प्रश्नकर्ता: आचार्यजी आज का सत्र एक दुखद विषय पर आधारित है। खुले सत्र और बोध शिविर दोनों से ही बहुत ज़्यादा मात्रा में हमें एक ही घटना पर आधारित प्रश्न आयें हैं आज।
आज सुबह बॉलीवुड के एक सुप्रसिद्ध कलाकार ने आत्महत्या कर ली। और एक लम्बी सूची है युवाओं की जिन्होंने इनके इस क़दम पर बहुत ही प्रश्न पूछे हैं। सुशांत सिंह राजपूत इनका नाम था, इन्होंने महेंद्र सिंह धोनी पर आधारित जो फ़िल्म थी उसमें धोनी का किरदार निभाया था। तो ये सभी युवा जो प्रश्न पूछ रहे हैं इनसे बड़ा इम्प्रेस (प्रभावित) थे एंड दे वर लूकिंग अप टू हिम (और वे उनकी ओर देख रहे थे)।
शुभम डेम्ला हैं, दिवाकर, सीके यादव, तेईस वर्षीय तन्मय, महाराष्ट्र से आदित्य, छब्बीस वर्षीय योगेंद्र नागपुर से हैं, कृष्ण ढिंगरा हैं और चल रहे अद्वैत बोध शिविर से यतेंन्द्र गर्ग भी हैं। इन्होंने जो प्रश्न पूछे हैं उसमें मूलभूत रूप से बात ये है कि इनकी आत्महत्या के बाद देश-दुनिया से जब टिप्पणियाँ आ रही हैं ख़ासकर बॉलीवुड से तो इन्हें एक मनोरोगी के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है, जो बहुत समय से परेशान थे, दुखी थे।
अलग-अलग कारण निकल रहे हैं कोई कह रहे थे शायद इन्हें फिल्में नहीं मिल रही थी, कोई कह रहे थे कि इनका व्यक्तित्व ही ऐसा था जिसमें ये अनुशासन इत्यादि का ज़्यादा पालन नहीं करते थे। और साथ-साथ इनका सोशल मीडिया अकाउंट है उस पर जिस तरह की इन्होंने पोस्टिंग्स करी हैं और जब ये युवा थे तो जिस कॉलेज से पढ़े थे दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से इनकी पढ़ाई हुई, उसके बाद अगर आप इनका सोशल मीडिया देखें जिससे एक-एक करके इन प्रश्नकर्ताओं ने ही मुझे बड़ी ख़ास बातें भेजी हैं।
कुछ प्रश्नकर्ता लिख रहे हैं कि ये बॉलीवुड के अभिनेता तो थे ही साथ-साथ पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी भी थे। इनका एस्ट्रो फिज़िक्स में बड़ा रुझान था, इन्होंने कई इंस्टाग्राम के अपने पोस्ट्स में वैदिक मंत्रों को साइट किया है। इसके अलावा इनके घर में ऐसे कई बड़े आधुनिक उपकरण थे जिससे ये तारामंडल को देखा करते थे।
तो एक तरफ़ बॉलीवुड और पूरा जगत इनको मनोरोगी बता रहा है और दूसरी तरफ़ इनके इंस्टाग्राम पोस्ट से कुछ तथ्य सामने आ रहे हैं जिनसे पता चल रहा है कि ये लीग से हटकर थोड़े अलग टैलेन्टड (प्रतिभावान) क़िस्म के व्यक्ति थे।
तो इन जब प्रश्नों को मैंने पढ़ा तो मेरी बड़ी रूचि हुई ‘काई पो चे’ फ़िल्म थी मुझे बहुत पसन्द थी उसमें इनका किरदार बड़ा अच्छा था, मुझे प्रभावित किया था। तो मैंने फिर आज का पूरा दिन लगाकर उस घटना से लेकर अभी तक इनके पूरे जीवन काल को स्टडी (अध्ययन) किया तो कुछ बड़ी चौका देने वाली बातें सामने आयी हैं। जब इनको बॉलीवुड में या अन्यथा इंटरव्यूज़ वग़ैरा में देखता था तो पता नहीं लगा सकता था कि ये इस तरह के व्यक्तित्व थे। अब अपने इंस्टाग्राम अकाउंट में इन्होंने कुछ चिंतकों को और दार्शनिकों को साइट किया है, उनकी सूची मैं आपके सामने रखना चाहूँगा, ये चौका देने वाली है:
आचार्य प्रशांत: रोचक है।
प्र: जी, रोचक है। जलालुद्दीन रूमी, फ्रेडरिक नीत्शे, कबीर साहब, मोमिन, लॉर्ड शिवा, स्वामी विवेकानंद, आल्बर्ट आइन्स्टाइन, खलील जिब्रान, रेने डेकार्ट, फ्रैंज काफ्का, सॉरेन कीर्केगार्ड। उन्हीं पोस्ट में ये इन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं नाद, ब्रह्म।
कह रहे हैं कि मैं कौन हूँ, “मैं वो हूँ जो समवेयर बिटवीन न्यूरॉन्स एन्ड नैरेटिव” (न्यूरॉन्स और कथा के बीच कहीं) है। वेद मन्त्रों को बार-बार लिख रहे हैं, ‘गेम थ्योरी’ जैसे शब्द इनके हैशटैग्स में बार-बार पाये गये हैं। “नमः शिवाय च शिवतराय च” ये श्लोक एक इंस्टाग्राम पोस्ट में मिला, गिटारिस्ट थे, पेन्टिंग करते थे। अद्वैत, डूऐलिटी, नॉन डूऐलिटी जैसे हैशटैग्स मुझे इनके इंस्टाग्राम पोस्ट में मिले हैं। जोनाथन लिविंगस्टोन सीगल को इन्होंने कोट किया है। एक पोस्ट था जो इन्होंने ‘प्रज्ञान’ शब्द पर आधारित किया था।
एक इनका इंस्टाग्राम पोस्ट है जो इनकी पचास सपनों की व्याख्या करता है। उन्होंने लिखा कि मैं जबतक जीवित हूँ ये पचास काम करूँगा। उसमें से कुछ काम ऐसे हैं जो मुझे बड़े रोचक लगे, उनकी सूची आप तक बताता हूँ:
मैक एक डॉक्यूमेन्ट्री ऑन स्वामी विवेकानंद (स्वामी विवेकानंद पर एक वृत्तचित्र बनाना), अन्डरस्टैन्ड वैदिक एस्ट्रॉलॉजी (वैदिक ज्योतिष को समझना), प्लैन्ट थाउज़न्ड ट्रीज़ (हज़ार पेड़ लगाना), लर्न एटलीस्ट टेन डान्स फॉर्म (कम से कम दस नृत्य शैली सीखना), वर्क फॉर फ्री एजुकेशन (मुफ़्त शिक्षा) के लिए काम करना, लर्न क्रिया योग (क्रिया योग सीखना), मेडिटेट इन कैलाश (पर्वत पर ध्यान करना)।
आचार्य जी, ये कोई मनोरोगी तो नहीं लग रहे है मुझे, ये कैसे हुआ, क्या बात है?
आचार्य: देखो, श्रीमद्भगवद्गीता का पन्द्रहवाँ अध्याय याद है न? कुछ दिन पहले पढ़ाया था। कहते हैं कृष्ण की ये संसार एक उल्टा पीपल का पेड़ है। और उस पर वार्ता करते हुए मैंने कहा था कि समझ लेना कि इस दुनिया में जो कुछ है वो उल्टा ही उल्टा है। कृष्ण बोले, “ये दुनिया ऐसा पेड़ है जिसकी जड़ें ऊपर हैं और साखे नीचे।” तो क्या हो रहा है और उसको किस रूप से प्रदर्शित किया जा रहा है इस दुनिया में वो अक्सर बड़ा उल्टा होता है।
आज ही मृत्यु हुई है दुखद, तो लोग संवेदना ही प्रकट कर रहे होंगे। और संवेदना प्रकट करते समय कह रहे हैं कि अरे! ये तो मानसिक रोग के शिकार थे;ये मनोरोगी थे। ऐसा कहकर के मानो जता रहे हों जैसे कि वो मृतक के बड़े शुभाकांक्षी हों और मृतक से बड़ी सहानुभूति रखते हों। क़रीब-क़रीब इस लहजे में श्रद्धांजलि दी जा रही होंगी कि बड़ा प्रतिभावान कलाकार था, अभी बहुत कुछ कर सकता था, उम्र ही क्या थी, पर बेचारा मनोरोग को संभाल नहीं पाया। उनके शब्दों में कहेंगे तो वो कहेंगे, ’ही कुड नॉट हैंडल हिज़ मेंटल डिसॉर्डर एन्ड डिप्रेशन’ (वो अपने मानसिक विकार को और अवसाद को संभाल नहीं सका)।
तो भले ही वो मौखिक रूप से सहानुभूति दे रहे हैं और जब मैं कह रहा हूँ ‘वो’ तो मेरा आशय क़रीब-क़रीब पूरी दुनिया से है जो आज मरनेवाले के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रही है। तो भले ही वो मौखिक रूप से सहानुभूति प्रदर्शित कर रहे हैं। लेकिन धीरे से, नीचे से, छुपे-छुपे वो कह यही रहे हैं कि जिसकी मृत्यु हुई है उसकी मृत्यु उसके अपने ही रोगी होने के कारण ही हुई है।
तो मृत्यु का कारण वो किसको बता रहे हैं?
घुमा-फिरा के, छुपा-छुपा के, सहानुभूति और श्रद्धांजलि देने वाले लोग भी मृत्यु को कारण अप्रत्यक्ष रूप से मृतक को ही बता रहे हैं। कि काश! ये सामने आ जाते, काश! ये किसी मनोचिकित्सक से सलाह ले लेते, काश! ये अपने जानने वालों प्रियजनों और दोस्तों के पास जाकर के ये अपने मन का हाल बयान कर देते, तो ये बच जाते।
एक-दो लोगों ने यहाँ तक कहा है कि अरे! ग़लती हो गयी हमें जाकर के इनसे बात कर लेनी चाहिए थी, अगर हमने इनसे वक़्त पर बात कर ली होती तो शायद ये दुर्घटना न घटती। लेकिन जो कुछ भी कहा जा रहा है उसमें ले-दे-कर भावना यही है कि मृतक एक कमज़ोर व्यक्ति था जिसे सहारे की ज़रूरत थी। और वो सहारा उसे या तो उसके दोस्तों से मिलता या परिवारजनों से मिलता या फिर किसी चिकित्सक से या दवाइयों से मिलता।
कहने का आशय यही है कि जो गया है वो अपनी ही बीमारी और अपनी ही कमज़ोरी के कारण गया है, वैसे आदमी अच्छा था! कहनेवालों की जो अदा है, जो तरीक़ा है उसको देखो कि आदमी बहुत अच्छा था लेकिन बेचारा अपनी बीमारी को संभाल न पाने के कारण चला गया। काश! उसको किसी ने मदद दे दी होती या काश! उसने किसी से मदद माँग ली होती। तो इस तरह की बातें कही जा रही हैं।
इन बातों में कहीं पर भी ऐसा नहीं है जिसमें इस घटना और ऐसी तमाम अन्य घटनाओं के मूल कारण की चर्चा की जा रही हो। कुछ लोग तो यहाँ तक सोशल मीडिया पोस्टिंग कर रहे हैं कि ये साल ही ख़राब है, २०२०। लोगों ने ऐसी दुखद घटनाओं की जो विवेचना करी है उसकी ज़रा आप गहराई देखिए, कितनी उथली विवेचना करते हैं लोग। लोग कह रहे हैं, २०२० ही कितना बुरा है, ये न जाने कितने और लोगों को लेकर जाएगा, अभी तो छ: महीने और बाक़ी हैं। जैसे कि षड्यंत्र साल ने रचा हो, जैसे, इस वर्ष ने कोई साज़िश करी हो हमारे ख़िलाफ़।
तो ग़लती किसकी है?
ग़लती कभी मरने वाले की है, ग़लती कभी इस साल २०२० की है। लेकिन ग़लती कभी इस पूरे समाज की हम जिस साझी अवधारणा का, हम जिस साझे आदर्श का पालन कर रहे हैं उसकी बिलकुल नहीं है। हम ये मानने को तैयार नहीं है कि हमारे पूरे तौर-तरीकों में ही कुछ ऐसा बहुत ग़लत हो सकता है जिसके कारण अच्छे लोगों को भी आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ सकता हो। इसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा है।
तो मनोरोग की तरफ इशारा कर देना या मृतक की ही ग़लती निकाल देना या मृतक के प्रति उथली सहानुभूति व्यक्त कर देना— ये सब बड़े सस्ते तरीक़े हैं मूल कारण की ओर आँखें बंद कर लेने की। क्योंकि मूल कारण पर जाएँगे तो हम सबको अपनी ज़िन्दगी की ओर देखना पड़ेगा। हम कहना चाहते हैं कि दुनिया जैसी है क़रीब-क़रीब ठीक ही है, कुछ लोग होते हैं जो इस दुनिया से संतुलन नहीं बना पाते, जो इस दुनिया से समायोजित नहीं हो पाते, एडजेस्टेड नहीं हो पाते, वो बेचारे डिप्रेशन आदि में चले जाते हैं और डिप्रेशन अगर उनका बहुत गंभीर हो गया तो फिर कई बार वो आत्महत्या जैसा घातक क़दम भी उठा लेते हैं।
मुझे कृष्णमूर्ति याद आ रहे हैं, उन्होंने कहा था, “इट इज़ नो मेज़र ऑफ हेल्थ टू बी वेल एडजेस्टेड टू ए प्रोफाउन्ड्ली सिक सोसायटी” (कोई अगर इतने रोगी समाज से संतुलन नहीं बैठा पा रहा है तो वो व्यक्ति रोगी नहीं है, वो समाज रोगी है।)
और अगर कोई ऐसा है जो इतने रोगी समाज के बीच बहुत अच्छे से समायोजित होकर, एडजेस्टेड होकर खुशहाल ज़िन्दगी जी रहा है तो उस व्यक्ति को आप स्वस्थ नहीं बोल सकते। आप ये नहीं कह सकते कि एक रोगी समाज के साथ संतुलित जीवन जीने वाला व्यक्ति बड़ा स्वस्थ है, नहीं बिलकुल भी नहीं। अब अगर समाज ही बहुत ज़बरदस्त क़िस्म से रोगी हो और जिस उद्योग, जिस फिल्म इन्डस्ट्री में आप काम कर रहे हों वो तो और भी गहरे तरीक़े से रोगी हो तो मुझे बताओ कि उसमें कोई भी स्वस्थ व्यक्ति कितने दिन चल पाएगा।
जिन चिंतकों की आपने चर्चा करी अभी, आज एक दर्जन प्रश्नकर्ताओं ने इसी आत्महत्या के मुद्दे को लेकर के प्रश्न पूछे हैं। और उनमें से बहुत लोगों ने जैसा कि अभी आपने बताया नाम लिया है, विन्सेंट वैन गो का, काफ्का का, उपनिषदों का, शिवसूत्र का, वैदिक मन्त्रों का, स्वामी विवेकानंद का। तो ये जो कलाकार थे जो आज नहीं रहे, ये एक सोचने-समझने वाले चिन्तक कलाकार थे। और सोचने-समझने की ताक़त रखने वाले, चिन्तन की क्षमता रखने वाले लोग तो दुनिया में ही बहुत कम हैं और फिल्म इन्डस्ट्री में तो वो बिलकुल अकेले पड़ जाते हैं। कौन आएगा उनके पास क्योंकि वो तो समझते हैं न चीज़ों को।
ऐसा थोड़े ही हो पाएगा कि आप उपनिषद् पढ़ रहे हैं, आप शिवसूत्र पढ़ रहे हैं, आप स्वामी विवेकानंद को पढ़ रहे हैं और उसके बाद भी फ़िल्म-इन्डस्ट्री में जो कुछ चल रहा है घटिया, सस्ता और उथला आपको उसकी व्यर्थता और मूर्खता नज़र नहीं आएगी।
और अगर आपके आसपास सब लोग ही ऐसे हों जो व्यर्थ चीज़ों में ही जीते हैं, जिन्होंने खाल को ही हथियार बनाकर सफलता और पैसे अर्जित करने का गुर सीख लिया हो;तो आपकी कैसे निभेगी उनके साथ; कैसे पटेगी उनके साथ, आप तो अलग-थलग पड़ ही जाओगे न। आप एक तरह से समाज बहिष्कृत हो जाओगे, अकेलापन आपका जीवन बन जाएगा।
ये जो प्रश्न आयें हैं उन्हीं में से एक प्रश्नकर्ता ने इशारा किया है कि कहीं से किसी ने पोस्टिंग करी है कि सुशांत सिंह कहते थे कि उनको तो अब बॉलीवुड में सभा-समारोह में भी आमंत्रित वगैरह नहीं किया जाता है। और कुछ पिक्चरें थी उनकी जो व्यावसायिक रूप से सफल रही थीं वो फिल्में बनी भी अच्छी थीं लेकिन उसके बाद भी शायद उनके पास ज़्यादा फिल्में भी नहीं थीं। बात समझ रहे हो?
बहुत मुश्किल है इस दुनिया में किसी सोचने-समझने वाले आदमी का, किसी अकलमंद आदमी का, किसी बुद्धिजीवी आदमी का बने रह पाना, अपनी शर्तों पर जी पाना, कायम रह पाना, लोग आपको जो झुकाना चाहेंगे, लोग आपको तोड़ना चाहेंगे। वो पागलों के राज्य वाली कहानी सुनी है न—“किसी छोटे से राज्य में एक बार एक जादूगर आ गया, उसने क्या किया कि उस राज्य के जितने कुएँ थे सबमें एक दवाई मिला दी और उस दवाई के कारण सब लोग पागल हो गये, उसी कुएँ से पानी पीकर के पागल हो गये। ले-दे-कर राजा बचा जो पागल नहीं हुआ था। राजा ने बहुत कोशिश की, बहुत कोशिश की अपने लोगों को समझाने की उनका विवेक, उनकी बुद्धि वापस लाने की पर लोग तो लोग हैं, लोगों को नहीं समझना था नहीं समझे बल्कि लोगों ने घोषित कर दिया कि ये राजा ही पागल है। लोगों ने कहा, हम सब ठीक हैं ये जो राजा है यही पागल है और हम सब ठीक ही हैं क्योंकि हम ही तो बहुमत में हैं न। हम इतने सारे लोग हैं और हम सब एक सा व्यवहार करते हैं, एक सी बातें करते हैं। तो इतने सारे लोग जिस तरीक़े से चल रहे हैं वो तरीक़ा ही ठीक होगा, ये राजा ही बिलकुल अलग है ज़रूर इसी में खोट है। थोड़े समय बाद पाया गया कि राजा ने भी जाकर के किसी कुएँ का पानी पी लिया है, राजा भी उनमें से एक हो गया, वो भी पागल हो गया।“
बड़ा मुश्किल होता है मूर्खों के बीच रह करके अपना संतुलन, अपना विवेक, अपनी बुद्धि कायम रखना, शान्त रहना, केन्द्रित रखना, स्थिर रहना। लोग नहीं कर पाते। बात समझ में आ रही है? और उस पर तुर्रा ये कि ये नहीं कोई स्वीकार करना चाहता कि ये दुनिया ऐसी हो गयी है जिसमें किसी गहरे और समझदार आदमी का जीना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है।
जानते हो, तरह-तरह के कैंसर, डायबिटीज़, ओस्टियोपोरोसिस, कई तरीक़े के त्वचा रोग, ह्रदय रोग बहुत सारे इन सब को कहा जाता है डिज़ीज़ेस ऑफ़ मॉडर्निटी (आधुनिकता के रोग)। आधुनिक काल से पहले ये बीमारियाँ बहुत कम पायी जाती थीं। इसी तरीक़े से मनोरोग, ख़ासकर पर डिप्रेशन, ऐंगज़ाइइटी, अब्सेशन, कम्पल्सिव अब्सेशन— ये सब भी आधुनिक समय की बीमारियाँ हैं, ये आधुनिकता की बीमारियाँ हैं, ये मॉडर्निटी की देन हैं।
क्या है मॉडर्निटी? वास्तव में जिन तरीक़ों से ये नापा जाता है न कि कोई समाज कितना मॉडर्न है, आधुनिक है, उनमें से एक तरीक़ा ये भी होता है कि देखो कौनसा समाज अभी परम्पराओं का कितना पालन कर रहा है। उदाहरण के लिए अभी अगर आपको आँकना है एक सांख्यिकीय तरीक़े से, एक नूमेरिकल स्केल पर आपको नापना है कि कोई कबीला कितना मॉडर्न हो गया है पिछले तीस सालों में। एक कबीला है मान लीजिए भारत में, अफ्रीका में, कहीं भी। आपको नापना है कि वो अब कितना आधुनिक हो गया तो आप ये नापोगे कि उस कबीले के कितने लोग हैं जो अभी भी पुरानी परम्पराओं का पालन करते हैं। तो जिसे वो मॉडर्निटी कहते हैं उसका एक बड़ा केन्द्रीय तत्व है परम्परा से विमुख होना। परम्परा को छोड़ो अपनी अकल लगाओ अपने हिसाब से चलो और परम्परा को छोड़ने में ये भी शामिल हो जाता है कि जो कुछ पुराना है उसे छोड़ दो और सबसे जो पुराना है जो इंसान को इंसान ही बनाता है वो तो धर्म ही है।
वास्तव में इंसान की शुरुआत ही धर्म के साथ होती है जबतक धर्म नहीं था उससे पहले इंसान थोड़ी थे हम, जानवर थे। तो मॉडर्निटी के नाम पर सबसे पहले बलि दी जाती है अध्यात्म की। ये कोई संयोग नहीं है कि जिनकी मृत्यु हुई वो अध्यात्म में रूचि रखते थे। जो अध्यात्म में रूचि रख रहा है और एक ऐसी इन्डस्ट्री में है जहाँ पर आपको किसी भी तरीक़े से पुरानी किसी भी परम्परा का पालन करना ही नहीं है उस बेचारे की तो दुर्गति हो ही जाएगी न।
और नतीजा ये निकला है सब पुरानी चीज़ों को परम्पराओं को छोड़ने का कि जो समाज जितना ज़्यादा विकसित है उस समाज में मनोरोग उतने ज़्यादा हैं। आप रिसर्च पेपर्स (शोधपत्र) उठाकर के देखिए। मेन्टल डिसॉर्डर और पर कैपिटा जीडीपी (प्रति व्यक्ति आय) में स्ट्रॉंगली पॉज़िटिव कोरिलेशन (दृढ़ता से सकारात्मक सहसम्बन्ध) है। किसी भी देश में प्रति लाख व्यक्ति कितने मनोरोगी हैं और उस देश की प्रति व्यक्ति आय कितनी है उसमें स्टेटिस्टिकली सिग्निफिकेन्ट पॉज़िटिव कोरिलेशन (सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण सहसम्बन्ध) है। और आय आपकी बढ़ती ही है और ज़्यादा और ज़्यादा बुद्धि का प्रयोग करके और बुद्धि का प्रयोग किया किस दिशा में जाता है अगर आपके पास धर्म और अध्यात्म नहीं है तो—अगर धर्म अध्यात्म नहीं है तो फिर आपके जीवन में त्याग और संयम और संतोष और करुणा और सत्य भी नहीं हो सकते क्योंकि ये तो अध्यात्म से ही आने हैं। तो फिर आपकी बुद्धि किधर को चलेगी— फिर आपकी बुद्धि सिर्फ़ और सिर्फ़ चलती है दैहिक भोगों की तरफ़। बात को समझना।
मॉडर्निटी दो बातें कहती हैं: पहली, अपनी बुद्धि, अपनी तर्क, अपनी इच्छाओं, पर जिओ। ये आधुनिकता के स्तम्भ हैं। मेरी बुद्धि, मेरा तर्क और मेरी इच्छाएँ। आप अगर जो अकादमिक (शैक्षिक) परिभाषा भी है मॉडर्निटी की उसको देखोगे तो उसमें बहुत केन्द्रीय रूप से आते हैं, इन्डस्ट्रीलाइज़ेशन और सेकुलराइज़ेशन। यूरोप में जब एज ऑफ़ एन्लाइटन्मेन्ट (प्रबोधन काल) आया और ये शब्द उभर करके प्रमुख हुआ सेकुलर तो इसका अर्थ जानते हो क्या था— तो इसका अर्थ सीधे-सीधे था धर्म का माने चर्च का विरोध। तो मॉडर्निटी तो उसी एज ऑफ़ एन्लाइटन्मेन्ट की ही पैदाइश है पूरी। तो उसमें ये बात बहुत केन्द्रीय रूप से आ गयी है कि अगर आप मॉडर्न हैं तो आपको धर्म का विरोध करना ही करना है। अब अगर धार्मिक रुख रखने वाला एक जवान आदमी एक ऐसे युग में फँस गया हो और एक ऐसे देश में फँस गया हो और एक ऐसी इन्डस्ट्री, ऐसे शहर में फँस गया हो, जहाँ अध्यात्म का नाम लेना ही गुनाह हो, वो जिएगा कैसे!
दुनिया में इस वक़्त चालीस करोड़ से ज़्यादा मनोरोगी हैं और ये सिर्फ़ वो हैं जो घोषित हो चुके हैं। जो दबे-छुपे हैं, जो उभरकर के सामने ही नहीं आ रहे हैं या जिनको स्वयं भी नहीं पता कि वो लगातार उदास और तनावग्रस्त क्यों रहते हैं, उनकी अभी गिनती नहीं की गयी है। उनकी गिनती करेंगे तो आँकड़ा भयावाह हो जाएगा। हमें पूछना पड़ेगा अपनेआप से कि अगर आधुनिकता की क़ीमत हमको तमाम तरह के शारीरिक रोगों को पाकर चुकानी पड़ रही है और शारीरिक रोगों से आगे मनोरोगों को पाकर चुकानी पड़ रही है तो ज़रूर इस आधुनिकता में कहीं कोई बहुत केन्द्रीय खोट है न। और इस आधुनिकता में केन्द्रीय खोट यही है कि इसमें अध्यात्म के लिए बहुत कम स्थान है। ये आधुनिकता कहने को धर्मनिरपेक्ष है, ये वास्तव में धर्मविरोधी है, समझिएगा।
ऊपर-ऊपर से तो इसको कह देते हैं कि ये धर्मनिरपेक्ष है न, ये है धर्मविरोधी है, मैं इसके धर्मविरोधी होने की बात इसीलिए भी कर रहा हूँ क्योंकि वो समाज जो अभी भी तथाकथित पिछड़े हुए हैं उनमें आत्महत्या की दर फिर भी कम पायी जाती है और जो जगह जितनी उन्नत होती जा रही है वहाँ पर तनाव और आत्महत्या दोनों ही बढ़ते जा रहे हैं। वैसे भी हमें ज्ञात ही होगा की आत्महत्या जो लोग करते हैं उनमें से साठ प्रतिशत से ज़्यादा लोग तनाव के, अवसाद के और अन्य मानसिक बीमारियों के रोगी होते हैं। तो आत्महत्या में और मनोरोग में तो वैसे भी बहुत सीधा-सीधा सम्बन्ध है, बड़े निकट का सम्बन्ध है।
भारत में ही ले लीजिए आपको ताज्जुब होगा ये जान करके कि सबसे कम आत्महत्याएँ कहाँ पर होती हैं भारत में। सबसे कम आत्महत्याएँ जो भारत सबसे तथाकथित रूप से पिछड़े हुए राज्य हैं वहाँ पर होती हैं। बिहार में, झारखंड में, उत्तर प्रदेश में, यहाँ सबसे कम होती हैं। और वो राज्य जो अपेक्षाकृत उन्नत हो गये हैं बौद्धिक रूप से, दक्षिण भारत के राज्य, पश्चिम बंगाल वग़ैरा— यहाँ सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ होती हैं।
ज़रूर ये जो तरीक़ा है और ज़्यादा बुद्धि पर चलने का, बिना ये जाने की बुद्धि को चला कौन रहा है, वास्तव में ये तरीक़ा सिर्फ़ अहंकार का है और अहंकार बड़ा अकेला, बड़ा उदास होता है। अगर आपने जीवन को सिर्फ़ बुद्धि आश्रित कर दिया है और उस बुद्धि के न तो मूल को पहचाना है, न उस बुद्धि की गहरी आकाँक्षा को पहचाना है तो आपकी बुद्धि आत्मघाती हो जाएगी, आपकी बुद्धि आपको ही खा जाएगी, आपकी बुद्धि चलेगी तो ज़रूर, लेकिन आप ही के ख़िलाफ़ चलेगी।
बात समझ में आ रही है? हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि पिछले पन्द्रह सालों में ही २००५ से २०२० के बीच में ही दुनिया के मनोरोगियों में बीस प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया है। और सबसे ज़्यादा मनोरोगी जानते हो किस आयु वर्ग में उभरकर के आ रहे हैं— युवाओं में।
बताओ युवाओं में ही क्यों?
क्योंकि युवा वर्ग ही है जो ज़्यादा से ज़्यादा अपनी जड़ों से कटता जा रहा है, अपने अतीत से कटता जा रहा है। अब इस तरह की युवाओं की जहाँ भीड़ हो, उनके बीच में अगर कोई स्वस्थ व्यक्ति भी फँस जाए तो उस बेचारे का हाल क्या होगा? गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाना है। बात समझ में आ रही है?
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दुनिया में ऐंगज़ाइइटी का स्तर बहुत बढ़ गया था, ख़ासतौर पर उन मुल्कों में जो उस युद्ध में शामिल थे। फिर आया उन्नीस सौ साठ का दशक और जो दुनिया में जो औसत स्तर था तनाव का वो गिर गया। और उसके बाद से लगातार बढ़ता ही रहा है, बढ़ता ही रहा है और अब बहुत ज़्यादा घातक स्तरों पर पहुँच चुका है। हम अपने बाहरी माहौल को जितना ज़्यादा जीतते जा रहे हैं अन्दर की लड़ाई हम उतनी ज़्यादा हारते जा रहे हैं। प्रकृति को हम जीतते जा रहे हैं, आकाश को जीतते जा रहे हैं, चाँद-तारों को जीतते जा रहे हैं लेकिन अपने ही भीतर जो अज्ञान, अँधेरा, छल और कपट बढ़ता जा रहा है उसके सामने हम घुटने टेके दे रहे हैं।
जो फ़िल्म इन्डस्ट्री है उसका ही हाल देख लो न। कितनी सामग्री उस फ़िल्म इन्डस्ट्री से आती है जो वास्तव में इंसान की चेतना को ऊँचा उठाए, जो इंसान को ऊँचे आदर्शों और ऊँचे मूल्यों की ओर प्रेरित करें, मुझे बताओ? जितने गीत आते हैं उस इन्डस्ट्री से कितने प्रतिशत ऐसे होते हैं कि जिनको अगर तुम सुनो तो जीवन में ऊँचे उठने की प्रेरणा मिले, सही और सच्चे काम करने की प्रेरणा मिले, मन में साहस जगे, प्रेम का सच्चा रूप पता चले।
तुम्हारा प्रेम कामुकता से हटकर के साहस, संकल्प और समर्पण की ओर बढ़े, ऐसे कितने गीत आते हैं बताओ—दो प्रतिशत, चार प्रतिशत शायद उतने भी नहीं। और फ़िल्में ऐसी अब कितनी आ रही हैं पिछले बीस-तीस सालों में मुझे बताओ जो वाक़ई तुम अगर देखो तो एक बेहतर इंसान बन पाओ। दो प्रतिशत, चार प्रतिशत। एक से एक ऊटपटाँग, ऊल-जलूल और आदमी को पतन में ले जाने वाली सामग्री का उत्पादन होता है फ़िल्म इंडस्ट्री में। निश्चित रूप से वहाँ जो लोग हैं जो ऐसी सामग्री का उत्पादन कर रहे हैं, वो भी अपनी सामग्री जैसे ही हैं। अगर सामग्री कचरा है और विषैली है और पतित है तो ये जो लोग भी होंगे वहाँ पर जो इस तरह की सामग्री का दिन-रात उत्पादन का रहे हैं, वो भी लोग कचरे ही हैं, ज़हरीले ही हैं, घातक ही हैं। ऐसे लोगों के बीच में अगर ऐसा आदमी फँस गया जो योग में और ज्ञान में और भक्ति में और विवेकानंद में और कबीर साहब में और रूमी में रुचि रखता था तो उसको कैसा लग रहा होगा, वो कैसे जी पा रहा होगा, कहो?
कोई ताज्जुब की बात नहीं कि उसको फ़िल्में ज़्यादा नहीं मिल रही होंगी या मिलनी बहुत ही कम हो गयी होंगी। और फ़िल्में नहीं भी मिले तो चलो कोई बात नहीं। कोई जी नहीं सकता ऐसे माहौल में जहाँ उसके चारों ओर बहुत ही निम्नस्तरीय लोग जमा हों जो लगातार सत्य विरोधी बातें ही करते रहते हों, जिनका पूरा कारोबार ही जनता की निचली भावनाओं को उत्तेजित करके चलता हो।
अभी किसी ने कहा कि दिवंगत व्यक्ति को बॉलीवुड की पार्टी वगैरह में आमंत्रित नहीं किया जाता था। कैसे आमंत्रित किया जाए? मैं जानता नहीं हूँ इसकी हक़ीक़त क्या है, ये बात तथ्य है भी या नहीं है पर अगर ये बात सही है तो। अगर ये बात सही है तो मुझे बताओ उनको कैसे आमंत्रित किया जाए। क्या माहौल होता होगा उन पार्टियों में जानते नहीं हो, कल्पना नहीं कर सकते हो। नब्बे प्रतिशत तो जिस्म दिखाने का खेल चलता है। फ़िल्म हिट कराने के लिए बहुत आसान है कि लोगों को युद्धोन्मादी बना दिया जाए, कामुक बना दिया जाए, हिंसक बना दिया जाए, तेज गति की फ़िल्में बनायी जाए, जिनमें देखने वालों को, दर्शकों को, सोचने-समझने का वक़्त ही न मिले, भड़काऊ संगीत हो, नंगे-नाच हों। किसी भी तरह की बुद्धिमत्ता की, गहराई की, कोई बात ही न हो। ये सबकुछ तो सीधे-सीधे स्क्रीन पर हो रहा होता है, ये सबकुछ तो सीधे-सीधे उस इन्डस्ट्री का उत्पाद है। स्क्रीन के पीछे पार्टी चलती है, उस पार्टी में सोचो और क्या-क्या हो रहा होता होगा।
अब आप अलग-थलग पड़ोगे न, दोस्त-यार नहीं बन पाएँगे आपके, आप एक मिस्फिट (अनुपयुक्त) एक आउटसाइडर (बाहरी) कहलाओगे उस इन्डस्ट्री में। और बात ये उस इन्डस्ट्री बॉलीवुड की तो है ही, बात इस पूरे समाज की भी है। वो फ़िल्में चल ही इसीलिए पा रही है न क्योंकि ये पूरा समाज ही आतुर रहता है वैसी फ़िल्मों को देखने को। जितनी घटिया और इतनी कामोत्तेजक और कितनी नंगी और जितनी बेहूदी फ़िल्म बना दी जाएगी, वो तुरन्त तीन-चार सौ करोड़ का व्यापार कर ले जाएगी। ये तीन-चार सौ करोड़ उस फ़िल्म के निर्माता को, प्रोड्यूसर को किसने दिया— आपने और मैंने दिये न, हमारे टिकट के ही पैसे से वो चार सौ करोड़ कमा ले गया, आप ही तो जाते हैं न वो फ़िल्में देखने के लिए। जब आप वैसी फ़िल्में देखने जाते हैं तो वैसे ही निर्देशक, निर्माता और ज़्यादा सबल होते जाते हैं और और ज़्यादा उसी तरह की फ़िल्मों का, गीतों का और सामग्री का निर्माण होता जाता है। फिर उस इन्डस्ट्री में वैसे ही लोगों का वर्चस्व होता जाता है जो उस तरह की धारणा और मानसिकता रखते हैं। वैसे ही लोग वहाँ छाते चले जाएँगे। घटिया लतीफों पर हँसना, बेहूदे अश्लील चुटकुले, कॉमेडी और रोस्टिंग के नाम पर बेहूदी, फूहड़, अश्लील गालियों का व्यापार और इन सब चीजों का सुपरहिट हो जाना— ये हमने और आपने ही तो करवाया है न। तो जब इस तरह का गन्दा, घटिया सांस्कृतिक माहौल हमने पैदा कर दिया है तो मुझे बताइए कि कोई कैसे जिएगा यहाँ पर— जो वोल्टेयर और शोफेनहॉवर की बातें करता हो;जो अनपढ़ न हो;जो फिज़िक्स ओलंपियाड में राष्ट्रीय स्तर तक जा चुका हो। जिसने देश के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश परीक्षा में एक उच्च स्थान हासिल कर रखा हो। जिसकी बुद्धि चलती हो, जो खोपड़े से ख़ाली न हो;वो आदमी जिएगा कैसे।
आप अभी कह रहे थे वैन गो की बात कर रहे थे आप। ‘स्टारी स्टारी नाइट’ उनकी एक पेन्टिंग है उसपर एक गीत लिखा है (डॉन मैकलीन या किसने देखिएगा) वो बहुत सुंदर गीत है, अपने कॉलेज के दिनों से मैं उसको गुनगुनाया करता था तो उसमें एक पंक्ति आती है कि:
”एंड देन यू टुक योर लाइफ़, एज़ लवर्स ऑफ़्न डू फॉर दिस वर्ल्ड वाज़ नेवर मेंट फॉर वन एज़ ब्यूटीफुल एज़ यू” ~डॉन मैकलीन
(और फिर तुमने अपनी जान ले ली जैसा प्रेमी अक्सर करते हैं क्योंकि यह दुनिया कभी तुम्हारे जैसे ख़ूबसूरत इंसान के लिए बनी ही नहीं थी)
ये बात विंसेंट के लिए कही गयी थी उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। यही बात उन सब सृजनात्मक लोगों पर लागू होती है जो अपने समय से और अपने समाज से समायोजित नहीं हो पाते। वो कुछ कहना चाहते हैं, लोग सुनते नहीं हैं, इसी गीत में और भी पंक्तियाँ हैं कि:
”दे वुड नॉट लिसन, दे डिड नॉट नो हाउ पर्हैप्स दे विल लिसन नाउ
स्टारी, स्टारी नाइट फ्लेमिंग फ्लावर्ज़ दैट ब्राइटली ब्लेज़ स्वर्लिंग क्लाउड्स इन वायलेट हेज़ रिफ़लेक्ट इन विन्सेंट्स आइज़ ऑफ़ चाइना ब्लू
कलर्स चेन्जिंग ह्यू मॉर्निंग फील्ड्स ऑफ एम्बर ग्रेन वेदर्ड फेसेज़ लाइन्ड इन पेन आर सूथ्ड बिनीथ दी आर्टिस्ट्स लविंग हैंड
नाउ आई अंडरस्टैंड व्हाट यू ट्राइड टू से टू मी एन्ड हाउ यू सफर्ड फॉर योर सेनिटी एन्ड हाउ ट्राइड टू सेट देम फ्री
दे वुड नॉट लिसन, दे डिड नॉट नो हाउ पर्हैप्स दे विल लिसन नाउ
फॉर दे कुड नॉट लव यू बट आई कुड हैव टोल्ड यू विन्सेंट दिस वर्ल्ड वाज़ नेवर मेन्ट फॉर वन एज़ ब्यूटीफुल एज़ यू
स्टारी, स्टारी नाइट पोर्ट्रिट हंग इन एम्प्टी हॉल्स फ्रेम-लेस हेड्स ऑन नेमलेस वॉल्स विथ आइज़ दैट वॉच द वर्ल्ड एन्ड कैन्ट फॉरगेट
लाइक दी स्ट्रैन्जर दैट यू हैव मेट दी रैगड मेन इन रैगड क्लोथ्स दी सिल्वर थॉर्न ऑफ ब्लडी रोज़ लाइ क्र्श्ड एन्ड ऑन दी वर्जिन स्नॉ
नाउ आई थिंक आई नो व्हाट यू ट्राइड टू से टू मी एन्ड हाउ यू सफर्ड फॉर योर सैनिटी एन्ड हाउ यू टाइड टू सेट देम फ्री
दे वुड नॉट लिसन , दे आर नॉट लिसनिंग स्टिल पर्हैप्स दे नेवर विल”
(अब, मुझे समझ आयी, आपने मुझसे क्या कहने की कोशिश की आपने अपनी विवेकशीलता के लिए कैसे कष्ट सहे आपने उन्हें कैसे मुक्त करने का प्रयास किया
वे नहीं सुनेंगे, वे नहीं जानते कि कैसे शायद वे अब सुनेंगे
तारों भरी रात ज्वलंत फूल जो चमकते हैं बैंगनी धुंध में घूमते बादल विन्सेंट की आँखों में नीला रंग झलकता है।
रंग बदलते रंग अंबर अनाज के सुबह के खेत दर्द से लथपथ चेहरे कालाकर के प्यार भरे हाथ के नीचे सुकून मिलता है। अब, मुझे समझ आयी,
आपने मुझसे क्या कहने की कोशिश की आपने अपनी विवेकशीलता के लिए कैसे कष्ट सहे आपने उन्हें कैसे मुक्त करने का प्रयास किया
वे नहीं सुनेंगे, वे नहीं जानते कि कैसे शायद वे अब सुनेंगे
क्योंकि वो तुमसे प्रेम नहीं कर सके फिर भी तुम्हारा प्यार सच्च था और जब कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी उस तारों भरी, उस तारों भी रात में
उस तारों वाली रात में तुमने अपनी जान ले ली, जैसा प्रेमी अक्सर करते हैं लेकिन मैं आपको बता सकता था, विन्सेंट यह दुनिया कभी बनी ही नहीं थी आप जैसे ख़ूबसूरत के लिए,
तारों भरी रात ख़ाली हॉल में चित्र में लटकाए गये नामहीन दीवारों पर फ्रेम-रहित सिर उन आँखों से जो दुनिया को देखतीं है और भूल नहीं पातीं
उन अजनबियों की तरह जिनसे आप मिले हैं मैले-कुचले कपड़ों में फटे-पुराने आदमी लहूलुहान गुलाब का चाँदी का काँटा निर्दोष बर्फ़ पर पीसे और टूटे हुए पड़े हो
अब, मुझे लगता है मैं जानता हूँ, आपने मुझसे क्या कहने की कोशिश की आपने अपनी विवेकशीलता के लिए कैसे कष्ट सहे आपने उन्हें कैसे मुक्त करने का प्रयास किया
वे नहीं सुनेंगे, वे अभी नहीं सुन रहे हैं शायद वे कभी ऐसा नहीं करेंगे।)
तो दो तरह के देखिए लोग होते हैं एक वो जिनको अपनी देह से आगे और ज़िन्दगी की छोटी-छोटी और छुद्र चीज़ों से आगे कुछ समझ में ही नहीं आता। और दूसरे वो जो बहुत दूर का देखते हैं, जो चाँद-तारों की ओर देखते हैं।
दिवंगत व्यक्ति भी, मुझे बताया गया है कि एस्ट्रोनॉमी का बड़ा शौक़ रखते थे। एक टेलिस्कोप (दूरबीन) वग़ैरा भी अपने पास रखा हुआ था, तारामंडल का अवलोकन करना— ये सब उनके शौक़ों में था। नासा में शायद कोर्स वग़ैरा भी करके आए थे, ये सब।
तो कुछ लोग होते हैं जो आगे का देखते हैं जो दूर का देखते हैं। ऐसे लोग हमेशा कम हुए हैं। लेकिन आज का समय तो ऐसे लोगों के लिए तो ख़ासतौर पर घातक है क्योंकि आधुनिकता के नाम पर, मॉडर्निटी के नाम पर आपको पूरी छूट दे दी गयी है कि आप बस वही करें जो आपकी वृत्ति, आपकी इच्छाएँ और आपकी सीमित बुद्धि आपसे करा रही है। आपसे कह दिया गया है कि किसी और की सुनने की ज़रूरत नहीं है। मन्त्र बता दिया गया है ‘चैलेंज एवरीथिंग’ (सबको चुनौती दो) और ‘चैलेंज एवरीथिंग’ के नाम पर आप जानते हो सिर्फ़ किस चीज़ को चैलेंज करते हो— जो बड़ा है, जो विशाल है, जो ऊँचा है आपसे आप उसको चैलेंज करते हो। और किस चीज़ को आप कभी भी चैलेंज नहीं करते, चुनौती नहीं देते— जो आपके ही भीतर आपकी ही छुद्रताएँ बैठी है उसको आप कभी चुनौती नहीं देते।
ये जितने आधुनिक लड़के-लड़कियाँ घूम रहे हैं सबका रवैया यही रहता है, जो कुछ भी ऊँचा दिखे, पवित्र दिखे, कालमान्य दिखे, परम्परागत दिखे, उसपर थूक दो। नथिंग इज़ सेक्रिड (कुछ भी पवित्र नहीं है)। हाँ, किस चीज़ का उत्सव मनाना है, सेलिब्रेट (जश्न) किस चीज़ का करना है, किस चीज़ को खूब मान्यता और प्रश्रय देना है। अपनी वासनाओं को उनको कभी चुनौती नहीं देनी है। अपनी जो छोटी-छोटी छुद्र, मूर्खतापूर्ण इच्छाएँ हैं, उनको कभी चुनौती नहीं देनी है। हाँ, जीवन में, संसार में जो भी चेतना को उठाता है, आपको बेहतर होने की प्रेरणा देता है उसकी ओर या तो पीठ कर लो या तो उसका विरोध करने लग जाओ;ये चल रहा है ।
हम इस समय एक महामारी के दौर से ग़ुजर रहे हैं, पर हमें पता होना चाहिए कि जो वास्तविक महामारी है विश्व में इस वक़्त द रियल पैन्डेमिक (असली महामारी) वो है मनोरोग, मेन्टल डिसॉर्डर्स जिनको मूड डिसॉर्डर भी बोलते हैं। वो बीमारी कितने करोड़ लोगों को लगी हुई है, ये गिनने की ज़रूरत नहीं, उसको ऐसे गिनिए कि वो मानवता के कितने बड़े भाग को लगी हुई है। मैं कहता हूँ “आधे से ज़्यादा लोगों को, शायद अस्सी प्रतिशत लोगों को, शायद नब्बे प्रतिशत लोगों को। क्योंकि मानसिक रूप से स्वस्थ तो सिर्फ़ वही हो सकता है जो आध्यात्मिक है और जो आध्यात्मिक नहीं है वो डिप्रेस्ड (उदास) और ऐंगशस (व्याकुल) तो रहेगा ही रहेगा भले उसे ख़ुद न पता हो या भले ही उसने अपने डिप्रेशन अपने अवसाद को बस उदासी का नाम दे दिया हो कि मैं तो यूँ ही थोड़ा सा उदास रहता हूँ।
पर उदासी की वास्तव में जो मूल वजह है, वो आत्मज्ञान का अभाव ही है, अध्यात्म का अभाव ही है ।
जबतक हम दुनिया में नहीं ऐसा सांस्कृतिक माहौल बनाते कि अध्यात्म को, आत्मविचार को किसी भी व्यक्ति की शिक्षा का अनिवार्य अंग माना जाए, तब तक दो तरीक़ो से मानवता चोट खाती रहेगी। वो दोनों तरीक़े साफ़-साफ़ समझ लीजिएगा। एक, अधिकांश लोग जो अँधेरे में डूबे हुए हैं, पंचानवे प्रतिशत लोग वो अपने अँधेरे के ही शिकार बनते रहेंगे क्योंकि वो तो डूबे ही अँधेरे में है। बस, इतनी सी बात है कि वो अँधेरा उन्हें बहुत प्यारा हो गया है, उस अँधेरे में उनकी कुछ वासनाएँ पूरी होने लग गयी हैं— तो वो कहेंगे यही कि हमारे साथ जो हो रहा है वो हमारा चुनाव है;हमें बुरा नहीं लग रहा;यही ठीक लग रहा है;हम भले ही अँधेरे में हैं पर हमें अँधेरे में ही रहना है।
तो पंचानवे प्रतिशत लोग इसीलिए डूबेगें क्योंकि वो अँधेरे में हैं और पाँच प्रतिशत लोग इसीलिए डूबेंगे क्योंकि वो तो उजाले में है पर उनके चारों और बाक़ी सब अँधेरे में हैं। तो डूबेंगे कुल मिलाकर सब सौ प्रतिशत लोग। बचेगा कौन, कोई बिरला जो अँधेरे-उजाले दोनों के पार निकल गया है। पर ऐसा तो कोई लाखों-करोड़ों में एक होता है, उनकी चर्चा करना व्यर्थ है तो उनको तो सौ प्रतिशत से बाहर ही रखो।
बात समझ में आ रही है?
पंचानवे प्रतिशत लोग इसीलिए जाएँगे क्योंकि उन्हें आत्मज्ञान की कोई इच्छा ही नहीं है, क्योंकि उन्हें आत्म-जिज्ञासा के और अध्यात्म के कोई संस्कार ही नहीं मिले तो इसलिए वो बर्बाद ही होंगे। और पाँच प्रतिशत लोग इसीलिए दुख झेलेंगे क्योंकि वो तो कुछ उजाला पा चुके हैं, उनकी आँखें तो कुछ खुली हुई हैं उनकी बुद्धि तो थोड़ी जागृत है लेकिन वो जिस समाज में हैं या जिस इन्डस्ट्री में हैं जिस माहौल में है उस माहौल में वो घिरे हुए किन लोगों से हैं— सब अँधेरे लोगों से घिरे हुए हैं।
तो आज ये जो दुखद घटना हुई है अभी तो आने वाले दिनों में हो सकता है छानबीन हो तो कुछ बातें कुछ विस्तार से सामने आयें। मैं अभी उन पर कुछ कह नहीं सकता पर एक बड़ी संभावना ये है कि मृतक उन पाँच प्रतिशत लोगों में थे इनको कुछ प्रकाश दिखायी देने लग गया था।
लेकिन आपका प्रकाश अगर दिये बराबर हो और काली अँधियारी रात हो और तेज हवाएँ चल रही हो तो आप का दिया बहुत देर तक जल नहीं पाता। कुछ देर जलता है, ख़ूबसूरत लगता है, कुछ लोगों को प्रेरणा भी देता है, आनन्द भी देता है पर थोड़ी ही देर बाद अपनी आयु पूरी किये बिना वो दिया फड़फड़ा करके दम तोड़ देता है।
समझ में आ रही है बात?
गहराई के अलावा, बोध के अलावा, आत्मज्ञान के अलावा, आध्यात्म के अलावा और वेदांत और उपनिषदों के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं है। ये आपको करना ही पड़ेगा अगर आपको मानव जाति को और इस समूची पृथ्वी को नष्ट होने से बचाना है। आप कितना भी चाह लीजिए की आपको आपकी बुद्धि, आपका तर्क और आपकी आधुनिकता और विज्ञान और तकनीक बचा लें;नहीं बचा पाएँगे। न आधुनिकता, न तर्क, न विज्ञान आपको प्रेम, करुणा और शान्ति सिखा सकते हैं।
सिखा सकते हैं? आधुनिकता आपको प्रेम, करुणा, शान्ति सिखा देगी? तर्क से प्रेम, करुणा, शान्ति पाये जा सकते हैं? विज्ञान से प्रेम, करुणा, शान्ति पाये जा सकते हैं;नहीं पाये जा सकते न, इन सब के लिए आपको अध्यात्म की ओर ही जाना पड़ेगा। जो अध्यात्म में अरुचि रखते हैं या अध्यात्म का विरोध करते हैं वो सब मृत्युन्मुखी लोग हैं।
“कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि इन कौरवों को ये मत सोचो कि ये मर जाएँगे। अर्जुन, ये कौरव मर नहीं जाएँगे। अरे! ये मरे ही हुए हैं क्योंकि ये मेरे विरोध में खड़े हैं।“ कृष्ण के विरोध में खड़े होना माने सत्य और अध्यात्म के विरोध में खड़ा होना। और आज तो पूरी दुनिया ही सत्य और अध्यात्म के विरोध में खड़ी हुई है— इसलिए कह रहा हूँ मृत्युन्मुखी है।
उपनिषद् हमसे कहते हैं न कि प्रार्थी हैं हम हमें ले चलो अँधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर और मृत्यु से जीवन की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर।
तो मृत्यु से अगर बचना है तो वेदान्त के अलावा, उपनिषदों के अलावा, अध्यात्म के अलावा कोई और चारा नहीं है।