28 की उम्र में सेठजी बनना है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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28 की उम्र में सेठजी बनना है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, कल जो प्रश्न आया था कि हर क्षेत्र में सिरफिरे की ज़रूरत होती है, मेरा प्रश्न उसी को आगे बढ़ाते हुए है।

सर्वप्रथम तो मुझको आपमें वो सिरफिरा दिखता है क्योंकि आज से पंद्रह-बीस साल पहले अगर कोई बोलता कि वेदान्त को जनमानस तक पहुँचाना है, तो कोई ये भी नहीं बोलता कि ये बहुत बड़ी समस्या है, बल्कि बोलता कि आपको क्यों पहुँचाना है। उसमें है क्या ऐसा जो आपको देना चाहिए।

अब मेरा प्रश्न है कि साइंस एंड टेक्नोलॉजी (विज्ञ और तकनीक) में ऐसी क्या समस्या है जो आपको लगता है जिनको ऐसे सिरफिरों की ज़रुरत है?

आचार्य प्रशांत: देखो, टेक्नोलॉजी का तो इस्तेमाल करना होता है। किस दिशा में इस्तेमाल करना है, इसके लिए एक अलग, सही आध्यात्मिक सोच चाहिए। टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल विध्वंस के लिए भी हो सकता है और संरक्षण के लिए भी हो सकता है। अभी विध्वंस के लिए हो रहा है। तो ऐसे लोग चाहिए जो बचाव के लिए उसका इस्तेमाल करें। वहाँ दिक्कत ये आएगी कि हम जिसको विध्वंस बोल रहे हैं, वो संसार की नज़र में प्रगति, विकास या डेवलपमेंट है; तो उसके पैसे मिलते हैं।

आप अगर एक बिल्डर हो, आप किसी तरीक़े से कोई जुगाड़ करके कहीं पर कोई जंगल काट देते हो और वहाँ पर रेज़िडेंशियल स्पेस (आवासीय स्थान) या कमर्शियल स्पेस (व्यावसायिक स्थान) निकाल लेते हो तो ये जो आपने विध्वंस करा है, इसका आपको मुनाफ़ा मिलता है।

और ऐसा नहीं है कि टेक्नोलॉजी के माध्यम से सृजन करना, क्रिएशन करना, या संरक्षण करना, प्रोटेक्शन करना कोई बड़ा मुश्किल काम है। काम मुश्किल नहीं है, बस इतनी सी बात है कि उसके पैसे नहीं मिलेंगे या मुश्किल से मिलेंगे, या कम मिलेंगे; हो तो वो भी जाएगा।

वहाँ पर समस्या टेक्नोलॉजिकल नहीं हैं, वहाँ पर समस्या साइकोलॉजिकल (मानसिक) है। ऐसे बंदे चाहिए जो अपने लाभ-हानि की परवाह करे बिना टेक्नोलॉजी का सही इस्तेमाल करें। टेक्नोलॉजी तो क्या है आपके हाथ का खिलौना है, आप उसको जिधर को खेलना चाहो खेल दोगे। लेकिन टेक्नोलॉजी के किस इस्तेमाल पर आपको पैसे वग़ैरह मिलेंगे ये समाज तय करता है।

आप एक बहुत ज़रूरी और बहुत ख़ूबसूरत सॉफ्टवेयर लिख सकते हो लेकिन हो सकता है कि समाज उसकी कद्र न करे, और जब समाज उसकी कद्र नहीं करेगा तो समाज उसके एवज में आपको कोई पारिश्रमिक, कोई लाभ, मुनाफ़ा देने नहीं वाला।

तो दिल ऐसा चाहिए जो कहे कि काम सही करना है, अब उसके लिए कुछ मिला तो अच्छी बात है, कम मिला तो भी चला लेंगे। एकदम नहीं मिलेगा तो चला नहीं पाओगे क्योंकि जीना तो तुम्हें भी है।

तो जो कर रहे हो, उसमें कुछ यत्न ऐसा करना पड़ेगा, कुछ युक्ति लगानी पड़ेगी कि काम चलाने लायक़ संसाधन भी मिलते रहें। तो इस तरीक़े से काम कठिन है, मुश्किल नहीं है, हो जाता है। यही है, एक भाव चाहिए — जज़्बा, पैशन । और जो कर रहे हो उसमें आनंद आता रहे।

बाक़ी मैंने कल 'सिरफिरा, ऐड़ा', ये सब कहा था वो प्रोत्साहित करने के लिए कहा था, डराने के लिए नहीं कहा था। ये मेरे साथ बड़ी समस्या है — जब मैं किसी को प्रोत्साहित कर रहा होता हूँ तो वो उल्टे कई बार डर और जाते हैं। इतना मुश्किल नहीं है, हो जाता है। ठीक है? हो जाता है और कुल-मिला करके फ़ायदे का ही सौदा रहता है देखो।

रूपया-पैसा हो सकता है कम मिले लेकिन ज़िंदगी में और भी चीज़ें होती हैं, उन्हीं चीज़ों के लिए आप रुपया कमाना चाहते हो। वो चीज़ें अगर आपको मुफ़्त मिलने लग जाएँ तो क्या बुराई है। लोग बहुत सारा रुपया कमाना चाहते हैं क्योंकि उस रुपये से वो बहुत सारी चीज़ें खरीदना चाहते हैं। चीज़ें हमेशा भौतिक, टेंजिबल नहीं होतीं। है न?

उदाहरण के लिए, आप चाहते हो कि आप एक तरह की संतुष्टि पाओ, कन्टेंटमेंट । उसके लिए आप पैसा खरीदते हो, उससे आप शॉपिंग करते हो, कहते हो, 'शॉपिंग कर लूँगा तो भीतर थोड़ी संतुष्टि मिल जाएगी।' वो संतुष्टि अगर शॉपिंग करे बिना ही मिल रही हो, तो? वो संतुष्टि अगर महीने के लाख-दो लाख रूपये की क़ीमत की है, तो सही काम करके ये लाख-दो लाख का अतिरिक्त लाभ हो गया या नहीं हो गया, बोलो।

तो जो लोग बेकार के काम करके कमाते बहुत हैं, उनका पैसा फिर बेकार ही जगहों पर खर्च भी बहुत होता है। कॉस्ट ऑफ़ अर्निंग (कमाई की लागत) बहुत हाई (अधिक) है। अब हमारे साथ ये समस्या रहती है न, हम ये देखते हैं कि कौन कितना कमा रहा है। हम ये नहीं देखते कि वो जो कमा रहा है, उसे कमाने की क्या कॉस्ट है।

कॉस्ट ऑफ अर्निंग समझ रहे हो? कि अगर तुमको लाख, दो लाख, ढाई लाख, जो भी, पचास हज़ार, जितना भी तुमको मिलता है, उतना पाने के लिए तुम्हें खर्च कितना करना पड़ता है।

तो हम बड़े विचित्र लोग हैं जो पूरा प्रॉफ़िट एंड लॉस स्टेटमेंट (लाभ और हानि पत्रक) नहीं बनाते, हम सिर्फ़ रिवेन्यू फ़िगर (आय/राजस्व का आंकड़ा) देख के ख़ुश हो जाते हैं; पैकेज कितना है, सीटीसी कितनी है। कितना मिल रहा है ये देख लेते हो, जो मिल रहा है उसे घर लाने के लिए खर्च कितना करना पड़ता है, ये नहीं देखते।

उदाहरण के लिए, अगर तुमको रोज़ दो घंटे ट्रैफ़िक में फँसना पड़ता है, तो ये एक कॉस्ट है या नहीं है? लेकिन आप इसको कभी मोनेटाइज़ करके एक पीएनएल नहीं बनाते — प्रॉफ़िट एंड लॉस स्टेटमेंट नहीं बनाते कि चलो, मुझे मिल रहे हैं डेढ़ लाख रूपये लेकिन ये मैं रोज़ दो घंटे अपनी ज़िंदगी के लगाता हूँ, उसकी क्या क़ीमत है। उसको डेढ़ लाख में से माइनस करो। वो नहीं करते न हम।

या फिर डेढ़ लाख आप घर लेकर आ रहे हो, आप उसमें ये नहीं देखते कि उस डेढ़ लाख को घर लाते ही उसमें से तुरन्त आपको पचास हज़ार, पचहत्तर हज़ार तो खर्च करना पड़ता है सेटिस्फ़ैक्शन (संतुष्टि) खरीदने के लिए। क्योंकि आपकी जो जॉब है, वो मूल रूप से असंतुष्टिकारक है।

वो जॉब आपको रोज़ घर भेजती है भीतर एक असंतुष्टि, एक डिस्सेटिस्फ़ैक्शन दे करके। फिर उसको मिटाने के लिए आपको महीने में तरह-तरह से इधर-उधर कुल मिलाकर के पचास, पचहत्तर इत्यादि खर्च करना पड़ता है। तो उसको आप नहीं गिनोगे। उसको माइनस करना चाहिए न अपने पैकेज से। नहीं करना चाहिए मनाइस? पर उसको अपने पैकेज से कोई माइनस करता नहीं। हम ख़ुद को भी धोखा देते हैं। हमें लगता है बहुत कमा रहे हैं, बहुत कमा रहे हैं।

सही काम करने में एक लाभ ये होता है कि पैसा-रुपया, मान लो, तुम्हारे पास कम भी आ रहा है, तुम्हारे खर्चे बहुत कम हो जाते हैं। क्योंकि तुमको साइकोलॉजिकल फ़ुलफ़िलमेंट (मानसिक पूर्णता) के लिए खर्च करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। ये बात अगर आप समझ लें तो आपको बड़ी राहत मिलेगी।

आपका बहुत सारा जो पैसा है जो बेकार के काम करके या बेकार के बिज़नेस करके आता है, वो उस बेकार के काम को सस्टेन (बनाये रखने) करने में ही खर्च हो जाता है।

नहीं समझ रहे?

मुझे रात को बाहर निकलने का ज़रा शौक है। तो दो बजे, तीन बजे, चार बजे मैं अपना निकल जाता हूँ और कहीं गये, कुछ खा-पीकर के फिर अपना वापस आ जाता हूँ। और फिर इंतज़ार करता हूँ कि सुबह वीडियो पब्लिश (प्रकाशित) होगा, तो उसको एक बार देखकर के ही सोता हूँ।

उसको देखना बहुत ज़रूरी होता है — आज के वीडियो के टाइटल (शीर्षक) में अंग्रेज़ी में बीस्ट (हिंसक जानवर) आना चाहिए था वहाँ बीट्स (धड़कना) आ गया। तो मेरे लिए बहुत ज़रूरी है कि देखूँ कि क्या छाप दिया।

तो अभी दो-चार महीने पहले की बात है, मैं गया ग्रेटर नोएडा में बैठ गया, वहाँ पर दो-चार ईटरीज़ (भोजनालय) हैं। तो वहाँ बहुत सारे ये खड़े हुए थे ज़ोमेटो वाले। जो ज़ोमेटो बॉयज़ (लड़के) होते हैं न। और वो अपना बड़े ख़ुशी-ख़ुशी बात कर रहे थे कि ऐसा है, वैसा है, उनको बड़ी मौज आ रही थी। तो मैंने उनमें से दो-चार को बुला लिया। मैंने कहा, आओ बात करते हैं।

मैंने कहा, 'क्या है, कैसा चल रहा है ज़िंदगी में?' बोले, 'हम बहुत ख़ुश हैं, बड़ा मज़ा आ रहा है।' बोले, 'हमने तो नाइट (रात) वाली पकड़ी है, उसमें ट्रैफ़िक भी नहीं मिलता और बड़ा सही रहता है। लोग ऑर्डर करते हैं एकदम देर रात दो बजे और फिर जब तक पहुँचाने जाओ तो सो जाते हैं। जब सो जाते हैं तो हम खा भी लेते हैं। तो कोई समस्या ही नहीं है, लाइफ़ बिलकुल कूल है।' (श्रोतागण हँसते हैं)

मैंने कहा, 'अच्छी बात है!' मैंने कहा, 'कितना कमाते हो महीने का?' तो कोई बोला बारह हज़ार, कोई बोला पंद्रह हज़ार, कोई कुछ बोला। मैंने कहा, ‘अच्छा!’ और बड़े ख़ुश!

बोले, 'इतना मिल रहा है, पुरानी नौकरी में तो इतना मिलता भी नहीं था।' मैंने कहा, अच्छा। फिर मैंने उनसे दो-चार बातें पूछी, बहुत ज़्यादा पूछने का मेरा दिल नहीं हुआ क्योंकि उन बेचारों की ख़ुशी उड़ने लगी। मैंने कहा, जैसे भी हैं मस्त हैं, मैं क्यों उनको परेशान करूँ।

मैंने उनसे पूछना शुरू किया, ‘तुम्हारा फ्यूल कितना लगता है?’ वो उन्होंने ठीक से कैलकुलेट (गणना) ही नहीं करा था। फिर मैंने उनकी बाइक के वियर-टियर (टूट-फूट) के बारे में पूछा। बहुत मोटा-मोटा उनको उसका अनुमान था, उन्होंने ठीक से कभी देखा नहीं था कि बाइक में उनका कितना लग जाता है।

एकदम मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उनसे पूछूँ कि हेल्थ कॉस्ट (स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च)। क्योंकि अगर वो गिनवा लेता तो इनको पता चलता कि इनके पास महीने में पाँच हज़ार भी नहीं बचता है। और हेल्थ कॉस्ट उसमें ऐसी भी हो सकती है जो हिडन (छुपी हुई) हो, जो ये आज न दे रहे हों पैसा, पर कल देंगे, पर उनको पता नहीं है।

तो अब ये प्रसन्न हो रहे थे रात में कि ये पंद्रह हज़ार कमाते हैं। जबकि तथ्य ये था कि ये पाँच हज़ार कमा रहे हों शायद। ये हम सबके साथ होता है। एक ज़ोमेटो बॉय है उसकी पंद्रह हज़ार है, एक कोई दूसरा व्यक्ति हो सकता है आइटी प्रोफ़ेशनल है, नया-नया उसकी हो सकता है कि साल का पंद्रह लाख का पैकेज हो। उसको भी नहीं पता है कि उसकी जो कंपनी है, उसे कुल-मिलाकर पंद्रह लाख नहीं, दो ही चार लाख देती है, बाक़ी तो उसका अपना खर्चा है।

पर हम अपनेआप को ख़ूब बेवकूफ़ बनाये रहते हैं — *सेल्फ़ डिसेप्शन*। हमको ये लगता रहता है, ‘अरे! नहीं इतना बड़ा पैकेज है, इतना बड़ा पैकेज है’ — बताने में अच्छा लगता है न, दुनिया को बताओ। फिर अपने हाथ में आ जाए, ख़ुद खर्च करो तो अहंकार को ऐसा लगता है कि ये तो मैंने खर्च करा। वो आपने खर्च करा नहीं, वो खर्च करना आपकी मजबूरी थी अपनी जॉब को सस्टेन करने के लिए।

तो आपने खर्च थोड़ी करा है, वो तो आपसे खर्च करवाया गया है; वो खर्च आप नहीं करोगे तो आपकी नौकरी नहीं चलेगी। तो पंद्रह लाख के पैकेज वाले को अगर ये पता चले कि वास्तव में उसका टेक होम, रियल टेक होम (घर में आने वाली असल रक़म) सिर्फ़ चार लाख रुपये है, तो उसका दिल टूट जाएगा लेकिन फिर भी वो पंद्रह लाख वाली नौकरी किये जाएगा। क्यों? क्योंकि सुनने में अच्छा लगता है — पंद्रह लाख।

अभी ही आपको कहा जाए कि आप कोई बेहतर काम करिए, आप किसी ऐसी जगह काम कर लीजिए, किसी ऐसी कंपनी में काम कर लीजिए जो टेक्नोलॉजी का अच्छा इस्तेमाल कर रही है लेकिन वहाँ पर आपको छ: ही लाख मिलेगा साल का, तो आप मानोगे नहीं। भले ही वहाँ पर ये हो कि छ: में से पाँच आपका बच जाना है।

अध्यात्म इसीलिए ज़रुरी है ताकि आपमें ये विज़डम (विवेक) हो कि आप समझो कि पंद्रह लाख की ऐसी नौकरी जिसमें आप के पास रियल एक्रुअल (प्रोद्भवन) चार का होता है, उससे बेहतर है छ: लाख की नौकरी, जिसमें आपके पास रियल एक्रुअल पाँच का होता है। पर हम इस तरह की अकाउंटिंग (लेखा-जोखा) कभी करते नहीं हैं। और अभी मैंने इसमें इन्टेंजिबल्स (अभौतिक) तो जोड़े नहीं, अगर इन्टेंजिबल्स जोड़ो तो फिर हो सकता है वो जो छ: लाख वाली हो, वो बहुत-बहुत फ़ायदेमंद हो। वो छ: लाख वाली नौकरी ऐसी भी हो सकती है जिसमें छ: तो आपके पास कैश आता है और बाक़ी सबकुछ काइंड (वस्तु के रूप में) में आता है।

क्या काइंड में आता है — अच्छा मानसिक स्वास्थ, जीवन में एक समुचित उद्देश्य, आत्म सम्मान; वो छोटी चीज़ है? आपको पता है, आप एक ऐसा काम कर रहे हो जो बहुत-बहुत ज़रूरी है, उससे जो सीना मजबूत रहता है, उसकी कोई क़ीमत नहीं है क्या? पर हम इन चीज़ों की कोई क़ीमत ही नहीं लगाते, हम इनको क्वान्टिफ़ाइ (मात्रा निर्धारित) करके कभी देखते नहीं हैं कि मैं ये जो काम कर रहा हूँ, इसमें ये सब भी तो फ़ायदे हैं। तो मेरा कुल पैकेज कितना बड़ा हो गया।

सही काम करने वाला ये गिन नहीं पाता कि उसका कुल पैकेज कितना ज़्यादा बड़ा है, वो सिर्फ़ ये देखता है कि पैसा कितना मिला है। और ग़लत काम करने वाला कभी ये देख नहीं पाता कि उसका कुल पैकेज कितना छोटा है। वो बस ये देखता है कि मेरी कंपनी ने मुझे ऑफर लेटर पर लिखकर दे दिया है *फ़िफ्टीन लैख सीटीसी*। तो उसको लगता है पंद्रह लाख है।

अरे! पंद्रह लाख नहीं है तेरी, तू गरीब है। दो तरीक़े से गरीब है — पहले तो ये पंद्रह लाख तेरा सब खर्च हो जा रहा है उसी जॉब को सस्टेन करने के लिए; दूसरे, ये जो नौकरी है, ये तुझे अंदर से खोखला करे दे रही है। और उसकी कॉस्ट तू गिन नहीं रहा है।

अभी एक कॉलेज में सेशन हुआ, वहाँ मैंने बोला, गुड स्पिरिचुएलिटी इज़ गुड इकोनोमिक्स। (अच्छा आध्यात्मिक्ता ही अच्छा अर्थशास्त्र है।) आदमी इकोनॉमिकली (आर्थिक रूप से) भी बैंकरप्ट (दिवालिया) होता है। मेंटली (मानसिक रूप से) तो होता ही होता है, इकोनॉमिकली भी होता है। उसको पता ही नहीं होता है कि लाभ क्या, हानि क्या। वो उल्टे-पुल्टे कैलकुलेशन कर रहा होता है और यही सोच रहा होता है कि मैं तो ख़ूब कमाता हूँ, ख़ूब कमाता हूँ।

संस्था में लोग हुए हैं, यहाँ भी सब अच्छे ही एजुकेशनल बैकग्राउंड (शैक्षिक पृष्ठभूमि) से हैं। तो उन सबके बैचमेट्स (सहपाठी) वग़ैरह होते हैं, वो दूसरी जगहों पर काम कर रहे हैं, टिपिकली आइटी इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं। और वो लोग जहाँ काम कर रहे हैं, वहाँ उनको संस्था जितना देती है, उससे तीन गुना, पाँच गुना मिल रहा हो — और ज़्यादा मिल रहा हो, कौन जाने — लेकिन फिर बीच-बीच में होता है, ये आकर बताते हैं कि बहुत बड़ा कोई ब्रैंड है, वो वहाँ काम करता है और मुझसे उधार माँग रहा था और मैंने दे भी दिया।

संस्था में जो लोग काम करते हैं, बहुत नहीं है लेकिन फिर भी इतना होता है कि बाहर वालों को उधार भी दे देते हैं। क्योंकि वो जो बाहर है, उसका बस पैकेज हाई है और पैकेज के साथ जो कॉस्ट है, वो और हाई है; बच नहीं रहा है उसका कुछ। और वो जो पैकेज है, उसके साथ जो उसको लाइफ़स्टाइल कम्पल्सैरिली मेंटेन (जीवनशैली को अनिवार्य रूप से बनाये रखना) करनी पड़ती है, वो और हाई है। तो उसका बच क्या रहा है! बस वो अपनेआप को सांत्वना दिये हुए है कि मैं उस्ताद हूँ, और ये देखो मेरा पैकेज, पैकेज!

तो इतना नहीं डरना चाहिए, न इतना सोचना चाहिए, 'हाय मेरा क्या होगा! हाय मेरा क्या होगा!' कुछ नहीं होता, मौज होती है। सही काम करो, मस्त होकर करो, डरने की कोई बात नहीं है। नहीं चलेगा तो दो साल बाद सोच लेना कि भूल हो गयी; और क्या। इतनी सारी भूलें तो वैसे भी करते ही रहते हो, नहीं करते?

हज़ार तरीक़े की ग़लतियाँ हम करने को तैयार हैं, एक ग़लती सत्य के पक्ष में भी करके देख लो। या नहीं? क्या होगा, सबक मिल जाएगा, कह देना कि भई, ये अध्यात्म वग़ैरह या कि सही ज़िंदगी, ये सब बेकार की बातें हैं, आज़मा के देख लिया, ज़िंदगी के दो साल, चार साल दे दिये, अब नहीं करेंगे। अब हम जा रहे हैं अपना वापस कॉर्पोरेट में या जो भी धंधा था, दोबारा उसी में जा रहे हैं।

पर एक बार ज़िंदगी में बंदे को आजमा के तो देखना चाहिए न। मर-मुरा जाओगे ऐसे ही, क्या फ़ायदा! कोरे-कोरे बिलकुल! वो ऐसा ही होगा कि जैसे गोआ आये और एक भी बार पानी नहीं छुआ। ज़्यादातर लोग ज़िंदगी ऐसे ही जीते हैं — बीच की रेत खा जाते हैं बस। क्या किया? ‘रेत खा रहे थे, पानी नहीं छुआ।’ ऐसे जीना है?

कोई इतनी बड़ी चुनौती नहीं है, इतना कोई डरने की बात नहीं है। बाहर बैठे रहोगे, सोचते रहोगे तो डर लगता रहेगा, ज्वाइन द एक्शन (कर्म में उतरो)। डर लगना अपनेआप बंद हो जाता है।

और भी बातें होती हैं, देखो चीज़ बहुत दूर तक जाती है। लाइफ़स्टाइल डिसीज़न्स (जीवनशैली के चुनाव) बहुत बड़ा खर्चा होते है कि नहीं होते हैं?

ये अच्छे से समझ लो कि अगर अभी तुम एक साधारण क़िस्म की ग्लैमर (ठाठ-बाट) वाली नौकरी वग़ैरह कर रहे हो — अब जवान आदमी हो, तुम आगे शादी वग़ैरह करोगे — तो तुमको लड़की भी उस कंपनी जैसी ही मिलेगी। जैसे वो कंपनी है न, बाहर-बाहर से एकदम ग्लैमरस और भीतर-भीतर बहुत कॉस्टली , लड़की वैसी ही मिलेगी। तो तुम तनख़्वाह तो कमा लोगे, वो बचेगी क्या?

ये बात सही है कि नहीं?

ये जितने बड़े-बड़े ब्रांड्स हैं, ख़ासतौर पर मल्टीनेशनल ब्रांड्स , उनमें काम करते हुए आप क्या सात्विक मन रख सकते हो? बस पूछ रहा हूँ। आप वहाँ कैंटीन में भी बैठे हो, मीटिंग्स कर रहे हो, आउटिंग्स (सैर) कर रहे हो, कुछ भी कर रहे हो, वहाँ पर तो उसी तरह के लोग होते हैं, वो बातें भी वैसी ही करते हैं। तो वहाँ पर आपके जितने लाइफ़स्टाइल डिसिज़न्स होंगे, वो भी उसी तरीक़े के होंगे। और वो सब बड़े महंगे निर्णय होते हैं फिर।

वहाँ पर आपकी उम्र का कोई होगा, वो बात कर रहा होगा, 'हाँ भई, मैं बीएमडब्लू लेने की सोच रहा हूँ।’ एक दूसरा बैठा हुआ है, वो कह रहा है कि मैंने फ़लानी जगह पर फ़ोर बीएचके बुक करा दिया है ढाई करोड़ का। एक बैठा है, वो बोल रहा है, 'वो मेरी फ़ियॉन्से बोल रही है कि देखो, पेरिस तो हर कोई जाता है, मुझे मार्स जाना है।'

(श्रोतागण हँसते हैं)

यही सब तो बातें होती हैं, और क्या होता है। अब वहाँ पर बैठकर तुम क्या करोगे, तुम वहाँ बैठे गीता पढ़ोगे क्या? तुम भी वहाँ फिर किसी खर्चे का ही कार्यक्रम बनाओगे। तुम्हें लगता रहेगा कि कमा बहुत रहे हो। तुम कमा क्या रहे हो, तुम खर्च कर रहे हो।

और कुछ खर्चे हैं, देखो, जो शोभा भी नहीं देते। ठीक है, अभी तीस के तो नहीं हुए, कितने साल के हो?

प्र: छब्बीस।

आचार्य: छब्बीस के हो। अब छब्बीस की उम्र में अगर कोई बोल रहा है कि मुझे लग्ज़री कार (महँगी गाड़ी) खरीदनी है, तो ये बात कुछ जमती नहीं है। इस उम्र में तो तुम्हारे पास अच्छी बाइक होनी चाहिए। और अच्छा है कि तुम्हारे पास लग्ज़री कार के अभी पैसे न हों।

छब्बीस की उम्र में अगर तुम बाइक पर लद्दाख नहीं जा सकते, कार खरीद रखी है तो ये तुमने नाइंसाफ़ी कर दी अपने साथ। एक उम्र ऐसी आती है जिसके बाद तुम ख़ुद ही बाइक नहीं चला सकते। तब देख लेना गाड़ी वग़ैरह, ले लेना कार।

तुम्हारी उम्र में अगर तुम्हारे आसपास के लोग कह रहे हैं कि साहब, हमें तो कम्पलसैरिली फोर व्हीलर पर ही चलना है, तो वो अपने साथ नाइंसाफ़ी कर रहे हैं। तुम छब्बीस में अगर फोर व्हीलर पर चल रहे हो, कम्पलसैरिली वो भी, तो तुम बाइक पर चलने का जो मज़ा होता है, वो कब लोगे, बताओ न। और खर्चा तुमने पूरा कर दिया।

फोर व्हीलर भी तुमको पाँच-सात लाख वाला नहीं चाहिए, वो भी तुमको फिर बीस-तीस-पचास लाख का चाहिए। ये तो दोनों तरफ़ से मारे गये न। पहले तो पैसा खर्च कर दिया और दूसरी ओर बाइक का जो लुत्फ़ है, उससे भी वंचित रह गये। हाँ, ख़ुश होते रहे बस कि मैंने अपने घर के सामने, देखो, ये पार्क कर दी है। और फिर उसको अगर पार्क कर रहे हो तो फिर उसका इन्श्योरेंस भी दोगे साल का लाख रुपया और उसकी मेंटेनेंस कॉस्ट्स (रखरखाव की लागत) हैं वो भी बीयर (वहन) करो।

तो अवाइड हाई कॉस्ट लाइफ़स्टाइल स्पेशली एट योर एज (उच्च लागत वाली जीवनशैली से बचें, ख़ासतौर पर इस उम्र में)। आगे कभी अगर ज़िंदगी सही चलती रही तो पैंतीस के भी होओगे, पैंतालीस के भी होओगे, तब देख लेना, जो लग्ज़री आवश्यक हो तब कर लेना।

इस उम्र में तो कुछ और अनुभव होने चाहिए न। अच्छा लगता है कि पच्चीस-अट्ठाइस की उम्र में ही सेठजी बनकर बैठ गये! ऐसा व्यक्तित्व चाहिए? लेकिन अभी तो ऐसा ही सबका। सब सेठ जी बनकर बैठे हैं, सब।

वो बात ही सिर्फ़ यही कर रहे होते हैं, 'और तेरा इन्वेस्टमेंट (निवेश) क्या हुआ?' ये बड़ी अजीब बात है, पच्चीस-अट्ठाइस साल का जवान आदमी, वो और कोई बात कर ही नहीं सकता है, बस यही — फाइनेंस, फाइनेंस, फाइनेंस; इनवेस्टमेंट्स। सुक्खी लाला! लाला जी बन गये हैं।

अभी तो थोड़े ख़तरे उठाओ। मार पड़ेगी थोड़ी अधिक-से-अधिक, बुरे-से-बुरा यही होगा; खा लेना।

बात कुछ जम रही है या नहीं जम रही?

ये जो पैसे में लोटती हुई लाइफ़स्टाइल होती है न, वो भी ख़ासकर तुम्हारी उम्र में — जब अभी आप तीस के भी नहीं हुए हो लेकिन लोटे जा रहे हो पैसे में, लोटे जा रहे हो — ये गंदी लगती है, घिनौनी लगती है। पैसे की बात नहीं है, जवानी के सड़ जाने की बात है।

तुम किसको पसंद करोगे — इस उम्र में एक मोटा, चिकना, गोरा-गोरा, नाज़ुक, मुलायम सा, कोमल सा, उतर रहा है बीएमडब्लू से, उसको या एक थोड़ा घिसा हुआ, चोट खाया हुआ, चेहरे पर निशान लिए हुए है, ज़रा पत्थर सा जिस्म लिए हुए एक आदमी उतर रहा है, मान लो, एक बुलेट से; किसको पसंद करोगे? ये तुमसे नहीं पूछना चाहिए, ये देवियों से पूछना चाहिए।

अच्छा लगता है कि उम्र है अभी पच्चीस-सत्ताइस की लेकिन कोई इंडस्ट्री (उद्योग) है जिसका आजकल बाज़ार गरम है, तो उसमें तुमको नौकरी लग गयी और तुमको पैसे मिलने लग गये, तुमने झट से ईएमआइ पर मोटे पैसे से ये खरीद लिया, वो खरीद लिया और तुम वो लेकर घूम रहे हो। और ऐसों का चारित्रिक पतन तो होता ही है, उनके मुँह पर दिखने लग जाता है कि ये आदमी अब बिलकुल किसी घटिया चीज़ में लिप्त है। वैसा बनने में क्या रखा है?

जूते तो खरीद लिए दस हज़ार के, टाँगें ऐसी जो दौड़ नहीं सकतीं!

पैसा इसलिए होता है कि उससे हमको फ़ायदा हो। इसलिए होता है न? एकदम सीधी बात — पैसा हमारे फ़ायदे के लिए है। पर पैसा फ़ायदा न दे रहा हो, हाँ ज़िंदगी खाये जा रहा हो, तो पैसा फिर किसी काम का है?

जिनकी शादियाँ वग़ैरह हो गयी हैं, बच्चे-वच्चे हो गये हैं, वो जब डरते हैं, हिचकिचाते हैं कि हम कोई नया काम कैसे कर लें, तो मुझे थोड़ा समझ में आता है। पचीस साल वाले, तीस साल वाले, इनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ जाती हैं तो समझ में नहीं आता। तुम्हारे पास खोने को क्या है? तुम तो मौज करो। तुम्हें क्या समस्या है?

है, समस्या — पापाजी के अरमान। तुम पापाजी को भी बुलेट पर बैठाओ पीछे। बोलो, 'अरमान ये हैं और मैं पूरे करके रहूँगा। पीछे बैठ जाओ।’ और बाँध दो। बोलो, ‘पापाजी, आपने तो अपनी जवानी बर्बाद कर दी, अब मैं ज़रा पितृऋण चुकाता हूँ। पीछे बैठ जाओ और सीधे उनको भूटान लेकर जाओ।’ और ये हुआ औलाद का कर्तव्य। पिताजी की भी बर्बाद जवानी थोड़ा जागेगी।

मैंने करा था तीन-चार साल पहले, अपनी माँ को यहीं गोवा लेकर आया था। बाइक ली एक किराये पर, उनको पीछे बैठाया, मैंने कहा, 'बैठ जाइए बस थोड़ी देर के लिए, वहाँ तक उतार दूँगा।' पूरे दिन नहीं उतारा। (श्रोतागण हँसते हैं)

वो सत्तर साल की, वो बैठी हुईं हैं। पहले तो ये सब करा, मुझे मुक्के-वुक्के भी मारे पीछे से, फिर उनको आनंद आने लगा, बोले, 'ठीक है, बढ़िया।' क्रूज़र बाइक थी, वो आराम से सोफे की तरह बैठ गयीं, बोलीं, 'चलो, जहाँ चलना है।' यहाँ सड़कें बढ़िया हैं साउथ में, पूरे दिन उनको सड़कों पर घुमाता रहा मैं।

मैंने कहा, 'अब बताओ, ये बेहतरहै?' उनको अभी भी बहुत बीच-बीच में दुख हो जाता है — 'लाल बत्ती की गाड़ी पर चल रहे होते!' (श्रोतागण हँसते हैं)

जब होता है तो ये सब कहना शुरू कर देती हैं, ‘ये क्या कर रहे हो! लफंगों की टोली बना ली है।’

बात सिर्फ़ मज़ाक बन रही है या कुछ उसका मर्म समझ में आ रहा है?

सही काम करना सिर्फ़ सही काम नहीं होता, एक सही लाइफ़स्टाइल होती है। लाइफ़स्टाइल समझते हो कितनी मज़ेदार चीज़ होती है! नहीं चाहिए सही लाइफ़स्टाइल ?

सही काम, सही काम नहीं, सही ज़िंदगी होता है। और सही ज़िंदगी का मतलब खिचड़ी जैसा सात्विकता नहीं होती। डर जाते हो न कि कुछ बचेगा नहीं, कोई मसाला नहीं रहेगा, कोई स्वाद नहीं रहेगा।

सही ज़िंदगी दूसरी चीज़ होती है, उसमें बड़ी ताक़त होती है। सही ज़िंदगी में नमन (हाथ जोड़ते हुए) तो होता ही है, ताक़त (बाजू दिखाते हुए) भी होती है। नहीं चाहिए? नहीं चाहिए? फिर? अच्छा नहीं लगता?

अध्यात्म का मतलब हमने बस यही समझ रखा है, बस ऐसे (हाथ जोड़ते हुए)। और ये हमें बुरा लगता है — क्या है, बस ऐसे हैं, ऐसे हैं (हाथ जोड़ते हुए)। अध्यात्म का मतलब ताक़त भी होता है, ये; ज़िंदगी के सामने ऐसे खड़े हुए हैं, ऐसे (बाजू तानकर)। और आँखों में तेज है; फ़ालतू नहीं झुकना। क्योंकि जहाँ झुकना था वहाँ झुक चुके हैं, अब सौ बार थोड़ी झुकेंगे।

आ रही है बात समझ में?

प्र२: नमस्कार आचार्य जी, अभी जो हम चर्चा कर रहे थे इसी से सम्बन्धित मैं लेख पढ़ रहा था अभी कुछ समय पहले कि जो ग्लोबल डेब्ट लेवल (दुनिया की उधार का स्तर) है, वो लगभग तीन-सौ-पचपन लाख करोड़ डॉलर पार कर चुका है। और ये ग्लोबल जीडीपी का तीन गुना से भी ज़्यादा है। और दो-हज़ार-सात से अभी तक ये लगभग पाँच गुना बढ़ चुका है। तो अगर ये ग्लोबल जीडीपी का तीन गुना है तो इट्स बाउंड टू बी डिफॉल्ट (बाध्य रूप से ऋण चुकाने में विफल है)।

तो अब इससे दो बातें निकलती हैं कि एक तो दुनिया में वो लोग हैं, जो अपने लाइफ़स्टाइल को जो तथाकथित छवि दिखा दी गयी है, उसको जीने के लिए वो कर्ज़ा लिए जा रहे हैं। और एक दूसरी तरफ़ पर वो लोग हैं जिनके पास इतना पैसा है और उनकी मजबूरी बन चुकी है उन्हीं लोगों को देना जो ये डिफॉल्ट (कर्ज़ा चुकाने में विफल) होना ही होना है।

तो जिसके पास पैसा है, वो भी कुचक्र में फँसा हुआ है, जिसके पास नहीं है, वो भी फँसा हुआ है। तो जो हम ये चर्चा कर रहे थे, अगर ये ज्ञान या अगर स्पष्टता नहीं है किसी के पास तो वो इस कुचक्र का शिकार बनेगा ही बनेगा।

आचार्य: बिलकुल, बिलकुल बहुत बढ़िया तरीक़े से बयान करा है आपने। दो-हज़ार-सात में क्या हुआ था, याद है न? और वो कैसे हुआ था? पढ़ा था कि बात क्या थी? जहाँ पता था कि नहीं वापस आना है, वहाँ भी देना पड़ रहा था। नहीं तो आपके मालिक पूछेंगे कि कितना डिस्बर्स (ऋण वितरण) करा है।

मैनेजर्स के भी टारगेट होते हैं कि इतना लोन, होम लोन आपको इस क्वार्टर (चौमाही) में, इस साल में आपको डिस्बर्स करना ही करना है। और जिनको दे रहे हैं पता है कि… (नहीं लौटा पाएगा)।

तो दो तरह के वर्ग पैदा हो रहे हैं देखो, एक वो जिनकी तरफ़ सारा पैसा बहकर जा रहा है। उदाहरण के लिए, आजकल आपको इस तरह की ख़ूब यूट्यूब वग़ैरह पर इन्वेस्टमेंट एडवाइस (निवेश सम्बन्धी सलाह) मिलती हैं न कि पैसा लगाओ, पैसा लगाओ, पैसा लगाओ।

उसमें होता क्या है? उसमें बस यही होता है कि मासेज़ (लोगों का समूह) पैसा लगाते हैं, उनका पैसा डूबता है और वो सारा जो पैसा है, वो इकठ्ठा हो जाता है कुछ हाथों में। क्योंकि शेयर मार्केट में पैसा डूबने का मतलब क्या होता है? मतलब ये होता है कि एक हाथ से दूसरे हाथ में चला गया पैसा।

वहाँ कोई वैल्यू क्रिएशन (मूल्य सृजन) तो हो नहीं रहा है। आपको अगर लॉस (घाटे) पर अपना शेयर बेचना पड़ रहा है, इसका मतलब कोई और बैठा है जिसने उसे सस्ते दामों पर खरीद लिया। आपने सौ रुपये पर खरीदा था, आपको तीस रुपये पर बेचना पड़ गया, इसका मतलब कोई और शातिर बैठा है जिसने तीस रुपये में खरीद लिया, तो उसका तो मुनाफ़ा हो गया न।

तो वहाँ पर तो बस मनी चेंजिज़ हैंड्स (पैसा हाथ बदलता है)। तो हो क्या रहा है कि मासेज़ के पास से पैसा छिनता जा रहा है और कुछ शातिर हाथों में पैसा बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। इकॉनोमिक्स (अर्थशास्त्र) में एक कोफिशिएंट (गुणक) होता है जो इनकम इनइक्वलिटी मेज़र (आय असमानता को मापता) करता है। इकॉनोमिक्स से कोई है यहाँ पर? क्या? कौनसा कोफिशिएंट ?

श्रोता: गिनी कोफिशिएंट।

आचार्य: गिनी कोफिशिएंट। भारत में वो लगातार बढ़ता जा रहा है, लगातार। अमेरिका में तो पहले से ही बहुत हाई था। आय असमानता लगातार बढ़ती जा रही है। हम ये सोचते हैं कि जो लोअर मिडल क्लास है, मिडल क्लास (निम्न-माध्यम व माध्यम वर्ग) है, इसके पास कुछ पैसा आ गया है। मैं इसको किसी को समझा रहा था एक दिन, मैंने कहा, 'देखो, मध्यम वर्ग अगर यहाँ पर था दस साल पहले, तो यहाँ आया है (हाथों की सहायता से स्तर बताते हुए)।

लेकिन जो अपर मिडल क्लास (उच्च-माध्यम वर्ग) और उससे ऊपर वाला तबका है, वो अगर यहाँ पर था तो वो यहाँ चला गया है। ये सारा जो गेम (खेल) अभी चल रहा है, ये कॉन्सेंट्रेशन ऑफ वेल्थ (संपत्ति के संकेन्द्रण) का है, वेल्थ एंड पॉवर बोथ (संपत्ति और ताक़त, दोनों)।

ये सब तो आप जानते ही होंगे न कि दुनिया की नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा वेल्थ (संपत्ति) दुनिया के कितने प्रतिशत लोगों के हाथ में है — लेस देन वन परसेंट (एक प्रतिशत से कम)। क्योंकि अभी हम उसमें अनअकाउंटेड मनी (बेहिसाब धन) नहीं गिन रहे।

और ये प्रक्रिया बढ़ती जा रही है, बढ़ती जा रही है। अब जिनके हाथों में इतना पैसा आ गया है, उस पैसे का फिर क्या करते हैं, वो उस पैसे का इस्तेमाल करते हैं, जिनके पास नहीं है उनमें एस्पिरेशन (आकांक्षा) जगाने के लिए। कहते हैं, 'देखो हमारे पास है, तुम्हारे पास भी हो सकता है।’ कैसे हो सकता है? ‘तुम स्टार्टअप (नया व्यवसाय खोलना) करो न!' ये जो पूरा स्टार्टअप कल्चर (स्टार्टअप संस्कृति) है, इसमें ये भी एक बहुत बड़ी चीज़ है। क्योंकि स्टार्टअप का मतलब जानते हो क्या होता है—फंडिंग (अनुदान)।

अगर कोई स्टार्टअप नहीं करेगा, तो जो इतना पैसा लेकर के बैठे हैं, वो फंडिंग किसकी करेंगे। तो वो एक पूरा कल्चर बनाया जा रहा — एवरीबडी शुड स्टार्टअप, एवरीबडी शुड स्टार्टअप (हर किसी को नया व्यवसाय खोलना चाहिए)। क्यों स्टार्टअप करना है, किस दिशा में करना है, क्या काम ज़िंदगी में करने लायक़ है, इसकी कोई क्लैरिटी (स्पष्टता) नहीं। लेकिन एक ट्रेंड (चलन) बना दिया गया, फैशनेबल चीज़ बना दी गयी है, हर तरफ़ माहौल ऐसा है, एवरीबडी शुड स्टार्टअप।

और उस पूरी चीज़ के पीछे इकॉनोमिक्स है, ‘आप स्टार्टअप करो, मेरे पास इतना फ़ालतू पैसा पड़ा हुआ है, मैं लगाऊँगा। मैं लगाऊँगा। हाँ, वो लगाऊँगा भी तो मैं मुफ़्त में थोड़ी लगाऊँगा। जितना लगाऊँगा उस हिसाब से इक्विटी (हिस्सेदारी) भी तो मेरी होनी है।

ये समझ में आ रही है बात?

मैं आपको बताऊँगा कि देखो, वैसी भी ऐश की ज़िंदगी जी जा सकती है जैसी मेरी है। आप भी जोओ न, कैसे जियो — पर्सनल लेवल पर डेब्ट रेज़ (व्यक्तिगततौर पर उधार लेकर) करके जियो।

अमेरिका में सबसे बड़ा दानव है *क्रेडिट कार्ड डेब्ट*। वहाँ पर लोग जी ही क्रेडिट कार्ड पर रहे हैं। जब एक क्रेडिट कार्ड पर बहुत बढ़ जाती है, तो वो सारी डेब्ट वो किसी दूसरे बैंक को भेज देते हैं। वो बैंक कहता है, ‘ठीक है, पुराना वाला तुमसे इतना प्रतिशत ले रहा था, मैं तुम्हें कम पर दे दूँगा, आ जाओ, इधर आ जाओ।’ और एक बैंक से दूसरे बैंक में वो डेब्ट जो है नाचती रहती है।

वो बबल बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है, फिर से बर्स्ट (फट) हो जाएगा। ‘लेकिन जब तक बर्स्ट नहीं हो रहा तब तक ख़ुदा कसम ऐश हो जाती है।’ और उस ऐश के लिए हम मरे जा रहे हैं। ‘चार साल में बर्स्ट होगा न, चार साल तो ऐश कर लें। चार साल के बाद बैंकरप्ट (दिवालिया) हो जाएँगे।*

बड़ी-बड़ी कंपनियाँ बैंकरप्ट हो जाती हैं, बड़े-बड़े इंडिविजुअल्स बैंकरप्सी (व्यक्ति दिवालियापन) ही डिक्लेयर (घोषित) करते हैं। हम भी बैंकरप्ट हैं, चार साल तो ऐश कर लें। ये पूरा खेल चल रहा है। और उसको ग्लैमराइज़ (आकर्षक बनाना) किया जा रहा है, आम बंदे को आकर्षित करा जा रहा है कि तुम भी आओ, यू ऑल्सो ज्वाइन दिस, द गेम ऑफ बिग मनी। (तुम भी इसमें शामिल हो जाओ, मोटी रक़म का खेल।)

वो कुछ भी नहीं है, उसको इन्वेस्टमेंट की भाषा में कहते हैं, दे पिग्स आर बींग प्रिपेयर्ड फॉर स्लॉटर (सूअर काटने के लिए तैयार किये जा रहे हैं)। जो आम इन्वेस्टर होता है, उसको यही है, *’पिग्स आर बींग रेडीड फॉर स्लॉटर’*। ‘आओ, क्रिप्टो में लगाओ, क्रिप्टो में लगाओ।’

क्रिप्टो का कैसा अनुभव रहा तुम्हारा! (एक पुराने प्रतिभागी से पूछते हैं) ये हमारा भाई करोड़ों में बात कर रहा था, उसके नीचे बात ही नहीं करता था।

देखो, ट्रेंड्स कैन नॉट चैलेंज द फंडामेंटल्स (रुझान बुनियादी बातों को नहीं बदल सकते)। ये बात बिलकुल ध्यान रखो अच्छे से। फ़ाइनेंशियल मैनेजमेंट (वित्तीय प्रबंधन) का बेसिक (मूल) है ये — *ट्रेंड्स कैन नॉट चैलेंज द फंडामेंटल्स*। फंडामेंटल्स पर ध्यान दिया करो, प्रोफेशन में भी और जीवन में भी; ट्रेंड्स कम एंड गो, फंडामेंटल्स डोंट चेंज।* (रुझान आते जाते रहते हैं, बुनियाद नहीं बदलती।)

और इस पूरे फाइनेंशियल इनसेनिटी (वित्तीय पागलपन) के पीछे इनसेन फिलोसॉफी (पागल दर्शन) है। वो इनसेन फिलोसॉफी जो बस किसी भी क़ीमत पर थोड़ा सा सुख पा लेना चाहती है। और वो अपनेआप को आजकल इस रूप में भी व्यक्त करती है — लिव इन द मूमेंट; डू इट नाओ (इस पल में जियो; अभी करो) इत्यादि-इत्यादि।

वो जो वहाँ आप फिलोसॉफी पढ़ते हो न टीवी की स्क्रीन पर और सिनेमा हॉल्स में देखते हो, पॉपुलर कल्चर में जो फिलोसॉफी छायी है, वही फिलोसॉफी फिर अपनेआप को अभिव्यक्त करती है रॉन्ग फाइनेंशियल डिसिज़न (ग़लत वित्तीय निर्णय) के रूप में भी।

जब आपको सिनेमा हॉल की स्क्रीन पर कोई सिखा रहा होता है, शो मी योर फिज़ , तो वो वास्तव में आपको किसी लग्ज़री ब्रांडेड शोरूम में भेज रहा होता है कि वहाँ जाओ, वहाँ से फिज़ खरीदो और मुझे फिज़ शो करो; और फ़िजी ड्रिंक नहीं।

फिज़ माने जानते हो न क्या होता है! फिज़ का मतलब ही होता है कुछ ऐसा जिसमें कोई दम नहीं है, बस फिज़ है — गैस, फिज़ ; *’शो मी योर फिज़'*। मतलब चलन ही बना दिया कि मुझे अपनी वो चीज़ दिखाओ जिसमें कोई दम नहीं है, बस वो लगती बड़ी ज़बरदस्त है।

आप जब एक कोल्ड् ड्रिंक को खोलते हो या शेक करते हो तो *फिज़*… उसमें कुछ होता है! वो क्या होता है, वो गैस है। वो कह रहे हैं, ‘*शो मी योर फिज़*। तुम्हारे पास भी वैसी गैस होनी चाहिए।’ ये हम सबको गैसियस बनाये दे रहे हैं। फिज़ होनी चाहिए बस।

ज़रा भी एक, एक थोड़ा सा भी होशमंद समाज होता, हममें थोड़ी भी सेनिटी (चेतना) होती तो कोई हमको ऐसा विज्ञापन भी कैसे दिखाता — शो मी योर फिज़। अरे पागल! पर वो चल रहा है। और वो फिर एक फाइनेंशियल डिसीज़न भी बन जाता है क्योंकि हैं तो हम ही न। हम ही हैं जो वो मूवी देख रहे हैं, फिर हम ही हैं जो जाकर कहीं पर पैसा लगा देंगे, या कोई और निर्णय करेंगे जीवन का।

इसमें कुछ नहीं होता, जो शातिर लोग हैं, उनकी जेबें भरती जाती हैं। हालाँकि जेब भरकर भी उन्हें अंतत: कुछ मिलना नहीं है, पर वो अपनी जेबें भरते जाते हैं, भरते जाते हैं और जो आम आदमी है, वो हर तरीक़े से लुटता जाता है — आर्थिक रूप से भी और आंतरिक रूप से भी। हाँ, आर्थिक रूप से उसको ये लगता रहता है कि मैं थोड़ी-थोड़ी तरक़्क़ी कर रहा हूँ। पर वो समझता नहीं कि वो जितनी तरक़्क़ी कर रहा है, उसकी लाइफ़स्टाइल कॉस्ट उस तरक़्क़ी से कहीं ज़्यादा बढ़ा दी गयी है। तो तरक़्क़ी करने के बावजूद वो अपनेआप को लगातार कर्ज़ में पाता है।

बिलकुल ऐसा हो सकता है कि एक व्यक्ति एक समय पर तीस हज़ार ही कमाता था और उस समय उसके ऊपर कोई कर्ज़ नहीं था, मज़े में जी रहा था। और वही व्यक्ति अब लाख-दो-लाख कमाता है, लेकिन उसके ऊपर कर्ज़-ही-कर्ज़ चढ़ा हुआ है। दूर से देखोगे तो लगेगा इस व्यक्ति ने आर्थिक तरक़्क़ी करी है, पर क्या इसने तरक़्क़ी करी है? बोलो। और ये बात हम समझ नहीं पाते क्योंकि हम कभी हॉलिस्टिक पिक्चर (समग्र चित्र) नहीं देखते, हम पूरी चीज़ नहीं देखते।

कौन बेहतर है — एक व्यक्ति जो तीस हज़ार कमा रहा है लेकिन उसके ऊपर कोई कर्ज़ नहीं, कुछ नहीं बल्कि महीने का पाँच-दस बचा ही लेता है, ऐसा व्यक्ति या ऐसा व्यक्ति जो डेढ़ लाख, दो लाख कमा रहा है लेकिन उसके सिर पर कर्ज़-ही-कर्ज़ चढ़ा हुआ है? बोलो।

प्र: पहले वाला व्यक्ति।

आचार्य: पर हम चूँकि कभी भी पूरी तस्वीर नहीं देखते हैं तो हम कहेंगे, 'अरे! यार, ये तो कुल तीस ही तो कमाता है।' पूरी तस्वीर देखो न, पूरी बात करो।

और जब ये बैंकरप्सी डिक्लेयर करते भी हैं, मान लो, बड़े बैंक हैं, सरकारें उनको फ़ेल थोड़ी होने देंगी। आपको क्या लगता है एसबीआइ को या एचडीएफसी को या आइसीआइसीआइ को भारत सरकार फ़ेल होने दे सकती है? तो क्या किया जाएगा? उनको दिख गया है कि उनके एनपीए बहुत बढ़ गये हैं, तो क्या किया जाएगा? उनकी बुक्स की फिर क्लीनिंग की जाती है। उस क्लीनिंग का क्या मतलब होता है? कि उनके जितने भी एसेट्स थे, जो वास्तव में लाइबिलिटीज़ थे, जिनसे कुछ आना नहीं है, उनको कौन ले लेता है?

प्र: सरकार।

आचार्य: और सरकार के पास पैसा कहाँ से आ गया, वो आपका पैसा है। वो आपका पैसा है। तो ले-देकर के स्लॉटर तो पिग्स ही होते हैं। लेकिन बीच में अरमान पूरे जग जाते हैं कि हमने भी तो हाई लाइफ़ जी ली न, हम भी कुछ हैं।

अध्यात्म सिर्फ़ मंजीरा बजाने का नाम नहीं होता। आध्यात्मिक नहीं हैं अगर आप तो जीवन में कदम-कदम पर लुटेंगे, इंटरनली (आतंरिक रूप से) तो लुटेंगे ही फाइनेंशियली भी लुटेंगे।

प्र३: प्रणाम आचार्य जी, इसी से सम्बन्धित एक सवाल था। मैं भी टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री में हूँ और इन दिनों बिलियनेयर्स एक एंटी एजिंग टेक्नोलॉजी में बहुत सारा पैसा लगा रहे हैं। कल बात हो रही थी मौत की, ये देह की मौत तो निश्चित है। लेकिन ये लोग ऐसा करना चाहते हैं कि देह इन्फ़िनेटली (अनंत) चले। और लैब रिज़ल्ट्स (प्रयोगशाला परिणाम) में तो सफलता मिली उनको।

तो यदि ये टेक्नोलॉजी कामयाब होती है तो क्या होगा, इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

आचार्य: नहीं, पहली बात तो बिलकुल ऐसे कोई लैब रिज़ल्ट्स नहीं आये हैं, जो एजिंग को पलट दें। बिलकुल ऐसा नहीं हुआ। इस बारे में बहुत चर्चा चल रही है। और जो लोग पचास पार के हैं उनमें तो बहुत ही ज़्यादा चर्चा चल रही है इसकी।

ऐसा कहीं कोई रिज़ल्ट नहीं आया है कि एजिंग पलट दी जाएगी। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि आप पैंतीस की उम्र में ही साठ के हो गये थे, फिर उसके बाद आपने शरीर का, खानपान का ध्यान रखा, सही दवाइयाँ वग़ैरह भी ले लीं, तो पैंतालिस के होते-होते आप पचास के हो गये। तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपने अपनी उम्र को पीछे धकेल दिया है। क्योंकि पैंतीस की उम्र में आप कितने के हो गये थे — साठ के, और पैंतालीस की उम्र में कितने के हैं — पचास के, तो ऐसा लगेगा कि आप दस साल पीछे आ गये। दस साल पीछे नहीं आ गये हैं, आपने उम्र नहीं ढकेल दी है पीछे, बस आपने अपने कुछ पुराने पाप धो दिये हैं। उससे उम्र कम नहीं हो गयी है, वो नज़र का धोखा है बस।

ठीक है?

बाक़ी ये कोई नयी चीज़ नहीं है। बहुत लंबा जीने की आकांक्षा मनुष्य में हमेशा से रही है, हमेशा से बहुत उपाय भी किये जाते रहे हैं। कुछ हद तक वो उपाय सफल भी हुए हैं। यूरोप के कुछ देश हैं जहाँ औसत आयु ही पचासी-नब्बे साल हो रही है; पचहत्तर साल भारत में ही हो रही है। आम आदमी इतना तो कभी भी नहीं जीता था।

जब भारत आज़ाद हुआ सैंतालीस में, तो जानते हैं, भारतीयों की औसत आयु क्या थी? पच्चीस-तीस साल; मर जाते थे जल्दी से। बहुत हद तक तो उस औसत को गिराने का काम इन्फ्रेंट मोर्टालिटी ने कर रखा था कि बच्चा पैदा हुआ, मर गया।

ये सब होता रहेगा, आने-जाने वाली चीज़ें हैं। जो जन्म लेता है, वो मरेगा भी। और अगर आपकी सैल्स (कोशिकाओं) को इस तरह से बदल दिया गया कि वो मर नहीं सकतीं तो फिर इंसान, इंसान नहीं रहेगा, इंसान दूसरा हो जाएगा। पूरी कहानी ही पलट जाएगी।

पूछो क्यों? क्योंकि जो लोग चाह रहे हैं कि वो चार-सौ साल जियें, या अनंत समय तक जियें, वो ये चाह रहे हैं कि वो जैसे अभी जी रहे हैं, ऐसे ही जीवन चलता रहे। यही तो चाहते हो न। जब कहते हो, ‘मैं मरना नहीं चाहता’, तो आप वास्तव में ये कह रहे हो कि मेरा ये जो जीवन अभी है, ये चलता रहे। लेकिन अगर आप अमर हो गये तो आप अभी जैसे हो, वैसे रहे ही नहीं जाओगे। तो चलेगा तो, पर वो कुछ और ही चल रहा होगा।

आप अभी जो कुछ करते हो न अपने जीवन में, वो मौत की छाया के तले करते हो। ठीक? तो मौत की छाया के कारण आपका एक तरह का जीवन है, आपके सम्बन्ध हैं, आपके रिश्ते हैं, आपका प्रेम है, आपका घर-द्वार है, आपके विचार हैं, आपके कर्म हैं। वो सब इसलिए हैं क्योंकि मनुष्य को सत्तर-अस्सी में मर जाना होता है।

अब मरने से लगता है डर। तो हम कहते हैं, ‘जीवन जैसा चल रहा है, चलता रहे, बस मौत न हो।’ बात ये कि अगर मौत नहीं होगी तो जीवन जैसा है, जीवन भी नहीं होगा, वो कुछ और ही हो जाएगा। और वो जो हो जाएगा वो बड़ा भयानक होगा। फिर आप कहोगे, ‘काश! मौत आ जाए।’ ठीक है?

तो ये सब नासमझी की बातें होती हैं कि *एजिंग, एंटी एजिंग*। पर इंसान को करना पड़ता है, पुराने समय में ये राजाओं का फ़ितूर हुआ करता था, आज के बिलियनेयर्स का फ़ितूर है। कि और सब तो कमा लिया, सबकुछ जीत लिया, लेकिन मौत, मौत तो सामने खड़ी है। तो क्या करें? मौत को सामने देखकर फिर व्यक्ति पगला जाता है, वो विचित्र हरकतें करने लग जाता है।

उदाहरण के लिए, वो बहुत सारे बच्चे पैदा कर देगा, एक दर्ज़न बच्चे पैदा कर देगा। कहेगा, ‘मैं तो मरने जा रहा हूँ’, उसे पता है, ‘और पैसा बहुत है मेरे पास, तो जल्दी से बहुत सारे बच्चे पैदा कर दो। ये जीते रहेंगे, उससे मुझे लगेगा कि मैं नहीं मरा।’ या वो और कुछ बहुत ही ऊटपटांग हरकत करने लगेगा, इन्सेन हो जाएगा, पागल।

बहुत सारे बिलियनेयर्स के साथ यही हो गया है, वो बिलकुल विक्षिप्त हो गये हैं। और ये पृथ्वी के लिए बहुत ख़तरनाक बात है कि दुनिया के जो सबसे अमीर लोग हैं, जिनके पास सबसे ज़्यादा धन शक्ति है, वो बिलकुल विक्षिप्त हो चुके हैं। एकदम ऊटपटांग बातें कर रहे हैं और न जाने क्या निर्णय कर रहे हैं, अपने पैसे का किस दिशा में इस्तेमाल कर रहे हैं। पृथ्वी को बर्बाद करके बता रहे हैं कि दूसरे ग्रहों पर जाना है। जल्दी पृथ्वी को और बर्बाद करो ताकि जल्दी से दूसरे ग्रह पर जाएँ।

तो ये सब इसमें कुछ नहीं रखा, ये बाल-बुद्धि है। या तो कह दो पागल है, या कह दो बच्चा है।

प्र३: धन्यवाद आचार्य जी।

प्र४: प्रणाम आचार्य जी, मेरा प्रश्न था जीडीपी से रिलेटेड ही है। मैंने ख़ुद भी महसूस किया है, मैंने जब शुरुआत में आपके वीडियोज देखना चालू किये क्योंकि मैं वीगन हूँ, और मैंने ज़्यादातर जो स्प्रिचुअल टीचर्स देखे हैं, गुरु देखे हैं, वो वीगनिज़्म की न तो बात करते थे और न ही वो शायद ख़ुद हैं।

लेकिन जब मैंने ये पाया कि आप वीगन हैं और आप इतने एक्टिवली एनवायरनमेंट के लिए और वीगनिज्म पर बोलते हैं, काम कर रहे हैं। तो मैं आपके वीडियोज़ को सुनती थी। और अपने एक तरीक़े से मुझे लगता था कि एक तरीक़े से मेरा ईगो सार्टिस्फाय होता था कि हाँ, मतलब मैं तो अच्छी हूँ मतलब मेरे जैसे लोग हैं, तो मैं भी अच्छी हूँ लेकिन मैंने और वीडियोज देखे तो मेरे अंदर गहराई आयी।

एक तरीक़े से मैंने अपने मन का आईना देखा कि मेरे अंदर, वही जो आप बोल रहे हैं कि वो वेब (जाल) है। मतलब हर एक जो व्यक्ति है, वो एक सेल्फ डिल्यूजन में जी रहा है कि मैं एक अच्छा इंसान हूँ।

हर किसी की एक अलग डेफिनेशन है, अच्छाई की। मतलब मैं ऐसा हूँ, तो मैं अच्छा हूँ। मैं ये कर रहा हूँ, तो मैं अच्छा हूँ। या मैं ये हूँ, तो मैं अच्छा हूँ। और ये हर किसी की अलग है। और उनके अंदर इतनी गहराई भी नहीं है कि उनको आईना दिखाया जा सके।

जैसे कि जीडीपी उस पर भी बात हो रही थी तो अगर किसी व्यक्ति को बोला जाए कि लग्जरी होम्स ये जो खरीद रहे हो। आप उसमें इन्वेस्टमेंट कर रहे हो, आप एक बार उस चीज़ को देख लो कि वो कैसे आई है। तो वो लोग बोलते हैं कि हमने इतनी मेहनत की है और मेहनत करने वाले लोग अच्छे होते हैं।

तो इट इज राइट टू बाय डेब्ट होम ऑर बाय डेब्ट टू पर्टिकुलर फ्लैट (क्या ये सही है वह घर खरीदना या फ्लैट खरीदना)?

आचार्य: नहीं, ठीक है तर्क अपनेआप में यहाँ तक ठीक है कि मेहनत करी है, मेहनत से कुछ आया है और कुछ आया है हमारे पास तो हम उससे कुछ खरीद सकते हैं। अगर कुल बात इतनी सी होती तो ठीक थी।

पर कुल बात इतनी सी नहीं है न। कुल बात ये है कि आप मेहनत के लिए मेहनत नहीं करते। आप खरीदने के लिए नहीं खरीदते। आप जो कुछ भी करते हो उसके पीछे एक उद्देश्य होता है। क्या आप उस उद्देश्य से परिचित हैं?

आप ऐसे तो हो नहीं गये हो कि जीवन अब निष्प्रयोजन है, कुछ करना नहीं है, मॉर्निंग वॉक की तरह जीवन हो गया है, टहल रहे हैं बस। ऐसे तो नहीं हैं आप।

एक आम आदमी जो भी कुछ करता है, उसमें एक उद्देश्य, एक प्रयोजन, पर्पज़ होता है; होना चाहिए भी। और क्या है उचित उद्देश्य? उचित उद्देश्य ये है कि हमारी भीतरी हालत ख़राब है, हम जो भी कुछ कर रहे हैं, उस भीतरी हालत को सुधारने के लिए करते हैं। ठीक है न?

बच्चा पैदा होता है, हम उसे शिक्षा क्यों देते हैं? ज़रूरत क्या है? क्योंकि उसकी भीतरी हालत ठीक नहीं है और अगर आपने उसको शिक्षा नहीं दी तो वो हालत कभी सुधरेगी नहीं। तो शिक्षा निरुद्देश्य नहीं होती है न। और हम उसे शिक्षा देते हैं, इसी से सिद्ध हो जाता है कि हम जैसे हैं, प्रकृतिगत रूप से उसमें कहीं कुछ खोट ज़रूर है। अगर प्रकृतिगत रूप से ही हम बिलकुल भले-चंगे होते तो मुझे बताइए हमें शिक्षित करने की क्या ज़रूरत थी? या थी?

तो हमारे भीतर कहीं कमी है, कुछ खोट है, उसे ठीक करना होता है इसीलिए हम पढ़ते हैं, लिखते हैं। इसलिए हम नौकरी करते हैं, व्यवसाय करते हैं, कोई भी कर्म करते हैं। और भीतर जो गड़बड़ है या भीतर जो बीमारी है, उसे ही ठीक करने के लिए हम चीज़ें खरीदते भी हैं।

नौकरी वग़ैरह करना भी एक कर्म है और नौकरी से जो पैसा आया है, उसको खर्च करना भी एक कर्म है। ठीक? दोनो कर्म हैं न। सब कर्म सोद्देश्य होते हैं — सोद्देश्य माने क्या? पर्सपज़फुल — उनका कोई उद्देश्य होता है।

तो क्या उद्देश्य है नौकरी करने का? वो एक कर्म था और फिर नौकरी से पैसा आ गया, क्या उद्देश्य है पैसा खर्च करने का? वो पैसा काहे को खर्च करा? जो चीज़ घर लेकर आये या घर ही घर लेकर के आये, उदेश्य क्या है? पाना क्या चाहते हो? क्या ये बात हमें स्पष्ट है? या हम बस यूँही थाली के बैंगन की तरह गोल-गोल घूम रहे हैं? कुछ बात स्पष्ट भी है हमको?

आप बस सुबह दफ़्तर जाने के लिए ही दफ़्तर जाते हो? या उसके पीछे कोई विचार है? क्या आपने पहले थमकर, बैठकर शांति से सोचा है कि मैं जा ही क्यों रहा हूँ नौकरी करने? या कुछ भी करने?

जो पूरे तरीक़े से शांत हो गया हो, समाधिस्थ हो गया हो, अपने जीवन की मंज़िल पर ही पहुँच गया हो, सिर्फ़ उसको अधिकार है ये कहने का कि मैं तो जो भी करता हूँ, सहज ही, अनायास, बस कर देता हूँ। मैं सोचता नहीं, निर्विचार हूँ और निष्प्रयोजन जीवन जीता हूँ।

पर हम न तो शांत हैं, न मंज़िल पर पहुँच गये हैं; न हमारी जो आंतरिक बीमारी और हमारा खालीपन है, वो मिट गया है। ऐसा तो कुछ हुआ नहीं है। हम सभी में एक बेचैनी है, ख़लिश रहती है, उधेड़बुन लगी रहती है, भीतर द्वंद्व चलता रहता है न। ये सब है। जब हालत ऐसी है भीतर तो क्या आप कोई भी कर्म बस यूँही कर डालोगे? जवाब तो दो। या कोई भी कर्म इस हिसाब से करोगे कि जो भीतरी समस्या है, वो हल हो सके? नहीं? नहीं समझ रहे?

हम समस्याग्रस्त लोग हैं, इतना स्वीकार करना है या नहीं? और हमने कोई अपराध नहीं कर दिया है कि हम कह रहे हैं, ‘समस्याग्रस्त हैं।’ बच्चा पैदा ही होता है समस्या के साथ। तो ऐसा नहीं है कि विशेष रूप से पापी लोग हैं, कन्फेशन हो रहा है, वैसा नहीं।

तो अगर हम समस्याग्रस्त लोग हैं तो हमारा प्रत्येक कर्म किस दृष्टि से होना चाहिए भाई? कि वो समस्या को सुलझाए, तो नौकरी करने यूँही निकल जाओगे बस, मुँह उठाया निकाल लिए।

किसी शहर में बसना है, वो निर्णय ऐसे ही ले लोगे बस; हवा अच्छी है, बस जाओ। किसी से शादी-ब्याह करना है, ऐसे ही कर लोगे, बढ़िया दिखता है करलो या कुछ उसमें विचार करोगे, कुछ सोचोगे कि जो मेरी मूल समस्या है, उसका मेरे इस वर्तमान कर्म से क्या सम्बन्ध है, ये सोचोगे, नहीं?

मैं जो कुछ भी करूँगा, अपनी समस्या को सुलझाने के लिए करूँगा न बाबा। लेकिन हम नहीं करते। हम जब कर्म कर रहे होते हैं, हम जब निर्णय कर रहे होते हैं तो हम अपनी समस्या को बिलकुल भूल जाते हैं। हमें ये पूछते ही नहीं कि जो मेरी मूल समस्या है, वो हल भी हो रही है क्या इस कर्म से। और मैं कह रहा हूँ, अगर वो हल नहीं हो रही किसी कर्म से तो वो मत करो।

एक दफ़े मैंने यहाँ तक कह दिया था कि तुम सुबह उठकर के दाँत भी क्यों माँजते, ब्रश भी क्यों करते हो, पूछो तो; कुछ भी क्यों करते हो। तो लोगों को बड़ा विचित्र लगा था कि दाँत माँजने सोचना पड़ेगा, क्यों करते हैं। मैंने कहा, हाँ, उसमें भी सोचो, सोचो। क्या वो सिर्फ़ एक प्रथा बन गयी है, एक रिचुअल मात्र है या क्या उसका जो लाभ है वो बस आप शारीरिक तौर पर देख रहे हो कि ब्रश नहीं करेंगे तो कीड़ा लग जाएगा, बदबू आएगी।

कुछ विचार तो करो कुछ भी करने से पहले अपनी हक़ीक़त को याद तो रखो। और अगर आप उसको याद रखेंगे तो आप पाएँगे कि आप ज़्यादातर जो काम करते हैं, वो नहीं कर पाएँगे। साथ-ही-साथ बहुत सारे नए, ख़ूबसूरत, आवश्यक कामों को करने की संभावना खुल जाएगी। ऐसे ख़ूबसूरत और आवश्यक कार्य जो ज़रूरी होते हुए भी आपके ध्यान में हैं नहीं।

समझ में आ रही बात?

कोई भी कर्म सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात से तय होना चाहिए कि उसका मेरे मन की समस्या पर प्रभाव क्या पड़ेगा। वही पैमाना है, वही मापदंड है; वही तय करेगा, उसके अलावा कोई और नयी चीज़ तय कर सकती। कुछ खाने जा रहे हो, कुछ खाने जा रहे हो, क्यों खाने जा रहे हो, क्यों खा रहे हो। आप कहेंगे, पागल हो जायेंगे हर चीज़ में सोचेंगे तो। नहीं, पागलपन की बात नहीं है, पागलपन की बात वो है जो हम अभी करते हैं।

अभी पिछले कुछ महीनो से मैंने तय करा कि फिटनेस पर, शरीर पर और ध्यान देना है, वज़न कम करना है। तो खेलना-कूदना बढ़ा दिया है, जिम वग़ैरह थोड़ा ज़्यादा नियमित कर रहे हैं, शुभांकर भी मेरे साथ जाता है।

तो उसको मैंने एक चीज़ बोली, मैंने कहा, मेरे लिए भी ज़रूरी है, तेरे में ज़रूरी है चल दोनों याद रखते हैं। क्या? 'फूड इज फ्यूल नोट एंटरटेनमेंट'। जीवन में एक उद्देश्य है, जीवन में एक मंज़िल है, जहाँ पहुँचना है। उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए भोजन ईंधन है, फ्यूल है।

हम ग़लती कर रहे हैं देखो, हम भोजन को एंटरटेनमेंट की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं; तुम भी कर रहे हो, मैं अभी कर रहा हूँ, मनोरंजन समझ रहे हो न। कुछ बढ़िया-सा है, खा लिया, स्वाद आ गया, ये ग़लती कर रहे हैं।

अब से वो जब भी सामने आएगा, उसको फ्यूल की तरह देखना है, इंटरटेनमेंट की तरह नहीं। गाड़ी की टंकी में कोक थोड़ी भरोगे, फ्यूल डालना है न, मजेदार चीज़ थोड़ी डालनी है। डीजल डालो, डीजल! खाने को डीजल की तरह देखो।

कुछ भी कर रहे हो, उसका ताल्लुक जीवन और जीवन के उद्देश्य से बैठाओ। कुछ खाने भी जा रहे हो तो पूछो जीवन का क्या उद्देश्य है और जो मैं खाने जा रहा हूँ, क्या उससे उस उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता मिलेगी। अगर मिलेगी तो ये चीज़ खाऊँगा, नहीं मिलेगी तो मुझे नहीं खानी चाहिए। अगर खा रहा हूँ, तो ग़लती कर रहा हूँ।

बात समझ में आ रही है?

मेरे पास एक मिशन है। मुझसे ये बोला करते हैं, 'आप बाक़ी चीज़ें छोड़ दीजिये, आप ये सुनिश्चित करिए कि आप कम-से-कम बीस साल जिये। देवेश जी बोलते हैं, 'सबसे बड़ी चुनौती यही है, आप जीओ। आप जी जाओगे तो आप जो करना चाहते हो, हो जाएगा; मर मत जाना बस।'

तो अगर मुझे जीना है, तो मुझे उसी हिसाब से खाना होगा न, या मैं कह सकता हूँ कि मुझे बस पेट भरने के लिए खा रहा हूँ, नहीं मैं पेट भरने के लिए नहीं खा रहा मुझे मिशन के लिए खाना होगा।

बात समझ में आ रही?

मेरे पास मिशन है, मिशन तो सबके पास होना चाहिए। क्योंकि हम सब एक से ही पैदा होते हैं। मेरे पास एक उद्देश्य है, वो उद्देश्य तो साझा है न। एक आंतरिक अपूर्णता के साथ मैं पैदा हुआ, वही अपूर्णता आपमें भी है। तो आपका भी जीवन एक मिशन नहीं है?

और अगर आपका जीवन भी एक मिशन नहीं है, तो फूड को क्या होना होगा, फ्यूल। फ्यूल इंटरटेनमेंट नहीं हो सकता न। ये मैं जितना आपको समझा रहा हूँ, स्वयं को भी समझा रहा हूँ। क्योंकि मैं भूलता हूँ इस चीज़ को, फूड वाली चीज़ भूलता हूँ।

बात समझ रहे हो?

तो अब बताओ वो नौकरी काहे को कर रहे हो। तुम्हारे जीवन का जो केंद्रीय उद्देश्य है, क्या उसको पाने में वो नौकरी मददगार है। है तो करो, नहीं है तो काहे को जा रहे हो वहाँ रोज़, क्यों दिन ख़राब कर रहे हो।

फिर उस नौकरी से पैसा लेकर आये उससे क्या खरीदा, उससे क्या खरीदा। कमाना जितने ध्यान की बात है, खर्चना भी तो उतने ही ध्यान की बात है न। हम ये तो पूछते हैं, लोगों से क्या कमाते हो, कितना कमाते हो, कहाँ कमाते हो; ये किसी से नहीं पूछते, 'खर्चते कहाँ हो।' जबकि खर्चना भी बराबर का महत्व रखता है।

आप जहाँ खर्च कर रहे हो पूछोगे नहीं, यहाँ खर्च करने से क्या जो जीवन का मेरा उद्देश्य है, उसमें कुछ सहायता मिली, नहीं मिली तो यहाँ काहे को खर्च दिया। ज़िंदगी लगाकर, खून-पसीना लगाकर ये पैसा लेकर के आया था, जहाँ उड़ा दिया काहे को उड़ा दिया।

आप जैसे ही ये सवाल अपने सामने रखोगे, आपके खर्च की दिशा बदल जाएगी। खर्च आप तब भी करोगे लेकिन वहाँ फिर नहीं करोगे, जहाँ आप सामान्यत: कर रहे हो। पर्पस, पर्पस, पर्पस, पर क्यों? और पर क्यों का उत्तर देने के लिये आवश्यक है कि याद रखो मैं कौन हूँ? ये ही वेदांत है।

मैं कौन? जो समस्याग्रस्त है। अगर मैं समस्याग्रस्त हूँ, तो छोले-भटूरे से समस्या मेरी हल हो जाएगी क्या। भाई ये रिकॉर्ड कर लो और मुझे ही दस बार दिखा देना।

समझ में आ रही बात?

हमारी ऐसी-सी हालत है कि जैसे कैंसर का रोगी हो, और वो दवाई की दुकान पर जाकर के कभी पिंपल रिमूवर माँग रहा है, कभी ब्लीच माँग रहा है, कभी हेयर कलर माँग रहा है, बस वो एक चीज़ नहीं माँग रहा है, क्या? कैंसर की दवाई। बाक़ी सबकुछ उसको खर्चना है, मुझे ये भी चाहिए, वो भी चाहिए उसकी मूल समस्या क्या है, उसको पता नहीं, उस दिशा में कोई खर्च नहीं कर रहा है।

कैंसर हुआ, डेंटिस्ट के पास जाकर बैठा हुआ, कह रहा है, मुझे है न एकदम सफ़ेद कर दो। और वहाँ ख़ूब पैसा खर्च करा है उसने डेंटिस्ट के पास चालीस हज़ार लगाकर आ गया। सबकुछ एकदम सफ़ेद कराने में नए दांत ही लगा लिए पूरे।

तुझे पता भी है तुझे ज़िंदगी में क्या चाहिए, तू कहाँ अपनी ज़िंदगी खर्च कर रहा है। तू अपने पैसे कहाँ लगा रहा है, तुझे कुछ होश है। और अथाह पैसे तो किसी के पास नहीं होते, ग़लत जगह लगा दोगे तो नतीजा? सही जगह लगाने के लिए बचेगा ही नहीं। कभी होश आ भी गया कि ये सही जगह है, पैसा यहाँ लगना चाहिए तो पाओगे पैसा बचेगा ही नहीं।

आत्मज्ञान न होने का दुष्परिणाम देख रहे हो न। तो अध्यात्म कोई शौक या हॉबी नहीं होता। आप ये नहीं कह सकते आई एम इंट्रेस्टेड स्प्रिचुएलिटी एंड माई वाइफ इज नॉट , ये इंटरेस्ट की बात नहीं है; ये अनिवार्यता है, ये कम्पल्शन है। आपको आध्यात्मिक होना ही पड़ेगा। और जो आदमी आध्यात्मिक नहीं है, वो मुर्दे से बदत्तर है।

आप ये नहीं कह सकते कि *यू नो हैव सम इन्क्लिनेशन टुवर्ड्स स्प्रिचुएलिटी*। ये ऐसी सी बात है कि *आई हैव सम इनक्लीनेशन टू अस ब्रीडिंग*। भाई जिंदा रहना है तो पूरी साँस लेनी पडेगी, ये सम इन्क्लीनेशन क्या होता है।

समझ में रही ये बात?

किसी मॉल में आधी रात को सेल लगी, वहाँ भगदड़ मच गयी, लोग ज़ख्मी हो गये — यहाँ भी हुआ है। कहानी यहाँ पूरी नहीं होती है, असली बात ये है कि जो लोग वहाँ से सस्ते दामों पर चीज़ें खरीद के लाये, उनमें से कुछ को बाद में होश आया कि ये चीज़ें तो चाहिए ही नहीं। इतना सारा ले आये जो चाहिए ही नहीं था। ये हमारी पूरी ज़िंदगी की कहानी है।

हम वो सबकुछ ले आते हैं जो हमें चाहिए ही नहीं। और जो तुम्हें नहीं चाहिए और तुम ले आये हो, वही फिर ज़िंदगी का बोझ बनता है न। बाद में पछताते हो कि ये क्या उठा लाए। और जो वास्तव में चाहिए उसके अभाव के शिकार हैं हम।

जैसे कोई बच्चा कुपोषण का शिकार हो, उसके माँ-बाप इतने मूर्ख कि उसको चौकलेट-ही-चौकलेट खिलाते हैं, जो उसको चाहिए नहीं। और जो उसको फल चाहिए, सब्जियाँ चाहिए वो कभी खिलाया नहीं। जो उसको नहीं चाहिए वो उसके शरीर में घुस कर बैठ गया।

इतना मोटा हो गया वो, मोटा ख़ूब हो गया है और साथ-ही-साथ कुपोषण का शिकार है। विटमिन नहीं हैं, मिनरल नहीं हैं, सौ और चीज़ें हैं, जो उसके शरीर में नहीं हैं, फैट बहुत सारा है, ऐसे हम हैं। जो हमें नहीं चाहिए वो हमारे पास बहुत है, जो चाहिए उसका बस अभाव है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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