प्रश्न: रमण महर्षि कहते हैं कि, ‘स्वयं को जानो’, जैसे अगर ‘प्रश्न किया है तो पूछो कि प्रश्नकर्ता कौन है?’
वक्ता: ये स्वयं क्या है? कहाँ से जानोगे इसको?
श्रोता: इसी को तो जानना है।
वक्ता: अरे जब कहते हो ‘स्वयं’, तो कुछ वस्तु तो होती है न मन में जिसको जानना चाहते हो। ये स्वयं क्या है? ये रुमाल है, ये टेबल है, ये माइक है, ये दीवार है, ये स्वयं क्या है? किधर को तो इशारा करते हो न। एक शब्द कहीं से पकड़ के लाये हो न – स्वयं। जहाँ शब्द होता है, वहाँ शब्द के साथ एक वस्तु भी होती है, शब्द किसी वस्तु के साथ ही तो जुड़ा होता है? तो ये वस्तु क्या है जिसको जानना चाहते हो?
श्रोता: ये वस्तु एक इच्छा है मेरी।
वक्ता: ये मेरी किसकी? मेरी माने?
श्रोता: मैं
वक्ता: हाथ किधर को इशारा कर रहे हैं? ये क्या था? ये क्या हो रहा है?(श्रोता के शरीर की तरफ किये इशारे की नक़ल करते हुए) और इमानदारी के साथ बोलो न, मेरी माने किसकी?
श्रोता: मेरी मतलब शरीर की
वक्ता: हाँ, तो ये बोलो न कि शरीर के बारे में जानना चाहता हूँ, कि शरीर क्या है? सबसे पहली बात तो ये कि जिसे तुम स्वयं बोल रहे हो, उसके बारे में तुमने पहले ही पक्का कर रखा है कि वो शरीर है। तभी तो अपनी ओर ऐसे-ऐसे इशारा कर रहे हो। मेरी इच्छा! है न?तो सीधे बोलो कि शरीर क्या है, ये जानना है।
जान लो, शरीर के बारे में ही तो जानना है।
श्रोता: नहीं, जो शरीर को जानना चाहता है उसको जानना है। मतलब, मुझे मुझको जानना है।
वक्ता: ये अच्छा था, कि किसी को शरीर को जानने की इच्छा हो रही है, उसको जानना है। उसको शरीर को जानने की इच्छा कब होती है? किसी बस के पीछे भाग रहे हो, कहीं खड़े हो वहाँ डांट पड़ रही है, या तुम्हारा पसंदीदा भोजन सामने रखा है—उन क्षणों में कहते हो कि, ‘मुझे शरीर को जानना है?’ या काम वासना का बड़ा गहरा क्षण है – उस समय कहते हो कि, ‘मुझे शरीर को जानना है?’ कब कहते हो शरीर को जानना है?
श्रोता: जब परेशानी है, कष्ट हैं
वक्ता: तो जो ये जानने वाला है, ये खुद कुछ परेशान किस्म का ही है।
कोई परेशान चीज़ है, जो ये जानना चाहती है कि शरीर क्या है। पहले इसको नहीं जानें? कि ये परेशान चीज़ क्या है? जानों परेशानियों को; जब परेशानी है तो उसको जानों ! हम भूल ये कर देते हैं कि हम इस पूरी प्रक्रिया को बौद्धिक बना देते हैं, जबकि ये एक जीवंत प्रक्रिया है। ये तत्क्षण होने वाली प्रक्रिया है।
अभी जो हो रहा है, मन वही है। अभी, ठीक अभी! उसको जान लो, उसी पर ध्यान दो। उसके आगे-पीछे जाओगे तो कुछ किताबी, बौद्धिक से जवाब मिल जायेंगे जैसे: ‘तुम पंचकोश हो, तुम त्रिगुणातीत हो, तुम छठे कोष में निवास करते हो’। तुम्हें इस तरीके के उत्तर मिल जायेंगे। तुम्हारा इन उत्तरों से क्या भला होगा, बताओ? और कोई आकर सिद्ध कर सकता है कि पाँच नहीं आठ कोष होते हैं। और अलग-अलग तरह के साहित्य हैं, जिनमे अलग-अलग संख्याएँ भी चलती हैं। कोई कहता है, “चेतना के सात चरण”, किसी ने ग्यारह गिना दिए, किसी ने अठारह गिना दिए, कोई कहता है सिर्फ दो, कोई कहता है एक भी नहीं।
इससे तुम्हें क्या मिल जाएगा?
श्रोता: मुझे पहले बहुत इच्छा होती थी अध्यात्मिक ज्ञान इकट्ठा करने की, ‘मैं सब कुछ जान लूं’। अब धीरे-धीरे मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं कुछ जानूं नहीं, सब छूट जाए मेरा बस, ये बोझ हटे।
वक्ता: जो पूरा अध्यात्मिक साहित्य होता है, इसका पूरा उद्देश्य ही यही होता है कि तुमको इतना पका दिया जाए कि तुम सब छोड़ दो।
(सभी हँसते हैं)
इसीलिए कहा जाता है कि, ‘करो, करो और करो!’ और एक दिन ऐसा आयेगा कि तुम कहोगे, “धत तेरे की, हट!” और वो क्षण मुक्ति का क्षण होता है। मुक्ति और किसी चीज़ से थोड़ी चाहिए होती है, ये जो मुक्ति की पूरी आकांशा है इसी से मुक्ति चाहिए होती है।
कोई कहीं मुक्ति खोजता है, कोई कहीं मुक्ति खोजता है और जो सबसे जिद्दी आदमी होता है, वो आध्यात्म में मुक्ति खोजता है। आप समझ रहे हो इस बात को? किसी की कोई इच्छा होती है, किसी की कोई इच्छा होती है और जिसकी इच्छा सबसे सघन होती है, वो आध्यात्म की ओर मुड़ता है। तो, अध्यात्म बिलकुल आखरी हद है इच्छा की। कामवासना और ये सब तो बहुत छोटी-छोटी इच्छाएं है; आध्यात्म परम इच्छा है। तो, वो है ही इसलिए कि, इतनी बड़ी इच्छा करो कि थक हार के चूर हो जाओ, टूट जाओ और ख़त्म हो जाओ और कहो कि, “भैया नहीं चाहिए, रखो अपना जो भी कुछ है, रखो।”
श्रोता २: सर, हमको अभी तक ये बताया गया है कि मुक्ति का द्वार शास्त्रों से ही खुलता है। पर, सभी शास्त्र खुद समय की सीमा के अंदर आते हैं, तो इसका मतलब वो सिर्फ एक इशारा कर सकते हैं, वहाँ तक पहुंचा नहीं सकते। इसमें कुछ रहस्य है?
वक्ता: नहीं बिलकुल ठीक है; जो आपने बोला वो बात बिलकुल पूर्ण है, इसमें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता।
श्रोता २: तो फिर मुक्ति कैसे होगी?
वक्ता: मुक्ति होगी नहीं, क्योंकि?
मुक्ति है!
शास्त्र इसीलिए होते हैं ताकि वो आपसे ये उम्मीद छीन लें कि मुक्ति होगी, या मुक्ति हो सकती है, या संभव है। आपके पास उम्मीदें हैं; शास्त्र इसलिए होते हैं ताकि आपको नाउम्मीद कर दें। और जब आप नउम्मीद हो जाते हो कि, मुक्ति नहीं हो सकती, तब आप पाते हो कि मुक्ति है; हमेशा से थी।
आपकी ये कोशिश कि— मुक्ति हो जाए, यही आपको ये भ्रम देती थी कि बंधन है।
मुक्ति की कोशिश ही बंधन का भ्रम है।
मुक्ति की कोशिश छोड़ो तो आप पाओगे कि मुक्ति तो है ही है; सदैव, सर्वदा।
‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।