प्रश्न: मन को जब देखने बैठते हैं तो तर्क ऐसा आड़े आता है कि कुछ देर बाद प्रक्रिया छोड़नी पड़ती है। मन को देखना कठिन लगता है । तो क्या उसको वैसे ही छोड़ना है?
वक्ता: आपके पास कोई विकल्प है? विकल्प हो तो उसका उपयोग कर लीजिये । कोई विकल्प है क्या? आप देखना चाहते हैं, किसी वजह से, कहीं पढ़ लिया होगा या कुछ सुन लिया होगा, या स्वयं पूर्वानुभव के आधार पर आप देखना चाहते हैं कि – मन की ये सारी गति क्या है, मन के तौर-तरीके क्या हैं, किधर को भागता है, क्या विचार इसमें उठते रहते हैं, क्या इसने उद्देश्य बना रखे हैं – आप ये सब देखना चाहते हैं। ठीक, बहुत अच्छी बात है। और आप ज्यों ही ध्यान में उतरते हैं, साक्षी होना चाहते हैं, आप पाते हैं कि ध्यान टूटा । अब आप सवाल कर रहे हैं, “तो क्या उसको वैसे ही छोड़ दें?”
आपने छोड़ दिया, या छूट गया? आपके बस में हो, तो न छोड़िये। आपके बस में है क्या*? आपका साक्षित्व उतना ही गहरा होगा जितना आपका मन साफ़ है*। इस बात को समझियेगा। आप उसी मन को लेकर के जिससे आप सम्बद्ध हैं, अपने मन को नहीं समझ पाएँगे। ये हमारी बड़ी भूल रहती है, हम सोचते हैं कि हमें पता है कि हम क्या कर रहे हैं। पता होना तो सिर्फ़ साक्षित्व में सम्भव है, कि साफ़-साफ़ पता हो कि – “मैं कर क्या रहा हूँ?” कैसे जानेंगे आप कि आप क्या कर रहे हैं, बिना ये जाने कि कौन कर रहा है? असंभव है।
तो ध्यान की शक्ति, आत्म-अवलोकन की शक्ति, ये उतनी ही होती है जितनी आत्मा की अनावृत्त्ता है; जितनी ज़्यादा आत्मा, मन के बादलों से मुक्त है। यदि आपके तमाम व्यसनों ने आपके केंद्र को ढका हुआ है, यदि आप अभी मन की गति, मन के तौर-तरीकों को ही महत्त्व दे रहे हैं, उन्हीं के साथ खड़े हैं, उन्हीं के पक्षधर हैं, तो असंभव है कि आप मन बने भी रहें, मन के पक्ष में भी खड़े रहें, मन को ऊर्जा भी देते रहें, और मन के साक्षी होकर मन को जान भी जाएँ – ये असंभव है । हो ही नहीं सकता।
पर सवाल हम ऐसे ही पूछते हैं, कि, “ध्यान में बैठते हैं तो तमाम तरीके के उपद्रव शुरू हो जाते हैं । कुछ भी यदि बिल्कुल साफ़-साफ़ जानना चाहते हैं, तो मन डरने लग जाता है”। क्योंकि मन को स्वीकार नहीं होगा, साफ़-साफ़ जो दिखाई देगा, तो हम साफ़-साफ़ फिर कुछ देखना ही नहीं चाहते। मन उठ जाता है, प्रक्रिया टूट जाती है, बात छोड़नी पड़ती है। आप पूछते हैं, “क्या करें?” आप क्या कर सकते हैं? ‘आप’ होते हुए, आप क्या कर सकते हैं? क्या विकल्प है आपके पास?
देखिये कि जीवन कैसा जी रहे हैं। ये बात बड़े मज़ाक की है कि “*हम जैसा जीवन जी रहे हैं, वैसा ही जीते रहें, और साथ-ही-साथ उलझनों से मुक्त हो जाएँ, जीवन को समझ भी जाएँ, सत्य के समीप आ जाएँ, बोध हममें जगे, मूर्ख जैसे न रह जाएँ “- ये असंभव है ।* *मन की बड़ी चाह यही है, कि, “मैं जैसा चल रहा हूँ, मेरा जीवन वैसा ही चलता रहे ।* *लेकिन इसके साथ-साथ मैं होशियार भी हो जाऊँ”।* *ये हो नहीं पाएगा ।*
होशियारी और आपके ढ़र्रे एक साथ नहीं चल सकते। दोनों बिल्कुल एक दूसरे के साथ-साथ चलते हैं, पर समानांतर रेखाओं जैसे।
कोई पूछे, “पहले क्या आता है?” पहले कुछ भी नहीं आता। पहले तो अनुकम्पा आती है, उसके बाद दोनों में से कुछ भी पहला प्रतीत हो सकता है। लेकिन वास्तव में जो पहली होती है, जो बदलती है, वो अनुकम्पा होती है। किसको बदलती है?
मैंने कहा कि दो बातें हैं। पहला: आप कैसे हैं, आपके मन की संरचना कैसी है, आपके मन के पूरे संस्कार कैसे हैं। और दूसरा: आपका जीवन कैसा है, आपकी गतिविधियाँ कैसी हैं। ये दो बातें होती हैं – एक अंदरूनी और एक बाहरी। इनमें से कोई भी दूसरे को बदलने की वास्तव में कारक नहीं होती हैं। दोनों ही बदलती हैं, किसी महाकारक से। पर हाँ, जब वो महाकारक चाहता है, जब वो प्रथम कारण मौजूद होता है, तो दोनों में से कोई एक, ‘पहला’ बन जाता है, कोई भी ‘पहला’ बन सकता है।
कुछ किस्से आप पढ़ेंगे कि बोध उठा तो जीवन बदला, और कुछ किस्से आप पढ़ेंगे कि जीवन बदल दिया, तो बोध उठा।
होते असल में दोनों साथ-साथ हैं। बुद्ध के भीतर रोशनी उठती है, तो वो अपना जीवन बदलते हैं। कहते हैं, “नहीं, ये जो तरीके चल रहे हैं कि लिप्त हूँ दुनिया-भर की तमाम उलझनों में, तमाम वासनाओं में, ये नहीं चाहिए, मैं अपने ढ़र्रे बदल रहा हूँ “। और ढ़र्रे बदलते हैं, तो प्रकाश और तीव्र होता है । प्रकाश और तीव्र होता है, तो उनके जीने का तरीका और बदलता है। एक गुरु से दूसरे के पास जाते हैं, जंगल में और भीतर प्रवेश करते जाते हैं – दोनों समानांतर हैं।
अब यदि आपकी इच्छा यह है कि ये जो सामानांतर रेखाएँ हैं, इनमें से एक को तो मैं पकड़ लूँ कि आगे न बढ़ने पाए और दूसरी आगे बढ़ती जाए, तो ये वैसे ही है कि आप कहें कि रेल की पटरी है, उसमें से एक रेखा को, एक सिरे को, तो मैं रोक कर रखूँ, बस एक सिरे की पटरी हो उस पर रेल दौड़ जाए। आपको अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि – बोध आपके जीवन को बदले, आपने इसकी अनुमति दी है क्या स्वयं को? आप स्वयं अगर विरुद्ध खड़े हैं जीवन के परिवर्तन के, तो आपका बोध और ज़्यादा नहीं गहरा सकता। आप ऐसे प्रश्नों में उलझे ही रहेंगे कि, “मेरा ध्यान टूट क्यों जाता है? मैं एक स्थान से अब आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहा? मैं एक बिंदु से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहा?” नहीं ही बढ़ पाएंगे। मैं दोहरा रहा हूँ, क्योंकि आतंरिक विकास और बाहरी परिवर्तन सदा एक साथ चलते हैं।
*जो अपने जीवन को बदलने से रोकेगा, उसका आतंरिक विकास भी बाधित हो जाएगा*। जीवन को आप बदलना नहीं चाहते, आपको डर लगता है, क्योंकि सुख-सुविधाएँ दाँव पर लगी हुई हैं, रूपया-पैसा दाँव पर लगा है, रिश्ते-नाते दाँव पर लगे हैं। और बोध आपको चाहिए; वो आपको मिलेगा नहीं। और मैं बिल्कुल बता रहा हूँ कि जो बाहर को बाधित करेगा, वो भीतर को भी बाधित कर देगा।
अभी मुरादाबाद में फिर से हमारे सत्र शुरू हुए, तो मैंने अभिषेक से पूछा कि “कैसा लग रहा है? दो-ढाई महीने बाद इन सब लोगों से मुलाक़ात हुई होगी”। तो इन्होंने कहा कि, “सब जवान-जवान से दिखने लग गए हैं, किसी ने दाढ़ी रख ली है, किसी के बात करने का अंदाज़ नया है। कैंटीन में बैठ कर सातवें सुर में भजन गा रहे थे। ये सब देखिये बाहरी बातें हैं, गाना बाहर की दुनिया में है, चेहरा बदल गया है, आँखों के देखने का अंदाज़ बदल गया है, चेहरे पर दाढ़ी रख ली है”। ये सब बाहरी बातें हैं, पर मैं आपको आश्वस्त कर रहा हूँ, सुनने में ये बात अजीब लगेगी, समझियेगा, जो अपने चेहरे पर दाढ़ी आने से रोकेगा, उसकी आतंरिक यात्रा भी रुक जाएगी, क्योंकि अन्दर और बाहर एक साथ चलते हैं।
आप ये कहें कि, “मैं अन्दर-अन्दर सारा ज्ञान अर्जित करता चलूँगा, पर बाहर वैसा ही दिखूँ, जैसा सदा दिखता था,” तो ये बड़ा दोगलापन है। आप कह रहे हैं, “समाज से सुविधाएँ मिल रही हैं, उन पर आँच न आए, बाहर से मैं वैसा ही रहूँ, कि देखिये भई मैं पहले की तरह ही हूँ, कोई परिवर्तन नहीं आया है”।
*जो पा रहा है भीतर*, यदि वो गा नहीं रहा है बाहर, तो मैं कई दफ़ा कह चुका हूँ, भीतर का पाना भी अवरुद्ध हो जाएगा ।
क्या आपने अपने आप को गाने की अनुमति दी है? क्या आपने अपने जीवन को बदलने की अनुमति दी है? क्या आपका जीवन मूलभूत रूप से बदल रहा है? जब जीवन नहीं बदल रहा, तो आतंरिक यात्रा भी अब ठहर गयी होगी, वो आगे नहीं बढ़ेगी। हमें बड़ा अच्छा लगता है ये कहना-सुनना कि, “देखो, तुम जहाँ पर हो, मुक्ति वहीँ पर है, कुछ नया करने की ज़रुरत नहीं है”। पर ऐसा होता नहीं है, आहार-विहार, सब बदलना पड़ता है। सब बदल जाता ही है, और जो उसको नहीं बदलेगा, वो भीतर भी बस जाम होकर रह जाएगा, अटक जाएगा, ठहर जाएगा।
आप कहें, “मैं वही खाता रहूँगा, वही पीता रहूँगा जैसे मैं पहले खाता-पीता था । सब माया है, कुछ भी खाते-पीते रहो, क्या फ़र्क पड़ता है?” आप कहें, “मैं वही सब खाता-पीता रहूँगा, जीवन मेरा वैसा ही चलता रहेगा जैसा पहले चलता था, पर भीतर से मेरे खूब बोध उठ आए,” असंभव है! दोनों एक साथ चलते हैं।
ध्यान दीजिएगा, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बाहरी-भीतरी का कारण हो सकता है । मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि जो भीतरी है, वो बाहरी का कारण हो सकता है। मैंने पहले ही कह दिया है कि बाहरी-भीतरी सामानांतर चलते हैं, दोनों का महाकारण कुछ और होता है। मैं कह रहा हूँ कि इन दोनों में से किसी एक को रोका, तो दूसरा बाधित हो जाता है, और बहुदा हम बाहर वाले को रोकते हैं, क्योंकि हम डरते हैं। पा हम लेते हैं, गाने से हम बहुत डरते हैं। आप पूछिए अपने-आप से, कितना गा रही हैं?
तुम अगर ये कहो, “नहीं मैं सब जान लूँगा, अष्टावक्र के साथ रहूँगा, कबीर की संगति करूँगा, लेकिन वही नौकरी करता रहूँगा जो सदा से कर रहा था,” तो भूल जाओ तुम अष्टावक्र और कबीर को। “बाहर के मेरे ढर्रे वैसे ही रहेंगे जैसे सदा से थे,” तो फिर भीतर के ढर्रे भी वैसे ही रहेंगे जैसे सदा से थे। घोषणा करनी पड़ती है, स्पष्ट। भीतर-बाहर को एक-सा करना पड़ता है। कहा है न कबीर ने, “तन-मन एक ही रंग”। कहा है उन्होंने कि बगुला होने से अच्छा है कि कौए हो जाओ, कम से कम तन-मन एक ही रंग है । अब वो कौन-सा रंग है फ़र्क नहीं पड़ता, पर एक ही है न, एक-साथ है। ऐसा तो नहीं है कि भीतर जो है, बाहर उसे छुपा रहे हो।
और हम अपने आप को धोखा बहुत देते हैं, और हमें धोखा देने के लिए खूब किस्से-कहानियाँ भी मिले हुए हैं। कई कहानियाँ हैं जो कहती हैं कि – आतंरिक परिवर्तन आ भी गया था, लेकिन बाहर से उसने अपनी वही पुरानी दिनचर्या चालू रखी। तो हमें सहारा मिल जाता है कि, “ये दोनों तो देखिये अलग-अलग बातें हैं, ये दोनों तो जीवन के दो अलग-अलग हिस्से हैं, ये मेरी स्पिरिचुअल लाइफ (आध्यात्मिक जीवन) है और वो मेरी प्रोफेशनल लाइफ (व्यवसायिक जीवन) है। इन दोनों को अलग-अलग रखना चाहिए”।
जो अलग-अलग रखेगा, उसके दोनों ही जीवन मृत हो जाने हैं। कैसे हो सकता है, कि तुम मन को साफ़ करो, लेकिन तुम्हारा जीवन गन्दा बना रहे? कैसे हो सकता है? तुम क्या असंभव बातें कर रहे हो। अब जीवन की गंदगी तुम दोनों हाथों से पकड़ कर बैठे हो, उसको छोड़ने में तुम डरते हो, तो मन की सफ़ाई अवरुद्ध होगी या नहीं? और जीवन का क्या अर्थ है? जीवन का अर्थ यही है – किसकी संगति कर रहे हो, क्या काम कर रहे हो, कहाँ से कमाते हो, किसका खाते हो, क्या देखते हो, क्या पढ़ते हो, किन क्रियाओं में तुम्हारा दिन व्यतीत होता है – यही है जीवन।
मैं दोहरा रहा हूँ, मैं नहीं कह रहा हूँ कि जीवन बदल दीजिये तो मन बदल जाएगा। मैं कह रहा हूँ कि *जब मन बदल रहा है, तो जीवन बदलेगा, और जो जीवन बदलने को तैयार नहीं है, उसका मन भी नहीं बदलेगा*।
एक बार मैंने कहा था, कि अगर तुम वैसे ही दिखते हो जैसे पहले दिखते थे, तो तुम हो भी अभी वैसे ही, जैसे पहले थे। सत्य के राज्य में हिपोक्रेसी, पाखण्ड के लिए कोई जगह नहीं है। कृपा करके ये दावा मत करना, “बाहर से तो हम समय के साथ चलते हैं,” कि, “देखिये बाहर से तो वैसे ही होना पड़ेगा जैसा हमारा परिवेश है, जैसी समाज की माँग है । हाँ भीतर-भीतर से हम कबीर हैं”। कबीर ऐसे थे क्या, कि बाहर-बाहर से कुछ और हैं, और भीतर से कबीर हैं? तो तुम कबीर से भी आगे होगे कुछ, जो तुम कह रहे हो कि, “हम बाहर से कुछ और रहेंगे, और भीतर से कबीर हो जायेंगे”? कैसे हो जाओगे?
अरे भीतर से, बाहर से, दोनों तरफ़ से कबीर हो जाओ। जो रंग भीतर है, वही रंग बाहर दिखाई दे। हिम्मत तो करो न! पर नहीं, बाहर स्वार्थ है, सुविधाएँ हैं। यहाँ आते हो, बैठते हो, एक बात । और यहाँ से निकल कर फ़िर दोबारा अपने काम-धंधों में चले जाओगे, दोबारा वही ज़लालत चालू । तुम्हें क्या मिल सकता है?
यहाँ बातें करते हो सत्य की, और यहाँ से वापस जाओगे अपने परिवार के पास, और दोबारा वहाँ फिर वही सब – आसक्ति, मोह, डर, लालच – का गन्दा खेल शुरू कर दोगे। तुम्हें क्या मिल सकता है? यहाँ तुमने एक चेहरा पहन रखा है, यहाँ से बाहर जाओगे, अभी दूसरा चेहरा पहन लोगे। तुम्हें क्या मिल सकता है? और तुम इसे नाम दोगे ‘व्यवहारिकता’ का। ये व्यवहारिकता नहीं है, ये सिर्फ़ कुटिलता है। कृपा करके व्यवहारिकता और कुटिलता का अंतर जानें।
यहाँ बैठकर तुम सत्य से संबंध बना रहे हो, बाहर जाकर तुम पूरे संसार के हो जाओगे। ऐसे नहीं काम चलेगा। ये बड़ी कृतघ्नता है। ये बड़े से बड़े भ्रमों में से एक है कि, “जीवन नहीं बदलूँगा और मन की शान्ति को भी पा लूँगा,”। कि “जिस आग में दिन-रात जलता रहता हूँ, जो बेचैनी, तड़प, उद्विग्नता लगातार परेशान करती रहती है, उसको भी शाँत कर लूँगा, बिना जीवन बदले”। जीवन पूर्णतया बदलेगा।
यहाँ पर कई दफ़ा हो चुका है, लोग आते हैं, कहते हैं कि, “वो सर, अद्वैत छोड़ना है । बाकी सारी बातें जो आप हमसे कहते हैं, करवाते हैं, वो हमें नहीं करनी हैं, बस सत्र में आते रहेंगे”। इस से ज़्यादा मूर्खता का, और कुटिलता का वक्तव्य नहीं हो सकता। तुम मूर्ख ही नहीं हो, तुम बड़े चालबाज़ हो। चालबाज़ तुम इसलिए हो क्योंकि तुम मुझे और अपने आपको धोखा देने की कोशिश कर रहे हो । और मूर्ख इसलिए हो क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम्हें कोई लाभ हो जाना है, ये दो अलग-अलग हिस्से जीवन के बनाकर।
तुम कहते हो, “पूरे हफ़्ते जो मुझे करना है करूँगा, मुझे मेरे अनुसार जीवन जीने दो । यहाँ जो अद्वैत के नियम-कायदे हैं, ये मेरे ऊपर न चलें, मुझे पूरी स्वच्छंदता रहे अपने उपद्रव बचाने की। आप तो बड़ा बाँध देते हैं, आप तो दम ही घोट देते हैं। ‘ऐसे रहो, ये खाओ, ये न खाओ, रोज़ ये पढ़ो, रोज़ स्मरण करो’। अरे हमें ये सब नहीं ठीक लगता, हमें हमारे अनुसार जीने दो । और सप्ताह में हम एक दिन यहाँ आ जाएँगे, राम-नाम जपने के लिए”। बड़े होशियार हो तुम, और कभी ऐसा हुआ है? तुम्हें क्या लगता है कि जब तुम पूरे हफ्ते वैसा जीवन बिताओगे, तो सातवें दिन यहाँ आ पाओगे? कोई तुम्हें ऐसा दिखाई देता है जो चला गया हो यहाँ से, लेकिन रविवार को फिर भी आ जाता हो?
तो कितने मूर्ख हो तुम कि तुम सोचते हो कि दो सामानांतर रेखाओं में से एक को रोक दोगे, और दूसरी तब भी चलती रहेगी। जो ये सोचते हैं कि एक जीवन उधर चलाते रहेंगे, आमंत्रण मिला है तब भी ठुकराते रहेंगे, और रविवार को भजन कर लेंगे, तो कुछ मिल जाना है । कुछ नहीं मिल जाना, झूठा दिलासा मिल जाना है, बस। जीवन एक तरफ़ और मन दूसरी तरफ़, ये कर नहीं पाओगे, असंभव है।
लोग गए हैं यहाँ से, “सर हम जा रहे हैं, आगे की पढ़ने करने, पर अद्वैत हमारे दिल में सदा रहेगा”। मैंने कहा, “ठीक, कर लो कोशिश। तुम बदल दो मन के नियम अगर बदल सकते हो, कि जीवन तुम्हारा एक दिशा को जा रहा है, और मन तुम्हारा अद्वैत में बैठा है, कर लो कोशिश”। कटुता ज़्यादा हो जाती है, इसलिए ज़्यादा कुछ कहता नहीं । मैं कहता हूँ कि मूर्ख है, ख़ुद ही भुगत रहा है, तो मैं और क्या दुखी करूँ। तो मैं कहता हूँ, “ठीक है, आशीर्वाद है, जाओ”।
“सर हम जा रहे हैं, हमारी शादी हो गई है, हम कहीं और बसेंगे, बच्चे पैदा करेंगे । पर अद्वैत हमें प्राणों से प्यारा है, लगातार यहीं बने रहेंगे”। तो मैं कहता हूँ, “हम जानते हैं कि यहीं बने रहोगे, अद्वैत तुम्हें प्राणों से प्यारा है, तभी तो तुम भाग रहे हो । तुम्हारे कर्म गवाही हैं कि अद्वैत तुम्हें प्राणों से प्यारा है”। और उनका क्या हश्र होता है, ये तुम अच्छे तरीके से जानते हो।
इस आत्म-प्रपंचना से बाज आओ, तुम किसी और को नहीं धोखा दे रहे, अपने आप को दे रहे हो। जैसे हो, वैसे जियो भी । हिम्मत रखो ज़रा, डरते किस से हो? छुपाते क्यों हो? राम का नाम लिया है न, तो राम पर श्रद्धा रखो, कि जो होगा वो राम संभालेगा। राम यदि मिला है, तो अब कुछ भी छूटता रहे, काहे के लिए डरते हो? सुरक्षा का आयोजन क्यों करते हो, कि “जब इतना कमाने लगेंगे तब जीवन बदलेंगे”? ये क्या धूर्तता है?
तुम लोगों ने सत्संग का बड़ा विकृत अर्थ जाना है, या ये कहो कि समाज ने तुम्हें यही अर्थ दिया है । और ये जो बहुत बड़ी जमात बैठी हुई है झूठे सन्यासियों की, इन्होंने यह अर्थ दिया है कि सत्संग का अर्थ होता है – हफ़्ते में, महीने में, एक दिन कहीं जाकर आधे-एक घंटे को, दो घंटे को, कुछ सुन लेना, भजन-कीर्तन कर लेना।
सत वो है, जो *नित्य है*। तुम मूलभूत बातों को भी भूल गए? सत कौन? जो नित्य है, जो कभी ठहरता नहीं, रुकता नहीं, जो समय के पार है। सत्संग का अर्थ है – नित्य के साथ होना, कुछ समय के लिए नहीं, नित्य! संगति लगातार बनी रहे । जब संगति लगातार बनी हुई है, तो तुम जीवन में कुछ और कैसे कर लोगे? सत्संग लगातार चलता है। क्योंकि वो समय से अछूता है, इसलिए समय उसे रोक नहीं सकता, वो चौबीसों घंटे चलता है। पर तुमने सत्संग की सीमाएँ बाँधी हुई हैं। तुमने सब कुछ खण्डों में विभाजित किया हुआ है। एक खंड वो, जो यहाँ पर, और दूसरा खंड वो, जिसको तुम अपना व्यक्तिगत जीवन, और अपना व्यवसायिक जीवन कहते हो।
और खुश हैं तुम्हारे बाबा और सन्यासी, कि, “आ बच्चा सुबह—सुबह, प्रातःकाल, कुछ भजन कर लिया कर, सत्संग कर लिया कर । और उसके बाद जा, और अपनी दुकान में, भ्रष्टाचार में, दोबारा लिप्त हो जा। सुबह-सुबह सत्संग, और उसके बाद, जो तुझे करना है कर, दूसरा ही रंग”। बढ़िया है, कितनी सुविधा है । बाबा जी को भी सुविधा है, बच्चा जी को भी सुविधा है। दुकानें चल रही हैं, तुम्हारी भी और बाबा जी की भी। बाबा जी की दुकान सुबह खुलती है, प्रातःकाल, और तुम्हारी दस बजे खुल जाती है।
सत्संग – नित्य का संग है । *वो टूट नहीं सकता, वो सतत स्मृति है, वो जीवन संगीत है ।*
दोहरा जीवन जीने की कोशिश न करो। होंगे तुम्हारे जीवन में बड़े महत्वपूर्ण लोग, उनके सामने मिलो तो डर कर उनके जैसा नक़ाब पहनने की कोशिश न करो कि, “अभी तो इनके समाज में हूँ, तो ज़रा इन जैसी ही बातें करनी पड़ेंगी”- ये कर मत देना। ये सब व्यर्थ की बातें हैं जो तुम लेकर आ जाते हो कि “वेन इन रोम, डू एज़ द रोमन्स डू (जैसा देश, वैसा भेष)”, वो बिल्कुल दूसरे सन्दर्भ में कही गयीं थीं। उनका कोई आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है।
इतने व्यवहारिक मत हो जाईयेगा; वो व्यवहारिकता नहीं है, कुटिलता है। कि, “अभी तो इन लोगों के सामने हूँ, तो इन्हीं लोगों जैसी बातें करूं”। आप जो हैं वैसे ही रहिये, नहीं तो विश्वासघात है ये । किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, परम-सत्ता के प्रति। कि, “यहाँ पर तो मुझे किसी दूसरे तरीके से अपनेआप को प्रस्तुत करना होगा, ये तो दूसरे तरीके के लोगों की सभा है”। अरे हिम्मत रखिये ना; जैसे हैं, वैसी ही गर्जना करिये। झूठा चेहरा क्यों दिखाना?
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।