अतीत को पीछे कैसे छोड़ें?

Acharya Prashant

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अतीत को पीछे कैसे छोड़ें?
जो करना चाहिए, वह कर नहीं रहे, तो फिर तमाम चीज़ें परेशान करेंगी। ज़िंदगी छोटे मुद्दों में उलझी रहती है, तो मन अतीत में छटपटाकर भागेगा ना? मन को किसी भी तरीके से दुख नहीं चाहिए। जब किसी सुंदर कार्य में डूब जाओगे, पाओगे कि अतीत लापता हो गया। अगर आप अपने आप को कुछ ऐसा दे रहे हैं जो विराट है, तब न अतीत सताएगा, न भविष्य। सही काम में डूबो, जीवन में डूबो। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: अपने अतीत से कैसे बचें? कुछ बातें कभी-कभी आ जाती हैं जिनसे हम काफ़ी परेशान हो जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: वो बातें तो आती ही रहेंगी अगर खाली जगह देखेंगी। मन ऐसा ही है जैसे ट्रेन का जनरल डिब्बा। सीट अगर घिरी नहीं हुई है तो पाँच लोग आकर उस पर बैठने को तैयार हैं। और जनरल भी कहने की ज़रुरत नहीं, आरक्षित डब्बे में भी ये हो जाता है। घेर के बैठना पड़ता है ना? नहीं तो कोई भी आएगा और कब्ज़ा कर लेगा। फिर तुम याचना करते रहना, ज़ोर लगाते रहना। समय व्यर्थ करोगे, ऊर्जा व्यर्थ करोगे।

मन के पास अगर वो नहीं है जिसके लिए मन की गद्दी आरक्षित होनी चाहिए, तो फिर मन के पास बहुत सारा कूड़ा कचरा होगा। कोई भी आ कर मन पर कब्ज़ा कर लेगा।

कभी देखा होगा ना, जिसकी सीट है, वो आया नहीं, फिर क्या होता है? अरे! क़तार लगी हुई है कि वो हमें मिल जाएगी क्या? जिसकी गद्दी है, उसको दो। और उसको बुलाओ कि आपके लिए ही है, आप आइये। आप नहीं होंगे तो दो तरफ़ा नुक़सान है। पहला नुक़सान तो ये कि आप नहीं होंगे, और दूसरा नुक़सान ये कि आपकी जगह बहुत सारे कीड़े-मकौड़े होंगे। वो आ कर के सारी जगह घेर लेंगे।

बात आ रही है समझ में?

जब भी कभी किसी सत्कार्य में डूब जाओगे, पाओगे कि अतीत लापता हो गया। ना अतीत बचा ना भविष्य।

पर सही काम में डूबो तो! सही काम में डूबो, ध्यान में डूबो, जीवन में डूबो, आगा-पीछा कुछ नहीं सताएगा। और जो करना चाहिए, वो कर नहीं रहे। जैसे जीना चाहिए, वैसे जी नहीं रहे, तो फिर तमाम चीज़ें परेशान करेंगी। यादें भी, उम्मीदें भी, लोगों की बातें, आते-जाते मौसम, बदलती परिस्थितियाँ, हर चीज़ तैयार रहेगी मन पर कब्ज़ा कर लेने को।

समझ रहे हो?

जीवन को एक सार्थक दिशा दो। मन को एक समुचित केंद्र दो।

खाली कुर्सी पर देखा है, धूल कैसे जम जाती है? हम्म!

प्रश्नकर्ता: वर्तमान में कैसे जिया जाए? बार-बार ये जो दाएँ-बाएँ चले जाते हैं!

आचार्य प्रशांत: दाएँ-बाएँ कहाँ जाते हैं, आप? पहले तो ये बताइए।

प्रश्नकर्ता: वो विचार जो होते हैं, वो दाएँ-बाएँ बहुत जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: हाँ, आप ये तब थोड़े ही कहते हैं कि विचार दाएँ-बाएँ जाते हैं। आप ही चल देते हैं विचारों के साथ। जातें कहाँ हैं? ये बताइए।

प्रश्नकर्ता: कभी भूत में चले जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: वहाँ क्या है?

प्रश्नकर्ता: शायद मैं ये कर लेता तो वो हो जाता।

आचार्य प्रशांत: अब कोई यहाँ बैठा है, उससे मेरी बातचीत चल रही है। वो कभी बाहर उधर घूमने जाए, और कभी बाहर उधर घूमने जाए। तो मुझे उससे पूछना पड़ेगा ना कि भाई कहाँ जाते हो? खेल तो सारा यहाँ चल रहा है, तुम जाते कहाँ हो? आप बताइए आप जाते कहाँ हैं? वहाँ क्या आकर्षण है?

प्रश्नकर्ता: पता नहीं ।

आचार्य प्रशांत: अरे! ऐसे थोड़े ही!

प्रश्नकर्ता: मन बार-बार चला जाता है।

आचार्य प्रशांत: तो उससे पूछिए ना कहाँ जा रहा है?

प्रश्नकर्ता: उसको कैसे साधूँ? यही तो पता नहीं चल रहा है।

आचार्य प्रशांत: साधने की बात ही नहीं है। पहले पता तो हो कि जा कहाँ को रहा है? आपका बच्चा है, वो बार-बार घर छोड़ कर कहीं को जाता है, तो आप पता नहीं करना चाहेंगे वो कहाँ को जाता है?

प्रश्नकर्ता: जहाँ उसे लगता है शायद थोड़ा सुकून मिलेगा, शांति मिलेगी।

आचार्य प्रशांत: कहाँ जाता है?

प्रश्नकर्ता: भूत, भविष्य।

आचार्य प्रशांत: हाँ, वहाँ कहाँ? भूत काल में कहाँ पर जाता है?

प्रश्नकर्ता: कुछ अच्छे विचारों में चला जाता है। भविष्य में अगर कुछ अच्छी चीज़ ऐसी हो जाए तो!

आचार्य प्रशांत: वो जाता रहेगा, क्योंकि उसे वहाँ दुख से मुक्ति मिलती है, भले ही क्षणिक! समझियेगा।

दुख जीवन है आदमी का! दुख से मुक्ति दो तरह की होती है – एक होती है दुख से क्षणिक मुक्ति, उसको कहते हैं, ‘सुख’। और दूसरी होती है दुख से पूर्ण मुक्ति, उसको कहते हैं ‘आनंद’। मन को ‘दुख’ से मुक्ति तो चाहिए ही चाहिए। किसी भी तरीके से चाहिए। ‘सुख’ होता है, भूत में और भविष्य में। दुख से क्षणिक मुक्ति मिलती है, भूत में और भविष्य में। और दुख से वास्तविक मुक्ति मिलती है, ‘आनंद’ में जो कि होता है ‘वर्तमान’ में।

अब मन छटपटा रहा है, मन सबसे निचली हालत में है। सबसे निचली हालत का नाम है? दुख। उससे ऊपर की हालत का नाम है? ‘सुख’। और ‘सुख’ कहाँ है? कल्पनाओं में, भूत में, भविष्य में। और सबसे ऊँची हालत का क्या नाम है?

प्रश्नकर्ता: आनंद।

आचार्य प्रशांत: आनंद कहाँ है?

प्रश्नकर्ता: वर्तमान में।

आचार्य प्रशांत: वर्तमान में।

जो सबसे निचली हालत में है, अगर उसे सबसे ऊँची हालत नहीं भी मिल रही, तो भी वो कहाँ को चल देगा? जो बीच वाली हालत है। वो कहेगा, चलो ऊँचे से ऊँचा कुछ नहीं मिला, कुछ तो मिला। दुख से पूर्ण मुक्ति नहीं मिली, पर पलभर की राहत तो मिली! इसलिए मन भागता है। और अगर आप चाहते हैं कि वो ‘सुख’ की ओर ना जाए, भूत भविष्य की ओर ना जाए, तो फिर एक ही विकल्प है! क्या?

प्रश्नकर्ता: वर्तमान में रहें।

आचार्य प्रशांत: उसे आपको ‘आनंद’ देना पड़ेगा, वर्तमान में। अगर आप उसे वर्तमान में ‘आनंद’ नहीं देंगे तो वो तो छटपटा रहा है दुख से मुक्ति के लिए, और वो दुख से झूठी मुक्ति खोज लेगा, भूत में और भविष्य में।

एक ही तरीका है, ‘आनंदित जीवन जिएँ’। और आनंदित जीवन आता है किसी महत्त सत्ता को समर्पित हो कर। उसके बिना कोई आनंद नहीं।

आनंद का अर्थ ही होता है, ‘स्वयं से मुक्ति’! हम अपने ऊपर बहुत बड़ा बोझ होते हैं। और जब वो बोझ हटता है, तो मस्ती छा जाती है। उसको कहते हैं ‘आनंद’।

आप जब अपने से ज़्यादा बड़े किसी लक्ष्य को समर्पित हो जाते हैं तो आनंदित हो जाते हैं। आप जब अपनी छोटी छोटी व्यक्तिगत चिंताओं और आशाओं के पार कुछ देख लेते हैं तो आनंद उठता है। मन को वो आनंद दीजिए, नहीं तो वो छोटे मोटे सुख के खातिर इधर उधर भटकता ही रहेगा!

वर्तमान को परखिए! कैसा जीवन जी रहे हैं? क्या उसमें कुछ ऐसा है जो बहुत बड़ा हो, आनंददायी हो?

अगर है, तो मन नहीं भागेगा। अगर नहीं है तो निश्चित भागेगा।

सुबह से शाम, चौबीस घंटे जो कर रहे हैं ना उस पर दृष्टिपात कीजिए। पूछिए, इसमें ऐसा है क्या कि इसमें मन लग जाए, रम जाए?

छोटा बच्चा घर से भागता है न तो माँ बाप को ये सवाल करना पड़ेगा कि मेरे घर में ऐसा कुछ है क्या कि वो घर में टिका रहे?

और घर में अगर मौज है, मजा है, तो वो घर से क्यों भागेगा? घर की ओर गौर से देखिए! घर माने जीवन।

चौबीस घंटे में अगर आप, अपने आप को कुछ ऐसा दे रहे हैं जो उल्लासपूर्ण है, विराट है, तो मन आगे पीछे नहीं भागेगा। और अगर आपका जीवन घिरा हुआ है वही छोटी-छोटी बातों से, इसने ये कहा, उसने वो कहा, वही दो रुपया, चार रुपया। ये पा लूँ, ये बचा लूँ, क्या खाना है, क्या पहनना है, कौन बदनाम, दही के दाम, इन्हीं सब बातों से अगर घिरा हुआ है, तो मन तो छटपटा के भागेगा ना? वो कहेगा, यही करना है मुझे? कि आँवले गिन रहे हैं? दही के दाम पूछ रहे हैं? अखबार की छोटी से छोटी खबर, ऐसे पढ़ रहे हैं जैसे दुनिया हिली जा रही हो! व्यर्थ की बातचीत, गॉसिप में संलग्न हैं। दिन भर क्षुद्रताओं से ही घिरे रहते हैं। अगर जीवन ऐसा है तो मन तो छटपटा के भागेगा ना? कहेगा ये वर्तमान नहीं चाहिए! मुझे भूत की स्मृतियाँ प्यारी हैं, मुझे भविष्य की आशाएँ प्यारी हैं। ऐसा वर्तमान नहीं चाहिए, घटिया!

सुंदर वर्तमान दीजिए अपने आपको। तोहफा। फिर मन नहीं भागेगा। वर्तमान पर गौर करिए, उसमें सौंदर्य कितना है! उसे सुंदर करिए!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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