आचार्य प्रशांत : पूरी प्रकृति में आदमी अकेला है जो भटक गया है। और सब जितने भी हैं, वो अपने घर में हैं। वो वहीं हैं, जहाँ उन्हें होना था। वो अपने घर से कभी बाहर निकले ही नहीं।
चारों और देखोगे तो पाओगे कि हर तरफ एक निर्विकल्पता है। अगर सतही तौर पर देखोगे तो निर्विकल्पता बस इतनी सी है कि आदमी के अलावा और कुछ भी सोचता नहीं है। कुछ पाने के लिए आतुर नहीं है, कुछ बन जाना नहीं चाहता। रेत हो चाहे पेड़ हो, चाहे जानवर हो, उसे कुछ बन नहीं जाना है। सतही तौर पर निर्विकल्पता बस इतनी ही दिखाई देगी। क्या? कि कुत्ता पैदा होता है कुत्ता, और कुत्ता ही मर जाता है। कुछ और होने का विकल्प, ऑप्शन , उसके पास होता ही नहीं है। ठीक है?
मैं कह रहा हूँ, ये बात सिर्फ सतही है। गलत नहीं है, सतही है।
बात असली ये है, कि इस निर्विकल्पता के पीछे एक अचिन्तय श्रद्धा है। एक ऐसी श्रद्धा जिसको सोचा भी नहीं गया, पर है। ये निर्विकल्पता यूँ ही नहीं आ गयी है, अनायास नहीं है, इत्तफाकन नहीं है। कुत्ता यदि कुत्ता है, और उसे कुछ और नहीं हो जाना, तो ये बात सांयोगिक नहीं है। लगती सांयोगिक है। आपसे पूछा जाए कि कुत्ते की कोई आकांक्षाएँ क्यों नहीं हैं, कुत्ता कुछ बन क्यों नहीं जाना चाहता, कुत्ता कुछ अर्जित क्यों नहीं कर लेना चाहता? तो आप कहोगे कि वो इसीलिए है क्योंकि कुत्ते के पास दिमाग ही नहीं है। क्योंकि उसके पास दिमाग नहीं है, तो वो अपने कुत्ते होने से ही संतुष्ट है। उसको बस दो जून की रोटी मिलती रहे, उसका काम चलता रहेगा। उसे, और कुछ नहीं चाहिए।
मैं कह रहा हूँ, बात इससे कहीं आगे की है। दिखती इतनी सी है कि कुत्ते को कुछ चाहिए नहीं। सच तो ये है कि इसके पीछे एक गहरी से गहरी श्रद्धा है जो पूरी प्रकृति में फैली हुई है। जो उस आदमी को उपलब्ध नहीं है, बाकी हर जगह है। आम दृष्टि कहेगी, “कुत्ते के पास दिमाग नहीं है इसीलिए श्रद्धा है। और मैं कह रहा हूँ अभी कि कुत्ता हो या पेड़-पौधा हो, उनकी रग रग में श्रद्धा ही बहती है। वो कोई सोची विचारी श्रद्धा नहीं है। वो तर्क विचार से आई हुई श्रद्धा नहीं है, वो बस है। एक सुकून है, जैसे कोई बच्चा अपनी माँ की गोद में हो। एक शान्ति है, जैसे कुछ छिन नहीं जाना है, कुछ पा नहीं लेना है। एक स्थिरता है, स्थायित्व है, जैसे कि तुम अपने ही घर में हो। और ये प्रकृति में सबको उपलब्ध है।
किसके अलावा?
इंसान के अलावा।
अगर तुम किसी जानवर को बहुत तकलीफ दे दो तो अलग बात है, वरना तुम उसकी आँखों में झाँक कर देखो, तुम्हें शान्ति दिखाई देगी। वो अपने घर में है। तुम चिड़ियों की चहचहाहट सुनो, इसमें तुम्हें सुकून सुनाई देगा। ये सुकून, अनायास नहीं आ सकता। अगर विज्ञान हमें ये बताए, अगर प्राणीशास्त्री हमें ये बताएँ कि ये तो बस इनके संस्कार हैं, ये हैं ही ऐसे, इनकी कंडीशनिंग ऐसी है, तो वो पागल हैं, वो बात को समझ ही नहीं पा रहे हैं। सच तो ये है कि वो चिड़िया, और कुत्ते, और पेड़, और नदियाँ, और रेत, कोई ऐसा राज़ जानते हैं, जो इंसान को नहीं पता। और इसी कारण उन्हें शान्ति उपलब्ध है, इसी कारण उन्हें सुकून उपलब्ध है। हमारा बड़ा मूर्खतापूर्ण अहंकार है कि हम सोचते हैं कि हम उनसे ऊपर हैं।
जो ध्यान से देखेगा तो यही पाएगा कि असली राज़ तो उन्हीं पर खुला हुआ है। असली बात तो उन्हें ही पता है। तो यदि ऊपर कोई है भी तो कौन है? हम कि वो?
तुम जानवरों को यदि कृत्रिम परिस्थितियों में न रखो, तो नहीं पाओगे कि वो गहरे तनाव में हैं। कम से कम लम्बे समय तक गहरे तनाव में नहीं हो सकते। अवसाद में, डिप्रेशन में नहीं चले जाते। आत्महत्या नहीं करते, बलात्कार नहीं करते। एक सहज शान्ति उपलब्ध है उनको। जो इंसान को बिलकुल नहीं है। निश्चित रूप से, कुछ ऐसा है, पूरी कायनात में जिससे इंसान दूर हो गया है। बाकी सबको मिला हुआ है। उसी को मैं कह रहा हूँ, कि वो एक निर्विकल्प श्रद्धा है जो उपलब्ध है, कुत्तों तक को। बात समझ रहे हैं?
जैसे कि बहुत पहले उसने तय ही कर लिया हो कि सब ठीक है, और अब आगे मैं कभी कुछ सोचूंगा ही नहीं। और चूंकि अब उसने तय ही कर लिया है कि आगे मुझे कुछ सोचना ही नहीं है कि सब ठीक है, मैं अपने घर में हूँ, मैं पिता की गोद में हूँ, तो वो सोचता नहीं है इस कारण, और उसके न सोचने को हम उसकी हीनता समझ लेते हैं। हम समझते हैं कि उसमें कोई खोट है जो उसे सोचना नहीं पड़ता। सही बात तो ये है कि उसको समाधान मिल गया है, वो क्यों सोचे?
सोचना तो समस्या का प्रतीक है। यदि आपको सोचना पड़ रहा है बार बार, तो इसका अर्थ यही है कि आप समस्याग्रस्त हो। कोई उलझन है आपके सामने। यदि कोई उलझन हो ही ना, तो कोई सोचेगा क्यों? विज्ञान आपसे बोलेगा, “वो इसलिए नहीं सोचता क्योंकि उसके पास दिमाग नहीं है।” मैं कह रहा हूँ, “वो इसीलिए नहीं सोचता क्योंकि उसके पास कोई समस्या ही नहीं है। करेगा क्या सोच सोच के? पर ये इंसान का बड़ा फितूर है कि उसने सोच लिया है कि सोचना बड़ी बात है। सोच लिया है कि सोचना बड़ी बात है। और उसने सोच लिया है कि जो जितना सोचे वो उतना?
श्रोता : बड़ा है।
आचार्य जी : तो जो सोच न पाए वो? बेवक़ूफ़ है। और ये क्या है? ये तुम्हारी सिर्फ सोच है। ये तुम्हारी सिर्फ सोच है। इस सोच पर हम पूरी दुनिया को तौले जा रहे हैं। अपनी ही बनाई सोच पर हमने सबको नाप लिया है, और अपने आप को सबसे ऊँचा रखा है। मज़ेदार बात है, हम ही ने तय किया है कि पैमाना क्या होगा। और फिर हम ही उस पर घोषणा किये फिरे हैं कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं। क्यों? क्योंकि हम सोचते हैं, क्यों? क्योंकि हम कुछ और हो सकते हैं। हम अपने स्वभाव से दूर जा सकते हैं। हम बदल सकते हैं। समझ रहे हैं?
इसको, उसकी बेवकूफी मत समझ लेना जानवर की। इसमें उसकी बड़ी गहरी समझदारी है। कुछ भी बेवक़ूफ़ नहीं है, सब सबकुछ समझता है। वो जो राज़ है वो सब पर खुला हुआ है, वो राज़ है ही नहीं। कुछ भी बेवक़ूफ़ नहीं है। अगर तुम किसी पशु को, पक्षी को, एक प्रकार का व्यवहार करते हुए देखते हो, और वो तुमको समझ में नहीं आता, वो तुम्हें मूर्खतापूर्ण लगता है, तो वो ‘तुम्हें’ मूर्खतापूर्ण लगता है। भूलना नहीं इस बात को, किसे मूर्खतापूर्ण लगता है? ‘तुम्हें’।
‘तुम्हारे’ लगने से वो मूर्खतापूर्ण हो नहीं गया। उसके पीछे कारण है, वो जो कुछ भी कर रहा है उसके पीछे कारण है। बड़े गहरे कारण हैं। हमारी सोच में समाएँगे नहीं, वो कारण इतने विराट हैं। स्वयं ‘विराट’ ही वो कारण है। बात आ रही है समझ में?
ये पक्षी ऐसे ही नहीं गाते। जो आवाज़ आ रही है चिड़िया की वो फ़ालतू ही नहीं है। वो कुछ अभिव्यक्त कर रही है। क्या? कुछ विशेष नहीं। भाषा नहीं है उसके पास। या ये कह लो कि नियम कायदों में बंधी हुई भाषा नहीं है उसके पास। पर वो जो बता रही है, वो समूचे अस्तित्व की कहानी है। तुमको सुनना नहीं आता, ये अलग बात है। कहानी तो कही जा रही है, हमें सुननी नहीं आती, सो अलग बात है।
उसको बेज़ुबान मत कह देना, उसको बद्दिमाग़ मत कह देना, किसी भी अर्थ में उसको हीन मत समझ लेना, उसको सब पता है। और उसको इतनी गहराई से पता है, कि उसे उस बारे में अब विचार नहीं करना पड़ता। यहाँ तक कि, तुम उससे अगर पूछोगे, कि तुझे क्या पता है? तो वो बता भी नहीं पाएगी कि उसे क्या पता है। क्योंकि उसको जो पता है, वो अब उसकी मांस-मज्जा बन गया है, वो उसके रेशे-रेशे में समा गया है। इतनी गहराई से पता है कि अभिव्यक्ति अब सम्भव ही नहीं रही।
तुम्हें भी जब वास्तव में कुछ पता चल जाएगा, तो अभिव्यक्ति सम्भव ही नहीं रहेगी। क्योंकि तुम्हें पता नहीं होता है, इसीलिए तुम बोल पाते हो कि मुझे पता है। याद रखना तुम अभिव्यक्त उसको ही कर पाओगे जो अभी आधा अधूरा पता है। जब पूरा पता चल जाएगा तो तुम भूल जाओगे कि तुम्हें पता है। जब पूरा जान जाओगे, तब बिलकुल स्मरण नहीं आएगा कि जानते हो। पूरी प्रकृति उसी स्थिति में है। वो इतनी ज़्यादा जानती है, और इतनी गहराई से जानती है, और इतनी क़रीबी से जानती है, कि उसको अब स्मरण भी नहीं है, उसको अब विचार भी नहीं है कि हम जानते हैं।
तुम पूछोगे यदि, ये सामने छोटा सा पौधा है, कि तू क्या जानता है? वो तुमको कुछ बता नहीं पाएगा, शब्दों में नहीं बता पाएगा। हाँ, उसका होना ही पूरी कहानी कह रहा है इस बात की कि उसको क्या पता है। वो संतुष्ट है, वो समाधिस्त है। उसके होने को पढ़ सको तो बिलकुल जान जाओगे कि उसको क्या पता है। उससे भाषा में पूछोगे कि तुझे क्या पता है, वो नहीं बता पाएगा। उसके होने को पढ़ लिया, तो सब स्पष्ट है।
सरल आदमी, सहज आदमी, होने को पढ़ता है। वो अनकहे को सुनता है। बुल्ले शाह वैसे ही लोगों में से हैं। वो प्रकृति के होने को देख रहे हैं, और पा रहे हैं वहाँ पर, एक गहरी तल्लीनता। जिसको श्रद्धा कहना ही उचित होगा। उसे और कुछ कहा भी नहीं जा सकता। समझ रहे हो?
देखो, किन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं बुल्ले शाह? कुत्ते की ही बात कहने के लिए- “खसम अपणे दा, दर ना छडदे, भावे वज्जड़ जुत्ते, तैकों उत्ते।” – अपने खसम का दरवाज़ा छोड़ कर वो कहीं नहीं जाते। खसम को ये मत समझ लेना कि जो कुत्ते का मालिक होता है। कुत्ते का एक ही मालिक है। कुत्ते का तो एक ही मालिक है- कौन? वही। तुम नाहक ही अपने आप को कुत्ते का मालिक बोले रहते हो, “मेरा कुत्ता, मेरा कुत्ता।” तुम दो रोटी डाल देते हो, इससे तुम मालिक नहीं हो गए कुत्ते के! शोषण कर सकते हो उसका, पर मालिक तो एक ही है, पूरी प्रकृति का मालिक तो एक ही है। वही परमपुरुष जो है।
“खसम अपणे दा, दर ना छडदे” – कुत्ता शिकायत नहीं करेगा। उसे चोट भी लग जाएगी तो उसे दर्द हो सकता है, शिकायत का भाव उसमें नहीं उठेगा। जब तक पीड़ा हो रही है, वो उस शारीरिक कष्ट से तड़पेगा। पर बस इतना ही। उसको वो अपनी मानसिक बीमारी नहीं बना लेगा। “खसम अपणे दा, दर ना छडदे” – कुत्ते की भक्ति इतनी गहरी है कि तुम कुछ भी कर लो उसके साथ, वो ये नहीं कहेगा कि धोखा हुआ, वो ये नहीं कहेगा कि मैं क्यों कुत्ता बन के पैदा हुआ?
वही कह रह हैं, “भावे वज्जड़ जुत्ते” – तुम्हीं जूते ना मारो, परिस्थितियाँ ऐसी हों कि उसके साथ खाने को ना मिले, चोट लग जाए, और बहुत कुछ उसे चाहिए ही नहीं होता है। तो यही कोई गिने चुने कष्ट होते हैं जो उसको मिल सकते हैं। बात आ रही है समझ में?
निराशा नहीं उठेगी उस के मन में। अहंकार नहीं है ना। आज नहीं मिला, भूखा रह लेगा। कल मिलेगा, तो ये नहीं कहेगा कि, अरे बीते कल क्यों नहीं दिया था, आज क्यों ले कर के आ गए? आज मिलेगा, नया दिन है, मज़े में खा भी लेगा। और जब कुत्ता ऐसा करता है तो हम कहते हैं, “छिः! जानवर। इसके भीतर कोई आत्मसम्मान नहीं है क्या? फेंकी रोटी भी खा लेता है।” तुम फ़ेंक के देते हो, खा लेता है। तुम कहते हो, जानवर है ना। कुत्ता क्या कह रहा है? कुत्ता कह रहा है, “रोटी कौन सी तुम्हारी है जो तुम फ़ेंक के दे रहे हो! जिसकी रोटी है वो मुझे फ़ेंक के दे या जैसे भी दे मुझे स्वीकार है। क्योंकि वो मेरा है, मुझे प्यार है उससे। तुम्हारी रोटी है भी कहाँ? तुम तो माध्यम हो। तुम्हारे हाथों से आ गयी सो अलग बात है।” ये कुत्ते की समझ है।
तुम क्या सोच रहे हो? तुम सोच रहे हो, “मैं मालिक, मैंने कुत्ते को रोटी फ़ेंक कर के दी। और ये तो बेकार जानवर है, ज़मीन पर पड़ा हुआ भी उठा के खा लेता है।” कुत्ता कह रहा है, “तुम बात समझे ही नहीं। सबको फेंकी हुई ही मिलती है। अर्जित किसने करी है?” कुत्ता तुमसे कह रहा है, “इंसान तू क्या सोच रहा है? तुझे जो रोटी मिलती है, वो तेरी योग्यता से मिलती है? मिलती तो तुझे भी फैंकी हुई है, तू स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि तू घमंडी है। मिलती तो तुझे भी फेंकी हुई ही है। फेंकी के अलावा किसी को और कुछ मिल ही नहीं सकता। तो मुझे क्यों कोई अड़चन हो फेंकी खाने में।”
वो ज़मीन पर पड़ी सब्ज़ी खा लेगा, तुम कहोगे, “ये देखो, इसको ज़रा ख़याल नहीं कि गंदा है। मिट्टी पर पड़ा हुआ खा गया।”
और कुत्ता क्या कह रहा है, “कह रहा है, मिट्टी के अलावा और आज तक किसी ने खाया क्या? तुम पगले हो, कि तुम्हें लगता है, कि तुम सोना-चांदी खा रहे हो। मैं अच्छे से जानता हूँ कि जिसने भी खाया है उसने आज तक मिट्टी ही खाया है। तुम अपने गुरूर में बैठे रहो, कि मैं पकवान खा रहा हूँ। मैं अच्छे से जानता हूँ कि तुम मिट्टी ही खा रहे हो। तो मैंने खा ही ली थोड़ी मिट्टी तो क्या दिक्कत हो गयी?”
कुत्ता ये सब विचार नहीं रहा है। तुम कुत्ते के दिमाग का अगर अध्ययन करोगे तो उसमें तुमको ये सब मिलेगा नहीं। पर इसका मतलब ये मत समझ लेना कि वो जानता नहीं। वो अच्छे से जानता है। जानता न होता तो ऐसे नहीं जी सकता था जैसे वो जी रहा है। बात को समझना। संत उसके शब्दों को नहीं, उसके होने को पढ़ता है। बुल्ले शाह देख रहे हैं कि पूरी प्रकृति चलती कैसे है, वो है क्या? और देखने भर से समझ जा रहे हैं, कह रहे हैं- “ना, ये बातें सांयोगिक नहीं हैं। ये बातें सांयोगिक नहीं हैं।”
तुम देखो ध्यान से, तुम सड़क पर जा रहे हो, तुम अपने आप को इंसान कहते हो, तुम्हारे पास ताकत है, तुम कहते हो “तुम्हारे पास दिमाग है।” एक छोटा सा कुत्ता है, और तुम्हारा दावा है कि उसके पास कुछ नहीं है। और वो मरियल सा है। और तुम देखते हो, तुम्हारे पीछे आ गया है। और पूँछ भी हिला रहा है और तुम्हारे साथ लगा हुआ है। और तुम ज्यों ही उसको पीछे मुड़ कर के देखते हो, तुम्हारा क्या होता है? तुम डर जाते हो। और कुत्ता क्या कर रहा है? वो मज़े ले रहा है, वो पूँछ हिला रहा है, वो तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा है। ये जो इंसान है जो अपने आप को ताकतवर बोलता है, ये उस छोटे से कुत्ते से?
श्रोतागण : डर जाता है।
आचार्य जी: जबकि? उस कुत्ते ने ऐसा कुछ अभी किया नहीं है। और वो जो कुत्ता है, जिसको तुम कहते हो कि पागल है, बेवक़ूफ़ है, वो मज़े में तुम्हारे साथ लगा हुआ है, उसे डर बिलकुल नहीं लग रहा। डर उसे ही नहीं लगता जो ताकतवर होता है, तो ताकतवर कौन हुआ? तुम या वो मरियल सा, छोटा सा कुत्ता?
ध्यान दो!
दो लोगों का आमना सामना हो रहा है, तुम्हारा और उस कुत्ते का। दिखने में ऐसा लगता है कि ताकत तुम्हारे पास है, पर अगर ताकत तुम्हारे पास होती तो तुम डर क्यों जाते? वो मरियल है, तब भी मज़े में है। और पूँछ हिला रहा है, हालांकि वो तुम्हें बिलकुल नहीं जानता। और सही बात तो ये है कि इंसान कुत्ते से कहीं ज़्यादा कटैला होता है। कुत्ता तुम्हारे पीछे लगे, तो आमतौर पर उसमें नुकसान किसका होना है? कुत्ते का ही होना है। क्योंकि इसकी सम्भावना कम ही है कि वो तुम्हें काट लेगा, इसकी सम्भावना कहीं ज़्यादा तुम उसे ज़ोर से पत्थर मार दोगे।
और ऐसा होता है कि नहीं होता है? कुत्ता चाहे काट रहा हो या नहीं काट रहा हो, हम पत्थर मारने को तो हमेशा तैयार हैं। और कुत्ते ने देखा भी है, उसने पत्थर खाये भी हैं। और फिर भी वो तुम्हारे साथ साथ लग लिया है। और पूँछ हिलाये जा रहा है। और ऐसा नहीं कि तुम्हारे पास उसे देने के लिए कुछ है। ऐसा नहीं कि तुम कुछ खाने पीने का सामान ले कर के चल रहे हो। वो फिर भी यूँ ही तुम्हारे साथ लगा हुआ है, और तुम डरे हुए हो। ताकतवर कौन है? कौन ताकतवर है?
श्रोतागण : कुत्ता।
आचार्य प्रसंत: और उसके पास क्या ताकत है? नहीं, वो सोच नहीं सकता। उसके पास उसी श्रद्धा की ताकत है, जिसको बुल्ले शाह कह रहे हैं, “खसम अपने दा घर ना छडदे”। उसने जो ताकत पाई है वो उसकी नहीं है, वो उसके खसम की है, उसके पिता की है।,उसके स्वामी की है। बात समझ में आ रही है? तुम मालिक से दूर हो, वो नहीं दूर है! उसके पास वो ताकत है। उस मरियल सी जान में कुछ नहीं है, पर फिर भी उसके पास बहुत कुछ है। क्योंकि उसके पास उसकी ताकत उपलब्ध है। वो उसको छोड़ के कभी दूर हुआ नहीं। तुम दूर हो गए।
आ रही है बात समझ में?
तुम कहते हो मेरी ताकत इसमें है कि मैं जब चाहूँ इस पेड़ को जाके काट सकता हूँ। तुम्हें कैसे पता कि पेड़ कटने को भी राज़ी नहीं है। तुम कहते हो कि मैं बड़ा काम कर रहा हूँ, कि मैंने जा के उसे काट दिया। तुम्हें कैसे पता कि वो खुद ही नहीं कह रहा है कि ठीक, अब वक़्त आ गया है तो कट भी लेंगे। जैसी उसकी इच्छा, जैसी उसकी मर्ज़ी। मैं फिर कह रहा हूँ, वो इस बात का विचार नहीं करेगा। वो इस बात को कभी शब्दों में अभिव्यक्त नहीं करेगा कि ठीक, परमात्मा, आज आखिरी दिन है, ये कुल्हाड़ी ले के आ रहा है सामने से, अलविदा। वो ये नहीं कहेगा, शब्दों में नहीं कहेगा। पर बात है ऐसी ही। बात बिलकुल ऐसी ही है।
और अगर तुम संतों के करीब जा सको, थोड़ा भी बुल्ले शाह जैसे हो सको, तो जानवरों की आँखें, और पेड़ों का हिलना, ये सब पढ़ पाओगे।
समझ रहे हो?
“बुल्ले शाह, कोई वस्त विहाज ले, नहीं ते बाज़ी ले गए कुत्ते, तैकूं उत्ते।” बाज़ी ले ही गए हैं कुत्ते। ये मत समझना कि बुल्ले शाह व्यंग्य कर रहे हैं। बुल्ले शाह ये नहीं कह रहे हैं कि अरे कुछ कर लो नहीं तो कुत्ते भी तुमसे बेहतर हो जायेंगे। बुल्ले शाह कह रहे हैं, कुत्ते तुमसे बेहतर हैं ही। बाज़ी ले ही गए हैं। तुम कितनी भी कोशिश कर लो, बाज़ी जीत नहीं सकते। हद से हद ये कर सकते हो, कि उनकी बराबरी पर आ जाओ। वो ऊँचे से ऊँचा मुकाम है जो तुम्हें मिल सकता है। तुम उनसे बेहतर कभी नहीं हो पाओगे। जो पहले ही पहुँचा हुआ है, जो पहले ही अपने घर में है, उससे आगे कहाँ निकलोगे? वो है ही वहीं पर जहाँ उसे होना था। उससे बाज़ी अब तुम जीतोगे कैसे? हाँ तुम वैसे ही हो सकते हो। उससे बढ़ कर कुछ नहीं हो सकते। ये बढ़ना ही तुम्हारी बीमारी है। ये बढ़ना ही तुम्हारी बीमारी है।
बुल्ले शाह कह रहे हैं, कि वो जो परम वस्तु है, उसको पा लो। वो कौन सी परम वस्तु है? वो वही परम वस्तु है, वो वही चीज़ है, जो सबको ही मिली हुई है, जो सभी के रेशे रेशे में समायी है। जो हर इंसान का, हर चीज़ का मूल तत्व है। तुम्हारा भी है, पेड़ पौधों का, पशुओं का ही नहीं है, तुम्हारा भी है। पर तुम उसे भूले बैठे हो! और भूले क्यों बैठे हो? क्योंकि स्मरण का तुम एक ही तरीका जानते हो, विचार!
जब कहूँगा मैं कि तुम भूले बैठे हो, तो तुम क्या कोशिश करते हो? कि याद करूँ! और ये याद करना क्या है? कि सोचूँ। तुम समरण करने का मात्र एक ही तरीका जानते हो, स्मृति। स्मरण का जो दूसरा तरीका होता है, जो एकमात्र वास्तविक तरीका होता है, वो हम जानते नहीं, वो कौन सा होता है? वो तरीका होता है ध्यान का। वो होता है, भक्ति का, बोध का। उसमें पता नहीं कहाँ से सब याद आ जाता है। जो न देखा न सुना न पढ़ा, वो याद आ जाता है। और तुम कहोगे, ये कहाँ से पता चल गया, आज से पहले तो किसी ने बताया भी नहीं था, मुझे कहाँ से पता चल गया? ये होता है, उस शून्य अवस्था में, जिसको ध्यान से पहुँचा जा सकता है, जिसको भक्ति से भी पहुँचा जा सकता है। अचानक सारे राज़ खुल जाते हैं। और तुमने किसी से सुना नहीं है, इन्द्रियों से कोई अनुभूति नहीं हुई है। पर सब पता चल गया है। और ऐसा पता चला है कि तुम्हें उसमें पूरा पूरा विश्वास है।
अब कोई तुमसे कहे कि न, ये तुम्हें बस लग रहा है, ऐसा है नहीं। तुम कहोगे “न, पक्का पता चल गया है। कैसे पता चल गया है? ये मत पूछना। पर पता चल गया है। नदी ने बता दिया, चुपचाप बैठे थे बस यूँ ही जान गए। आसमान से उतरी कोई बात, और हमें पता चल गयी। कहाँ से आयी, ये मत पूछो, कैसे पता चला बताने का कोई तरीका नहीं। लेकिन जान गए हैं।” वो पूछे, “अच्छा ठीक है, अब इतना तो बता दो कि क्या जान गए हो?” तुम ये भी नहीं बता पाओगे कि क्या जान गए हो? बस इतना कह पाओगे कि बड़ा सुकून है। ये भाव ही नहीं है कि मैं अज्ञानी हूँ, नहीं जानता, तो जान ही गया हूँगा। क्या जान गया हूँ, ये नहीं पता, पर जान ही गया हूँगा। जैसे कि कभी सो कर के उठो, और घड़ी पास न हो, तो तुम्हें पता ना चले कि कितने घंटे सोए। लेकिन बड़ा ताज़ा ताज़ा अनुभव कर रहे हो, कोई पूछे, कितना सोए? तो बता नहीं पा रहे। पर यही कहोगे, कि जितना भी सोया हूँगा, काफी ही होगा, क्योंकि हल्का है मन, शांत हूँ, ताज़ा हूँ। समझ रहे हो बात को?
ऐसे वो उपलब्ध हो जाता है।
देखो, भारत ने इस बात को हमेशा से जाना है। मैं श्रीमद्भागवद का ग्यारहवाँ अध्याय देख रहा था, बड़ी उसमें मज़ेदार बात थी। बुल्ले शाह ने याद दिला दी उसकी। वो कहता है वहाँ पर, कि ऐसे हो जाओ, कि सारे शास्त्रों को पढ़ने के बाद भी पशु जैसे रहो। तब तो तुमने कुछ पाया। ऐसे हो जाओ, कि सारा ज्ञान अर्जित करने के बाद भी, तुम्हारी दशा पागल जैसी रहे। तब तो तुमने कुछ पाया। और जिसने भी जाना है उसने यही कहा है कि ऐसे हो जाओ, कि सब समझ में आ गया, सब जान लिया सब पढ़ लिया, और ये सब जानने पढ़ने का नतीजा क्या हुआ? मैं बिलकुल पशुवत हो गया। तब तो तुमने कुछ पाया। और वही बात बुल्ले शाह कह रहे हैं। समझ रहे हो? ज्ञान तुमको संस्कार ना दे दे, मैं दुआ करता हूँ तुम सबके लिए कि ज्ञान तुम्हें कुत्ता बना दे।
(श्रोतागण हँसते हैं)
तब तो कुछ मिला है। कुत्ते की तरह हो जाओ। जिसको कह रहे हैं बुल्ले शाह कि इधर भौंकते, उधर भौंकते हैं फिर जा के कूड़े के ढेर पर पड़ जाते हैं। ऐसे ही हो जाओ। जा के कूड़े के ढेर पर पड़ जाओ। ऐसे नहीं कि कहा गया कि बाहर आ कर के लेटो रेत पर, तो कह रहे हो, “रेत पर? अरे हम संस्कारी लड़कियाँ हैं!” कुत्ते जैसे ही हो जाओ, पड़ जाओ कूड़े पर। और कूड़ा कूड़ा लगे ही ना। देखो कूड़े को और कहो, “पिताजी ने भेजा है, इससे बढ़िया बिछौना नहीं हो सकता था, उन्होंने ही भेजा है।”
श्रोता : कूड़े के ढेर पर बैठ के भौंकने का मतलब क्या बताया है?
आचार्य प्रशांत: मस्त हैं, बैठे हैं। कुछ और नहीं! अभिप्राय बहुत सारे आदमियों में होते हैं। वो वहाँ पर भी ठीक वैसे ही बैठेगा, जैसे तुम्हारे घर के किसी कीमती सोफा सेट पर। तुम्हें अंतर नहीं दिखाई देगा। तुम उसे बैठा लो किसी महंगी चादर पर, और उसके चेहरे को देखो। और उसे बैठा दो कूड़े के ढेर पर, तुम उसके चेहरे को देखो, तुम अंतर पाओगे ही नहीं। हाँ, आदमी का चेहरा बदल जाएगा। (अट्टहास) बस इतना ही है।
समझ रहे हो?
संस्कारों के दो तल होते हैं। एक तल होता है सामाजिक, तो पहला काम तो यही होता है, कि जो समाज से पा लिया, उससे मुक्त हो जाओ। जो समाज ने तुम्हारे ऊपर डाल दिया है, उससे मुक्त हो जाओ। यही कारण है, कि एक बुद्ध को समाज छोड़ कर के प्रकृति के पास जाना पड़ता है। कुत्ता उसी प्रकृति का प्रतीक है, कुत्ता हो जाने का यही अर्थ ही यही है, कि समाज से मुक्त हो गए। कुत्ता ठीक वही बोधिवृक्ष है, जिसके नीचे बुद्ध बैठे थे। एक ही बात है, दोनो प्रकृति हैं। समाज से मुक्त हो गए। यदि भागवत हमसे कहता है कि पशुवत हो जाओ, तो उसका अर्थ यही है कि अब तुम्हारे ऊपर समाज का कब्ज़ा नहीं रहा। हालाँकि पशुवत हो जाना भी कोई आखिरी बात नहीं है। लेकिन जो पशुवत हो गया, वो शीघ्र ही अपने प्राकृतिक संस्कारों से भी मुक्त हो जाता है। सामाजिकता से तो वो मुक्त हो ही गया है, फिर वो प्रकृति से भी मुक्त हो जाता है। इसीलिए कहा गया है कि पशुवत हो जाओ, जानवर जैसे ही हो जाओ।
तुम हो, उस पर पहली परत चढ़ती है, प्रकृति की। कि तुम्हें पौधा बनाती है, पत्थर बनाती है, पेड़ बनती है, या इंसान बनाती है। वो पहली तुम पर तह चढ़ाती है। और फिर दूसरी चढ़ाता है, समाज। कुत्ता उस दूसरी से पूरी तरह मुक्त है। इंसान जब दूसरी से मुक्त हो के पहले में आता है, तो मैं कह रहा हूँ वो जल्दी ही पहले से भी मुक्त हो जाता है। समझ रहे हो?
जो दूसरी परत है, वो, वो है जो पहचाने तुमने पचास बना रखी हैं। जब उन पचास पहचानो से मुक्त हो जाते हो, प्रकृति के तल पर तुम्हारे पास बस एक पहचान बचती है, शरीर। क्योंकि प्रकृति से शरीर के अलावा कुछ नहीं मिला है। मन तो पूरा समाज का दिया हुआ है। मन तो सामाजिक है, प्रकृति ने शरीर ही दिया था। जब समाज से मुक्त हो जाते हो, तो एक ही पहचान बचती है सिर्फ, क्या? शरीर। फिर वो उस एक पहचान से भी तुम बंधे नहीं रहोगे। वो पहचान भी बहुत दिनों की नहीं होती। उसकी पकड़ भी हलकी होती जाती है। पूरी तरह मुक्त हो जाते हो। आ रही है बात समझ में?
जो कुछ है, जहाँ है, देखो खुश है। इतना खुश है, कि उसे अपनी ख़ुशी व्यक्त भी नहीं करनी पड़ रही, उसके होने में ही उसकी ख़ुशी है। तुम किसी स्वस्थ पौधे को देखो, उसे हँसना नहीं पड़ेगा। क्यों? क्योंकि उसका स्वास्थ ही उसकी ख़ुशी है। तुम नदी को देखो, वो कहेगी नहीं, कि बड़ी प्रसन्नता मिली। उसका बहना ही उसकी ख़ुशी है। तुम चिड़िया को देखो, वो चिल्लायेगी नहीं कि आह्लादित हूँ। उसका फुदकना ही उसकी ख़ुशी है। इंसान अकेला है जिसे ख़ुशी के लिए कुछ करना पड़ता है। कि ख़ुशी चाहिए तो ये कर के दिखाओ। प्रकृति में बाकी जो कुछ है, वो खुश ही खुश है। होने में ही खुश है। हूँ, तो खुश हूँ। निरंतर खुश हूँ। ख़ुशी में कोई बाधा पड़ ही नहीं रही है। कुछ पाना नहीं है, कि खुश हो जाएँगे तब। बात आ रही है समझ में?
ये सब, मस्त हैं, मगन हैं। देखो चारों तरफ, देखो! सब बिलकुल मगन हैं। बस हमारे ही मन में अगन है।
(सब हँसते हैं)
हमें ही आग लगी हुई है। मुझे एक नौकरी चाहिये। कुछ कर के दिखाना है। क्रांतियाँ उठानी हैं। हाँ? पता नहीं क्या कर जाना है। ये आसमान, ये बादल, ये रास्ते, ये हवा, हर एक चीज़ है, अपनी जगह ठिकाने पे। सब कुछ अपनी जगह ठिकाने पर है। बस हमारा दिमाग ठिकाने पर नहीं है।
श्रोता: आचार्य जी, फिर अगर किसी ने मुझे कुत्ता बोला तो यह तो सम्मान की बात है।
आचार्य जी: अरे, उसने इससे बड़ा सम्मान तुम्हारा नहीं किया होगा।”कुत्ता रत्न”। (श्रोता हँसते हैं)
श्रोता : जब उसने सबको ऐसा बनाया कि वो अपने आप में खुश हैं, फिर इंसान को ही ऐसा क्यों बनाया?
आचार्य जी: उसी से पूछना। (मुस्कुराते हुए) इस राज़ से पर्दा वही हटा सकता है। मुझे तो नहीं पता। पिछली बार बाहर घूमने गए थे, तो मैं लेटा हुआ था, और एक कुत्ता आ कर के साथ में बैठ गया। तो एक फोटो खिंच गयी। तो अभिषेक मेरे पास उस फोटो को फ्रेम में डलवा के ले कर के लाया। हुआ कि इसको अब शीर्षक देना है, तो क्या दिया जाए?
(श्रोतागण हँसते हैं)
मैन विथ डॉग , ये, वो, बहुत सारी बातें। फिर अचानक सूझा, कि इसका इससे ज़्यादा उपयुक्त तो कोई शीर्षक हो ही नहीं सकता, लिख दो, “डॉग्स”।
(अट्टहास)
उसमें मेरी शक्ल थी और उस कुत्ते की थी। तो उसके नीचे लिखा गया, “डॉग्स”। तो इससे बड़ी इज़्ज़त कौन सी बख्शी जाएगी? ठीक। हाँ, कुत्ता थोड़ी उस पर आपत्ति कर सकता है। कहेगा, “अभी जब तुम हुए नहीं, कपड़े तुम पहनते हो, अहंकार तुम में है, तुम्हें हक़ क्या है अपने आप को अभी कुत्ता बोलने का?”
पर कृपा है उसकी, कोई कुत्ता कभी आ कर के, ये सब बातें कहेगा नहीं, शिकायत नहीं करेगा कि अपने आप को कुत्ता क्यों कहा? तुम जाओ किसी कुत्ते के सामने, और कहो, मैं कुत्ता हूँ। वो तुम्हारी और देखेगा, और!! “मर्ज़ी है।”
ये सब जाना जा रहा है, समझा जा रहा है, उसका प्रयोजन यही भर है, बस समझ लेना। तुम यहाँ इसीलिए नहीं आए हो कि कुछ और भर कर ले जाओगे। तुम अपनी नग्नता हासिल करने आए हो। और हासिल कहना भी ठीक नहीं है, मैं कहूँगा तुम अपनी नग्नता को पुनः प्राप्त करने आए हो। वो मिली ही हुई थी, तुमने उसे खो दिया। तो उसे, दोबारा हासिल करने आये हो। कुछ और ओढ़ कर के नहीं वापस जाना है। नंगे हो के लौटना है। कुत्ता हो के लौटना है। बात समझ रहे हो ना?
(एक श्रोता के भाव की ओर देखते हुए) हम खानदानी लोग हैं (सब हँसते हैं)। कैसी बातें कर रहे हैं। सुनने में ही कितनी भद्दी लग रही है।
कुत्ते की गरिमा को देखो। उसे तुम आदमी बोलते हो, तब भी सह लेता है। तुम उसे नाम दे देते हो, वो तब भी कहता है, चलो कोई बात नहीं। और नाम भी तुम उसे इंसानों वाले ही देते हो। आ रही है बात समझ में?
श्रोता : आचार्य जी, फिर तो ये कहना गलत होगा कि जानवरों के अंदर समझ नहीं है?
आचार्य जी: जानवरों की समझ बेटा इतनी गहरी है कि वो एक निर्विचार समझ है, उन्हें सोचना नहीं पड़ रहा है समझने के लिए। वो समझे ही हुए हैं। तुमको समझने की ज़रुरत होती है, तुम इसीलिए समझने की कोशिश करते हो।
वो समझे ही बैठे हैं। समझने को क्या है? हम जी रहे हैं, समझना क्या है? जीना काफी नहीं है क्या? होना काफी नहीं है क्या? अब समझना क्या है?
श्रोता : वो जानते हैं।
आचार्य जी: हाँ। बोध में हम स्थित ही हैं। अब क्या जाने? क्या है मुझे बताओ जो कि इस पौधे को समझना चाहिए? तुम्हें समझना है कि क्लोरोफिल क्या होता है? वो क्यों समझे? उसे नहीं जानना। तुम्हें लाख तरह की बीमारियाँ होती हैं, तुम अपनी खुजली मिटाने के लिए ये इधर शोध कर रहे हो, उधर शोध कर रहे हो। तुम्हें जानना है, कि इस पत्थर में क्या है, तुम्हें जानना है, कि इस पहाड़ में क्या है। तुम्हें जानना है, कि मंगल ग्रह पर क्या है?
पौधा कह रहा है, “जहाँ भी है और जो कुछ भी है, उसका निचोड़ मैं हूँ, अब जानना क्या है? पूरा अस्तित्व मेरे रूप में प्रकट हो रहा है, अब मुझे जानना क्या है? मंगल ग्रह पर, तमाम तारों पर, और तमाम सूरजों पर, जो कुछ भी है, उसका एक एक तत्व मुझमें समाया हुआ है। मुझमें आविर्भूत हो रहा है, अब जानना क्या है? तुम्हें जानना है, तुम्हें नाम देने हैं ना जान जान के, कि इसके भीतर ये रसायन होता है, और फिर ये-ये गैस लेता है, और फिर ये करता है। अब इसको तुम कहते हो, ये मेरा ज्ञान है। इसी बात पर मानवता फूली नहीं समाती, हम बड़े ज्ञानी हैं। उसको पता है।
श्रोता : आचार्य जी, इसका मतलब तो ये हुआ कि मनुष्य अपने साथ भी खिलवाड़ करता है, और दूसरों के साथ भी।
वक्ता : बिलकुल करता है। तुम मेरी बात समझ रहे हो?
जैसी ये पूरी दुनिया, मैं धरती की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं पूरी दुनिया की बात कर रहा हूँ। जैसी ये पूरी दुनिया है, उससे यदि ज़रा भी अलग होती तो ये पौधा नहीं हो सकता था। पूरी दुनिया जब इक्कठी हुई है, तब ये पौधा निकला है। सूरज न होता तो क्या ये पौधा हो सकता था? पूरी दुनिया में कुछ भी यदि कम या ज़्यादा होता तो ये पौधा नहीं हो सकता था। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यही है, पूरी दुनिया ही है जो इस पौधे के रूप में दृश्यमान हो रही है, प्रकट हो रही है। अपने आप में वो पूरी दुनिया को समाये है। अब उसे जानना क्या है? अब क्या बचा जानने को? जो कुछ जानने लायक था, वो तो मैं हूँ। क्या जानना है? शेष क्या रह गया है? समझ रहे हो बात को?
ज्ञान अर्जित करने की बीमारी हमें है, सूचनाओं को संग्रह करने की बीमारी हमें है, न जीने की बीमारी, हमें है। दिमाग में बैठे रहने की बीमारी, हमें है। किसी पौधे की तरफ जब देखो, तो पौधे की तरह मत देखो, नाम मत दे दो कि पौधा है। समस्त प्रकट हो रही है। जो टोटल है, जो पूर्ण है, वो इस पौधे के रूप में तुम्हारे सामने है। उसे झुक कर के, प्रणाम करना सीखो। एक नन्हा सा घास का तिनका भी है ना, वो अपने आप में पूरी कायनात को समेटे हुए है। उसे नन्हा मत समझ लेना।
इससे बड़ी भूल नहीं हो सकती कि तुम जानवरों को हीन समझो। इससे बड़ी मूर्खता नहीं हो सकती। और ये बात बिलकुल मन से निकाल दो कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ है, ऐसा कुछ भी नहीं है। बिलकुल ऐसा कुछ नहीं है। ये बातें भी तुम्हीं ने कह दी हैं, कि मैन इज़ गॉड्स बेस्ट क्रिएशन। गॉड नहीं कहने आया था। वो सारी किताबें तुम्हारी ही हैं, जिसमें तुम ये दावा कर रहे हो, कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं। अब जब तुम कहोगे तो तुम तो यही कहोगे, और कोई जानवर कभी कुछ कहने आएगा नहीं। वो कहेगा, इतनी भी परवाह कौन करे कि हम बताएँ कि कौन सर्वश्रेष्ठ है।
श्रोता : उसे फर्क ही नहीं पड़ता।
आचार्य जी: उसे फर्क ही नहीं पड़ता, वो कहता है, “ठीक है – तुम्हें झुनझुना बजाना है, तुम बजाओ। तुम्हें मानना है कि तुम सबसे ऊँचे हो? तो ठीक है, मान लो।” अब देखो रेत को, देखो सबको, और देखो सब कैसे अपनी अपनी जगह पर बिलकुल ठीक हैं। और कैसे, सब शांत हैं। पिता की गोद में है। या सिर्फ वही है एक, जो सबके रूप में प्रकट हो रहा है। देखो कैसे किसी को कोई उलझन ही नहीं है। हवा चलती है, पत्ते हिल लेते हैं। हवा चलनी बंद हो जाती है, पत्ते शांत हो जाते हैं। किसी को कोई उलझन ही नहीं है। पड़ी है रेत, तुम दबा देती हो, दब जाती है। नहीं दबाओगी नहीं दबेगी, कोई दिक्कत नहीं। ठीक।