प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी। मेरा सवाल अवतारों के बारे में है। इस पर आपने पहले भी बोला है। मैंने बहुत पहले आपकी एक वीडियो देखा था जिसमें आपने कहा है कि जो इंसान आत्मा होकर जीया है उसी को हम अवतार कह सकते हैं।
लेकिन मेरा सवाल यह है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण की बहुत सारी कहानियों में इन अवतारों को बचपन से ही ऐसे दिखाया जाता है कि उनमें बचपन से ही बहुत सारे गुण थे या वे बचपन से ही अच्छे थे, हर कार्य में निपुण थे। तो जब हम इनकी पूजा करते हैं, तो मुझे ऐसा लगता है कि हम वो गुण अपने में धारण करने से कहीं-न-कहीं वंचित रह जाते हैं। क्योंकि हमें लगता है कि ये पहले से ही ऐसे थे।
उदाहरण के लिए आपका भी जब मैं विवरण पढ़ रही थी, तो उसमें लिखा हुआ था कि वो शुरुआत से ही असाधारण बच्चा था। तो मेरा प्रश्न यह है कि क्या एक असाधारण अवस्था विकसित की जा सकती है, क्योंकि ज़्यादातर मामलों में तो बचपन से ही इनमें बहुत सारे ऐसे गुण दिखाए जाते हैं। तो आप इसके बारे में क्या कहना चाहेंगे?
और दूसरी चीज़ यह है कि जब हम श्रीकृष्ण या श्रीराम या महाभारत के बारे में पढ़ते हैं तो क्या इनका कोई ऐतिहासिक महत्व है? या ये कहानियाँ सिर्फ़ लोगों की मदद करने की लिए लिखी गयी हैं?
आचार्य प्रशांत: देखिए, दोनों तरह की बातें मिलती हैं कथाओं में; यह तो मिलता ही है कि बचपन से ही विशेष थे, लेकिन साथ-ही-साथ जो साधारण मानवीय गुण हैं, वो भी अवतारों के वर्णन में खूब देखने को मिलते हैं। तो आप नहीं कह सकते कि आपको अवतारों में बस विशिष्टताएँ ही मिलती हैं।
सीताजी खो गयी हैं और श्रीराम रो रहे हैं, इसमें आपको मानवीयता नहीं दिख रही है? यह तो कोई भी साधारण पति या प्रेमी करेगा। कुछ जान नहीं पा रहे हैं, तो इंसानों को तो छोड़ दो, पेड़-पौधों पक्षियों से पूछ रहे हैं, "तुम देखी सीताजी मृग नैनी?" इसमें आपको कौनसी सिद्धि दिखायी दे रही है?
कोई विशेष सिद्धि वग़ैराहोती तो आँख बंद करते और पता चल जाता कि रावण ले गया। यहाँ तो उनको पूरी तरह मानवीय ही दिखाया गया है, न? अगर मानवीय नहीं दिखाएँगे तो अवतार की जो पूरी प्रक्रिया है वो बाधित हो जाएगी।
अवतार क्या होता है? अवतार वो होता है जो बहुत कुछ आपके जैसा है, लेकिन आपके जैसा होते हुए भी वो संकल्प और साहस करता है आत्मा जैसा होने का — उसको अवतार बोलते हैं, उसमें दोनों चीज़ें एक साथ पायी जाती हैं।
अवतार आदर्श नहीं हो सकता। आदर्श का क्या मतलब होता है? आदर्श का मतलब होता है कि एक विचार है, एक कल्पना है और उसी कल्पना के तल पर उसका निर्माण कर दिया गया है। नहीं, अवतार कोई तभी हो सकता है, जब उसमें आपको कुछ मानव सुलभ गुण और दुर्बलताएँ भी देखने को मिलें।
अगर आपको कोई ऐसा अवतार मिलता है जिसमें आपको कोई कमियाँ, कोई खामियाँ नज़र नहीं आ रही हैं, तो अवतार है ही नहीं। अवतार का मतलब ही है कि एक साधारण मनुष्य में जो भी गुण होते हैं, दोष होते हैं, विकार होते हैं, सीमाएँ होती हैं वो सब उसमें थी। उनके होते हुए भी देखो वो कैसे जी गया, क्या कर गया। तो अवतार का सृजन ही किया जाता है आपको प्रेरणा देने के लिए कि आप ही के जैसे तो थे। आप ही के जैसे थे, लेकिन देखो कितनी दूर तक निकल गये।
श्रीकृष्ण युद्ध में पराजित होने को तैयार खड़े हैं, यह साधारण मानवीयता नहीं है क्या? बोलो। श्रीकृष्ण उस क्षेत्र की जितनी गोपियाँ है, महिलाएँ हैं, उन सबके साथ प्रसन्न हो करके प्रमोद कर रहे हैं, क्रीड़ा कर रहे हैं, यह साधारण मानवीयता नहीं है क्या? पौराणिक कथा यह है कि गोपियाँ नहा रही हैं और वो पेड़ पर चढ़ गये हैं या फिर उनके वस्त्र इधर-उधर छुपा रहे हैं, इसमें आपको दिव्यता क्या दिख रही है? यह तो आपको साफ़-साफ़ बताया जा रहा है कि जैसे कोई भी आम व्यक्ति होता है उनमें वो सब भी था लेकिन उसके बाद भी वो गीता तक पहुँच गए। क्या आप भी यह कर सकते हो?
तो श्रीकृष्ण का चरित्र फिर एक चुनौती की तरह आपके सामने रखा जाता है। भारत में यह कभी करा ही नहीं गया कि बोल दिया जाए कि वो तो बचपन से ही अनूठे थे। हाँ, उनके अनूठेपन की भी कुछ कहानियाँ मिलती हैं। जैसे कि एक यह कि जब छोटे थे तभी उठा लिया गोवर्धन को ऊँगली पर। जब ऐसी कहानियाँ मिलती हैं तो मैं कहता हूँ, 'भाई, उसका प्रतीक समझो, अर्थ समझो।'
चार-पाँच साल पहले भागवत की कहानियों पर पूरा एक कोर्स करा था जिसमें ये सारी कहानियाँ ली थीं। और एक-एक का क्या प्रतीकात्मक अर्थ होता है वह खोलकर समझाया था। कालियानाग है। अब कोई भी साँप ऐसा तो होता नहीं जिसके इतने सारे सिर हों, न कोई साँप ऐसा होता है जिसने साम्राज्य बसा रखा हो जमुना के भीतर, तो कालिया काहे का प्रतीक है और कालिया दहन की पूरी कहानी क्या है — तो यह सब।
लेकिन अगर आप यह कहेंगे कि सनातन धारा में अवतारों को बिलकुल पूर्ण और सब विकारों से परे दिखाया गया है, तो यह बात तो तथ्यात्मक नहीं है — एकदम नहीं है। आपके अवतार तो क्रोधित भी होते हैं, रोते भी हैं, मोहग्रस्त भी होते हैं। जितनी चीज़ें एक आम आदमी को प्रभावित करती हैं, वो सारी बातें एक अवतार को भी प्रभावित करती हैं। श्रीराम जानते नहीं थे क्या कि स्वर्ण मृग नहीं होता, तो कैसे चल दिये? अगर श्रीराम त्रिकालदर्शी ही दिखाए जाते तो फिर यह भी नहीं दिखाया जाता न कि सीताजी ने कहा कि ले आओ और चल दिये।
किसी को आप यदि त्रिकालदर्शी दिखाना चाहेंगे, तो क्या आप यह दिखाएँगे कि स्वर्ण मृग लाने के लिए चल दिया? यह त्रिकालदर्शी का काम तो नहीं है। यह तो एक साधारण मानवीय कृत्य है कि पत्नी ने कुछ आग्रह करा और पति उसको लाने के लिए निकल पड़ा। सीताजी का भी फिर वैसे ही है। पहले तो वो पति को वहाँ भेज रही हैं, फिर लक्ष्मण ने रेखा भी खींच दी है, तो जान नहीं पा रही हैं कि वो सामने जो खड़ा है वो भिक्षु नहीं है रावण है, तो वो रेखा का उल्लंघन कर गयीं। तो सबका चरित्र ऐसे ही दिखाया जाता है।
लक्ष्मणजी को शक्ति लग गयी है। श्रीराम क्या कर रहे हैं? श्रीराम को अगर आप यही बोलेंगे सीधे कि विष्णु ही तो हैं श्रीराम। तो फिर तो यह भी दिखाया जा सकता था कि श्रीराम ने क्या करा। ऐसे ही लक्ष्मण को ठीक कर दिया। ठीक कर दिया क्या? ठीक नहीं कर रहे हैं, वो तो रो रहे हैं। वो कह रहे हैं, 'अब मैं वापस जाकर माताओं को क्या मुख दिखाऊँगा?' यह भावना कि मैं वापस जाकर माँओं को क्या मुँह दिखाऊँगा कि लक्ष्मण कहाँ है, लक्ष्मण को कहाँ छोड़ आए, यह तो एक साधारण मानवीय भावना है, न? हर बड़े भाई में होती है।
आप घर के किसी छोटे को साथ लेकर के चलो और उसको चोट लग जाए, कुछ हो जाए, तो यह भाव आता है न कि अब घर पर क्या जवाब दूँगा। श्रीराम में भी वही भाव आ रहा है। तो सनातन धारा ने अपने अवतारों को अपने बड़े पास कर रखा है — वही प्रेम की बात — दूर का रखा नहीं बहुत ज़्यादा।
सीताजी श्रीराम से क्या माँगती हैं? और श्रीराम भी क्या देते हैं उनको वचन? 'सीता एक तुम ही रहोगी, दूसरी नहीं।' यह तो एक साधारण पति-पत्नी में भी होता है, न? पत्नी हमेशा क्या चाहती है? एक ही रहे। तो सीताजी भी यही कह रही हैं। और आप कितने ही उदाहरण खोज लेंगे; आप खोजने निकलो न, आपको दिख जाएगा कि यहाँ वह आदर्श कथा वाला मामला है ही नहीं कि एक सुपर हीरो (सर्वश्रेष्ठ नायक) पैदा हुआ और वह ज़िंदगीभर बस सुपर हीरो वाले ही काम करता रहा।
ऐसा कुछ भी नहीं है, बल्कि इसीलिए इतने विवाद होते हैं अवतारों के चरित्र पर। अगर उनको आदर्श ही दिखाया गया होता, तो फिर कोई विवाद हो ही नहीं सकता था। पर क्योंकि उनमें जानबूझकर इतनी त्रुटियाँ दिखायी गयी हैं, इसीलिए ऊँगली उठाने वालों को मौका मिल जाता है। ऊँगली उठाने वाले कहते हैं, 'देखो, श्रीराम के चरित्र में यह त्रुटि है।' भाई, वो त्रुटि अकस्मात नहीं है; उस त्रुटि का होना आवश्यक है, तभी तो श्रीराम आपके निकट आ पाएँगे न। तभी तो आप कह पाओगे कि अच्छा मेरे ही जैसे हैं फिर भी महान हैं, तो मैं भी महान बन सकता हूँ।
आप कहते हो, 'अरे! धोबी की बात पर सीताजी को घर से निकाल दिया।' बेशक हम इस बात पर चर्चा कर सकते हैं, बहस कर सकते हैं कि ऐसा करना ठीक नहीं था — सीताजी गर्भवती थीं। अरे! धोबी ने कहा भी, तो धोबी को बुलाकर बातचीत कर लेते। धोबी ही तो है, कुछ समझा दो उस बेचारे को बात मान जाता। वो बेचारा भी तो बस रूष्ट था, क्योंकि उसकी अपनी पत्नी कहीं पर चली गयी थी।
श्रीकृष्ण की मृत्यु कैसे दिखायी है? एक साधारण कोई आखेटक है, वह तीर मारता है, उनके पाँव में लगता है; मर जाते हैं। मृत्यु भी अति साधारण दिखायी है। जैसे एक आम आदमी की मौत होती है वैसे ही दिखा दिया — इनकी भी हो गयी। अब इस बात से आपको ऊर्जा मिलनी चाहिए।
समझ रहे हो बात को?
हनुमानजी जा रहे हैं संजीवनी लाने। वो खोज ले रहे हैं तुरन्त कहाँ है, कहाँ है? उन्हें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है, तो क्या कर रहे हैं? फिर कह रहे हैं, 'चलो सब कुछ ही ले चलते हैं, जो कुछ होगा वह वहाँ पर वैद्यजी ख़ुद ही देख लेंगे।' हर चरित्र ग़लतियों पर ग़लतियाँ कर रहा है। जब हनुमानजी लेकर जा रहे हैं, तो नीचे से भरत देखते हैं। कहते हैं, 'यह देखो! यह कोई चमकता हुआ बड़ा भारी पत्थर लेकर जा रहा है। ज़रूर यह राक्षस है और उधर लंका की तरफ़ जा रहा है, तो यह ज़रूर श्रीराम-लखन को मारने के लिए जा रहा है।' वो कहते हैं, 'मैं इसका काम ही तमाम कर देता हूँ।' वो नीचे से उसको मार देते हैं बाण।
हर चरित्र ग़लतियाँ कर रहा है, सब ग़लतियाँ कर रहे हैं। कैकयी ग़लती कर रही है, दशरथ ग़लती कर रहे हैं, सब ग़लतियाँ कर रहे हैं। भारत को यह असुरक्षा कभी रही ही नहीं कि अपने महानायकों को उत्तम दिखाओ। उत्तम दिखाने की ज़रूरत तभी पड़ती है जब तुम भीतर से डरे हुए हो।
यहाँ उनको पूरा मानवीय दिखाया गया है। सब मानवीय हैं। हनुमानजी भी मानवीय हैं, लक्ष्मणजी भी मानवीय हैं। उनको गुस्सा बहुत आ जाता है। श्रीराम मानवीय हैं, सीताजी मानवीय हैं। सब मानवीय हैं। कौन नहीं मानवीय हैं? कृष्ण मानवीय हैं और बताओ कौन से अवतार की बात करनी है?
यहाँ तो यहाँ तक हुआ है कि अवतारों को श्राप भी झेलना पड़ा है। अवतार हैं, जाकर के कोई ऋषि बैठे हुए थे उनको परेशान कर दिया। ऋषि बोल रहे हैं, 'मुझे क्यों परेशान कर रहा है? जा! तू दो सौ साल तक भटकेगा।' अब अवतार हैं, भटक रहे हैं। देवताओं को तो पुराणो में हर चौथे पन्ने पर श्राप मिल रहा होता है। अब हैं देवता, लेकिन कहीं कोशिश नहीं की गयी है उनको दूध का धुला दिखाने की।
ऋषि बैठे हुए हैं, देवता लोग घुस गए हैं उनकी पत्नियों के साथ मज़े कर रहे हैं। यह दिखाने के लिए बहुत मज़बूत छाती चाहिए, बहुत सुरक्षा चाहिए भीतर। नहीं तो आप कहोगे यह बात तो आसानी से छुपायी जा सकती थी न, छुपा देते। अगर ऐसा कुछ है भी जो छुपा देते, क्यों नहीं छुपाया? क्योंकि छुपाने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्या छुपाएँ! छुपाना क्या है! मानव ऐसा ही है, छुपाएँ क्या! छुपाकर के तो बेईमानी हो जाएगी, इसलिए नहीं छुपाया।
देवी पार्वती जाती हैं, देवी लक्ष्मी का महल देखती हैं, उनको ईर्ष्या हो जाती है। उनको ईर्ष्या हो जाती है, वो कहती हैं, 'अरे! इनका इतना बड़ा महल है। तुम मुझे वहाँ पत्थर पर, पहाड़ पर बैठाए रहते हो महादेव। यह तुम्हारा ठीक नहीं है बिलकुल। वह देखो, वो श्रीमती विष्णु! उनका सबकुछ कितना सुंदर है और कितना भव्य है, कितना अलंकृत है। वहाँ सबकुछ बढ़िया-बढ़िया है और तुम मुझे ब्याह के लाये हो इन पत्थरों पर बिठाने के लिए?' तो फिर क्या करते हैं शिव? शिव बड़ा भारी सोने का महल बनाते हैं कि लो! और पार्वती एकदम प्रसन्न हो जाती हैं। कहती हैं, 'देखा लक्ष्मी!'
यह साधारण मानवीय, साधारण स्त्रैण भाव नहीं है? सब स्त्रियों में होता है, पुरुषों में भी होता। छुपाया नहीं गया, दिखा दिया गया। फिर कहानी यह जोड़ दी गयी कि वही जो महल बनाया गया था, वो सोने की लंका हो गयी और फिर रावण को मिल गयी एक दिन। एक ब्राह्मण आया, जब सब हो गया, तो वह माँगने आया और शिव से बोला, 'इतना बढ़िया आपने बनाया है, कुछ हम माँगेंगे तो देंगे?'
शिव बोले, 'हाँ बताओ! आज तो बड़ा अच्छा दिन है, पार्वती बहुत प्रसन्न हैं बहुत दिनों के बाद। बताओ क्या माँग रहे हो?' तो ब्राह्मण बोला, 'एक काम करिए, यह जो आपने पूरा इतना विशाल महल बनाया है सोने का, यही हमको दे दीजिए।' तो पार्वतीजी फिर रुष्ट हो गयीं। बोलीं, 'यह देखो, ये दानवीर। बड़ी मुश्किल से तो यह बनाया, वो भी अब दान कर दिया।' वो लेकर चला गया। वो रावण का पिता था। वो लंका फिर रावण को मिल गयी।
तो इस तरीक़े से कहानियाँ आपस में एक पूरे नेटवर्क की तरह, एक जाल की तरह गुत्थमगुत्था हैं। वो बुनी इस तरीक़े से गयी हैं कि एक चीज़ को याद करो तो दूसरी चीज़ आ जाती है। दूसरी को याद करो तो चौथी आ जाती है। इरादा क्या? इरादा यह कि तुम भूलने नहीं पाओ। एक चीज़ से दूसरी चीज़ याद आए, दूसरी से तीसरी चीज़ याद आ जाए।
अब हनुमानजी मिलते हैं रामायण में। यहाँ अभी हम गीता पढ़ रहे हैं, तो वहाँ पर बोल रहे हैं, 'कपिध्वज।' अर्जुन के रथ पर भी ऊपर हनुमान बैठे हुए हैं, कपिध्वज हैं। हर चीज़ को दूसरी से जोड़ दिया गया है। बड़ी मेहनत की गयी है। मेहनत यूँ की गयी है कि इंसान कभी भूलने न पाए। चप्पे-चप्पे पर भगवान को बैठा दो, प्रकृति के हर तत्व में भगवत्ता को स्थापित कर दो, ताकि तुम भूलने न पाओ — कुछ नहीं भूल सकते तुम।
पीपल के पेड़ का यह दैवीय महत्त्व है। बरगद का दूसरा है, नीम का तीसरा है, आम का चौथा है, जामुन का पाँचवा है, इमली का भी है, केले का तो है ही है, नारियल का तो पक्का है। भूलने न पाए आदमी, भूलने न पाए। कोई पेड़ हो, कोई पौधा हो, कोई जानवर हो, कोई जगह हो, तुम जहाँ जाओ वहाँ तुम्हें भगवान याद आ जाए। यह है जो पूरी तरक़ीब विकसित की गयी। यह पूरी प्रणाली बनायी गयी है। व्यवस्था है यह, ताकि आम आदमी अध्यात्म में स्थापित रह सके।
समझ में आ रही है बात?
दूसरी बात क्या पूछी थी? हाँ, कि रामायण, महाभारत वग़ैराका ऐतिहासिक महत्व कुछ है कि नहीं। देखो! यह जो चरित्र हैं, ये इतिहास में निश्चितरूप से हुए थे। लेकिन क्या किया जाता है समझो!
अवतारवाद क्या है? अवतारवाद यह है कि जो श्रेष्ठतम है उसको प्रतीक बना दिया जाता है। किसी समय पर जो श्रेष्ठतम है, मनुष्यों में जो श्रेष्ठतम है उसको प्रतीक बना दिया जाता है, परम का। इसका मतलब यह नहीं है कि वो परम है, लेकिन उसको परम का प्रतीक बना दिया जाता है।
इसका उदाहरण मैं ऐसे देता हूँ कि जैसे ऊपर सेटेलाइट (उपग्रह) होता है, नीचे फ़ोन होता है। लेकिन सेटेलाइट की चीज़ तुम्हारे फ़ोन तक आ सके इसके लिए एक मोबाइल टावर चाहिए। वह मोबाइल टावर सेटेलाइट जितना ऊँचा नहीं है। सेटेलाइट तो बहुत ऊँचाई पर है; मोबाइल टावर उतना ऊँचा नहीं है, लेकिन ज़मीन पर जो बाक़ी चीज़ें हैं या इमारतें हैं उनसे ज़्यादा ऊँचा है वह। तो ज़मीन के तल पर उच्चतम है वह और उसके उच्चतम होने का लाभ यह है कि वह सेटेलाइट से तुमको जोड़ पा रहा है, कनेक्ट कर पा रहा है। अवतार ऐसी चीज़ है — मोबाइल टावर।
तुम अगर यह सोचोगे कि वो अनंत ऊँचाई का है; तो उसकी अनंत ऊँचाई नहीं है, उसमें भी कमियाँ हैं, उसकी भी ऊँचाई सीमित हैं। लेकिन सीमित ऊँचाई के बावजूद उसका फ़ायदा बहुत है। क्या फ़ायदा है? कि वो तुमको ऊपर से जोड़ दे रहा है बिलकुल — बिलकुल ऊपर से जोड़ दे रहा है।
तो श्रीराम और कृष्ण निसंदेह ऐतिहासिक चरित्र हैं। उनका जन्म हुआ, वो जीयें, उन्होंने काम किये, फिर उनकी मृत्यु भी हुई। लेकिन उनके बारे में जो कहानियाँ प्रचलित हैं, वो कहानियाँ निसंदेह अतिशयोक्ति हैं। और वो जो अतिशयोक्तियाँ हैं वो अज्ञान में नहीं की गयी हैं, वो अतिशयोक्तियाँ विज्ञान में की गयी हैं। वो अतिशयोक्तियाँ बहुत सोची-समझी युक्तियाँ हैं। वो ऐसे नहीं है कि तुम्हें कोई अच्छा लगता है, तो तुमने उसका पूरा गुब्बारा फुला दिया अहंकारवश या मोहवश।
उनका जो चरित्र सृजित किया गया है वो बहुत सोच-समझकर किया गया है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ कुछ सीख ले सकें। तो श्रीराम हैं, श्रीराम एक व्यक्ति हैं और श्रीराम ने अपने समय पर कुछ बहुत अच्छा करा, कोई बड़ा सुंदर जीवन जीया। अब इतिहास लिखना उद्देश्य नहीं था। भारत में इतिहास कभी लिखा ही नहीं गया। भारत में समय को बहुत मान्यता कभी नहीं दिया गया। आपको कभी नहीं पता चल पाएगा ठीक-ठीक कि कहाँ पर सीमा थी, किस जगह पर जन्म था, कहाँ मृत्यु थी, कौनसी ईसवी थी — ये सब बातें आपको नहीं पता चलेंगी।
भारत में महत्त्व इतिहास का नहीं था, भारत में महत्त्व मुक्ति का था। ये दो अलग-अलग केंद्र है जीने के। जो इतिहास का केंद्र होता है, वो किसको महत्त्व दे रहा है? वो तथ्य को महत्त्व देता है। ठीक है? इतिहास में तथ्य वर्णित किए जाते हैं बिना किसी त्रुटि के कि पंद्रह सौ छब्बीस ईसवी में पानीपत की लड़ाई हुई — यह ऐतिहासिक तथ्य है। यहाँ पर देखो मूल्य किसको दिया जा रहा है। यहाँ पर मूल्य दिया रहा है तलवार को, ज़मीन को। माने इतिहास अपनेआप में भौतिकवादी होता है, वो तथ्य को देखता है।
भारत कभी भौतिकवादी, बहुत भौतिक रहा नहीं। भारत का उद्देश्य सदा था मुक्ति। इसीलिए भारत ने इतिहास नहीं लिखा, भारत ने पुराण लिखे। या भारत ने महाकाव्य लिखे रामायण, महाभारत जैसे। इनका उद्देश्य आपको इतिहास से परिचित कराना नहीं है। इनका उद्देश्य आपको सीख देना है, मुक्ति देना है। लेकिन इससे यह भी नहीं, मैं कह रहा कि इन महाकाव्यों में जो आपको चरित्र मिलते हैं, वो काल्पनिक ही हैं। नहीं, काल्पनिक नहीं हैं। हुए थे। हुए थे फिर उनका बड़ा सुन्दर, विशेष और वैज्ञानिक प्रयोग किया गया एक ऐसी कथा को रचने के लिए जो पीढ़ियों तक सबके काम आएगी।
यह बात समझो!
सेटेलाइट टावर और मोबाइल टावर याद रखो। वह परम नहीं है, पर परम से तुमको जोड़ता है, अवतार भी वैसा ही है। तो फिर उसको लेकर कहानियाँ निर्मित की जाती हैं। जो हुआ तो हुआ, वो तो होता ही है, जो हुआ वो तो बताया ही जाता है; जो नहीं हुआ वो भी बता दिया जाता है। उसको सिर्फ़ कल्पना नहीं कह सकते। कल्पना नहीं है, वो विधि है।
आप यह नहीं कह सकते कि यह सिर्फ़ कल्पना की बात है कि रावण की नाभि में ही उसके प्राण थे और जबतक उसकी नाभि में तीर नहीं मारा, मृत्यु नहीं हुई। यह कल्पना नहीं है, यह एक गूढ़ सत्य बताने की विधि है। लोग पूछते हैं, 'तो आचार्य जी वो गूढ़ सत्य सीधे-सीधे क्यों नहीं बता देते, इतने प्रतीकों का क्यों उपयोग करते हैं?' क्योंकि सीधे-सीधे जब बताते हैं, तो तुम सुनते नहीं।
जब सीधे-सीधे वह बात बतायी जाएगी तो अष्टावक्र गीता जैसी हो जाएगी। पढ़ते हो? तुम्हें रस किसमें आता है? तुम्हें रस आता है कहानी में। तो वो जो सिद्धांत हैं, उनको फिर कहानी का रूप देकर तुमको बताया जाता है। क्योंकि सिद्धांत तुमको बताया जाए तो तुम तुरन्त सो जाओगे।
अभी कुछ महीने पहले तक उपनिषद् मैं पढ़ा रहा था। उपनिषद् समागम चलता था। उसमें जितने लोग सम्मिलित थे, उससे पाँच गुना, आठ गुना ज़्यादा लोग हैं हमारे साथ गीता में। बताओ क्यों? गीता और उपनिषद् में कोई अंतर तो नहीं। पर जब तक उपनिषद् चल रहे थे, कुछ लोग थे। अब हैं। अब पूरी एक बड़ी संख्या है। क्यों हैं? क्योंकि गीता को लेकर हमारे पास क्या हैं? कृष्ण। हमारी कहानियों के केंद्र हैं। लोग गीता की ओर आ रहे हैं।
सीख तो बराबर की है चाहे उपनिषद् पढ़ो या गीता पढ़ो, पर गीता की ओर आते हैं। बताने वालों को मन का यह नियम पता था, मन को कहानियाँ बहुत पसंद हैं। तो अगर ऊँची-से-ऊँची बात भी मन को समझानी है, तो कहानियों से समझाओ, फिर मन सुनेगा।
तो इसीलिए अष्टावक्र कभी बहुत प्रसिद्ध हो ही नहीं सकते। ऋभु का तो आपने नाम ही न सुना हो कभी। उपनिषद् भी कभी बहुत जड़ नहीं पकड़ पाएँ, लेकिन पौराणिक कहानियाँ बिलकुल फैल गयीं। क्योंकि बचपन में वह छोटा सा होता है, कहता है, 'कहानी सुनाओ, कहानी सुनाओ।' वो यह थोड़े ही होता है कि कॉन्सेप्ट (अवधारणा) बताओ। यह कभी बोलता है क्या? तो वो हमें चाहिए नहीं। अजीब सा लगता है।
समझ में आ रही है बात?
तो अगर आप यह कहें कि श्रीराम और श्रीकृष्ण काल्पनिक हैं! तो नहीं, काल्पनिक नहीं हैं, ऐसे व्यक्ति इस ज़मीन पर हुए थे। लेकिन अगर आप यह कहें कि उनके बारे में जितनी कथाएँ प्रचलित हैं, क्या वो तथ्यात्मक हैं? तो नहीं, वो तथ्यात्मक नहीं हैं। वो कहानियाँ ऐतिहासिक नहीं हैं, वो कहानियाँ विधियाँ हैं — वो कहानियाँ आपको कुछ समझाने के लिए रची गयी हैं।
तो हम कैसे पता करें कि इतिहास कहाँ तक है और फिर विधि कहाँ पर शुरू होती है? यह पता करना बड़ा मुश्किल है। यह नहीं कुछ कह सकते। हाँ, ऐसा लगता है — आप मुझसे पूछेंगे, तो अनुमान के तौर पर — ऐसा लगता है कि ऐसा तो ज़रूर हुआ होगा कि श्रीराम को वनवास मिला था — यहाँ तक तो इतिहास है। यहाँ तक भी इतिहास लगता है कि सरयू तट पर अयोध्या नगरी थी। यह बात भी ऐतिहासिक लगती है।
राजा दशरथ थे, उनकी तीन रानियाँ थीं, उनके पुत्र थे, यह बात भी ऐतिहासिक लगती है। यहाँ तक तो इतिहास है, पर उसके आगे अब जब वो यात्रा कर रहे हैं अपनी, तो किन जगहों से जा रहे हैं, वो बात ऐतिहासिक है या नहीं; हम कुछ कह नहीं सकते पक्का-पक्का। कुछ पता नहीं कि पक्का यहाँ से गुजरे थे, नहीं गुजरे थे। फ़लाने राक्षस का उन्होंने वध किया था या नहीं किया था, कुछ कह नहीं सकते।
अब आगे आता है कि ऋषि यज्ञ कर रहे हैं, राक्षस उड़ते हुए आ रहे हैं और उनकी वेदी पर माँस डाल रहे हैं, मदिरा फेंक रहे हैं। ऐसा हुआ था या नहीं हुआ था? इसमें तो यही लगता है कि तथ्य तो नहीं हो सकती यह बात कि कोई उड़ता हुआ आएगा और ऊपर से माँस डालेगा।
तो यह बात तो प्रतीक के तौर पर ही यही बताने के लिए है कि राक्षस कुछ ऐसी शक्तियाँ रखते थे जो ऋषि वग़ैराके पास नहीं थीं। बस यह बताने के लिए है कि वो ऊपर हैं और ऋषि बेहाल हैं, मजबूर हैं, कुछ कर नहीं सकते — वो आये और ऊपर से गंदा करके चले गये। और 'ऊपर से' का यह भी मतलब हो सकता है कि जैसे कोई फेंककर मारे, तो वह चीज़ भी तो ऊपर से ही आती है। एक प्रोजेक्टाइल (फेंकने योग्य) भी तो ऊपर से ही आता है, तो वह अर्थ भी हो सकता है उसका।
इस देश को काव्यात्मकता से बड़ा लगाव रहा है। तो हर चीज़ में काव्य आ गया है। कोई अगर कुछ फेंककर मारता है, जो चीज़ बहुत ऊपर जाती है और फिर वहाँ से नीचे आकर गिरती है, मिसाइल की तरह, तो उसको ऐसे कह दिया जाएगा कि वो व्यक्ति उड़ते हुए आया और उसने ऊपर से डाल दी — यह सिर्फ़ अलंकरण है, श्रृंगार है।
भारत को श्रृंगार का शौक रहा है न बहुत। यहाँ जितना श्रृंगार है और जितनी तरह की विधियाँ हैं श्रृंगार की, दुनिया में कहीं पायी जाती हैं? यहाँ श्रृंगार-ही-श्रृंगार है, अलंकरण-ही-अलंकरण है, गहने-ही-गहने हैं। दुनिया में कहीं इतने गहने पाए जाते हैं जितने भारत में हैं? यही हम अपने अवतारों के साथ भी करते हैं, उनका श्रृंगार-ही-श्रृंगार कर डालते हैं। उनको गहने पहना दिये, उनको आभूषित कर दिया, सबकुछ पहना दिया उनको।
लेकिन आप कहोगे कि सिर्फ़ अलंकार हैं, सिर्फ़ आभूषण हैं उसके नीचे व्यक्ति कहीं नहीं है; तो ऐसा नहीं है, व्यक्ति भी है, इतिहास भी है। लेकिन जो सबकुछ आप पढ़ते हो, रामायण में या महाभारत में या श्रीरामचरितमानस में, क्या वो ऐतिहासिक है? नहीं, वो सबकुछ ऐतिहासिक नहीं है। ठीक?
सीखो, रस लो! इस चक्कर में मत पड़ो कि ये ऐतिहासिक है या नहीं है। जिन्होंने रचा उन्होंने ही कभी नहीं कहा कि हम तुमको इतिहास सीखाना चाहते हैं। तो तुम उसमें इतिहास क्यों ढूँढ रहे हो? उन्हें अगर तुम्हें इतिहास सीखाना होता तो नक्शे दिये होते, स्पष्ट तिथियाँ दी होती। उन्होंने कुछ भी दिया क्या? दे सकते थे, कुछ नहीं दिया। जानबूझ कर नहीं दिया, ताकि तुम इस चक्कर में पड़ो ही नहीं। वो चीज़ तुमको दी गयी है, ताकि तुम कुछ सीख पाओ। जो सीखाने के लिए वो ग्रंथ या काव्य रचे गए हैं। वो सीखो, सीखने में सार है।