अस्तित्व की इच्छा || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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अस्तित्व की इच्छा || आचार्य प्रशांत (2013)

श्रोता: सर ये, ‘द सुप्रीम इज़ द यूनिवर्सल साल्वेंट’?

वक्ता: ‘द सुप्रीम इज़ द यूनिवर्सल साल्वेंट’। बहुत बढ़िया; कुछ नहीं है जो उसमें गल नहीं जाता, कुछ नहीं है जो उसमें लय नहीं हो जाता। हम ये तो हर समय बोलते रहते हैं कि “द सुप्रीम इज़ द अल्टीमेट सोर्स क्यूँकी देखो अहंकार को जन्म बड़ा प्यारा लगता है, तो उसको हम परम पिता तो बोलते रहते हैं, सोर्स माने पिता, “इट इज़ द अल्टीमेट सोर्स और ये बोलने में बड़ा मज़ा आता है। पर वो जो परम है, वो महामृत्यु भी है सब उसी में गल जाता है, सब उसी में वापस चला जाता है। पर क्या तुमने गौर किया कि हमने कभी उसे महामृत्यु नहीं बोला? हम उसे स्रोत तो बोलते रहते हैं, पर वो स्रोत ही नहीं है ,सिंक भी है। उसमें से सब उदय तो होता ही है, सब उस ही में वापस भी जाता है। ‘प्रलय’; प्रलय यानी लीन हो जाता है उसमें, उस ही को प्रलय कहते हैं।

महामृत्यु; इसी लिए ज्ञान को महामृत्यु भी कहा गया है, ज्ञान को, गुरु को महामृत्यु भी कहा गया है। शरीर तो जो मरता है वो छोटी-मोटी मौत है पर ज्ञान जो देता है तुम्हें वो महामृत्यु है, क्यूँकी तुम परम स्रोत में वापस चले जाते हो। तो तुम यहाँ क्यूँ आए हो?

श्रोता: मरने।

श्रोता: सर ये, ‘द सुप्रीम इज़ अ ग्रेट हार्मोनी’?

वक्ता: एक आदमी को हटा दो, पूरी दुनिया में कुछ भी कनफ्लिक्ट में नहीं है, सब सामंजस्य में है। आदमी के अलावा, सब कुछ सामंजस्य में है। आदमी अकेला है, जो ‘आउट ऑफ़ प्लेस’ है। औड मैन आउट की कुछ बात चल रही थी न? आदमी अकेला है, जो औड मैन आउट है, तुम कभी ये नहीं कह पाओगे- औड डॉग आउट, औड *डंकी आउट;* औड स्टोन *आउट ;* तुम्हें कहना ही पड़ेगा औड मैन आउट क्यूँकी आदमी ही औड है।

*{*एक पत्थर की ओर इशारा करते हुए} देखो! पत्थर नदी के साथ कैसे एक हो गया है, अब तुम कह नहीं सकते कि पत्थर कौन सा, नदी कौन सी? बिलकुल घिस के नदी जैसा हो गया है, ‘चिकना’, ‘रज़िस्टेंसलेस’ अब वो पानी को कोई रेज़िस्टेंस नहीं दे रहा, आदमी होता उसकी जगह पर तो क्या करता? क्या करता है? नदी को तोड़ेगा, फोड़ेगा, डैम बना देगा। वो ये थोड़ी न कहेगा कि मैं ही घिस जाता हूँ।

श्रोता: कहीं न कहीं जिसे हम विचार के स्तर पर जानते हैं वो शक्ति हमें मिली हुई है, कि ये तो सोर्स को, अस्तित्व को पता था कि यही है, जिसको कैंसर है। तो उस कैंसर से निकलने की दवा भी दी है।

वक्ता: बीमारी भी तो वही विचार है !!

श्रोता: बिमारी विचार ही है।

वक्ता: और दवा भी वही है और ये ग्रेस की बात है कि वही विचार किस दिशा जाता है। वही विचार तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है और वही विचार तुम्हारा दोस्त भी हो सकता है। तो तुम तो बस प्रार्थना करो की मेरा विचार…

वो है न, कि बन्दर जब आदमी को देखते हैं तो क्या बोलते हैं? ये हमारा वो बेटा है, जो इश्वर के साम्राज्य से निकाल दिया गया है। बेचारा!

{सभी हँसते हैं}

देखो इसका पतन हो गया, इसने क्या हालत कर रखी है अपनी।

श्रोता: कपड़े पहन लिए!

वक्ता: कपड़े पहन लिए; हद मचा दी, इससे घिनौनी हरकत कोई हो सकती है? कपड़े पहन लिए! बंदरों को तुम देखते हो तो सोचते हो कि हम विकसित हो गए; बंदरों से तो पूछो उनका क्या ख्याल है? फिर बन्दर बताएँगे कि वो क्या सोचते हैं आदमी के बारे में। कहेंगे “बेटा तो ये हमारा ही है, हम ही से निकला है, पर बड़ा पतन हो गया इसका”। सोचना शुरू कर दिया यार इसने, और तो और सोचना शुरू कर दिया। तुम इतना कैसे गिर सकते हो? तुम सोचने लगे! हमें देखो, हम तो नहीं सोचते; एक रही ये डाल, एक रही वो डाल, और कूद गए, सोचना क्या है?’’

{हँसते हुए}

किसी बन्दर को कभी विचार करते देखा है? आदमी ही बेचारा है जो…..

श्रोता: बन्दर को भी सुचवा देता है।

वक्ता: हाँ, जो बन्दर आदमी के पास रह जाए, वो जरुर सोचने लग जाएगा, ये बीमारी, हो सकता है उसको भी लग जाए। तुम सोचो न ये ठहर-ठहर के सोचने लगे {नदी की ओर इशारा करते हुए} और थोड़ी देर को वापस भी चली जाए कि इधर जाना भी है कि नहीं। एक बार को ये *एनीमेशन*मूवी ही बना लो जिसमें नदी सोच-सोच के बह रही है।

श्रोता : पत्थरों ने कपड़े पहने हुए हैं, कली सोच-सोच के खिल रही है।

वक्ता: और वो भी चुनिंदा तरह से। कोई आया है, उसके लिए खिल गयी, कोई आया है उसके लिए बंद हो गयी कि ‘मेरा रूप तो बस तेरे लिए है,जानेमन’ कि ‘मैं तो बस तेरे सामने खिलूँगी’, बाकियों के लिए पर्दा है और तुमने बुके बनाया, कलियाँ काट के और देने गये तो वो बंद हो गईं।

{सभी हँसते हैं}

“हम पर-पुरुष के सामने नहीं खिलतीं”।

श्रोता: ‘*यू स्पीक ऑफ़ माय एक्सपीरियंस,* *सब्जेक्टेड टू योर एक्सपीरियंस बिकॉज़ यू* थिंक दैट वी आर *सेपरेटबट ,* वी आर नॉट।’

वक्ता: मन एक है। जो अंतर है, जो तुम्हें ये दिखाते हैं कि मैं अलग हूँ, तुम अलग हो, वो अंतर बहुत सतही है वरना, मन एक है। मन के एक होने का सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि हम बात कर पाते हैं। जब मैं कहता हूँ नदी तो तुम उधर देखते हो। ये नदी नहीं बह रही है; ये मन बह रहा है चूँकि मन एक है इसी लिए सबको एक ही नदी दिखाई दे रही है। जिस हद तक हम सबके मन एक हैं, उस हद तक ये हमें एक ही नदी दिखाई दे रही है। नदी यहाँ है नहीं, चूँकि हम सबके मन एक हैं इसलिए सबको नदी दिखाई दे रही है। नहीं समझ में आ रही बात?

श्रोता: हल्की-हलकी।

वक्ता: कोई हो जिसका मन बिल्कुल ही अलग हो उसको यहाँ नहीं दिखाई देगी, नदी।

श्रोता: पर नदी तो होगी न या उसके लिए होगी भी नहीं?

वक्ता: नदी कुछ है ही नहीं; नदी सिर्फ एक, प्रक्षेपण ही है। फैक्ट नहीं है नदी; नदी जो है वो मन के सोचने का एक तरीका है और चूँकि हम सब एक ही तरीके से ऑपरेट करते हैं मानसिक तौर पर, इसीलिए सबको यहाँ नदी दिख रही है वरना, यहाँ नदी नहीं है। नदी सच नहीं है; यहाँ कोई गंगा नहीं है। जिन बातों को तुम फैक्ट बोलते हो, फैक्ट नहीं होते। हम ये तो जानते हैं कि इमेजिनेशन नकली है पर हम ये नहीं मानते कि फैक्ट भी नकली ही है। इमेजिनेशन होती है, फिर फैक्ट होता है, फिर ट्रुथ होता है; इमेजिनेशन नकली है ये आसानी से दिख जाता है, है न? पर फैक्ट भी नकली है; फैक्ट भी बस मन का एक तरीका है। जो कुछ भी तुम फैक्ट कहते हो, वहाँ समझ जाना कि बस इतनी सी बात है कि मुझे भी ऐसा ही लग रहा, उसको भी ऐसा लग रहा है और पूरी दुनिया को ऐसा ही लग रहा है, तो इसीलिए हम बोल देते हैं कि ये एक?

सभी श्रोता साथ में : फैक्ट है।

वक्ता: क्यूँकी सब को एक जैसी चीज़ लग रही है इसलिए वो फैक्ट है, पर सबको लग रहा है इससे ये नहीं साबित होता कि वो है, वो तो सबको लग रहा है और सब को इसलिए लग रहा है क्यूँकी हम सब के मन?

श्रोता {सभी एक स्वर में}: एक हैं।

श्रोता: सर आपने सेकंड पार्ट में कहा, जिस हद तक हमारे मन अलग अलग हैं….

वक्ता: जिस हद तक हमारे मन अलग अलग हैं, उस हद तक ये नदी अलग-अलग दिखाई देगी, ये नदी सबको थोड़ी थोड़ी अलग भी दिख रही है, वो इसलिए क्यूँकी कुछ हद तक मन अलग हैं; तो इसलिए नदी सबको थोड़ी अलग अलग दिख रही है।

श्रोता: तो क्या बन्दर को ये नदी कुछ और लगेगी?

वक्ता: ओ! बेशक़ यार, बेशक़।

श्रोता: और वो हम बता नहीं सकते कि क्या लगेगी क्यूँकी हम बन्दर नहीं हैं।

वक्ता: हाँ, वो हम बता नहीं सकते। ये पत्थर जो है इसको भी नदी दिख रही है पर ये उसे कैसे समझ रहा है वो तुम कभी नहीं जान पाओगे।

श्रोता: जैसे साँप अगर देखेगा तो उसे भी घिसटता हुआ सा…

वक्ता: तुम्हें क्या लग रहा है कि यहाँ पर सिर्फ तुम ही जिंदा हो क्या? सब कुछ ज़िन्दा है ये पत्थर, ये रेत सब ज़िन्दा है; पर उनके तरीके अलग हैं, उनका मन अलग है, तो इसीलिए ये नदी उनके लिए वो नहीं है जो, तुम्हारे लिए है। इस वक़्त यहाँ पर पंद्रह ही जिंदा लोग नहीं बैठे हैं; इस वक़्त यहाँ पर अरबों, करोड़ों जिंदा लोग हैं और यहीं डोल रहें हैं।

श्रोता: तो सर, मन का अलग होना एक पोसिबिलिटी है या..

वक्ता: होता ही है। अगर मन अलग न होते तो यहाँ दो शरीर कैसे बैठे होते?

श्रोता: शरीर अलग हैं।

वक्ता: बगैर मन के अलग हुए, शरीर अलग नहीं हो सकता; पहले मन अलग होता है फिर, शरीर अलग होता है। तुम उसके (एक दूसरे श्रोता की ओर इशारा करते हुए) शरीर को बोलते हो क्या, मेरा शरीर?

*{एक श्रोता से कहते हुए}*अपने पाओं पर मारो, मारो। {दुसरे श्रोता से पूछते हुए} लगी तुम्हें? अब समझ गए? शरीर अलग हैं यही इस बात का प्रमाण हैं कि मन अलग हैं। जो उसके मन को अभी अनुभव हुआ वो तुम्हारे मन को नहीं हुआ न।

श्रोता: जैसे ये कहा जाता है कि ‘बॉडी फॉलोस माइंड’।

वक्ता: एक ही हैं दोनों, पहले मन है, फिर शरीर है।

श्रोता: सर ये वाला- *“आई एक्सेप्ट एंड आई एम एक्सेप्टेड ”*?

वक्ता: बहुत बढ़िया, जैसे ये पत्थर है न रेज़िस्टेंसलेस, वैसे ही जीवन के प्रति जो रेज़िस्टेंसलेस हो जाता है, जीवन भी उसके प्रति रेज़िस्टेंसलेस हो जाता है।

तुम जीवन का प्रतिरोध करना छोड़ो, वो तुम्हारा प्रतिरोध करना छोड़ देगा और फिर तुम जो चाहोगे वही होगा।

नहीं समझे? तुम्हारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं अक्सर; वो इसलिए नहीं पूरी होतीं क्यूँकी तुम्हारा मन अस्तित्व के विरोध में खड़ा होकर के इच्छा करता है इसीलिए अस्तित्व की इच्छा और तुम्हारी इच्छा टैली नहीं करती, होगा तो वही जो अस्तित्व की इच्छा है। तुम्हारी इच्छा अस्तित्व की इच्छा से मेल नहीं खाती इसीलिए तुम्हारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं। जिस दिन तुम अस्तित्व का विरोध करना छोड़ दोगे, रेज़िस्टेंसलेस हो जाओगे, उस दिन तुम्हारी हर इच्छा तुरंत पूरी हो जाएगी; तुम इच्छा करोगे नहीं कि वो पूरी हो जाएगी। क्यूँ? क्यूँकी इच्छा तुम्हारी होगी ही नहीं, वो अस्तित्व की इच्छा होगी।

श्रोता: और अगर रेज़िस्टेंसलेस होने के लिए रेजिस्टेंस की ज़रूरत पड़े तो?

वक्ता: तो ठीक है। देखो, रेज़िस्टेंसलेस होने का मतलब समझना; रेज़िस्टेंसलेस होने का मतलब ये नहीं होता कि कोई बाहरी ताकत आ रही है और मैं उसे रेज़िस्ट नहीं कर रहा; इसका मतलब होता है कि अब कोई बाहरी ताकत है ही नहीं। रेज़िस्टेंसलेस होने का ये मतलब नहीं है कि मैं अब फुटबॉल हो गया हूँ और हर कोई लात मार रहा है; रेज़िस्टेंसलेस होने का मतलब ये है कि *अब मैं फुटबॉल नहीं रहा, अब मैं पूरा खेल हो गया हूँ*

श्रोता: इस पर ओशो का एक था, कि लोग जब ट्रेन में सफ़र करते हैं तो उनको ट्रेन से उतरने के बाद थकान इसलिए होती है क्यूँकि विरोध करते हैं, अगर उस ही के मूवमेंट के साथ हो लें तो थकान नहीं होगी, कोई थकान नहीं होगी।

वक्ता: जो रेज़िस्टेंसलेस हो गया, उसको कोई रेज़िस्टेंस देता नहीं और जो डिज़ायरलेस हो गया, उसकी हर इच्छा तुरंत पूरी हो जाती है। डिज़ायरलेस होने का मतलब समझ रहे हो न? जिसकी हर इच्छा, अस्तित्व की इच्छा है। डिज़ायरलेस होने का ये मतलब नहीं है कि कोई डिज़ायर ही नहीं है, डिज़ायरलेस होने का अर्थ है कि मेरी इच्छा अब परम की इच्छा है; अब वो मेरी इच्छा नहीं है, मेरी जो इच्छा है अब वो समष्टि की इच्छा है- इस अर्थ में मैं डिज़ायरलेस हूँ। मैं जो चाह रहा हूँ, अब वो वही है जो परम चाह रहा है। अब मेरा चाहना, मेरा चाहना नहीं है। अब जो भी इच्छा करोगे तुरंत पूरी होगी, अब तुम परम ही हो गये हो। तुमने इच्छा की नहीं कि पूरी हो जाएगी तो हममें से जो लोग भी पातें हों कि इच्छाएँ पूरी नहीं हो रहीं, वो ढूँढे, वो कहीं न कहीं अस्तित्व के विरोध में खड़े हैं। तुम अस्तित्व के विरोध में खड़े हो निश्चित रूप से कहीं न कहीं इसीलिए तुम्हारी इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं। तुम अस्तित्व का विरोध करना छोड़ो तुम्हारी इच्छाएँ पूरी होने लगेंगी।

श्रोता: सर इसे उससे रिलेट कर सकते हैं लाओ त्जु का एक कोट है कि *“इन नेचर नथिंग इज़ इन हर्री ,* *येट एवरीथिंग इज़ एकाम्प्लिश्ड* ?

वक्ता: हाँ, इस बात पर रिफ्लेक्ट करना कि हम किन तरीकों से; हम माने, हर व्यक्ति जो बैठा है यहाँ पर, हम किन तरीकों से अस्तित्व का विरोध कर रहे हैं? इसको देखना थोड़ा। तुम होनी को होने नहीं देना चाहते और होनी होकर रहेगी, इसी कारण तुम्हें कष्ट है। तुम्हारा सारा कष्ट ही इसी लिए है क्यूँकी तुम सत्य के विरोध में खड़े हो। तुमने गलत खेमा चुन लिया है, जो छोटे से छोटा कष्ट भी है, बस ये समझ लेना जहाँ भी कष्ट पाओ, वहाँ ये तलाशना कि मैं कहाँ पर विरोध में खड़ा हूँ। जहाँ भी कष्ट पा रहे हो वहीँ कहीं न कहीं सच के विरोध में खड़े हो।

श्रोता: विरोध पाना हमारा और हमसे किसी और का?

वक्ता: नहीं, तुम खड़े हो विरोध में, तुम…

श्रोता: एक तरीके से हम अपने ही विरोध में खड़े हैं।

श्रोता: सर, ये- *“एवरीथिंग इज़ अफ्रेड ऑफ़ नथिंग फॉर* वेन थिंग टचेस नथिंग इट बिकम्स *नथिंग ”*?

वक्ता: शून्य से सब घबरातें हैं, नथिंग मतलब वो जो स्वयं कुछ नहीं है, पर जिससे सब निकलता है उससे मन बहुत घबराता है। हालाँकि, मन की अंतिम तलाश भी वही है, पर मन उससे घबराता बहुत है।

श्रोता: क्यूँकी वो अज्ञात है, यही रीज़न है या कोई और भी?

वक्ता: यही है। *एवरीथिंग*, नथिंग से घबराएगा न; एवरीथिंग, एवरीथिंग है और नथिंग का अर्थ ही है कि जहाँ एवरीथिंग नहीं होता; तो मौत है। घबराएगा न?

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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