो जैसे वो सवाल के उत्तर खोजती हैं, आप भी उन्हीं के साथ उत्तर खोजिए। ये मानना ज़रूरी क्यों है कि मैं बड़ी हूँ, मैं माँ हूँ, तो आवश्यक है कि मेरे पास हर समस्या का समाधान और हर प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए? नहीं है। बल्कि आपके लिए तो अच्छा है, आपको आभारी होना चाहिए कि बेटियाँ कुछ ऐसे सवाल पूछ लेंगी जो आपके मन में कभी उठते ही नहीं।
प्र: जी।
आचार्य: अब उन्होंने एक सवाल पूछ दिया, आपमें भी एक चहक आनी चाहिए, कि अरे वाह, ये बात तो हमने कभी सोची ही नहीं, चलो खोजते हैं कि बात क्या है। उनके साथ खोजिए।
प्र: जी, प्रयास कर लेती हूँ मैं ।
आचार्य: बस यही करना है; इसमें अपने भीतर श्रेष्ठता का भाव नहीं आने देना है। आपकी ज़िम्मेदारी है सत्यनिष्ठा, आपकी ज़िम्मेदारी ये नहीं है कि आपके पास सारे उत्तर हों।
प्र: जी।
आचार्य: आपको सत्य का ज्ञानी होने की ज़रूरत नहीं है, आपको सत्य के प्रति निष्ठा की ज़रूरत है; ये दो अलग-अलग बातें हैं।
हमें ये बताया गया है कि माँ-बाप तो बहुत, बहुत ऊँचे होते हैं, तो बच्चे यदि कुछ पूछें तो माँ-बाप की मर्यादा इसमें है कि वो तत्काल जवाब दे दें; और वो बात घातक हो जाती है, क्योंकि फिर हम जवाब तब भी देने लग जाते हैं जब हमें जवाब पता नहीं होता। ‘बच्चे ने कुछ पूछा है, हम कैसे कह दें कि हमें मालूम नहीं?’ तो हम नाहक कुछ भी उत्तर दे देते हैं, और उन उत्तरों से बच्चे का कोई भला नहीं होता; हमारा भी नहीं होता।
तो जैसे बच्चे जिज्ञासु बनकर आपसे प्रश्न कर रहे हैं, वैसे ही आप भी जिज्ञासु बनकर उन्हीं के साथ प्रश्नों को खोजें, अन्वेषित करें, थोड़ी खुदाई करें। इससे दो लाभ साफ़ दिख रहे हैं — पहली बात, कहीं कोई झूठ, फ़रेब इत्यादि नहीं होगा, चीज़ सत्यनिष्ठ, माने ईमानदार रहेगी; और दूसरी बात, समाधान मिले-न-मिले, आप बच्चियों को खोजना सिखा देंगी। और खोजना कहीं ज़्यादा ज़रूरी है पाने से, क्योंकि अंततः पाया तो क्या ही जा सकता है! पाने को कुछ नहीं है, असली चीज़ है कि खोज में सच्चाई हो। तो बच्चियों के मन में कोई प्रश्न उठा है, उन्हें एक प्रक्रिया सिखाइए कि ईमानदार खोज कैसे की जाती है और झूठी खोज क्या चीज़ होती है। झूठी खोज के कुछ लक्षण उनको बताइए, कि जब साफ़ पता न हो लेकिन काम बचाने के लिए ये बोलने का जी करे कि मुझे तो पता है, अरे वाह, पता है, हो गया, तो ये झूठी खोज का लक्षण है।
जब खोज इस दृष्टि से की जाए कि खोज में कुछ भी ऐसा सामने नहीं आना चाहिए जो मेरी पूर्ववर्ती धारणाओं को तोड़ता हो, तो ये झूठी खोज है; फिर ये खोज नहीं है, ये तो ख़ुद को, अपने अहंकार को, अपने झूठ को बनाए रखने का प्रपंच-मात्र है न?
और आप जब बच्चियों के साथ मिलकर के खोजेंगी, तो इस तरीक़े के मन के सब प्रपंच सामने आएँगे। क्योंकि कोई भी प्रश्न अगर वाकई आपको हल करना है पूरी तरह से उसके मूल में जाकर, तो एक बिंदु ऐसा आना-ही-आना है जब आपको अपने पूर्ववर्ती ज्ञान को — वो ज्ञान जो आप पहले से ही मन में बैठाए हुए हैं — अपने पूर्ववर्ती ज्ञान को तोड़ना ही पड़ेगा। तो खोज की प्रक्रिया में अपनेआप को ही चुनौती देनी पड़ती है, अपने अहंकार को तोड़ना पड़ता है; ये सिखाइए बच्चियों को।
जिसने जीवन में खोजना सीख लिया, पूछना सीख लिया, वो जीवनमुक्त हो जाता है। अन्यथा हम बड़े हो जाते हैं और या तो हमें प्रश्न उठते नहीं या हमारे पास प्रश्नों के झूठे जवाब होते हैं। जीवन चाहता भी है यदि कि सच्चाई हमारे सामने लेकर आए, तो हम सच्चाई से मुँह मोड़े रहते हैं, क्योंकि झूठे जवाबों में हम पूरी तरह निवेशित हो चुके होते हैं।
ये झूठ का बड़ा नुकसान है — झूठ के साथ आप जितना जी लोगे, उतना मुश्किल हो जाएगा झूठ को छोड़ना, क्योंकि उसके साथ बहुत जी लिए न? उसी को खा लिया, पी लिया, पहन लिया, उसी से सम्बन्ध बना लिया, उसी से अपनी पहचान जोड़ ली; श्रम कर लिया बहुत झूठ के साथ, बहुत दिनों तक उससे नाता बना लिया। फिर डर लगता है, और आलस आता है, कि कौन नयी शुरुआत करे; ये नहीं होने देना है। तो झूठ के साथ नाता ही न बनने पाए।
बच्चियों का मन ऐसा रखिए कि वो हमेशा खोजती रहें, पूछती रहें। और इस प्रक्रिया में यदि आप पाएँ कि आपके पास उनके अधिकांश सवालों के उत्तर होते ही नहीं हैं, तो ये कोई लज्जा की बात नहीं है। किसी ने आपके ऊपर ये ज़िम्मेदारी नहीं रख दी है कि आप माँ हैं तो आपको सर्वज्ञ होना चाहिए; न आपको सर्वज्ञ होना है, न मर्मज्ञ होना है, आपको बस सत्यनिष्ठ होना है।
‘मुझे पता नहीं, बेटी, पर जैसे तुम तलाशोगी, मैं भी तुम्हारे साथ तालाश सकती हूँ। हॉं, तलाशने की प्रक्रिया में तुम्हारी उँगली पकड़कर तुमसे थोड़ा आगे-आगे चल सकती हूँ, लेकिन हूँ मैं भी तुम्हारी तरह एक पथिक ही।‘
ऐसे में अब मुझे एक अतिरिक्त लाभ और दिखाई दे रहा है, बच्चियों को ये भी समझ में आएगा कि कोई नहीं होता ज्ञान का भंडार, सभी को तलाशना ही पड़ता है; पथ पर, खोज के पथ पर सभी को पथिक ही होना पड़ता है। तो फिर वो जीवन-भर किसी को भी कोई आखिरी ज्ञानी नहीं मान लेंगी। हॉं, खोज की प्रक्रिया में उन्हें जहॉं से भी सहायता मिलती होगी, सहायता ले लेंगी, लेकिन ऐसा भाव वो मन में नहीं लाएँगी कि किसी भी एक व्यक्ति-विशेष ने, या पुस्तक ने, शिक्षक ने या गुरु ने कुछ कह दिया तो वो बात अंतिम है; और न वो ये भाव लाएँगी कि हमारे मन ने जो कह दिया, हमारी धारणाओं ने जो कह दिया वो बात अंतिम है।
कोई बात अंतिम नहीं है, रास्ता-भर है, मंज़िल नहीं है। रास्ते पर तब तक चलते रहना है जब तक जीवन है, कोई अंतिम बिंदु नहीं है जहॉं पर रुकना होगा। ऐसी कोई आशा पालने की भी ज़रूरत नहीं है कि एक दिन ऐसा आएगा जब सारे द्वार-दरवाजे खुल जाएँगे, सदा के लिए मद, मोह, अहंकार मिट जाएँगे; कुछ नहीं! जीवन का आनंद ही लगातार उससे संघर्ष करने में है जो आपको लगातार बंधन में डालने को आतुर है; उसकी आतुरता तब तक रहनी है जब तक आपकी साँस रहनी है।
जब तक आपकी साँस चलती रहनी है, तब तक कोई है जो लगातार आपको बंधन में डालने को आतुर रहना है; तो अगर उसे लगातार अपनी आतुरता दिखानी है, तो आपको भी लगातार अपना संघर्ष दिखाते रहना है। ये भाव, ये रवैया स्थापित करें बच्चियों के भीतर, कि जानने का कभी अंत नहीं होना है, जीवन ही ज्ञान की लंबी यात्रा-मात्र है।
फिर वो पढ़ाई भी ऐसे नहीं करेंगी कि परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो काम हो गया, या अब तो स्कूल से बाहर आ गए, अब क्यों जानना है, समझना है, अब क्यों किताबों के पास जाना है। उनके भीतर ये भाव आ जाएगा कि स्कूल हो ना हो, कॉलेज हो ना हो, चाहे पचास डिग्रियाँ ले ली हों और चाहे पचास की उम्र हो गई हो, लेकिन खोज तो निरंतर जारी रहनी है जिस दिन तक साँस चल रही है। जिज्ञासा का भाव उस क्षण भी होना चाहिए जिस क्षण आप अपनी अंतिम साँस लेने वाले हैं।
जीवन या तो गंगा की तरह एक प्रवाह होगा, और नहीं तो थम गया तो दूषित, रुके हुए पानी जैसा हो जाना है। नदियाँ ही बह रही होती हैं, बरसात में वो बाढ़ लेती हैं थोड़ी। जब वो बाढ़ लेती हैं तो फैल जाती हैं, और जब फैल जाती हैं तो उनका प्रवाह थोड़ा और दूर-दूर तक चला जाता है। फिर बरसात बीतती है तो नदियाँ वापस अपने पुराने तटों में आ जाती हैं, और जो उधर पानी बहा होता है वो उधर ही कैद होकर के रह जाता है। देखा है कभी? और फिर क्या होता है उस पानी का? वो सड़ता है।
“बहता पानी निर्मला, बँधा गंदा होय।“
तो बहते पानी जैसे रहना है, कोई अंत नहीं है। गंगा को तो फिर भी सागर मिल जाता है, जीवन को तो निरंतर बहते रहना है। पूछने में कोई शर्म नहीं है, न जानने में कोई क्षुद्रता नहीं है; लज्जा है न जानते हुए भी जानने का ढोंग करने में, क्षुद्रता है जब जानने की जिज्ञासा ही न हो।
ठीक है?
अभी तो बेटियाँ हैं, फिर पोतियाँ भी हो सकती हैं। दादी भी हो जाएँ तो भी बिलकुल बेझिझक स्वीकार कर लीजिएगा कि बेटा हमको नहीं पता, लेकिन अब तुमने सवाल उठा दिया है तो हम भी उत्सुक हैं, हम जानना चाहते हैं, चलो पता करते हैं।