बच्चे पैदा करने का जुनून ।। आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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बच्चे पैदा करने का जुनून ।। आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे हमें पता है कि दुख है जीवन में, जिंदगी हमारी दुख में ही बीतती है। तो फिर आचार्य जी, लोग बच्चे पैदाकर के उन्हें ऐसी जिंदगी जीने के लिए क्यों विवश करते हैं?

जैसे हम देखते हैं कि कोई मजदूर आदमी है, वह दिनभर मजदूरी करता है और उसको आगे भी पता है कि हमारे पास इतने संसाधन नहीं हैं कि हम अपने बच्चों को कुछ दे पाएँगे, उनकी शिक्षा अच्छी कर पाएँगे, फिर भी उनके तीन-तीन, चार-चार बच्चे रहते हैं। तो कहीं-न-कहीं उनके बच्चों की भी फिर मजबूरी हो जाती है कि वो भी पूरी मजदूरी वाली जिंदगी जिएँ और ऐसे छोटे-मोटे काम करके अपना जीवन यापन करें। सर, इसी बारे में मैं थोड़ी सी स्पष्टता चाहता हूँ।

आचार्य प्रशांत: जिसे प्रेम आता है न, वह सबसे पहले स्वयं से प्रेम करता है फिर वह दूसरों से प्रेम करता है। जो स्वयं से ही प्रेम नहीं कर सकता, वह दूसरों से नहीं कर पाएगा। जो स्वयं से प्रेम करने वाला मन होगा, वह अपनी हालत बहुत ख़राब, बहुत दिन तक रहने नहीं देगा।

देखिए! जो लोग शोषित हैं, उत्पीड़ित हैं और इस वजह से गरीब हैं, उनके साथ मुझे पूरी सहानुभूति रहती है। लेकिन आप यह भी समझिये कि आज के समय में अगर कोई व्यक्ति आर्थिक सीढ़ी के बिलकुल आखिरी पायदान पर है, सबसे निचले, तो उसकी वजह सिर्फ़ यही नहीं हो सकती कि समाज ने उसका शोषण किया या उसे पर्याप्त आर्थिक अवसर नहीं मिले। इसकी वजह यह भी होती है कि उस व्यक्ति के भीतर ऐसा कुछ है, जो उसे आर्थिक रूप से बेहतर नहीं होने दे रहा।

उसके भीतर ऐसा क्या है? उसके भीतर ऐसा है, आत्म-प्रेम का अभाव। वह व्यक्ति अपना ही भला नहीं चाह रहा है। आप अपना भला अगर चाहते हो तो यह तो हो सकता है कि आप ख़राब परिस्थितियों में शुरुआत करें, लेकिन यह नहीं हो पाएगा कि आप दस साल, बीस साल बाद भी ख़राब परिस्थितियों में ही पाए जा रहे हैं। जो व्यक्ति अपना ही भला नहीं चाहता, वह अपने बच्चे का भला क्या चाहेगा? जिस व्यक्ति में अपने ही प्रति एक तरह की क्रूरता है, वह अपने बच्चों के प्रति भी क्रूर रहेगा।

वह सोचेगा ही नहीं कि जब मेरी हालत इतनी ख़राब है तो मैं चार बच्चे क्यों पैदा कर रहा हूँ। यह क्रूरता ही है न? मैंने एक बार कहा था कि किसी की जान लेना जितना बड़ा अपराध है, अगर ग़ौर से देखोगे तो किसी को जान देना शायद उससे बड़ा अपराध हो सकता है। किसी को मृत्यु देना जितना बड़ा अपराध है, किसी को जन्म देना उससे ज़्यादा बड़ा अपराध हो सकता है। लेकिन यह बात हमें समझ में ही नहीं आती।

कोई किसी को मार दे, हम कहेंगे ‘अपराधी’। कोई किसी को जन्म दे दे, हमें दिखाई ही नहीं पड़ता कि इसने कितना बड़ा अपराध कर दिया। तूने जन्म दिया क्यों? तुम वाक़ई जन्म देने की हालत में हो? शारीरिक रूप से, आर्थिक रूप से, मानसिक रूप से, बौद्धिक रूप से, आध्यात्मिक रूप से, तुम इस लायक हो कि तुम जन्म दो किसी को? लेकिन नहीं, जन्म हम वैसे ही दे देते हैं जैसे जानवर जन्म देते हैं।

खरगोश कुछ महीने का हो जाता है, वह बच्चे पैदा कर देता है। सिर्फ़ कुछ महीने का खरगोश बच्चे पैदा कर देता है। यही बात कई अन्य पशुओं के साथ भी लागू होती है, वह एक साल के होने से पहले ही बच्चे पैदा करना शुरू कर देते हैं। पशुओं पर ठीक है, पशुओं का संचालन तो प्रकृति करती है। तो उनके अगर शरीर में यह भाव है कि अब प्रजनन करना चाहिए तो वह प्रजनन कर देंगे। मनुष्य को तो चेतना से संचालित होना चाहिए न, या आप अब भी यह कहेंगे कि अब अगर हम जवान हो गए हैं तो बच्चे तो पैदा करेंगे? यह बिलकुल ऑटोमेटिक (स्वचालित) बात है क्या?

पुरुष कहे, ‘मुझे वीर्य बनने लग गया,’ स्त्री कहे कि अंडाणु आने लग गए, तो अब तो बच्चे होंगे। ये केमिकल रिएक्शन (रासायनिक प्रतिक्रिया) है क्या कि अब यहाँ ये हो गया, यहाँ ये हो गया, तो अब रिएक्शन भी होगा ही? ’ए’ प्लस ‘बी’ बराबर ’सी’ ? या इसमें सोच, समझ, विचार, चेतना के लिए जगह होनी चाहिए? पूछ रहा हूँ। जानवरों जैसी चीज़ है, रसायनों जैसी चीज़ है या इसमें समझदारी का भी कोई स्थान होना चाहिए?

लेकिन हमारे लिए यह हरकत या जानवरों जैसी होती है, या केमिकल्स जैसी होती है कि दो केमिकल मिले नहीं कि तीसरा पैदा हो जाता है। कि जानवर एक उम्र का हुआ नहीं कि बच्चा पैदा कर देता है, कि पौधा एक अवस्था पर पहुँचा नहीं कि उसमें फल या फूल लग जाते हैं। वही हालत इंसानों ने अपनी कर रखी है कि अब इतनी उम्र के हो गए तो बच्चा तो होगा। बच्चा तो होगा, यह तो प्राकृतिक बात है न।

अरे! बच्चा मल-मूत्र जैसा है क्या कि अब सुबह हो गई है तो होगा? वह एक चैतन्य जीव है, वह पदार्थ नहीं है। हिम्मत कैसे हो जाती है बच्चा पैदा करने की, बिना अपनी शक्ल देखे? मुँह देखो अपना! तुम खुद अभी बच्चे जैसे हो।

और प्रकृति ने भी ज़बरदस्त इंतजाम किया है, बच्चा पैदा करने की सबसे ज़्यादा ललक बच्चों को ही होती है। तो प्रकृति ऐसा कर देती है कि इससे पहले कि यह बड़ा हो, इसको बाप बना दो। आप ग़ौर से देखिए, आप सौ साल जीते हैं लेकिन संतानोत्पत्ति का आपका जो काल है, वह पंद्रह से लेकर के चालीस के बीच में है, शुरू में ही। एकदम शुरू में ही आप पैदा कर देते हैं, क्योंकि अगर आपकी उम्र थोड़ी बढ़ने लगी तो आप यहॉं से जान जाओगे कि यह मामला गड़बड़ है। इससे पहले कि समझदारी आये, खट से पैदा कर दो। प्रकृति ने ऐसा प्रबंध कर रखा है।

अब तो फिर भी नियम हो गया है अठारह साल, इक्कीस साल; पहले तो तेराह-चौदह साल में लड़कियाँ बच्चा पैदा कर रही हैं। अभी वह गुड्डे-गुड़िया खेल रही है, वह कुछ नहीं जानती; और प्रकृति मुस्कुरा रही है, ‘यही तो मैं चाहती हूँ। इससे पहले कि ये कुछ जाने, इसको माँ बना दो क्योंकि अगर जान गई तो शायद माँ बनेगी नहीं। ज़ल्दी से इसको माँ बना दो।’

भई ऐसा क्यों नहीं हो सकता था प्राकृतिक व्यवस्था में कि हममें यौन परिपक्वता चालीस की उम्र के बाद आती? सोचिए! ऐसा भी तो हो सकता था कि अगर सौ साल जीना है, तो प्रजनन की अवधि शुरू ही होती पैंतीस से और चलती पचपन तक। ऐसा हो सकता है न कि बीचो-बीच होती? प्रकृति ने बीचो-बीच नहीं रखा, उसने आरंभ में ही रख दिया। क्योंकि अगर बीचो-बीच रख देती तो लोग पैदा करते नहीं, क्योंकि पैंतीस-पचास का होते-होते थोड़ा समझ विकसित हो जाती है। आप जान जाते हो कि ये ग़लत कर रहा हूँ, अन्याय कर रहा हूँ, अत्याचार कर रहा हूँ तो सारा खेला जल्दी निपटा दिया जाता है।

जब तक आपकी आँख खुलती है जिंदगी में, आप पाते हो कि एक इधर काँव-काँव कर रहा है, एक इधर बाऊँ-बाऊँ कर रहा है। और अभी आपकी आँख खुली, पैंतीस साल की हुई हैं देवी जी, उन्हें समझ में आ रही है जिंदगी। थोड़ी-थोड़ी समझ में आनी शुरू हुई है पैंतीस की उम्र में, तब तक दो-तीन बच्चे बाँध लिए हैं; अब बाँधे रहो। फिर आती हैं देवीयाँ, पूछती हैं, अब इनका क्या करें आचार्य जी?

इनका तो मैं क्या बताऊँ अब? (अचंभित होते हुए) अप्पन आज़ाद हैं भाई, तुम्हारी तुम जानो!

यह दसवीं-बारहवीं के निब्बे-निब्बी बात कर रहे होते हैं, 'पहली ललकी चाहिए कि ललका।' वह तुतला रही है, बारह-बारह साल वालियाँ, आजकल यह फ़ैड (प्रियसिद्धांत) है। बिस्तर गिला करते हैं, चड्डी में पेशाब करते हैं अभी, इन्हें बाप बनना है। क्यों?

वह जो सामने है न तुम्हारे, जिसको तुम बच्चा बोलते हो, वह बच्चा नहीं है, वह एक व्यक्ति है। होश में आओ! वह एक व्यक्ति है, पहले अपनेआप को इस लायक बनाओ कि एक दूसरे व्यक्ति की समुचित परवरिश कर सको, यह मज़ाक नहीं है। वह खड़ा होगा कल को, इंसान बनेगा, वह जवाब माँगेगा; क्या जवाब दोगे?

और इसलिए यह होता है कि जिन समाजों में अशिक्षा और गरीबी बहुत होती है, वहॉं पर गर्भधारण की दर सबसे ज़्यादा होती है। व्यक्ति जितना अशिक्षित, जितना अनपढ़ और जितना गरीब, वह उतना ज़्यादा बच्चे पैदा करता है। बच्चा खिलौना नहीं होता, महिलाओं से विशेषकर कह रहा हूँ, बड़ी ललक रहती है (गोद में बच्चे को खिलाने का अभिनय करते हुए)। वह गुड़िया नहीं है, वह एक व्यक्ति है। मज़ा बहुत आता है न? उसको ऐसे, रुई के फाहे जैसा तो होता है, उसको गुदगुदी करो, एकदम डॉल है, घर में डॉल आई है, दो-तीन साल का मनोरंजन।

एक जागृत समाज होगा तो उसमें वाकई अभिभावक बनने का आपको लाइसेंस लेना पड़ेगा। क्योंकि यह बात आप दो व्यक्तियों की नहीं हैं, माँ और बाप की; उसमें एक तीसरा व्यक्ति भी शामिल है, उसके अधिकारों की बात है। अगर आप दोनों इस लायक नहीं हो कि बच्चे पैदा कर सको, तो आप उस तीसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन करोगे। हॉं या न? दो लोग जिनको अभी इतनी मानसिक परिपक्वता नहीं है कि वह माँ-बाप बनें, अगर वह माँ-बाप बन जाते हैं तो इसमें सबसे बड़ा नुक़सान किसका है? उस तीसरे व्यक्ति का है। है कि नहीं?

तो उस तीसरे व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा की ख़ातिर, लाइसेंस देना ज़रूरी है। बिना लाइसेंस के माँ-बाप मत बनो। एक विभाग होगा, एक ब्यूरो होगा जो आपकी मानसिक परिपक्वता की जाँच करेगा। और आप एक स्तर के पाए जाओगे तभी आपको अनुज्ञा होगी कि हॉं अब जाओ और पैदा करो।

बात आपके अधिकारों के हनन की नहीं है, बात बच्चे के अधिकारों की रक्षा की है। नहीं तो सोचो, उसका कितना शोषण होगा? वह कितना निहत्था, कितना निरूपाय, कितना असहाय है वह बच्चा। है कि नहीं? और दो मूर्ख लोग दिनभर उसके ऊपर चढ़े हुए हैं। कुछ नहीं कर सकता वह, हाथ-पाँव भी नहीं चला सकता, वह अभी कुछ महीने का है, एक साल का है, वह क्या कर लेगा? उससे ज़्यादा असहाय अवस्था किसी की हो सकती है? आप उसका दुख समझिए बच्चे का, जिसको ग़लत माँ-बाप मिल गए हैं। उससे ज़्यादा शोषण किसी का हो सकता है? और वह शोषण एक-दो साल नहीं चलेगा, वह दसियों साल चलेगा।

हमें इस शोषण को रोकना चाहिए या नहीं? और यह बच्चा जो घर में ही शोषित है, क्योंकि उसके माँ-बाप अनाड़ी हैं, ये बाहर निकलकर समाज के लिए कैसा बनेगा? तो यह बस क्या किसी की व्यक्तिगत बात है, या यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा है? बोलिए!

श्रोतागण: सामाजिक मुद्दा।

आचार्य: तो हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि साहब आप हमारे व्यक्तिगत मसले में दखल क्यों दे रहे हैं? मैं पुरुष ये स्त्री, हम बच्चा करेंगे या नहीं, यह तो हम दोनों के बीच की व्यक्तिगत बात है न? नहीं, व्यक्तिगत बात नहीं है। वह बच्चा ऐसा थोड़ी है कि उम्र भर आपके ही घर में रहना है, वह बच्चा सामाजिक जीव है, वह बच्चा बाहर निकलेगा, समाज में आएगा और आपने उसे ग़लत परवरिश दी है, तो वह पूरे समाज के प्रति अपराध करेगा।

मास्क पहनोगे या नहीं पहनोगे, यह आपका व्यक्तिगत मसला होता है क्या? आप कुछ ग़लत करोगे तो बीमार कौन पड़ेगा? पड़ोसी। ठीक इसी तरह आपने बच्चे की ग़लत परवरिश करी है, तो पूरे समाज पर प्रभाव पड़ेगा। पड़ेगा या नहीं? लेकिन नहीं, हमने इस चीज़ को सबसे हल्की चीज़ समझ रखा है।

छोटी-से-छोटी चीज़ के लिए हम बना देते हैं कि अनुमति होनी चाहिए। सड़क पार करनी है या नहीं करनी है, इसके लिए भी रेड लाइट (लाल बत्ती) होती है; पर जन्म देना है, नहीं देना है, इसके लिए सड़क खुल्ली है, हाईवे है, जितना चलाना है, चलाओ!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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